
Sunday, November 15, 2009
सियासत में जुर्म और ताकत का पर्योग
मीम जाद फजली
राजनीति में धनबल जरूरत से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों होता जा रहा है पिछले सप्ताह के राजनीतिक घटनाक्रमों में साफ दिखा कि क्षेत्रीय पार्टियों में ही नहीं, कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों तक में धनबल कितना प्रभावी हो गया है। कर्नाटक में जो कुछ हुआ या जो कुछ चल रहा है, उसमें भी धनबल का बोलबाला साफ नजर आता है। कर्नाटक की येडि्डयुरप्पा सरकार में रेड्डी बंधु मंत्री हैं। वाकई धनबल की बदौलत ही भाजपा संगठन और सरकार में उनका वर्चस्व है। हवाई दुर्घटना में मारे गए आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी से भी रेड्डी बंधुओं के कारोबारी रिश्ते बताए जाते हैं। आरोप लगाया जाता है कि कांग्रेस दक्षिण भारत की पहली भाजपा सरकार को अस्थिर करने की कोशिश में थी। बेल्लारी के इन दोनों खान मालिकों अर्थात रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक की राजनीति में अच्छी खासी पैठ का फायदा उठाकर संकट खडा किया और अपनी कई मांगों को मनवा लिया, जिसमें कुछ मंत्रियों को सरकार से हटाने, कुछ अफसरों को उनके मौजूदा पदों से हटाने, विधानसभा अध्यक्ष शेट्टर को मंत्रिमंडल में शामिल कराने और जिन आदेशों के कारण उन्हें व्यवसाय में नुकसान हो रहा था, उन्हें रद्द कराना शामिल है। अनिच्छुक येडि्डयुरप्पा को उक्त मांगें माननी पडीं। वे तो कैमरे के सामने रो भी पडे। यह सब कर्नाटक में धनबल के राजनीति पर दबदबे के कारण ही हुआ।धन के जोर का दूसरा उदाहरण आंध्र प्रदेश में सामने आया। डॉ. वाई.एस. राजशेखर रेड्डी की अचानक हुई मौत के बाद प्रदेश में राजनीतिक संकट पैदा हो गया, क्योंकि पहली बार सांसद बने नौसिखिया राजनीतिज्ञ और डॉ. रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी मुख्यमंत्री पद के तगडे दावेदार के रू प में उभरे। डॉ. रेड्डी के शव को दफनाए जाने से पहले ही राजनीतिक ड्रामा शुरू हो गया, जब जगन के समर्थकों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की मांग शुरू कर दी। उनमें से कुछ ने तो हेलीकॉप्टर दुर्घटना के बाद मुख्यमंत्री बने के. रोसैया से असहयोग तक शुरू कर दिया। कांग्रेस हाईकमान ने जगन पर लगाम लगाने की कोशिश की, लेकिन जगन समर्थकों ने काग्रेस नेताओं के पुतले फूं कना शुरू कर उसे मुश्किल में डाल दिया था। हाईकमान कुछ हफ्ते बीतने के बाद ही जगन समर्थकों को यह संकेत दे पाया कि रोसैया मुख्यमंत्री बने रहेंगे। खुद सोनिया गांधी ने पिछले सप्ताह जगन से साफ शब्दों में कह दिया कि उन्हें रोसैया को सहयोग देना होगा। हाईकमान को आंख दिखाने का साहस जगन में कैसे आया यह धनबल ही था, जिसकी बदौलत विधायक जगन मोहन का समर्थन कर रहे थे। जगन के पिता डॉ. रेड्डी ने इन विधायकों को कांग्रेस का टिकट दिलाया था और चुनाव लडने के लिए पैसों का बंदोबस्त भी किया था। इसलिए वे कांग्रेस से ज्यादा उनके प्रति व्यक्तिगत वफादारी दिखा रहे थे। कांग्रेस को आंध्र प्रदेश के अनुभव से सबक लेना चाहिए।तीसरा उदाहरण, जब झारखंड बना था, प्रदेश के लोगों को आस बंधी थी कि इलाके का बहुप्रतीक्षित विकास होगा। लेकिन मधु कोडा प्रकरण से साफ है कि कोडा जैसे राजनेताओं ने खनिजों से समृद्ध इस प्रदेश को जमकर लूटा। कोडा फरवरी 2005 से सितम्बर 2006 तक प्रदेश के खनिज और सहकारिता मंत्री रहे थे। उन्होंने वर्ष 2006 में झारखंड का मुख्यमंत्री बनकर किसी निर्दलीय के पहली बार इस पद पर पहुंचने का रिकार्ड बनाया था। उन्हें कांग्रेस और राजद का समर्थन प्राप्त था। वे 23 अगस्त 2008 तक मुख्यमंत्री रहे।देश यह जानकर हतप्रभ रह गया कि मधु कोडा ने अपने संक्षिप्त राजनीतिक जीवन में दो हजार करोड रूपए से ज्यादा की सम्पत्ति बना ली। आरोप है कि मधु कोडा और उनके साथियों ने थाईलैंड, इंडोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और सिंगापुर समेत कई देशों में खनन, इस्पात और ऊर्जा उद्योगों में निवेश किया है।