संस्कृति के नाम पर
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोशल इंजीनियरिंग परियोजना के तहत बच्चों को मेघालय से कर्नाटक लाया जा रहा है और उन्हें उनकी मूल संस्कृति से काटकर हिंदुत्व की घुट्टी पिलाई जा रही है. संजना की तहकीकात. सभी फोटो: एस राधाकृष्णा
कर्नाटक के 35 स्कूलों और मेघालय के चार जिलों में की गई तीन महीने की गहन पड़ताल के दौरान तहलका ने पाया कि साल 2001 से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सोशल इंजीनियरिंग की एक ऐसी परियोजना पर काम कर रहा है जिसके तहत अब तक मेघालय के कम से कम 1600 बच्चों को कर्नाटक में लाकर उन्हें कन्नड़ और तथाकथित भारतीय संस्कृति का पाठ पढ़ाया जा रहा है. मेघालय से लाए जाने वाले इन बच्चों के नवीनतम बैच में कुल 160 बच्चे थे जिन्हें संघ के करीब 30 कार्यकर्ताओं द्वारा सात जून को 50 घंटे का सफर तय करके बंगलुरु लाया गया था.
संघ के कार्यकर्ता तुकाराम शेट्टी ने तीन महीनों के दौरान तहलका के सामने बेबाकी से स्वीकार किया कि यह संघ और इसकी सहयोगी संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे एक बड़े अभियान का हिस्सा है
इस परियोजना के मुख्य संचालक संघ के कार्यकर्ता तुकाराम शेट्टी ने तीन महीनों के दौरान तहलका के सामने बेबाकी से स्वीकार किया कि यह संघ और इसकी सहयोगी संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे एक बड़े अभियान का हिस्सा है. उनका कहना था, ‘संघ ने इलाके में अपने विस्तार और ईसाई मिशनरी समूहों से निपटने के मकसद से एक दीर्घकालिक योजना बनाई है. ये बच्चे इसी का एक हिस्सा हैं. आने वाले समय में ये बच्चे हमारे मूल्यों का अपने परिवार के सदस्यों में प्रसार करेंगे.’ बचपन से ही संघ से जुड़े रहे शेट्टी कर्नाटक के दक्षिण कन्नडा जिले से ताल्लुक रखते हैं और उन्होंने अपने जीवन के तकरीबन आठ वर्ष मेघालय में, वहां की भौगौलिक स्थिति और संस्कृति का अध्ययन करने में बिताए हैं.
अगर मेघालय की बात की जाए तो ये देश के उन गिने-चुने राज्यों में है जहां ईसाई समुदाय कुल जनसंख्या का करीब 70 फीसदी होकर बहुसंख्यक समुदाय की भूमिका में है. बाकी 30 फीसदी में करीब 13 फीसदी हिंदू हैं और 11.5 फीसदी यहां के मूल आदिवासी हैं. सबसे पहली बार ईसाई मिशनरी यहां उन्नीसवीं सदी के मध्य में आए थे. व्यापक स्तर पर धर्मातरण के बावजूद आदिवासियों की एक बड़ी आबादी अभी भी अपने मूल धर्मों से जुड़ी हुई है और इसमें कहीं न कहीं धर्म परिवर्तन करने वालों के प्रति नाराजगी भी है. संघ, आदिवासियों की इसी नाराजगी का फायदा उठाना चाहता है और जैसा कि शेट्टी मानते हैं कि बच्चे और उनकी शिक्षा इसकी शुरुआत है.
बंगलुरु से करीब 500 किलोमीटर दूर उप्पूर में स्थित थिंकबेट्टू हायर प्राइमरी एंड सेकंडरी स्कूल उन 35 स्कूलों में से है जहां इन बच्चों को पढ़ाया जा रहा है. 2008 में छह से सात साल की उम्र के 17 बच्चों को मेघालय से यहां लाया गया था. स्कूल के प्रधानाध्यापक के कहने पर ये बच्चे एक-एक कर खड़े होते हैं और अपना परिचय स्थानीय कन्नड भाषा में देते हैं. मगर अध्यापक महोदय खुद अपना परिचय देने से ये कह कर इनकार कर देते हैं कि ‘आप बच्चों को देखने आए हैं, वे आपके सामने हैं. अगर मैं आपको अपना नाम बताऊंगा तो आप उसे मेरे खिलाफ इस्तेमाल करेंगीं.’ बस इतना पता चल पाता है कि वो एक पूर्व बैंक कर्मचारी हैं और कोने में खड़ी निर्मला नाम की महिला उनकी पत्नी है.
इसके बाद बच्चों से हाल ही में याद किया गया एक श्लोक सुनाने को कहा जाता है. घुटे सिर वाले ये बच्चे अध्यापक के सम्मान में गुरुर्बृह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वर:.. का पाठ करने लगते हैं. जिस हॉल में ये सब हो रहा है दरअसल वही इनके शयन, अध्ययन और भोजन, तीनों कक्षों का काम करता है. मेघालय के चार जिलों - रिभोई, वेस्ट खासी हिल्स, ईस्ट खासी हिल्स और जंतिया हिल्स से कर्नाटक में संघ से जुड़े विभिन्न स्कूलों में लाए गए ये बच्चे मूलत: खासी और जंतिया आदिवासी समुदायों से संबंध रखते हैं. परंपरागत रूप से खासी आदिवासी सेंग खासी और जंतिया आदिवासी नियाम्त्रे धर्म को मानते हैं.
जबरन थोपी जा रही दूसरी संस्कृति के तहत इन बच्चों जो किताबें दी जाती हैं वे बंगलुरू स्थित संघ के प्रकाशन गृहों में छपती हैंमंद्य जिले के बीजी नगर में स्थित श्री आदिचुंचनगिरी हायर प्राइमरी स्कूल के प्रधानाचार्य मंजे गौड़ा कहते हैं, ‘अगर ये बच्चे मेघालय में ही रहते तो ये अब तक तो ईसाई बन चुके होते. संघ इन्हें बचाने का प्रयास कर रहा है. जो शिक्षा बच्चे यहां प्राप्त करते हैं उसमें मजबूत सांस्कृतिक मूल्य स्थापित करना शामिल होता है. जब ये यहां से वापस अपने घर जाएंगे तो इन संस्कारों का अपने परिवारों में प्रसार करेंगे.’ जिन सांस्कृतिक मूल्यों की बात गौड़ा कर रहे हैं उनमें धार्मिक मंत्रोच्चार, हिंदू तीज त्यौहारों का ज्ञान और मांसाहारी भोजन, जो कि मेघालय में अत्यधिक प्रचलित है, से इन बच्चों को दूर रखना शामिल है.
मगर इससे होगा क्या? शेट्टी तहलका को बताते हैं कि छोटी उम्र में भारत के सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ाव और अनुशासन तो दरअसल पहला कदम है. ‘यह महत्वपूर्ण है कि ये बच्चे इन मूल्यों को कच्ची उम्र में आत्मसात करें. ये इन्हें हमारे और नजदीक और ईसाइयों की जीवन पद्धति से और दूर ले जाएगा. हम उन्हें श्लोक सिखाते हैं जिससे कि वे ईसाई धर्मगीतों को न गाएं. हम उन्हें मांस से दूर कर देते हैं ताकि वे अपने धर्म में रची-बसी जीव-बलि की परंपरा से घृणा करने लगें’ वे कहते हैं, ‘अंतत: जब संघ उनसे कहेगा कि गाय एक पवित्र जीव है और जो इसे मारकर खाते हैं उनका समाज में कोई स्थान नहीं है तो तो ये बो उसे मानेंगे.’ क्या इन बच्चों को आरएसएस के भावी झंडाबरदारों की भूमिका के लिए तैयार किया जा रहा है, इस सवाल पर शेट्टी केवल इतना कहते हैं कि वे किसी न किसी रूप में ‘परिवार’ का हिस्सा रहेंगे और इस बारे में समय ही बताएगा.
तहलका ने कई स्कूलों का दौरा किया और पाया कि विभिन्न स्कूलों में सिखाये जा रहे सांस्कृतिक मूल्यों में तो कोई खास फर्क नहीं है मगर आरएसएस की विचारधारा में कोई कितनी गहरी डुबकी लगाएगा ये इस बात पर निर्भर करता है कि वह बच्चा पढ़ता कौन से स्कूल में है. जो बच्चे मजबूत आर्थिक स्थिति वाले परिवारों से संबंध रखते हैं वे ऐसे स्कूलों में रहते हैं जहां पढ़ने और रहने की समुचित व्यवस्था होती है क्योंकि उनके परिवार इसका खर्च उठाने की स्थिति में होते है. इन अपेक्षाकृत सुविधासंपन्न स्कूलों में अनुशासन उतना कड़ा नहीं होता. मगर उत्तर-पूर्वी राज्य से आए इन बच्चों में से जितनों से हमने मुलाकात की उनमें से करीब 60 फीसदी कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले थे जो उप्पूर के थिंकबेट्टू जैसे नाम-मात्र की सुविधाओं और कड़े अनुशासन वाली व्यवस्था में रहते हैं.
खास बात ये है कि ज्यादातर स्कूल जिनमें इन बाहरी बच्चों को रखा गया है कर्नाटक के उस तटीय इलाके में स्थित हैं जो हाल के कुछ वर्षों में सांप्रदायिक हिंसा के केंद्र में रहा है. इनमें से कुछ स्थान हैं पुत्तूर, कल्लाड्का, कॉप, कोल्लुर, उप्पूर, डेरालाकट्टे, दक्षिण कन्नडा में मूदबिद्री और उडुपी और चिकमंगलूर जिले. इनके अलावा बच्चों को प्रभावशाली आश्रमों द्वारा चलाए जा रहे सुत्तूर के जेएसएस मठ, मांड्या के आदिचुंचनगिरी और चित्रगुड़ा के मुरुगराजेंद्र जसे स्कूलों में भी रखा गया है.
खास बात ये है कि ज्यादातर स्कूल जिनमें इन बाहरी बच्चों को रखा गया है कर्नाटक के उस तटीय इलाके में स्थित हैं जो हाल के कुछ वर्षों में सांप्रदायिक हिंसा के केंद्र में रहा है
मगर मेघालय के ये नन्हे-मुन्ने हजारों किलोमीटर दूर कर्नाटक में कैसे आ जाते हैं? इन्हें वहां से लाने का तरीका क्या है? तहलका ने जिस भी बच्चे या उसके माता-पिता से बात की सबका कहना था कि ये सब किये जाने के पीछे सबसे बड़ा हाथ तुकाराम शेट्टी का है.
आरएसएस से संबद्ध संस्था सेवा भारती के पूर्व कार्यकर्ता शेट्टी जंतिया हिल्स के जोवाई में स्थित ले सिन्शर कल्चरल सोसाइटी के सर्वेसर्वा हैं. हालांकि इस संगठन को तो कोई इसके मुख्यालय से बाहर ही नहीं जानता है किंतु तुकाराम या बह राम - मेघालय में शेट्टी इस नाम से भी जाने जाते हैं - का नाम यहां बच्चा-बच्चा जानता है. साफ है कि संगठन तो आरएसएस से जरूरी दूरी प्रदर्शित करने का जरिया भर है. राजधानी शिलॉंग से लेकर दूरदराज के गांव तक सभी जानते हैं कि बच्चों को कर्नाटक ले जाने वाला असल संगठन संघ ही है. इस संस्था के जंतिया हिल्स जिले में तीन दफ्तर हैं - जोवाई, नरतियांग और शॉंगपॉंग. इसके अलावा सेवा भारती और कल्याण आश्रम जैसे संगठन भी हैं जो बच्चों की पहचान करने और उन्हें कर्नाटक भेजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
स्थानीय सेंग खासी स्कूल में अध्यापक और कल्याण आश्रम में रहने वाले योलिन खरूमिनी कहते हैं, ‘हमसे उन परिवारों की पहचान करने के लिए कहा जाता है जो ईसाई नहीं बने हैं और जिनका अपने मूल धर्म से काफी जुड़ाव है. साधारणत: ये परिवार ईसाइयों के बारे में अच्छा नहीं सोचते. इनके सामने बच्चों को कर्नाटक में पढ़ाने का प्रस्ताव रखा जाता है. हम उन्हें हमेशा ये भी बताते हैं कि उनके बच्चों को सेंग खासी या नियाम्त्रे की परंपराओं के मुताबिक ही शिक्षा दी जाएगी.’ खरूमिनी की खुद की भतीजी कर्डमोन खरूमिनी भी कर्नाटक के मंगला नर्सिंग स्कूल में पढ़ती है.