ऎसा नहीं है कि राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को राजनीति में धनबल के बढते उपयोग का पता नहीं हो। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, तब मुंबई में 1985 में हुए कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन में उन्होंने सत्ता के दलालों का उल्लेख कर खूब तालियां बटोरी थीं। लेकिन वे सत्ता के दलालों से पीछा नहीं छुडा पाए। अब उनके बेटे और कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी धनबल के बारे में बोल रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे राजनीति में धनबल का दबदबा खत्म कर पाएंगेसभी राजनीतिक पार्टियां इस पर चिंता जताती हैं, लेकिन धनबलियों या बाहुबलियों को टिकट देने में भी नहीं हिचकिचाती हैं। उदाहरण के लिए, बिल्डरों की लॉबी ने हाल ही में हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में अच्छी-खासी सीटें प्राप्त की हैं। प्रदेश की लगभग आधी सीटों पर ऎसे प्रत्याशी जीते हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं।एक समय था, जब राजनीतिज्ञ गुंडों के बाहुबल का उपयोग चुनाव जीतने के लिए करते थे। उसके बाद बाहुबली खुद राजनीति में आ गए और चुनाव जीतने लगे। इसके बाद नेता बडे उद्योगपतियों से चुनावों के लिए मोटी रकम चंदे में लेने लगे। कुछ अर्से बाद उद्योगपतियों ने सोचा कि वह दूसरों को पैसा देकर उन्हें चुनाव जीतने में मदद देने के बजाय खुद ही क्यों न लडकर चुनाव जीतें राजनीतिक पार्टियों को धनबल और बाहुबल से राजनीति को पैदा हुए खतरे को समझना चाहिए। यदि इन पर अंकुश नहीं लगा, तो बाद में उन्हें पछताना होगा। सुधार की शुरूआत टिकट बांटते समय ही होनी चाहिए। अमीर लोग राजनीति में आएं और सांसद या विधायक बनें, इस पर तो किसी को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं और आंध्रप्रदेश में जगन मोहन रेड्डी का जो रवैया रहा है, उसे तो कोई उचित नहीं ठहरा सकता।
राजनीति में धनबल जरूरत से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों होता जा रहा है पिछले सप्ताह के राजनीतिक घटनाक्रमों में साफ दिखा कि क्षेत्रीय पार्टियों में ही नहीं, कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों तक में धनबल कितना प्रभावी हो गया है। कर्नाटक में जो कुछ हुआ या जो कुछ चल रहा है, उसमें भी धनबल का बोलबाला साफ नजर आता है। कर्नाटक की येडि्डयुरप्पा सरकार में रेड्डी बंधु मंत्री हैं। वाकई धनबल की बदौलत ही भाजपा संगठन और सरकार में उनका वर्चस्व है। हवाई दुर्घटना में मारे गए आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी से भी रेड्डी बंधुओं के कारोबारी रिश्ते बताए जाते हैं। आरोप लगाया जाता है कि कांग्रेस दक्षिण भारत की पहली भाजपा सरकार को अस्थिर करने की कोशिश में थी। बेल्लारी के इन दोनों खान मालिकों अर्थात रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक की राजनीति में अच्छी खासी पैठ का फायदा उठाकर संकट खडा किया और अपनी कई मांगों को मनवा लिया, जिसमें कुछ मंत्रियों को सरकार से हटाने, कुछ अफसरों को उनके मौजूदा पदों से हटाने, विधानसभा अध्यक्ष शेट्टर को मंत्रिमंडल में शामिल कराने और जिन आदेशों के कारण उन्हें व्यवसाय में नुकसान हो रहा था, उन्हें रद्द कराना शामिल है। अनिच्छुक येडि्डयुरप्पा को उक्त मांगें माननी पडीं। वे तो कैमरे के सामने रो भी पडे। यह सब कर्नाटक में धनबल के राजनीति पर दबदबे के कारण ही हुआ।धन के जोर का दूसरा उदाहरण आंध्र प्रदेश में सामने आया। डॉ. वाई.एस. राजशेखर रेड्डी की अचानक हुई मौत के बाद प्रदेश में राजनीतिक संकट पैदा हो गया, क्योंकि पहली बार सांसद बने नौसिखिया राजनीतिज्ञ और डॉ. रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी मुख्यमंत्री पद के तगडे दावेदार के रू प में उभरे। डॉ. रेड्डी के शव को दफनाए जाने से पहले ही राजनीतिक ड्रामा शुरू हो गया, जब जगन के समर्थकों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की मांग शुरू कर दी। उनमें से कुछ ने तो हेलीकॉप्टर दुर्घटना के बाद मुख्यमंत्री बने के. रोसैया से असहयोग तक शुरू कर दिया। कांग्रेस हाईकमान ने जगन पर लगाम लगाने की कोशिश की, लेकिन जगन समर्थकों ने काग्रेस नेताओं के पुतले फूं कना शुरू कर उसे मुश्किल में डाल दिया था। हाईकमान कुछ हफ्ते बीतने के बाद ही जगन समर्थकों को यह संकेत दे पाया कि रोसैया मुख्यमंत्री बने रहेंगे। खुद सोनिया गांधी ने पिछले सप्ताह जगन से साफ शब्दों में कह दिया कि उन्हें रोसैया को सहयोग देना होगा। हाईकमान को आंख दिखाने का साहस जगन में कैसे आया यह धनबल ही था, जिसकी बदौलत विधायक जगन मोहन का समर्थन कर रहे थे। जगन के पिता डॉ. रेड्डी ने इन विधायकों को कांग्रेस का टिकट दिलाया था और चुनाव लडने के लिए पैसों का बंदोबस्त भी किया था। इसलिए वे कांग्रेस से ज्यादा उनके प्रति व्यक्तिगत वफादारी दिखा रहे थे। कांग्रेस को आंध्र प्रदेश के अनुभव से सबक लेना चाहिए।तीसरा उदाहरण, जब झारखंड बना था, प्रदेश के लोगों को आस बंधी थी कि इलाके का बहुप्रतीक्षित विकास होगा। लेकिन मधु कोडा प्रकरण से साफ है कि कोडा जैसे राजनेताओं ने खनिजों से समृद्ध इस प्रदेश को जमकर लूटा। कोडा फरवरी 2005 से सितम्बर 2006 तक प्रदेश के खनिज और सहकारिता मंत्री रहे थे। उन्होंने वर्ष 2006 में झारखंड का मुख्यमंत्री बनकर किसी निर्दलीय के पहली बार इस पद पर पहुंचने का रिकार्ड बनाया था। उन्हें कांग्रेस और राजद का समर्थन प्राप्त था। वे 23 अगस्त 2008 तक मुख्यमंत्री रहे।देश यह जानकर हतप्रभ रह गया कि मधु कोडा ने अपने संक्षिप्त राजनीतिक जीवन में दो हजार करोड रूपए से ज्यादा की सम्पत्ति बना ली। आरोप है कि मधु कोडा और उनके साथियों ने थाईलैंड, इंडोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और सिंगापुर समेत कई देशों में खनन, इस्पात और ऊर्जा उद्योगों में निवेश किया है।ऎसा नहीं है कि राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को राजनीति में धनबल के बढते उपयोग का पता नहीं हो। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, तब मुंबई में 1985 में हुए कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन में उन्होंने सत्ता के दलालों का उल्लेख कर खूब तालियां बटोरी थीं। लेकिन वे सत्ता के दलालों से पीछा नहीं छुडा पाए। अब उनके बेटे और कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी धनबल के बारे में बोल रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे राजनीति में धनबल का दबदबा खत्म कर पाएंगेसभी राजनीतिक पार्टियां इस पर चिंता जताती हैं, लेकिन धनबलियों या बाहुबलियों को टिकट देने में भी नहीं हिचकिचाती हैं। उदाहरण के लिए, बिल्डरों की लॉबी ने हाल ही में हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में अच्छी-खासी सीटें प्राप्त की हैं। प्रदेश की लगभग आधी सीटों पर ऎसे प्रत्याशी जीते हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं।एक समय था, जब राजनीतिज्ञ गुंडों के बाहुबल का उपयोग चुनाव जीतने के लिए करते थे। उसके बाद बाहुबली खुद राजनीति में आ गए और चुनाव जीतने लगे। इसके बाद नेता बडे उद्योगपतियों से चुनावों के लिए मोटी रकम चंदे में लेने लगे। कुछ अर्से बाद उद्योगपतियों ने सोचा कि वह दूसरों को पैसा देकर उन्हें चुनाव जीतने में मदद देने के बजाय खुद ही क्यों न लडकर चुनाव जीतें राजनीतिक पार्टियों को धनबल और बाहुबल से राजनीति को पैदा हुए खतरे को समझना चाहिए। यदि इन पर अंकुश नहीं लगा, तो बाद में उन्हें पछताना होगा। सुधार की शुरूआत टिकट बांटते समय ही होनी चाहिए। अमीर लोग राजनीति में आएं और सांसद या विधायक बनें, इस पर तो किसी को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं और आंध्रप्रदेश में जगन मोहन रेड्डी का जो रवैया रहा है, उसे तो कोई उचित नहीं ठहरा सकता।
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