कॉप (जिला उडुपी) के विद्यानिकेतन स्कूल की दसवीं कक्षा में पढ़ रही खतबियांग रिम्बाई विस्तार से बताती है कि कैसे 200 बच्चों को विभिन्न गांवों से बंगलुरु लेकर आया गया था. ‘हमें कई समूहों में बांटकर बड़े बच्चों को उनका इंचार्ज बना दिया गया. फिर शिलॉंग से हमें टाटा सूमो में बिठाकर ट्रेन पकड़ने के लिए गुवाहाटी ले जाया गया’ वो कहती है. बंगलुरु में उन्हें विभिन्न स्कूलों में भेजने से पहले आरएसएस के कार्यालय ले जाया गया था.
एक चौंकाने वाली बात तहलका को शिलॉंग के एक संघ कार्यकर्ता प्रफुल्ल कोच और थिकबेट्टू स्कूल के प्रमुख ने ये बतायी कि इस बात का हमेशा ध्यान रखा जाता है कि एक ही परिवार के दो बच्चों को हमेशा अलग-अलग स्कूलों में भर्ती किया जाए. ‘अगर वे साथ नहीं हैं तो उन्हें अनुशासित करना आसान होता है. अगर हमें उन्हें बदलना है तो उन पर नियंत्रण रखना ही होगा. उनका घर से जितना कम संपर्क रहे उतना ही बढ़िया.’
बाल न्याय कानून-2000 कहता है कि बच्चों के कानूनी स्थानांतरण के लिए इस तरह के सहमति पत्र अनिवार्य है. मगर इस कानून का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है
तहलका को एक ही परिवार के ऐसे कई बच्चे अलग-अलग स्कूलों में मिले - खतबियांग का भाई सप्लीबियांग रिंबाई केरल के कासरगॉड में स्थित प्रशांति विद्या निकेतन में पढ़ता है जबकि वो कर्नाटक में विद्या निकेतन स्कूल में पढ़ रही है. विद्यानिकेतन के ही एक और छात्र रीन्बॉर्न तेरियांग की बहन मैसूर के जेएसएस मठ स्कूल में पढ़ रही है. मंद्य के अभिनव भारती बॉइज हॉस्टल के बेद सिंपली की बहन विद्यानिकेतन में पढ़ती है. मंद्य जिले के आदिचुंचनगिरी स्कूल में पढ़ने वाले इवानरोई लांगबांग की भी बहन डायमोन्लांकी शिमोगा के वनश्री स्कूल में पढ़ती है. यहां ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता जिसमें एक ही परिवार के दो या ज्यादा बच्चों को एक साथ पढ़ने दिया जा रहा हो. ऐसा क्यों किया जा रहा है पूछने पर ये बच्चे कुछ बोल ही नहीं पाते.
जब तहलका ने बच्चों के परिवारवालों से पूछा कि वे अपने बच्चों को अलग-अलग क्यों रख रहे हैं तो उनका जवाब था कि इस बारे में उन्हें काफी बाद में जाकर पता लगा. खतबियांग और सप्लीबियांग की बड़ी बहन क्लिस रिंबाई बताती हैं, ‘जब वे गए थे तो हमें बस इतना पता था कि वे बंगलुरु जा रहे हैं. हमें स्कूल के बारे में कुछ पता ही नहीं था. ये तो काफी बाद में हमें पता लगा कि वे अलग कर दिये गए हैं और बंगलुरू में नहीं है. खतबियांग ने हमें ये भी बताया कि वो फिर से कक्षा सात में ही पढ़ रही है.’ जंतिया हिल्स में रहने वाला रिंबाई परिवार काफी समृद्ध है और बच्चों के पिता कोरेन चिरमांग आरएसएस से सहानुभूति रखने वालों में से हैं जिन्होंने अपने बच्चों के अलावा और भी कई बच्चों को कर्नाटक भेजने में अहम भूमिका निभाई है. ‘वे पहले काफी सक्रिय रहा करते थे मगर हाल ही में काफी बीमार होने की वजह से आरएसएस के साथ दूसरे गांवों में नहीं जा पा रहे हैं.’ क्लिस कहती हैं.
अपने भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान और वातावरण से दूर रहने का इन छोटे-छोटे बच्चों पर अलग-अलग तरीके से असर पड़ रहा है. जिन स्कूलों में भी तहलका गया वहां के हॉस्टल वॉर्डन, अध्यापकों और स्वयं बच्चों ने ये स्वीकारा कि मेघालय के उनके गांव और कर्नाटक के उनके स्कूलों की हवा-पानी में काफी अंतर होने की वजह से बच्चों को तरह-तरह की शारीरिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. चमराजनगर के दीनबंधु चिल्ड्रंस होम के सचिव जीएस जयदेव के मुताबिक मेघालय से आए छ: साल के तीन बच्चों - शाइनिंग लामो, सिबिनरिंगखेल्म और स्पिड खोंगसेइ - के शरीर पर कर्नाटक की भीषण गर्मी की वजह से लंबे समय तक जबर्दस्त चकत्ते रहे. थिंकबेट्टू स्कूल में भी कई बच्चे हमें ऐसे मिले जिनकी त्वचा पर कई महीनों से वहां रहने के बावजूद जलने के निशान साफ देखे जा सकते थे. नागमंगला में आदिचुंचनगिरी मठ द्वारा चलाए जाने वाले संस्कृत कॉलेज में पढ़ने वाले मेघालय के 11 बच्चों में से सबसे बड़े आयोहिदाहुन रैबोन ने तहलका को बताया कि मेघालय से आने वाले तीन छोटे बच्चे पिछले काफी समय से बीमार चल रहे हैं क्योंकि उन्हें स्कूल में दिया जाने वाला खाना रास नहीं आ रहा है.
इन बच्चों के ऊपर उन्हें अपने घरों से यहां लाए जाने का जबर्दस्त मानसिक प्रभाव भी पड़ रहा है. जिन भी स्कूलों में तहलका जा सका उनमें स्कूल के अधिकारियों ने बच्चों को बुलाकर उन्हें कन्नड में अपना परिचय देने का आदेश दिया. स्कूल के संचालकों के लिए तो ये बड़े गर्व की बात थी कि बाहर से आए ये बच्चे उनकी भाषा को इतने अच्छे तरीके से बोल पा रहे हैं. किंतु बच्चों पर अब तक सीखा सब कुछ भूलने का क्या असर हो रहा है इसकी शायद किसी को कोई परवाह नहीं. विभिन्न स्कूलों के अधिकारियों का दावा है कि मेघालय से आए बच्चे दूसरे बच्चों के साथ अच्छे से घुल-मिल गए हैं मगर सच तो ये है कि ऐसा हो नहीं रहा है. बच्चों से कुछ मिनटों की बातचीत में ही हमें पता लगता है कि कैसे स्थानीय बच्चे उनके अलग तरह के नाम और शक्लों को लेकर उनका मजाक बनाते हैं और इसलिए वे अपने जैसे बच्चों के साथ ही रहना पसंद करते हैं.
हमने एक कक्षा में पाया कि जहां स्थानीय बच्चे एक बेंच पर चार के अनुपात में बैठे हुए थे वहीं मेघालय से आए छ-सात बच्चे एक-दूसरे के साथ बैठने की कोशिश में बस किसी तरह बेंच पर अटके हुए थे. जहां इन बच्चों की संख्या काफी कम है वहां ये अपने में ही गुम रहने लगे हैं. बड़े बच्चों के लिए स्कूल की भौगोलिक स्थिति भी काफी निराश करने वाली है. बंगलुरु से करीब 150 किमी दूर नागमंगला में नवीं कक्षा में पड़ रहा इवानरोई लांगबांग अपनी निराशा कुछ इस तरह व्यक्त करता है, ‘हमें बताया गया था कि में बंगलुरु में पढ़ूंगा. ये तो यहां आने के बाद मुझे पता चला कि ये बंगलुरु से काफी दूर है. यहां हम चाहरदीवारी से बाहर नहीं जा सकते और अगर कभी चले भी जाएं तो उसका कोई फायदा नहीं क्योंकि बाहर वैसे भी कुछ है ही नहीं.’
इन बच्चों को मेघालय से लाकर पूरी तरह से कन्नड़ भाषी माहौल में डुबो देने का नतीजा छमराजनगर में स्थित दीनबंधु चिल्ड्रन होम में देखा जा सकता है. यहां की केयरटेकर छह साल के एक बच्चे की प्रगति को बयान करते हुए कहती है, ‘सिबिन को यहां रहते हुए अभी दो ही महीने हुए हैं पर उसने काफी कन्नड़ सीख ली है. एक बार उसके घर से फोन आया तो उसने सवालों के जवाब कन्नड़ में देने शुरू कर दिए जो कि जाहिर है कि घरवालों की समझ में बिल्कुल नहीं आई.’ असंवेदनहीना देखिए कि इसके बाद केयरटेकर इतनी जोर से हंसती है जैसे कि यह कोई मजाक की बात हो.
फिर वह कहती है, ‘45 मिनट तक वह महिला जो कि शायद उसकी मां होगी, कोशिश करती रही. सिबिन के पास कोई जवाब नहीं था क्योंकि वह अपनी भाषा भूल गया था.’ इसके बाद वह सिबिन को बताने लगती है कि रात के भोजन को कन्नड़ में क्या कहते हैं.
इस तरह से देखा जाए तो ये बच्चे जो शारीरिक और मानसिक नुकसान झेल रहे हैं वह सामान्य बोर्डिंग स्कूलों के बच्चों से अलग है. इन बच्चों को यहां लाने के पीछे का उद्देश्य कहीं बड़ा है यह कोच जैसे संघ कार्यकर्ता भी मानते हैं. सवाल उठता है कि इतनी छोटी उम्र के बच्चों को इनके मां-बाप आखिर क्यों इतनी दूर भेज रहे हैं? मेघालय के आठ गांवों की अपनी यात्रा के दौरान तहलका ने पाया कि ऐसे लोगों में से ज्यादातर गरीब हैं जो इस उम्मीद में अपने बच्चों को संघ को सौंप देते हैं कि उनकी देखभाल अच्छी तरह से हो सकेगी. इसका उनसे वादा भी किया जाता है. अक्सर ऐसे बच्चों का कोई बड़ा भाई या बहन पहले ही इस तरह के स्कूलों में पढ़ रहा होता है.
बारीकी से पड़ताल करने पर पता चलता है कि इस समूची प्रक्रिया में झूठ के कई ताने-बाने हैं. इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
मां-बाप ने लिखित रूप में अपनी सहमति दे दी है
जब तहलका ने कर्नाटक के इन स्कूलों का दौरा कर उनसे वे कागजात मांगे जो ये साबित कर सकें कि इन बच्चों का एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरण कानूनी है तो हमें गांव के मुखिया रैंगबा शनांग द्वारा हस्ताक्षरित पत्र दिखाए गए जिसमें लिखा गया था कि इनके परिवारों की माली हालत बहुत खराब है. इसके साथ ही हमें बच्चों के जन्म और जाति प्रमाणपत्र भी दिखाए गए. मगर किसी भी स्कूल ने कोई ऐसा पत्र नहीं दिखाया जिस पर बच्चे के मां-बाप के दस्तखत हों और जिसमें साफ तौर पर जिक्र हो कि बच्चे को किस स्कूल के सुपुर्द किया जा रहा है. मेघालय में भी तहलका जिन लोगों से मिला उनमें से भी किसी के पास इस तरह के हस्ताक्षरित सहमति पत्र की कॉपी नहीं थी. बाल न्याय कानून-2000 कहता है कि बच्चों के कानूनी स्थानांतरण के लिए इस तरह के सहमति पत्र अनिवार्य है. मगर इस कानून का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है. इस तरह से देखा जाए तो ये बच्चों की तस्करी जैसा है.
स्कूलों में सेंग खासी और नियाम्त्रे धर्मों की शिक्षा दी जाती है
खासी और जंतिया जनजाति में ईसाई धर्म अपना चुके लोगों और बाकियों के बीच तनातनी रहती है. संघ द्वारा ध्यान से ऐसे बच्चों को चुना जाता है जो गरीब घरों से हैं और अब तक ईसाई नहीं बने हैं. स्वेर गांव की बिए नांगरूम कहती हैं, ‘मुझसे कहा गया कि अपनी बेटी को धर्म परिवर्तन से बचाने का एक ही रास्ता है कि उसे बाहर भेज दो. अगर मैंने ऐसा नहीं किया तो चर्च मेरे बच्चों को ले जाएगा और उन्हें पादरी और नन बना देगा. मैं बहुत डरी हुई थी इसलिए मैं अपनी बेटी को वहां भेजने के लिए राजी हो गई.’ छह साल बीत चुके हैं मगर बिए को अब भी उस स्कूल के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है जहां उसकी बेटी पढ़ रही है. उसके पास कुछ है तो बस बेटी की कक्षा का एक फोटो. वह कहती है, ‘अगर मुझे पता चल भी जाए कि वह कहां है तो मेरे पास उस तक पहुंचने और उसे वापस लाने लायक पैसा नहीं है. पर मैं दूसरे बच्चे को कभी भी वहां नहीं भेजूंगी.’
बिए का टूटा-फूटा घर, जिसमें वह अपनी मां और तीन दूसरे बच्चों के साथ रहती है, उसकी गरीबी की कहानी कह देता है. इससे ये भी संकेत मिलता है कि आखिर क्यों लोग चाहकर भी अपने बच्चों को वापस नहीं ला पाते. दरअसल उनके पास इतना भी पैसा नहीं होता. कई लोगों का तहलका से कहना था कि उनके बच्चे संघ के जिन स्कूलों में पढ़ रहे हैं वहां उनके धर्म की शिक्षाएं दी जाती हैं. मोखेप गांव के जेल चिरमांग के घर में तहलका को फ्रेम में लगी एक फोटो दिखी. इसमें जेल की बेटी रानी चिरमांग को उसके स्कूल के संरक्षक संत श्री बालगंगाधरनाथ सम्मानित करते हुए नजर आ रहे थे. हमने जेल से पूछा कि भगवा चोले में नजर आ रहे ये संत कौन हैं तो उसका जवाब था कि वे एक सेंग खासी संत हैं जो उस स्कूल को चलाते हैं. उसकी आवाज में जरा भी शंका नहीं थी. बाद में पता चला कि उसका पति डेनिस सिहांगशे संघ का कार्यकर्ता है जिसने माना कि अपनी बेटी का उदाहरण देकर उसने कई दूसरे लोगों को अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजने के लिए राजी किया है. डेनिस के शब्दों में ‘लोगों की संघ के बारे में गलत धारणा है. मैं हमेशा उन्हें यही कहता हूं कि संघ उन्हें अच्छी शिक्षा और संस्कृति देगा.’
ज्यादातर मां-बाप इससे अनजान होते हैं कि इन स्कूलों में उनकी संस्कृति के बजाय किसी और ही चीज की घुट्टी पिलाई जा रही है. जबरन थोपी जा रही दूसरी संस्कृति के तहत इन बच्चों जो किताबें दी जाती हैं वे बंगलुरू स्थित संघ के प्रकाशन गृहों में छपती हैं. जेएसएस स्कूल की लाइब्रेरी भारतीय संस्कृति प्रकाशन से छपकर आईं उन किताबों से भरी पड़ी है जो संघ की विचारधारा पर आधारित हैं. इनमें सेंग खासी या नियाम्त्रे धर्म की शिक्षाओं का कोई अंश नजर नहीं आता.
बच्चे निराश्रित और असहाय हैं
गैरआदिवासी समाज में पिता के परिवार को छोड़ देने से परिवार को निराश्रित माना जाता है. मगर मेघालय के आदिवासी समाज में ऐसा अक्सर देखने को मिलता है कि पुरुष किसी दूसरी स्त्री के साथ रहने लगते हैं और बच्चों की जिम्मेदारी मां संभालती है. अगर मां की मौत हो जाती है तो बच्चे को रिश्तेदार पालते हैं.
बच्चों को खुद को अच्छी तरह से नए माहौल के मुताबिक ढाल लिया है
जब बच्चे मेघालय छोड़ रहे होते हैं तो न तो उन्हें और न ही उनके मां-बाप को ये पता होता है कि उन्हें आखिरकार कहां ले जाया जाएगा. कमजोर आर्थिक हालत और स्कूलों में सुविधाओं के अभाव के चलते मां-बाप का बच्चों से सीधा संपर्क नहीं हो पाता. संघ मां-बाप को बताता है कि उनके बच्चे खुश हैं और नए माहौल में काफी अच्छी तरह से ढल गए हैं. मगर हकीकत कुछ और ही होती है. विद्या निकेतन में छठवीं का छात्र रापलांग्की ढकार इंतजार कर रहा है कि उसके चाचा आएंगे और उसे घर ले जाएंगे. वह कहता है, ‘हम तभी वापस जा सकते हैं जब हमारे घर से लोग यहां आएं और हमें अपने साथ ले जाएं. हर साल जब पढ़ाई खत्म होती है तो हम सुनते हैं कि हमें वापस ले जाया जाएगा. मगर दो साल हो गए हैं.’
तहलका जिन बच्चों से मिला उनमें से सिर्फ दो ही ऐसे थे जिन्हें घर लौटने का मौका मिला था. रापलांग्की के कस्बे रालिआंग में जब तहलका ने उसके चाचा से पूछा कि वे अपने भतीजे को लेने क्यों नहीं गए तो वे हैरान हो गए. उनका कहना था, ‘मुझे तो इसमें जरा भी शंका नहीं थी कि मेरा भतीजा अच्छी तरह से वहां रम गया है. जोवाई में संघ की हर बैठक में हमें आश्वस्त किया जाता है कि बच्चे खुश और स्वस्थ हैं.’
बच्चों और उनके अभिभावकों के बीच सीधा संपर्क यानी फोन कॉल अभिभावकों की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है. अगर मां-बाप बच्चे की पढ़ाई का खर्चा उठाने में असमर्थ हों तो बच्चों को मठों द्वारा चलाए जा रहे ऐसे स्कूलों में रखा जाता है जिनकी तुलना किसी अनाथाश्रम से की जा सकती है. यहां फोन की कोई सुविधा नहीं होती जैसा कि श्री आदिचुंचनगिरी मठ द्वारा संचालित हॉस्टल में देखने को मिलता है.
मगर संघ को इससे कोई मतलब नहीं. उसके लिए यह सब एक बड़े उद्देश्य के लिए चलाई जा रही प्रक्रिया का हिस्सा है. एक ऐसी प्रक्रिया जो न सिर्फ बच्चों के लिए शारीरिक और मानसिक यातना पैदा कर रही है बल्कि मेघालय की एक पीढ़ी को उसकी मूल संस्कृति से दूर भी ले जा रही है.
Saturday, September 12, 2009
आतंक के मोहरे या बलि के बकरे ?
01/08/08 04:32:00
हर शुक्रवार की तरह 25 जुलाई को भी मौलाना अब्दुल हलीम ने अपना गला साफ करते हुए मस्जिद में जमा लोगों को संबोधित करना शुरू किया. करीब दो बजे का वक्त था और इस मृदुभाषी आलिम (इस्लामिक विद्वान) ने अभी-अभी अहमदाबाद की एक मस्जिद में सैकड़ों लोगों को जुमे की नमाज पढ़वाई थी. अब वो खुतबा (धर्मोपदेश) पढ़ रहे थे जो पड़ोसियों के प्रति सच्चे मुसलमान की जिम्मेदारी के बारे में था. गंभीर स्वर में हलीम कहते हैं, “अगर तुम्हारा पड़ोसी भूखा हो तो तुम भी अपना पेट नहीं भर सकते. तुम अपने पड़ोसी के साथ हिंदू-मुसलमान के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते.”
तीस घंटे बाद, शनिवार को 53 लोगों की मौत का कारण बने अहमदाबाद बम धमाकों के कुछ मिनटों के भीतर ही पुलिस मस्जिद से सटे हलीम के घर में घुस गई और भौचक्के पड़ोसियों के बीच उन्हें घसीटते हुए बाहर ले आई. पुलिस का दावा था कि हलीम धमाकों की एक अहम कड़ी हैं और उनसे पूछताछ के जरिये पता चल सकता है कि आतंक की इस कार्रवाई को किस तरह अंजाम दिया गया. पुलिस के इस दावे के आधार पर एक स्थानीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें दो हफ्ते के लिए अपराध शाखा की हिरासत में भेज दिया.
त्रासदी और आतंक के समय हर कोई जवाब चाहता है. हर कोई चाहता है कि गुनाहगार पकड़े जाएं और उन्हें सजा मिले. ऐसे में चुनौती ये होती है कि दबाव में आकर बलि के बकरे न ढूंढे जाएं. मगर दुर्भाग्य से सरकार इस चुनौती पर हर बार असफल साबित होती रही है. उदाहरण के लिए जब भी धमाके होते हैं सरकारी प्रतिक्रिया में सिमी यानी स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया का नाम अक्सर सुनने को मिलता है. ज्यादातर लोगों के लिए सिमी एक डरावना संगठन है जो घातक आतंकी कार्रवाइयों के जरिये देश को बर्बाद करना चाहता है.
मगर सवाल उठता है कि ये आरोप कितने सही हैं?
एक न्यायसंगत और सुरक्षित समाज बनाने के संघर्ष में ये अहम है कि असल दोषियों और सही जवाबों तक पहुंचा जाए और ईमानदारी से कानून का पालन किया जाए. इसके लिए ये भी जरूरी है कि झूठे पूर्वाग्रहों और बनी-बनाई धारणाओं के परे जाकर पड़ताल की जाए. इसीलिए तहलका ने पिछले तीन महीने के दौरान भारत के 12 शहरों में अपनी तहकीकात की. तहकीकात की इस श्रंखला की ये पहली कड़ी है.
हमने पाया कि आतंकवाद से संबंधित मामलों में, और खासकर जो प्रतिबंधित सिमी से संबंधित हैं, ज्यादातर बेबुनियाद या फिर फर्जी सबूतों पर आधारित हैं. हमने पाया कि ये मामले कानून और सामान्य बुद्धि दोनों का मजाक उड़ाते हैं. इस तहकीकात में हमने पाया कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के पूर्वाग्रह, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और सनसनी का भूखा व आतंकवाद के मामले पर पुलिस की हर कहानी को आंख मूंद कर आगे बढ़ा देने वाला मीडिया, ये सारे मिलकर एक ऐसा तंत्र बनाते हैं जो सैकड़ों निर्दोष लोगों पर आतंकी होने का लेबल चस्पा कर देता है. इनमें से लगभग सारे मुसलमान हैं और सारे ही गरीब भी.
हलीम का परिवार
अहमदाबाद के सिविल अस्पताल, जहां हुए दो धमाकों ने सबसे ज्यादा जानें लीं, का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना था, “हम इस चुनौती का मुकाबला करेंगे और मुझे पूरा भरोसा है कि हम इन ताकतों को हराने में कामयाब होंगे.” उन्होंने राजनीतिक पार्टियों, पुलिस और खुफिया एजेंसियों का आह्वान किया कि वे सामाजिक ताने-बाने और सांप्रदायिक सद्भावना को तहस-नहस करने के लिए की गई इस कार्रवाई के खिलाफ मिलकर काम करें. मगर निर्दोषों के खिलाफ झूठे मामलों के चौंकाने वाले रिकॉर्ड को देखते हुए लगता है कि अक्षम पुलिस और खुफिया एजेंसियां कर बिल्कुल इसका उल्टा रही हैं. मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी इसका सुलगता हुआ उदाहरण है.
पिछले रविवार से ही मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उनमें पुलिस के हवाले से हलीम को सिमी का सदस्य बताया जा रहा है जिसके संबंध पाकिस्तान और बांग्लादेश स्थित आतंकवादियों से हैं. गुजरात सरकार के वकील ने मजिस्ट्रेट को बताया कि आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण देने के लिए हलीम मुसलमान नौजवानों को अहमदाबाद से उत्तर प्रदेश भेजा करते थे और इस कवायद का मकसद 2002 के नरसंहार का बदला लेना था. वकील के मुताबिक इन तथाकथित आतंकवादियों ने बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई दूसरे नेताओं को मारने की योजना बनाई थी. पुलिस का कहना था कि इस मामले में आरोपी नामित होने के बाद हलीम 2002 से ही फरार चल रहे थे.
इस मौलाना की गिरफ्तारी के बाद तहलका ने अहमदाबाद में जो तहकीकात की उसमें कई अकाट्य साक्ष्य निकलकर सामने आए हैं. ये बताते हैं कि फरार होने के बजाय हलीम कई सालों से अपने घर में ही रह रहे थे. उस घर में जो स्थानीय पुलिस थाने से एक किलोमीटर दूर भी नहीं था. वे एक सार्वजनिक जीवन जी रहे थे. मुसलमानों को आतंकवाद का प्रशिक्षण देने के लिए भेजने का जो संदिग्ध आरोप उन पर लगाया गया है उसका आधार उनके द्वारा लिखी गई एक चिट्ठी है. एक ऐसी चिट्ठी जिसकी विषयवस्तु का दूर-दूर तक आतंकवाद से कोई लेना-देना नजर नहीं आता.
दिलचस्प ये भी है कि शनिवार को हुए बम धमाकों से पहले अहमदाबाद पुलिस ने कभी भी हलीम को सिमी का सदस्य नहीं कहा था. ये बात जरूर है कि वह कई सालों से 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के पीड़ितों की मदद में उनकी भूमिका के लिए उन्हें परेशान करती रही है. हलीम के परिजन और अनुयायी ये बात बताते हैं. इस साल 27 मई को पुलिस थाने से एक इंस्पेक्टर ने हलीम को गुजराती में एक पेज का हस्तलिखित नोटिस भेजा. इसके शब्द थे, “मरकज-अहले-हदीस (इस्लामी पंथ जिसे हलीम और उनके अनुयायी मानते हैं) ट्रस्ट का एक दफ्तर आलीशान शॉपिंग सेंटर की दुकान नंबर चार में खोला गया है. आप इसके अध्यक्ष हैं...इसमें कई सदस्यों की नियुक्ति की गई है. आपको निर्देश दिया जाता है कि उनके नाम, पते और फोन नंबरों की सूची जमा करें.”
कानूनी नियमों के हिसाब से बनाए गए एक ट्रस्ट, जिसके खिलाफ कोई आपराधिक आरोप न हों, से की गई ऐसी मांग अवैध तो है ही, साथ ही इस चिट्ठी से ये भी साबित होता है कि पुलिस को दो महीने पहले तक भी सलीम के ठिकाने का पता था और वह उनसे संपर्क में थी. नोटिस में हलीम के घर—2, देवी पार्क सोसायटी का पता भी दर्ज है. तो फिर उनके फरार होने का सवाल कहां से आया. हलीम के परिवार के पास इस बात का सबूत है कि पुलिस को अगले ही दिन हलीम का जवाब मिल गया था.
एक महीने बाद 29 जून को हलीम ने गुजरात के पुलिस महानिदेशक और अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त को एक टेलीग्राम भेजा. उनका कहना था कि उसी दिन पुलिस जबर्दस्ती उनके घर में घुस गई थी और उनकी गैरमौजूदगी में उनकी पत्नी और बच्चों को तंग किया गया. हिंदी में लिखे गए इस टेलीग्राम के शब्द थे,“हम शांतिप्रिय और कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं और किसी अवैध गतिविधि में शामिल नहीं रहे हैं. पुलिस गैरकानूनी तरीके से बेवजह मुझे और मेरे बीवी-बच्चों को तंग कर रही है. ये हमारे नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है.”जैसा कि संभावित था, उन्हें इसका कोई जवाब नहीं मिला. अप्रैल में जब सोशल यूनिटी एंड पीस फोरम नाम के एक संगठन, जिसके सदस्य हिंदू और मुसलमान दोनों हैं, ने एक बैठक का आयोजन किया तो लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत के लिए संगठन ने पुलिस को चिट्ठी लिखी. इस चिट्ठी में भी साफ जिक्र किया गया था कि बैठक में हलीम मुख्य वक्ता होंगे. ये साबित करने के लिए कि हलीम इस दौरान एक सामान्य जीवन जीते रहे हैं, उनका परिवार उनका वो ड्राइविंग लाइसेंस भी दिखाता है जिसका अहमदाबाद ट्रांसपोर्ट ऑफिस द्वारा 28 दिसंबर, 2006 को नवीनीकरण किया गया था. तीन साल पहले पांच जुलाई 2005 को दिव्य भास्कर नाम के एक गुजराती अखबार ने उत्तर प्रदेश के एक गांव की महिला इमराना के साथ उसके ससुर द्वारा किए गए बलात्कार के बारे में हलीम का बयान उनकी फोटो के साथ छापा था. हलीम की रिहाई के लिए गुजरात के राज्यपाल से अपील करने वाले उनके मित्र हनीफ शेख कहते हैं, “ये आश्चर्य की बात है कि हमें मौलाना हलीम की बेगुनाही साबित करनी है.” नाजिर, जिनके मकान में हलीम अपने परिवार के साथ किराये पर रहा करते थे, कहते हैं, “मैं मौलाना को सबसे करीब से जानता हूं. वे धार्मिक व्यक्ति हैं और उनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं रहा है.” हलीम की पत्नी भी कहती हैं कि उनके पति आतंकवादी नहीं हैं और उन्हें फंसाया जा रहा है.
हलीम को जानने वालों में उनकी गिरफ्तारी को लेकर हैरत और क्षोभ है. 27 वर्षीय अहसान-उल-हक कहते हैं, “मौलाना हलीम ने सैकड़ों लोगों को सब्र करना और हौसला रखना सिखाया है.” ये साबित करने के लिए कि हलीम फरार नहीं थे, हक अपना निकाहनामा दिखाते हैं जो हलीम की मौजूदगी में बना था और जिस पर उनके हस्ताक्षर भी हैं.
यासिर की पत्नी सोफिया
उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले 43 वर्षीय अब्दुल हलीम 1988 से अहमदाबाद में रह रहे हैं. वे अहले हदीस नामक एक इस्लामी संप्रदाय के प्रचारक हैं जो इस उपमहाद्वीप में 180 साल पहले अस्तित्व में आया था. ये संप्रदाय कुरान के अलावा पैगंबर मोहम्मद द्वारा दी गई शिक्षाओं यानी हदीस को भी मुसलमानों के लिए मार्गदर्शक मानता है. सुन्नी कट्टरपंथियों से इसका टकराव होता रहा है. मीडिया में लंबे समय से खबरें फैलाई जाती रही हैं कि अहले-हदीस एक आंतकी संगठन है जिसके लश्कर-ए-तैयबा से संबंध हैं. पुलिस दावा करती है कि इसके सदस्य 2006 में मुंबई में हुए ट्रेन धमाकों सहित कई आतंकी घटनाओं में आरोपी हैं. करीब तीन करोड़ अनुयायियों वाला ये संप्रदाय इन आरोपों से इनकार करता है और बताता है कि दो साल पहले जब इसने दिल्ली में अपनी राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी तो गृह मंत्री शिवराज पाटिल इसमें बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे. 14 साल तक अहमदाबाद में अहले हदीस के 5000 अनुयायियों का नेतृत्व करने के बाद हलीम तीन साल पहले इस्तीफा देकर एक छोटी सी मस्जिद के इमाम हो गए. अपनी पत्नी और सात बच्चों के परिवार को पालने के लिए उन्हें नियमित आय की दरकार थी और इसलिए उन्होंने कबाड़ का व्यवसाय शुरू किया. हलीम की मुश्किलें 2002 की मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद तब शुरू हुईं जब वे हजारों मुस्लिम शरणार्थियों के लिए चलाए जा रहे राहत कार्यों में शामिल हुए. उस दौरान शाहिद बख्शी नाम का एक शख्स दो दूसरे मुस्लिम व्यक्तियों के साथ उनसे मिलने आया था. कुवैत में रह रहा शाहिद अहमदाबाद का ही निवासी था. उसके साथ आए दोनों व्यक्ति उत्तर प्रदेश के थे जिनमें से एक फरहान अली अहमद कुवैत में रह रहा था. दूसरा व्यक्ति हाफिज़ मुहम्मद ताहिर मुरादाबाद का एक छोटा सा व्यापारी था. ये तीनों लोग 2002 की हिंसा में अनाथ हुए बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा और देखभाल का इंतजाम कर उनकी मदद करना चाहते थे. इसलिए हलीम उन्हें चार शरणार्थी कैंपों में ले गए. एक हफ्ते बाद एक कैंप से जवाब आया कि उसने ऐसे 34 बच्चों को खोज निकाला है जिन्हें इस तरह की देखभाल की जरूरत है. हलीम ने फरहान अली अहमद को फोन किया जो उस समय मुरादाबाद में ही था और उसे इस संबंध में एक चिट्ठी भी लिखी. मगर लंबे समय तक कोई जवाब नहीं आया और योजना शुरू ही नहीं हो पाई. महत्वपूर्ण ये भी है कि किसी भी बच्चे को कभी भी मुरादाबाद नहीं भेजा गया.तीन महीने बाद अगस्त 2002 में दिल्ली पुलिस ने शाहिद और उसके दूसरे साथी को कथित तौर पर साढ़े चार किलो आरडीएक्स के साथ गिरफ्तार किया. मुरादाबाद के व्यापारी को भी वहीं से गिरफ्तार किया गया और तीनों पर आतंकी कार्रवाई की साजिश के लिए पोटा के तहत आरोप लगाए गए. दिल्ली पुलिस को इनसे हलीम की चिट्ठी मिली. चूंकि बख्शी और हलीम दोनों ही अहमदाबाद से थे इसलिए वहां की पुलिस को इस बारे में सूचित किया गया. तत्काल ही अहमदाबाद पुलिस के अधिकारी डी जी वंजारा(जो अब सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में जेल में हैं) ने हलीम को बुलाया और उन्हें अवैध रूप से हिरासत में ले लिया. घबराये परिवार ने उनकी रिहाई के लिए गुजरात हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की. उनके परिवार के वकील हाशिम कुरैशी याद करते हैं, “जज ने पुलिस को आदेश दिया कि वह दो घंटे के भीतर हलीम को कोर्ट में लाए.” पुलिस ने फौरन हलीम को रिहा कर दिया. वे सीधा कोर्ट गए और अवैध हिरासत पर उनका बयान दर्ज किया गया जो अब आधिकारिक दस्तावेजों का हिस्सा है.जहां दिल्ली पुलिस ने उत्तर प्रदेश के दोनों व्यक्तियों और शाहिद बख्शी के खिलाफ आरडीएक्स रखने का मामला दर्ज किया वहीं अहमदाबाद पुलिस ने इन तीनों के खिलाफ मुस्लिम युवाओं को मुरादाबाद में आतंकी प्रशिक्षण देने के लिए फुसलाने का मामला बनाया. अहमदाबाद के धमाकों के बाद पुलिस और मीडिया इसी मामले का हवाला देकर हलीम पर मुस्लिम नौजवानों को आतंकी प्रशिक्षण देने का आरोप लगा रहे हैं. हलीम द्वारा तीस नौजवानों को प्रशिक्षण के लिए मुरादाबाद भेजने की बात कहते वक्त गुजरात सरकार के वकील सफेद झूठ बोल रहे थे. जबकि मामले में दाखिल आरोपपत्र भी किसी को अहमदाबाद से मुरादाबाद भेजने की बात नहीं करता.
दिल्ली में दर्ज मामले में जहां हलीम को गवाह नामित किया गया तो वहीं अहमदाबाद के आतंकी प्रशिक्षण वाले मामले में उन्हें आरोपी बनाकर कहा गया कि वो भगोड़े हैं. कानून कहता है कि किसी को भगोड़ा साबित करने की एक निश्चित प्रक्रिया होती है. इसमें गवाहों के सामने घर और दफ्तर की तलाशी ली जाती है और पड़ोसियों के बयान दर्ज किए जाते हैं जो बताते हैं कि संबंधित व्यक्ति काफी समय से देखा नहीं गया है. मगर अहमदाबाद पुलिस ने ऐसा कुछ नहीं किया. हलीम के खिलाफ पूरा मामला उस पत्र पर आधारित है जो उन्होंने सात अगस्त 2002 को फरहान को लिखा था. इस पत्र में गैरकानूनी जैसा कुछ भी नहीं है. ये एक जगह कहता है, “आप यहां एक अहम मकसद से आए थे.” कल्पना की उड़ान भर पुलिस ने दावा कर डाला कि ये अहम मकसद आतंकी प्रशिक्षण देना था. हलीम ने ये भी लिखा था कि कुल बच्चों में से छह अनाथ हैं और बाकी गरीब हैं. पत्र ये कहते हुए समाप्त किया गया था, “मुझे यकीन है कि अल्लाह के फज़ल से आप यकीनन इस्लाम को फैलाने के इस शैक्षिक और रचनात्मक अभियान में मेरी मदद करेंगे.” आरडीएक्स मामले में दिल्ली की एक अदालत के सामने हलीम ने कहा था कि उनसे कहा गया था कि मुरादाबाद में बच्चों को अच्छी तालीम और जिंदगी दी जाएगी. उन्हें ये पता नहीं था कि बख्शी और दूसरे लोग बच्चों को आतंकी प्रशिक्षण देने की सोच रहे हैं.
पिछले साल दिल्ली की एक अदालत ने “आरडीएक्स मामले” में बख्शी और फ़रहान को दोषी करार दिया और उन्हें सात-सात साल कैद की सज़ा सुनाई. बावजूद इसके कि तथाकथित आरडीएक्स की बरामदगी के चश्मदीद सिर्फ पुलिस वाले ही थे, कोर्ट ने पुलिस के ही आरोपों को सही माना. फरहान का दावा था कि उसे हवाई अड्डे से तब गिरफ्तार किया गया था जब वो कुवैत की उड़ान पकड़ने जा रहा था और उसके पास इसके सबूत के तौर पर टिकट भी थे. लेकिन अदालत ने इसकी अनदेखी की.
यासिर
बख्शी और फरहान ने इस सज़ा के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की जिसने निचली अदालत द्वारा दोषी करार देने के बावजूद उन्हें ज़मानत दे दी. वहीं गुजरात हाई कोर्ट ने उन्हें “आतंकी प्रशिक्षण” मामले में ज़मानत देने से इनकार कर दिया जबकि उन पर आरोप सिद्ध भी नहीं हुआ था. गुजरात क्राइम ब्रांच भी ये मानती है कि इस मामले में उनका अपराध सिर्फ षडयंत्र रचने तक ही सीमित हो सकता है.
सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता. मुरादाबाद के ताहिर को आरडीएक्स मामले में बरी कर दिया गया था. वो एक बार फिर तब भाग्यशाली रहा जब गुजरात हाई कोर्ट ने जून 2004 में उसे आतंकवाद प्रशिक्षण मामले में ज़मानत दे दी. अदालत का कहना था, “वर्तमान आरोपी के खिलाफ कुल मिलाकर सिर्फ इतना ही प्रमाण है कि वो अहमदाबाद आया था और कैंप का चक्कर भी लगाया था, ताकि उन बच्चों की पहचान कर सके और उनकी देख रेख अच्छे तरीके से हो सके और इसे किसी तरह का अपराध नहीं माना जा सकता.”
बख्शी और फरहान पर भी बिल्कुल यही आरोप थे, लिहाजा ये तर्क उन पर भी लागू होना चाहिए. लेकिन गुजरात हाई कोर्ट के एक अन्य जज ने उन्हें ज़मानत देने से इनकार कर दिया और दोनों को जेल में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस बीच ताहिर अहमदाबाद आकर रहने लगा क्योंकि गुजरात हाई कोर्ट ने उसकी ज़मानत के फैसले में ये आदेश दिया था कि उसे हर रविवार को अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ऑफिस में हाजिरी देनी होगी. 26 जुलाई को हुए धमाकों के बाद अगली सुबह रविवार के दिन डरा सहमा ताहिर अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के ऑफिस पहुंचा. ताहिर ने तहलका को बताया, “उन्होंने चार घंटे तक मुझसे धमाके के संबंध में सवाल जवाब किए. उस वक्त मुझे बहुत खुशी हुई जब उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा.” आतंकी प्रशिक्षण मामले की सुनवाई लगभग खत्म हो चुकी है. अब जबकि हलीम भगोड़े नहीं रहे तो ये बात देखने वाली होगी कि उसके खिलाफ इस मामले में अलग से सुनवाई होती है या नहीं. इस बीच हलीम के परिवार को खाने और अगले महीने घर के 2500 रूपए किराए की चिंता सता रही है। हलीम की पत्नी बताती है है कि उनके पास कोई बचत नहीं है. हलीम की कबाड़ की दुकान उनका नौकर चला रहा है.
दुखद बात ये है कि मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी कोई अकेली नहीं है. 15 जुलाई की रात हैदराबाद में अपने पिता के वर्कशॉप से काम करके वापस लौट रहे मोहम्मद मुकीमुद्दीन यासिर को सिपाहियों के एक दल ने गिरफ्तार कर लिया. दस दिन बाद 25 जुलाई को जब बंगलोर में सीरियल धमाके हुए, जिनमें दो लोगों की मौत हो गई, तो हैदराबाद के पुलिस आयुक्त प्रसन्ना राव ने हिंदुस्तान टाइम्स को एक नयी बात बताई. उनके मुताबिक पूछताछ के दौरान यासिर ने ये बात स्वीकारी थी कि गिरफ्तारी से पहले वो आतंकियों को कर्नाटक ले गया था और वहां पर उसने उनके लिए सुरक्षित ठिकाने की व्यवस्था की थी. मगर जेल में उससे मिलकर लौटीं उसकी मां यासिर के हवाले से तहलका को बताती हैं कि पुलिस झूठ बोल रही है, और पुलिस आयुक्त जिसे पूछताछ कह रहे हैं असल में उसके दौरान उनके बेटे को कठोर यातनाएं दी गईं. वो कहती हैं, “उसे उल्टा लटका कर पीटा जा रहा था.”
हालांकि पुलिस के सामने दिये गए बयान की कोई अहमियत नहीं फिर भी अगर इसे सच मान भी लें तो ये हैदराबाद पुलिस के मुंह पर एक ज़ोरदार तमाचा होगा. आखिर यासिर सिमी का पूर्व सदस्य था, उसके पिता और एक भाई आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद हैं. उसके पिता की जमानत याचिका सुप्रीम कोर्ट तक से खारिज हो चुकी है. ये जानते हुए कि उसके भाई और बाप खतरनाक आतंकवादी हैं हैदराबाद पुलिस को हर वक्त उसकी निगरानी करनी चाहिए थी, और जैसे ही वो आतंकियों के संपर्क में आया उसे गिरफ्तार करना चाहिए था.
पुलिस ने न तो यासिर के बयान पर कोई ज़रूरी कार्रवाई की जिससे बैंगलुरु का हमला रोका जा सकता और न ही वो यासिर द्वारा कर्नाटक में आतंकियों को उपलब्ध करवाया गया सुरक्षित ठिकाना ही ढूंढ़ सकी. इसकी वजह शायद ये रही कि उसने ऐसा कुछ किया ही नहीं था. तहलका संवाददाता ने हैदराबाद में यासिर की गिरफ्तारी के एक महीने पहले 12 जून को उससे मुलाकात की थी. उस वक्त यासिर अपने पिता द्वारा स्थापित वर्कशॉप में काम कर रहा था. उसका कहना था, “मेरे पिता और भाई को फंसाया गया है.”
ऐसा लगता है कि अंतर्मुखी यासिर फर्जी मामलों का शिकार हुआ है. 27 सितंबर 2001 को सिमी पर प्रतिबंध लगाए जाने के वक्त वो सिमी का सदस्य था. (तमाम सरकारी प्रचार के बावजूद देश की किसी अदालत ने अभी तक एक संगठन के रूप में सिमी को आंतकवाद से जुड़ा घोषित नहीं किया है) यासिर ने देश भर में फैले उन कई लोगों की बातों को ही दोहराया जिनसे तहलका ने मुलाकात की थी. उसने कहा कि सिमी एक माध्यम था जो धर्म में गहरी आस्था और आत्मशुद्धि का प्रशिक्षण देता था और इसका आतंकवाद या फिर भारत विरोधी साजिशों से कोई नाता नहीं था। “सिमी चेचन्या से लेकर कश्मीर तक मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों की बात करता था”, यासिर ने बताया. “उसने कभी भी बाबरी मस्जिद का मुद्दा नही छेड़ा और इसी चीज़ ने हमें सिमी की तरफ आकर्षित किया”, वो आगे कहता है.
मौलाना नसीरुद्दीन
सिमी पर जिस दिन प्रतिबंध लगाया गया था उसी रात हैदराबाद में यासिर और सिमी के कई प्रतिनिधियों को ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. अगले दिन उन्हें ज़मानत मिल गई. एक दिन बाद ही पुलिस ने तीन लोगों को सरकार के खिलाफ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. दो लोगों को फरार घोषित कर दिया गया जिनमें यासिर भी शामिल था. उन्होंने कोर्ट में आत्मसमर्पण किया और उन्हें जेल भेज दिया गया. यहां यासिर को 29 दिनों बाद ज़मानत मिली. इस मामले में सात साल बीत चुके हैं, लेकिन सुनवाई शुरू होनी अभी बाकी है.
यासिर के पिता की किस्मत और भी खराब है. इस तेज़ तर्रार मौलाना की पहचान सरकार के खिलाफ ज़हर उगलने वाले के रूप में थी, विशेषकर बाबरी मस्जिद और 2002 के गुजरात दंगो के मुद्दे पर इनके भाषण काफी तीखे होते थे. तमाम फर्जी मामलों में फंसाए गए मौलाना को हैदराबाद पुलिस ने नियमित रूप से हाजिरी देने का आदेश दिया था.
इसी तरह अक्टूबर 2004 को जब मौलाना पुलिस में हाजिरी देने पहुंचे तो अहमदाबाद से आयी एक पुलिस टीम ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके ऊपर गुजरात में आतंकवादी साजिश रचने और साथ ही 2003 में गुजरात के गृह मंत्री हरेन पांड्या की हत्या की साजिश रचने का आरोप था।
मौलाना के साथ पुलिस स्टेशन गए स्थानीय मुसलमानों ने वहीं पर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इस पर गुजरात पुलिस के अधिकारी नरेंद्र अमीन ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर निकाल कर फायर कर दिया जिसमें एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई। इसके बाद तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा। नसीरुद्दीन के समर्थकों ने अमीन के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग को लेकर मृत शरीर को वहां से ले जाने से इनकार कर दिया। अंतत: हैदराबाद पुलिस ने दो एफआईआर दर्ज कीं। एक तो मौलाना की गिरफ्तारी का विरोध करने वालों के खिलाफ और दूसरी अमीन के खिलाफ।अमीन के खिलाफ दर्ज हुआ मामला चार साल में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा है। हैदराबाद पुलिस को उनकी रिवॉल्वर जब्त कर मृतक के शरीर से बरामद हुई गोली के साथ फॉरेंसिक जांच के लिए भेजना चाहिए था। उन्हें अमीन को गिरफ्तार करके मजिस्ट्रेट के सम्मुख पेश करना चाहिए था। अगर गोली का मिलान उनके रिवॉल्वर से हो जाता तो इतने गवाहों की गवाही के बाद ये मामला उसी समय खत्म हो जाता। पर ऐसा कुछ नहीं किया गया।
अमीन, मौलाना नसीरुद्दीन को साथ लेकर अहमदाबाद चले गए और उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर फाइलों में दब कर रह गई। अमीन ही वो पुलिस अधिकारी हैं जिनके ऊपर कौसर बी की हत्या का आरोप है। कौसर बी गुजरात के व्यापारी सोहराबुद्दीन की बीवी थी जिसकी हत्या के आरोप में गुजरात पुलिस के अधिकारी वंजारा जेल में है। अमीन भी अब जेल में हैं।
इस बीच अमीन के खिलाफ हैदराबाद शूटआउट मामले में शिकायत दर्ज करने वाले नासिर के साथ हादसा हो गया। नासिर मौलाना नसीरुद्दीन का सबसे छोटा बेटा और यासिर का छोटा भाई है। इसी साल 11 जनवरी को कर्नाटक पुलिस ने नासिर को उसके एक साथी के साथ गिरफ्तार कर लिया। जिस मोटरसाइकिल पर वो सवार थे वो चोरी की थी। पुलिस के मुताबिक उनके पास से एक चाकू भी बरामद हुआ था। पुलिस ने उनके ऊपर ‘देशद्रोह’ का मामला दर्ज किया।
आश्चर्यजनक रूप से पुलिस ने अगले 18 दिनों में दोनों के 7 कबूलनामें अदालत में पेश किए। इनमें से एक में भी इस बात का जिक्र नहीं था कि वो सिमी के सदस्य थे। इसके बाद पुलिस ने आठवां कबूलनामा कोर्ट में पेश किया जिसमें कथित रूप से उन्होंने सिमी का सदस्य होना और आतंकवाद संबंधित आरोपों को स्वीकार किया था। 90 दिनों तक जब पुलिस उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल करने में नाकाम रही तो नासिर का वकील मजिस्ट्रेट के घर पहुंच गया, इसके बाद क़ानून के मुताबिक उसे ज़मानत देने के अलावा और कोई चारा नहीं था। लेकिन तब तक पुलिस ने नासिर के खिलाफ षडयंत्र का एक और मामला दर्ज कर दिया और इस तरह से उसकी हिरासत जारी रही। इस दौरान यातनाएं देने का आरोप लगाते हुए उसने पुलिस द्वारा पेश किए गए कबूलनामों से इनकार कर दिया।
दोनों को पुलिस हिरासत में भेजने वाले मजिस्ट्रेट बी जिनाराल्कर ने तहलका को एक साक्षात्कार में बताया:
“जब मैं उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजने के लिए जरूरी कागजात पर दस्तखत कर रहा था तभी अब्दुल्ला (दूसरा आरोपी) मेरे पास आकर मुझसे बात करने की विनती करने लगा।” उसने मुझे बताया कि पुलिस उसे खाना और पानी नहीं देती है और बार-बार पीटती है। वो नासिर के शरीर पर चोटों के निशान दिखाने के लिए बढ़ा। दोनों लगातार मानवाधिकारों की बात कर रहे थे और चिकित्सकीय सुविधा मांग रहे थे”।
“मुझे तीन बातों से बड़ी हैरानी हुई—वो अपने मूल अधिकारों की बात बहुत ज़ोर देकर कर रहे थे। वो अंग्रेज़ी बोल रहे थे और इस बात को मान रहे थे कि उन्होंने बाइक चुराई थी। मेरा अनुभव बताता है कि ज्यादातर चोर ऐसा नहीं करते हैं।”
जब एक पुलिस सब इंस्पेक्टर ने मजिस्ट्रेट को फोन करके उन्हें न्यायिक हिरासत में न भेजने की चेतावनी दी तब उन्होंने सबसे पहले सबूत अपने घर पर पेश करने को कहा। “उन्होंने मेरे सामने जो सबूत पेश किए उनमें फर्जी पहचान पत्र, एक डिजाइनर चाकू, दक्षिण भारत का नक्शा जिसमें उडुपी और गोवा को चिन्हित किया गया था, कुछ अमेरिकी डॉलर, कागज के दो टुकड़े थे जिनमें एक पर www.com और दूसरे पर ‘जंगल किंग बिहाइंड बैक मी’ लिखा हुआ था।
जब मैंने इतने सारे सामानों को एक साथ देखा तो मुझे लगा कि ये सिर्फ बाइक चोर नहीं हो सकते। बाइक चोर को फर्जी पहचान पत्र और दक्षिण भारत के नक्शे की क्या जरूरत? उनके पास मौजूद अमेरिकी डॉलर से संकेत मिल रहा था कि उनके अंतरराष्ट्रीय संपर्क हैं। कागज पर www.com से मुझे लगा कि वे तकनीकी रूप से दक्ष भी हैं। दूसरे कागज पर लिखा संदेश मुझे कोई कूट संकेत लगा जिसका अर्थ समझने में मैं नाकाम रहा। इसके अलावा जब मैंने दक्षिण भारत के नक्शे का मुआयना शुरू किया तो उडुपी को लाल रंग से चिन्हित किया गया था। शायद उनकी योजना एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान उडुपी में हमले की रही हो।”
“मुझे लगा कि इतने सारे प्रमाण नासिर और अब्दुल्ला को पुलिस हिरासत जांच को आगे बढ़ाने के वास्ते हिरासत में भेजने के लिए पर्याप्त हैं।”
तो क्या मौलाना हलीम, मुकीमुद्दीन यासिर, मौलाना नसीरुद्दीन, और रियासुद्दीन नासिर के लिए कोई उम्मीद है? यासिर और नासिर की मां को कोई उम्मीद नहीं है। वे गुस्से में कहती हैं, “क्यों नहीं पुलिस हम सबको एक साथ जेल में डाल देती है।” फिर गुस्से से ही कंपकपाती आवाज़ कहती है, “और फिर वो हम सबको गोली मार कर मौत के घाट उतार दें।”
हर शुक्रवार की तरह 25 जुलाई को भी मौलाना अब्दुल हलीम ने अपना गला साफ करते हुए मस्जिद में जमा लोगों को संबोधित करना शुरू किया. करीब दो बजे का वक्त था और इस मृदुभाषी आलिम (इस्लामिक विद्वान) ने अभी-अभी अहमदाबाद की एक मस्जिद में सैकड़ों लोगों को जुमे की नमाज पढ़वाई थी. अब वो खुतबा (धर्मोपदेश) पढ़ रहे थे जो पड़ोसियों के प्रति सच्चे मुसलमान की जिम्मेदारी के बारे में था. गंभीर स्वर में हलीम कहते हैं, “अगर तुम्हारा पड़ोसी भूखा हो तो तुम भी अपना पेट नहीं भर सकते. तुम अपने पड़ोसी के साथ हिंदू-मुसलमान के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते.”
तीस घंटे बाद, शनिवार को 53 लोगों की मौत का कारण बने अहमदाबाद बम धमाकों के कुछ मिनटों के भीतर ही पुलिस मस्जिद से सटे हलीम के घर में घुस गई और भौचक्के पड़ोसियों के बीच उन्हें घसीटते हुए बाहर ले आई. पुलिस का दावा था कि हलीम धमाकों की एक अहम कड़ी हैं और उनसे पूछताछ के जरिये पता चल सकता है कि आतंक की इस कार्रवाई को किस तरह अंजाम दिया गया. पुलिस के इस दावे के आधार पर एक स्थानीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें दो हफ्ते के लिए अपराध शाखा की हिरासत में भेज दिया.
त्रासदी और आतंक के समय हर कोई जवाब चाहता है. हर कोई चाहता है कि गुनाहगार पकड़े जाएं और उन्हें सजा मिले. ऐसे में चुनौती ये होती है कि दबाव में आकर बलि के बकरे न ढूंढे जाएं. मगर दुर्भाग्य से सरकार इस चुनौती पर हर बार असफल साबित होती रही है. उदाहरण के लिए जब भी धमाके होते हैं सरकारी प्रतिक्रिया में सिमी यानी स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया का नाम अक्सर सुनने को मिलता है. ज्यादातर लोगों के लिए सिमी एक डरावना संगठन है जो घातक आतंकी कार्रवाइयों के जरिये देश को बर्बाद करना चाहता है.
मगर सवाल उठता है कि ये आरोप कितने सही हैं?
एक न्यायसंगत और सुरक्षित समाज बनाने के संघर्ष में ये अहम है कि असल दोषियों और सही जवाबों तक पहुंचा जाए और ईमानदारी से कानून का पालन किया जाए. इसके लिए ये भी जरूरी है कि झूठे पूर्वाग्रहों और बनी-बनाई धारणाओं के परे जाकर पड़ताल की जाए. इसीलिए तहलका ने पिछले तीन महीने के दौरान भारत के 12 शहरों में अपनी तहकीकात की. तहकीकात की इस श्रंखला की ये पहली कड़ी है.
हमने पाया कि आतंकवाद से संबंधित मामलों में, और खासकर जो प्रतिबंधित सिमी से संबंधित हैं, ज्यादातर बेबुनियाद या फिर फर्जी सबूतों पर आधारित हैं. हमने पाया कि ये मामले कानून और सामान्य बुद्धि दोनों का मजाक उड़ाते हैं. इस तहकीकात में हमने पाया कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के पूर्वाग्रह, राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव और सनसनी का भूखा व आतंकवाद के मामले पर पुलिस की हर कहानी को आंख मूंद कर आगे बढ़ा देने वाला मीडिया, ये सारे मिलकर एक ऐसा तंत्र बनाते हैं जो सैकड़ों निर्दोष लोगों पर आतंकी होने का लेबल चस्पा कर देता है. इनमें से लगभग सारे मुसलमान हैं और सारे ही गरीब भी.
हलीम का परिवार
अहमदाबाद के सिविल अस्पताल, जहां हुए दो धमाकों ने सबसे ज्यादा जानें लीं, का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना था, “हम इस चुनौती का मुकाबला करेंगे और मुझे पूरा भरोसा है कि हम इन ताकतों को हराने में कामयाब होंगे.” उन्होंने राजनीतिक पार्टियों, पुलिस और खुफिया एजेंसियों का आह्वान किया कि वे सामाजिक ताने-बाने और सांप्रदायिक सद्भावना को तहस-नहस करने के लिए की गई इस कार्रवाई के खिलाफ मिलकर काम करें. मगर निर्दोषों के खिलाफ झूठे मामलों के चौंकाने वाले रिकॉर्ड को देखते हुए लगता है कि अक्षम पुलिस और खुफिया एजेंसियां कर बिल्कुल इसका उल्टा रही हैं. मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी इसका सुलगता हुआ उदाहरण है.
पिछले रविवार से ही मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उनमें पुलिस के हवाले से हलीम को सिमी का सदस्य बताया जा रहा है जिसके संबंध पाकिस्तान और बांग्लादेश स्थित आतंकवादियों से हैं. गुजरात सरकार के वकील ने मजिस्ट्रेट को बताया कि आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण देने के लिए हलीम मुसलमान नौजवानों को अहमदाबाद से उत्तर प्रदेश भेजा करते थे और इस कवायद का मकसद 2002 के नरसंहार का बदला लेना था. वकील के मुताबिक इन तथाकथित आतंकवादियों ने बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई दूसरे नेताओं को मारने की योजना बनाई थी. पुलिस का कहना था कि इस मामले में आरोपी नामित होने के बाद हलीम 2002 से ही फरार चल रहे थे.
इस मौलाना की गिरफ्तारी के बाद तहलका ने अहमदाबाद में जो तहकीकात की उसमें कई अकाट्य साक्ष्य निकलकर सामने आए हैं. ये बताते हैं कि फरार होने के बजाय हलीम कई सालों से अपने घर में ही रह रहे थे. उस घर में जो स्थानीय पुलिस थाने से एक किलोमीटर दूर भी नहीं था. वे एक सार्वजनिक जीवन जी रहे थे. मुसलमानों को आतंकवाद का प्रशिक्षण देने के लिए भेजने का जो संदिग्ध आरोप उन पर लगाया गया है उसका आधार उनके द्वारा लिखी गई एक चिट्ठी है. एक ऐसी चिट्ठी जिसकी विषयवस्तु का दूर-दूर तक आतंकवाद से कोई लेना-देना नजर नहीं आता.
दिलचस्प ये भी है कि शनिवार को हुए बम धमाकों से पहले अहमदाबाद पुलिस ने कभी भी हलीम को सिमी का सदस्य नहीं कहा था. ये बात जरूर है कि वह कई सालों से 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के पीड़ितों की मदद में उनकी भूमिका के लिए उन्हें परेशान करती रही है. हलीम के परिजन और अनुयायी ये बात बताते हैं. इस साल 27 मई को पुलिस थाने से एक इंस्पेक्टर ने हलीम को गुजराती में एक पेज का हस्तलिखित नोटिस भेजा. इसके शब्द थे, “मरकज-अहले-हदीस (इस्लामी पंथ जिसे हलीम और उनके अनुयायी मानते हैं) ट्रस्ट का एक दफ्तर आलीशान शॉपिंग सेंटर की दुकान नंबर चार में खोला गया है. आप इसके अध्यक्ष हैं...इसमें कई सदस्यों की नियुक्ति की गई है. आपको निर्देश दिया जाता है कि उनके नाम, पते और फोन नंबरों की सूची जमा करें.”
कानूनी नियमों के हिसाब से बनाए गए एक ट्रस्ट, जिसके खिलाफ कोई आपराधिक आरोप न हों, से की गई ऐसी मांग अवैध तो है ही, साथ ही इस चिट्ठी से ये भी साबित होता है कि पुलिस को दो महीने पहले तक भी सलीम के ठिकाने का पता था और वह उनसे संपर्क में थी. नोटिस में हलीम के घर—2, देवी पार्क सोसायटी का पता भी दर्ज है. तो फिर उनके फरार होने का सवाल कहां से आया. हलीम के परिवार के पास इस बात का सबूत है कि पुलिस को अगले ही दिन हलीम का जवाब मिल गया था.
एक महीने बाद 29 जून को हलीम ने गुजरात के पुलिस महानिदेशक और अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त को एक टेलीग्राम भेजा. उनका कहना था कि उसी दिन पुलिस जबर्दस्ती उनके घर में घुस गई थी और उनकी गैरमौजूदगी में उनकी पत्नी और बच्चों को तंग किया गया. हिंदी में लिखे गए इस टेलीग्राम के शब्द थे,“हम शांतिप्रिय और कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं और किसी अवैध गतिविधि में शामिल नहीं रहे हैं. पुलिस गैरकानूनी तरीके से बेवजह मुझे और मेरे बीवी-बच्चों को तंग कर रही है. ये हमारे नागरिक अधिकारों का उल्लंघन है.”जैसा कि संभावित था, उन्हें इसका कोई जवाब नहीं मिला. अप्रैल में जब सोशल यूनिटी एंड पीस फोरम नाम के एक संगठन, जिसके सदस्य हिंदू और मुसलमान दोनों हैं, ने एक बैठक का आयोजन किया तो लाउडस्पीकर के इस्तेमाल की इजाजत के लिए संगठन ने पुलिस को चिट्ठी लिखी. इस चिट्ठी में भी साफ जिक्र किया गया था कि बैठक में हलीम मुख्य वक्ता होंगे. ये साबित करने के लिए कि हलीम इस दौरान एक सामान्य जीवन जीते रहे हैं, उनका परिवार उनका वो ड्राइविंग लाइसेंस भी दिखाता है जिसका अहमदाबाद ट्रांसपोर्ट ऑफिस द्वारा 28 दिसंबर, 2006 को नवीनीकरण किया गया था. तीन साल पहले पांच जुलाई 2005 को दिव्य भास्कर नाम के एक गुजराती अखबार ने उत्तर प्रदेश के एक गांव की महिला इमराना के साथ उसके ससुर द्वारा किए गए बलात्कार के बारे में हलीम का बयान उनकी फोटो के साथ छापा था. हलीम की रिहाई के लिए गुजरात के राज्यपाल से अपील करने वाले उनके मित्र हनीफ शेख कहते हैं, “ये आश्चर्य की बात है कि हमें मौलाना हलीम की बेगुनाही साबित करनी है.” नाजिर, जिनके मकान में हलीम अपने परिवार के साथ किराये पर रहा करते थे, कहते हैं, “मैं मौलाना को सबसे करीब से जानता हूं. वे धार्मिक व्यक्ति हैं और उनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं रहा है.” हलीम की पत्नी भी कहती हैं कि उनके पति आतंकवादी नहीं हैं और उन्हें फंसाया जा रहा है.
हलीम को जानने वालों में उनकी गिरफ्तारी को लेकर हैरत और क्षोभ है. 27 वर्षीय अहसान-उल-हक कहते हैं, “मौलाना हलीम ने सैकड़ों लोगों को सब्र करना और हौसला रखना सिखाया है.” ये साबित करने के लिए कि हलीम फरार नहीं थे, हक अपना निकाहनामा दिखाते हैं जो हलीम की मौजूदगी में बना था और जिस पर उनके हस्ताक्षर भी हैं.
यासिर की पत्नी सोफिया
उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले 43 वर्षीय अब्दुल हलीम 1988 से अहमदाबाद में रह रहे हैं. वे अहले हदीस नामक एक इस्लामी संप्रदाय के प्रचारक हैं जो इस उपमहाद्वीप में 180 साल पहले अस्तित्व में आया था. ये संप्रदाय कुरान के अलावा पैगंबर मोहम्मद द्वारा दी गई शिक्षाओं यानी हदीस को भी मुसलमानों के लिए मार्गदर्शक मानता है. सुन्नी कट्टरपंथियों से इसका टकराव होता रहा है. मीडिया में लंबे समय से खबरें फैलाई जाती रही हैं कि अहले-हदीस एक आंतकी संगठन है जिसके लश्कर-ए-तैयबा से संबंध हैं. पुलिस दावा करती है कि इसके सदस्य 2006 में मुंबई में हुए ट्रेन धमाकों सहित कई आतंकी घटनाओं में आरोपी हैं. करीब तीन करोड़ अनुयायियों वाला ये संप्रदाय इन आरोपों से इनकार करता है और बताता है कि दो साल पहले जब इसने दिल्ली में अपनी राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की थी तो गृह मंत्री शिवराज पाटिल इसमें बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे. 14 साल तक अहमदाबाद में अहले हदीस के 5000 अनुयायियों का नेतृत्व करने के बाद हलीम तीन साल पहले इस्तीफा देकर एक छोटी सी मस्जिद के इमाम हो गए. अपनी पत्नी और सात बच्चों के परिवार को पालने के लिए उन्हें नियमित आय की दरकार थी और इसलिए उन्होंने कबाड़ का व्यवसाय शुरू किया. हलीम की मुश्किलें 2002 की मुस्लिम विरोधी हिंसा के बाद तब शुरू हुईं जब वे हजारों मुस्लिम शरणार्थियों के लिए चलाए जा रहे राहत कार्यों में शामिल हुए. उस दौरान शाहिद बख्शी नाम का एक शख्स दो दूसरे मुस्लिम व्यक्तियों के साथ उनसे मिलने आया था. कुवैत में रह रहा शाहिद अहमदाबाद का ही निवासी था. उसके साथ आए दोनों व्यक्ति उत्तर प्रदेश के थे जिनमें से एक फरहान अली अहमद कुवैत में रह रहा था. दूसरा व्यक्ति हाफिज़ मुहम्मद ताहिर मुरादाबाद का एक छोटा सा व्यापारी था. ये तीनों लोग 2002 की हिंसा में अनाथ हुए बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा और देखभाल का इंतजाम कर उनकी मदद करना चाहते थे. इसलिए हलीम उन्हें चार शरणार्थी कैंपों में ले गए. एक हफ्ते बाद एक कैंप से जवाब आया कि उसने ऐसे 34 बच्चों को खोज निकाला है जिन्हें इस तरह की देखभाल की जरूरत है. हलीम ने फरहान अली अहमद को फोन किया जो उस समय मुरादाबाद में ही था और उसे इस संबंध में एक चिट्ठी भी लिखी. मगर लंबे समय तक कोई जवाब नहीं आया और योजना शुरू ही नहीं हो पाई. महत्वपूर्ण ये भी है कि किसी भी बच्चे को कभी भी मुरादाबाद नहीं भेजा गया.तीन महीने बाद अगस्त 2002 में दिल्ली पुलिस ने शाहिद और उसके दूसरे साथी को कथित तौर पर साढ़े चार किलो आरडीएक्स के साथ गिरफ्तार किया. मुरादाबाद के व्यापारी को भी वहीं से गिरफ्तार किया गया और तीनों पर आतंकी कार्रवाई की साजिश के लिए पोटा के तहत आरोप लगाए गए. दिल्ली पुलिस को इनसे हलीम की चिट्ठी मिली. चूंकि बख्शी और हलीम दोनों ही अहमदाबाद से थे इसलिए वहां की पुलिस को इस बारे में सूचित किया गया. तत्काल ही अहमदाबाद पुलिस के अधिकारी डी जी वंजारा(जो अब सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में जेल में हैं) ने हलीम को बुलाया और उन्हें अवैध रूप से हिरासत में ले लिया. घबराये परिवार ने उनकी रिहाई के लिए गुजरात हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की. उनके परिवार के वकील हाशिम कुरैशी याद करते हैं, “जज ने पुलिस को आदेश दिया कि वह दो घंटे के भीतर हलीम को कोर्ट में लाए.” पुलिस ने फौरन हलीम को रिहा कर दिया. वे सीधा कोर्ट गए और अवैध हिरासत पर उनका बयान दर्ज किया गया जो अब आधिकारिक दस्तावेजों का हिस्सा है.जहां दिल्ली पुलिस ने उत्तर प्रदेश के दोनों व्यक्तियों और शाहिद बख्शी के खिलाफ आरडीएक्स रखने का मामला दर्ज किया वहीं अहमदाबाद पुलिस ने इन तीनों के खिलाफ मुस्लिम युवाओं को मुरादाबाद में आतंकी प्रशिक्षण देने के लिए फुसलाने का मामला बनाया. अहमदाबाद के धमाकों के बाद पुलिस और मीडिया इसी मामले का हवाला देकर हलीम पर मुस्लिम नौजवानों को आतंकी प्रशिक्षण देने का आरोप लगा रहे हैं. हलीम द्वारा तीस नौजवानों को प्रशिक्षण के लिए मुरादाबाद भेजने की बात कहते वक्त गुजरात सरकार के वकील सफेद झूठ बोल रहे थे. जबकि मामले में दाखिल आरोपपत्र भी किसी को अहमदाबाद से मुरादाबाद भेजने की बात नहीं करता.
दिल्ली में दर्ज मामले में जहां हलीम को गवाह नामित किया गया तो वहीं अहमदाबाद के आतंकी प्रशिक्षण वाले मामले में उन्हें आरोपी बनाकर कहा गया कि वो भगोड़े हैं. कानून कहता है कि किसी को भगोड़ा साबित करने की एक निश्चित प्रक्रिया होती है. इसमें गवाहों के सामने घर और दफ्तर की तलाशी ली जाती है और पड़ोसियों के बयान दर्ज किए जाते हैं जो बताते हैं कि संबंधित व्यक्ति काफी समय से देखा नहीं गया है. मगर अहमदाबाद पुलिस ने ऐसा कुछ नहीं किया. हलीम के खिलाफ पूरा मामला उस पत्र पर आधारित है जो उन्होंने सात अगस्त 2002 को फरहान को लिखा था. इस पत्र में गैरकानूनी जैसा कुछ भी नहीं है. ये एक जगह कहता है, “आप यहां एक अहम मकसद से आए थे.” कल्पना की उड़ान भर पुलिस ने दावा कर डाला कि ये अहम मकसद आतंकी प्रशिक्षण देना था. हलीम ने ये भी लिखा था कि कुल बच्चों में से छह अनाथ हैं और बाकी गरीब हैं. पत्र ये कहते हुए समाप्त किया गया था, “मुझे यकीन है कि अल्लाह के फज़ल से आप यकीनन इस्लाम को फैलाने के इस शैक्षिक और रचनात्मक अभियान में मेरी मदद करेंगे.” आरडीएक्स मामले में दिल्ली की एक अदालत के सामने हलीम ने कहा था कि उनसे कहा गया था कि मुरादाबाद में बच्चों को अच्छी तालीम और जिंदगी दी जाएगी. उन्हें ये पता नहीं था कि बख्शी और दूसरे लोग बच्चों को आतंकी प्रशिक्षण देने की सोच रहे हैं.
पिछले साल दिल्ली की एक अदालत ने “आरडीएक्स मामले” में बख्शी और फ़रहान को दोषी करार दिया और उन्हें सात-सात साल कैद की सज़ा सुनाई. बावजूद इसके कि तथाकथित आरडीएक्स की बरामदगी के चश्मदीद सिर्फ पुलिस वाले ही थे, कोर्ट ने पुलिस के ही आरोपों को सही माना. फरहान का दावा था कि उसे हवाई अड्डे से तब गिरफ्तार किया गया था जब वो कुवैत की उड़ान पकड़ने जा रहा था और उसके पास इसके सबूत के तौर पर टिकट भी थे. लेकिन अदालत ने इसकी अनदेखी की.
यासिर
बख्शी और फरहान ने इस सज़ा के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की जिसने निचली अदालत द्वारा दोषी करार देने के बावजूद उन्हें ज़मानत दे दी. वहीं गुजरात हाई कोर्ट ने उन्हें “आतंकी प्रशिक्षण” मामले में ज़मानत देने से इनकार कर दिया जबकि उन पर आरोप सिद्ध भी नहीं हुआ था. गुजरात क्राइम ब्रांच भी ये मानती है कि इस मामले में उनका अपराध सिर्फ षडयंत्र रचने तक ही सीमित हो सकता है.
सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता. मुरादाबाद के ताहिर को आरडीएक्स मामले में बरी कर दिया गया था. वो एक बार फिर तब भाग्यशाली रहा जब गुजरात हाई कोर्ट ने जून 2004 में उसे आतंकवाद प्रशिक्षण मामले में ज़मानत दे दी. अदालत का कहना था, “वर्तमान आरोपी के खिलाफ कुल मिलाकर सिर्फ इतना ही प्रमाण है कि वो अहमदाबाद आया था और कैंप का चक्कर भी लगाया था, ताकि उन बच्चों की पहचान कर सके और उनकी देख रेख अच्छे तरीके से हो सके और इसे किसी तरह का अपराध नहीं माना जा सकता.”
बख्शी और फरहान पर भी बिल्कुल यही आरोप थे, लिहाजा ये तर्क उन पर भी लागू होना चाहिए. लेकिन गुजरात हाई कोर्ट के एक अन्य जज ने उन्हें ज़मानत देने से इनकार कर दिया और दोनों को जेल में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस बीच ताहिर अहमदाबाद आकर रहने लगा क्योंकि गुजरात हाई कोर्ट ने उसकी ज़मानत के फैसले में ये आदेश दिया था कि उसे हर रविवार को अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ऑफिस में हाजिरी देनी होगी. 26 जुलाई को हुए धमाकों के बाद अगली सुबह रविवार के दिन डरा सहमा ताहिर अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के ऑफिस पहुंचा. ताहिर ने तहलका को बताया, “उन्होंने चार घंटे तक मुझसे धमाके के संबंध में सवाल जवाब किए. उस वक्त मुझे बहुत खुशी हुई जब उन्होंने मुझे जाने के लिए कहा.” आतंकी प्रशिक्षण मामले की सुनवाई लगभग खत्म हो चुकी है. अब जबकि हलीम भगोड़े नहीं रहे तो ये बात देखने वाली होगी कि उसके खिलाफ इस मामले में अलग से सुनवाई होती है या नहीं. इस बीच हलीम के परिवार को खाने और अगले महीने घर के 2500 रूपए किराए की चिंता सता रही है। हलीम की पत्नी बताती है है कि उनके पास कोई बचत नहीं है. हलीम की कबाड़ की दुकान उनका नौकर चला रहा है.
दुखद बात ये है कि मौलाना अब्दुल हलीम की कहानी कोई अकेली नहीं है. 15 जुलाई की रात हैदराबाद में अपने पिता के वर्कशॉप से काम करके वापस लौट रहे मोहम्मद मुकीमुद्दीन यासिर को सिपाहियों के एक दल ने गिरफ्तार कर लिया. दस दिन बाद 25 जुलाई को जब बंगलोर में सीरियल धमाके हुए, जिनमें दो लोगों की मौत हो गई, तो हैदराबाद के पुलिस आयुक्त प्रसन्ना राव ने हिंदुस्तान टाइम्स को एक नयी बात बताई. उनके मुताबिक पूछताछ के दौरान यासिर ने ये बात स्वीकारी थी कि गिरफ्तारी से पहले वो आतंकियों को कर्नाटक ले गया था और वहां पर उसने उनके लिए सुरक्षित ठिकाने की व्यवस्था की थी. मगर जेल में उससे मिलकर लौटीं उसकी मां यासिर के हवाले से तहलका को बताती हैं कि पुलिस झूठ बोल रही है, और पुलिस आयुक्त जिसे पूछताछ कह रहे हैं असल में उसके दौरान उनके बेटे को कठोर यातनाएं दी गईं. वो कहती हैं, “उसे उल्टा लटका कर पीटा जा रहा था.”
हालांकि पुलिस के सामने दिये गए बयान की कोई अहमियत नहीं फिर भी अगर इसे सच मान भी लें तो ये हैदराबाद पुलिस के मुंह पर एक ज़ोरदार तमाचा होगा. आखिर यासिर सिमी का पूर्व सदस्य था, उसके पिता और एक भाई आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद हैं. उसके पिता की जमानत याचिका सुप्रीम कोर्ट तक से खारिज हो चुकी है. ये जानते हुए कि उसके भाई और बाप खतरनाक आतंकवादी हैं हैदराबाद पुलिस को हर वक्त उसकी निगरानी करनी चाहिए थी, और जैसे ही वो आतंकियों के संपर्क में आया उसे गिरफ्तार करना चाहिए था.
पुलिस ने न तो यासिर के बयान पर कोई ज़रूरी कार्रवाई की जिससे बैंगलुरु का हमला रोका जा सकता और न ही वो यासिर द्वारा कर्नाटक में आतंकियों को उपलब्ध करवाया गया सुरक्षित ठिकाना ही ढूंढ़ सकी. इसकी वजह शायद ये रही कि उसने ऐसा कुछ किया ही नहीं था. तहलका संवाददाता ने हैदराबाद में यासिर की गिरफ्तारी के एक महीने पहले 12 जून को उससे मुलाकात की थी. उस वक्त यासिर अपने पिता द्वारा स्थापित वर्कशॉप में काम कर रहा था. उसका कहना था, “मेरे पिता और भाई को फंसाया गया है.”
ऐसा लगता है कि अंतर्मुखी यासिर फर्जी मामलों का शिकार हुआ है. 27 सितंबर 2001 को सिमी पर प्रतिबंध लगाए जाने के वक्त वो सिमी का सदस्य था. (तमाम सरकारी प्रचार के बावजूद देश की किसी अदालत ने अभी तक एक संगठन के रूप में सिमी को आंतकवाद से जुड़ा घोषित नहीं किया है) यासिर ने देश भर में फैले उन कई लोगों की बातों को ही दोहराया जिनसे तहलका ने मुलाकात की थी. उसने कहा कि सिमी एक माध्यम था जो धर्म में गहरी आस्था और आत्मशुद्धि का प्रशिक्षण देता था और इसका आतंकवाद या फिर भारत विरोधी साजिशों से कोई नाता नहीं था। “सिमी चेचन्या से लेकर कश्मीर तक मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों की बात करता था”, यासिर ने बताया. “उसने कभी भी बाबरी मस्जिद का मुद्दा नही छेड़ा और इसी चीज़ ने हमें सिमी की तरफ आकर्षित किया”, वो आगे कहता है.
मौलाना नसीरुद्दीन
सिमी पर जिस दिन प्रतिबंध लगाया गया था उसी रात हैदराबाद में यासिर और सिमी के कई प्रतिनिधियों को ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. अगले दिन उन्हें ज़मानत मिल गई. एक दिन बाद ही पुलिस ने तीन लोगों को सरकार के खिलाफ भाषण देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. दो लोगों को फरार घोषित कर दिया गया जिनमें यासिर भी शामिल था. उन्होंने कोर्ट में आत्मसमर्पण किया और उन्हें जेल भेज दिया गया. यहां यासिर को 29 दिनों बाद ज़मानत मिली. इस मामले में सात साल बीत चुके हैं, लेकिन सुनवाई शुरू होनी अभी बाकी है.
यासिर के पिता की किस्मत और भी खराब है. इस तेज़ तर्रार मौलाना की पहचान सरकार के खिलाफ ज़हर उगलने वाले के रूप में थी, विशेषकर बाबरी मस्जिद और 2002 के गुजरात दंगो के मुद्दे पर इनके भाषण काफी तीखे होते थे. तमाम फर्जी मामलों में फंसाए गए मौलाना को हैदराबाद पुलिस ने नियमित रूप से हाजिरी देने का आदेश दिया था.
इसी तरह अक्टूबर 2004 को जब मौलाना पुलिस में हाजिरी देने पहुंचे तो अहमदाबाद से आयी एक पुलिस टीम ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनके ऊपर गुजरात में आतंकवादी साजिश रचने और साथ ही 2003 में गुजरात के गृह मंत्री हरेन पांड्या की हत्या की साजिश रचने का आरोप था।
मौलाना के साथ पुलिस स्टेशन गए स्थानीय मुसलमानों ने वहीं पर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। इस पर गुजरात पुलिस के अधिकारी नरेंद्र अमीन ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर निकाल कर फायर कर दिया जिसमें एक प्रदर्शनकारी की मौत हो गई। इसके बाद तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा। नसीरुद्दीन के समर्थकों ने अमीन के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग को लेकर मृत शरीर को वहां से ले जाने से इनकार कर दिया। अंतत: हैदराबाद पुलिस ने दो एफआईआर दर्ज कीं। एक तो मौलाना की गिरफ्तारी का विरोध करने वालों के खिलाफ और दूसरी अमीन के खिलाफ।अमीन के खिलाफ दर्ज हुआ मामला चार साल में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा है। हैदराबाद पुलिस को उनकी रिवॉल्वर जब्त कर मृतक के शरीर से बरामद हुई गोली के साथ फॉरेंसिक जांच के लिए भेजना चाहिए था। उन्हें अमीन को गिरफ्तार करके मजिस्ट्रेट के सम्मुख पेश करना चाहिए था। अगर गोली का मिलान उनके रिवॉल्वर से हो जाता तो इतने गवाहों की गवाही के बाद ये मामला उसी समय खत्म हो जाता। पर ऐसा कुछ नहीं किया गया।
अमीन, मौलाना नसीरुद्दीन को साथ लेकर अहमदाबाद चले गए और उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर फाइलों में दब कर रह गई। अमीन ही वो पुलिस अधिकारी हैं जिनके ऊपर कौसर बी की हत्या का आरोप है। कौसर बी गुजरात के व्यापारी सोहराबुद्दीन की बीवी थी जिसकी हत्या के आरोप में गुजरात पुलिस के अधिकारी वंजारा जेल में है। अमीन भी अब जेल में हैं।
इस बीच अमीन के खिलाफ हैदराबाद शूटआउट मामले में शिकायत दर्ज करने वाले नासिर के साथ हादसा हो गया। नासिर मौलाना नसीरुद्दीन का सबसे छोटा बेटा और यासिर का छोटा भाई है। इसी साल 11 जनवरी को कर्नाटक पुलिस ने नासिर को उसके एक साथी के साथ गिरफ्तार कर लिया। जिस मोटरसाइकिल पर वो सवार थे वो चोरी की थी। पुलिस के मुताबिक उनके पास से एक चाकू भी बरामद हुआ था। पुलिस ने उनके ऊपर ‘देशद्रोह’ का मामला दर्ज किया।
आश्चर्यजनक रूप से पुलिस ने अगले 18 दिनों में दोनों के 7 कबूलनामें अदालत में पेश किए। इनमें से एक में भी इस बात का जिक्र नहीं था कि वो सिमी के सदस्य थे। इसके बाद पुलिस ने आठवां कबूलनामा कोर्ट में पेश किया जिसमें कथित रूप से उन्होंने सिमी का सदस्य होना और आतंकवाद संबंधित आरोपों को स्वीकार किया था। 90 दिनों तक जब पुलिस उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल करने में नाकाम रही तो नासिर का वकील मजिस्ट्रेट के घर पहुंच गया, इसके बाद क़ानून के मुताबिक उसे ज़मानत देने के अलावा और कोई चारा नहीं था। लेकिन तब तक पुलिस ने नासिर के खिलाफ षडयंत्र का एक और मामला दर्ज कर दिया और इस तरह से उसकी हिरासत जारी रही। इस दौरान यातनाएं देने का आरोप लगाते हुए उसने पुलिस द्वारा पेश किए गए कबूलनामों से इनकार कर दिया।
दोनों को पुलिस हिरासत में भेजने वाले मजिस्ट्रेट बी जिनाराल्कर ने तहलका को एक साक्षात्कार में बताया:
“जब मैं उन्हें न्यायिक हिरासत में भेजने के लिए जरूरी कागजात पर दस्तखत कर रहा था तभी अब्दुल्ला (दूसरा आरोपी) मेरे पास आकर मुझसे बात करने की विनती करने लगा।” उसने मुझे बताया कि पुलिस उसे खाना और पानी नहीं देती है और बार-बार पीटती है। वो नासिर के शरीर पर चोटों के निशान दिखाने के लिए बढ़ा। दोनों लगातार मानवाधिकारों की बात कर रहे थे और चिकित्सकीय सुविधा मांग रहे थे”।
“मुझे तीन बातों से बड़ी हैरानी हुई—वो अपने मूल अधिकारों की बात बहुत ज़ोर देकर कर रहे थे। वो अंग्रेज़ी बोल रहे थे और इस बात को मान रहे थे कि उन्होंने बाइक चुराई थी। मेरा अनुभव बताता है कि ज्यादातर चोर ऐसा नहीं करते हैं।”
जब एक पुलिस सब इंस्पेक्टर ने मजिस्ट्रेट को फोन करके उन्हें न्यायिक हिरासत में न भेजने की चेतावनी दी तब उन्होंने सबसे पहले सबूत अपने घर पर पेश करने को कहा। “उन्होंने मेरे सामने जो सबूत पेश किए उनमें फर्जी पहचान पत्र, एक डिजाइनर चाकू, दक्षिण भारत का नक्शा जिसमें उडुपी और गोवा को चिन्हित किया गया था, कुछ अमेरिकी डॉलर, कागज के दो टुकड़े थे जिनमें एक पर www.com और दूसरे पर ‘जंगल किंग बिहाइंड बैक मी’ लिखा हुआ था।
जब मैंने इतने सारे सामानों को एक साथ देखा तो मुझे लगा कि ये सिर्फ बाइक चोर नहीं हो सकते। बाइक चोर को फर्जी पहचान पत्र और दक्षिण भारत के नक्शे की क्या जरूरत? उनके पास मौजूद अमेरिकी डॉलर से संकेत मिल रहा था कि उनके अंतरराष्ट्रीय संपर्क हैं। कागज पर www.com से मुझे लगा कि वे तकनीकी रूप से दक्ष भी हैं। दूसरे कागज पर लिखा संदेश मुझे कोई कूट संकेत लगा जिसका अर्थ समझने में मैं नाकाम रहा। इसके अलावा जब मैंने दक्षिण भारत के नक्शे का मुआयना शुरू किया तो उडुपी को लाल रंग से चिन्हित किया गया था। शायद उनकी योजना एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान उडुपी में हमले की रही हो।”
“मुझे लगा कि इतने सारे प्रमाण नासिर और अब्दुल्ला को पुलिस हिरासत जांच को आगे बढ़ाने के वास्ते हिरासत में भेजने के लिए पर्याप्त हैं।”
तो क्या मौलाना हलीम, मुकीमुद्दीन यासिर, मौलाना नसीरुद्दीन, और रियासुद्दीन नासिर के लिए कोई उम्मीद है? यासिर और नासिर की मां को कोई उम्मीद नहीं है। वे गुस्से में कहती हैं, “क्यों नहीं पुलिस हम सबको एक साथ जेल में डाल देती है।” फिर गुस्से से ही कंपकपाती आवाज़ कहती है, “और फिर वो हम सबको गोली मार कर मौत के घाट उतार दें।”
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