वर्तमान में बिहार का जिक्र आने पर जो परिदृश्य उभरकर सामने आता है, उसमें राजधानी पटना की उंची इमारतें, चकाचक रोड, भीड़ के कोलाहल से गुंजायमान डाकबंगला रोड, देर रात तक गुलजार रहने वाला मौर्यालोक परिसर, मुख्यमंत्री, मंत्रियों एवं अधिकारियों के आलीशान बंगले और फ़िर 24 घंटे में कम से कम 22 घंटे बिजली रहने की गारंटी। यानि सबकुछ ठीक ठाक्। जब भी कोई विदेशी मेहमान आता है, पटना को देखता है और फ़िर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नाम का जयकारा लगाता है। अगले दिन बिहार के अखबार वाले इस जयकारे में अपनी चमचागिरी का तड़का लगाकर बिहार की बेहाल जनता के सामने खबर परोसते हैं। यह खबर कैसी होती है, इसका एक उदाहरण देखिये।
अभी हाल ही में माइक्रोसाफ़्ट के मालिक बिल गेट्स और उनकी पत्नी मिलिंडा गेट्स बिहार आई थीं। दोनों ने बिहार के उन गावों का दौरा किया, जिन्हें, उनके चैरिटी संस्थान गेट्स फ़ाऊंडेशन ने गोद ले रखा है। जब श्री गेट्स ने गोद लिये गये गावों में चल रहे कार्यक्रमों की समीक्षा कर ली, तब पूर्व से तय कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भेंट की। इस बैठक में श्री गेट्स ने मुख्यमंत्री से शिकायती लहजे में कहा था कि राज्य की स्वास्थ्य संबंधी आधारभूत संरचना अत्यंत दयनीय है। प्रेस कर्मियों से पूछे गये एक सवाल के क्रम में उन्होंने कहा था कि – बिहार इज स्टील बिहाइन्ड सेंचुरिज। यानि बिहार अभी भी विकास के मामले में कई शताब्दियां पीछे है।
अगले दिन जब खबर छपी तो, पुछिये मत। शायद ही कोई ऐसा अखबार रहा होगा, जिसने श्री गेट्स के इस बयान को छापा हो। सभी ने कहा – गेट्स सैल्यूटेड नीतीश फ़ार फ़ास्ट डेवलपमेंट आफ़ बिहार। वास्तविकता क्या थी और अखबारों ने क्या छापा, इसका अंदाज तो आसानी से लग जाता है। खैर, बात हो रही है बिहार के विकास की।
असल में बिहार सरकार के मुखिया नीतीश कुमार बहुत ही तेज दिमाग के मालिक हैं। तेज इसलिये हैं क्योंकि बिहार की जनता में एकता नहीं है। इसकी हालत बिल्कुल उन बकरों की तरह है, जिनका एक साथी मांस विक्रेता द्वारा हलाल किया जा रहा हो और वे इस बात को सोचकर मगन हों कि अभी उनकी बारी नहीं आई है। अगर यकीन न आये तो दो दिनों के लिये पहले पटना में रह लिजीये और फ़िर दो दिनों के लिये आप लखीसराय या फ़िर कोई भी जिला चुन लिजीये, चले जाइये। पटना के निवासियों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि कटिहार जिले में क्यों केवल 2 घंटे बिजली है ? उसी प्रकार किसी खाते पीते घर को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उसका पड़ोसी क्यों भूखा है? जब कोई भूख से मर जाता है तो वह सोचता है कि चलो, अच्छा हुआ, कोई उसके घर का नहीं मरा न?
बक्सर, रोहतास, औरंगाबाद और आरा के किसानों की तकलीफ़ कोई मिथिलांचल वाले नहीं समझना चाहते हैं कि आखिर क्यों सोन कैनाल में पानी नहीं दिया जा रहा है? उसी प्रकार मगध का वासी यह जानने की कोशिश भी नहीं करता कि कोशी 2008 के पीड़ितों का मकान बना या नहीं बना? ये तो बहुत दूर की बात रही। आज का बिहारी समुदाय किस कदर स्वार्थी हो गया है कि जब कोई व्यक्ति किसी कारणवश बेखौफ़ हो चुके अपराधियों की गोली का शिकार होता है तो वह सोचता है कि जरूर उसने भी किसी का खून किया होगा, तभी वह मारा गया। अभी एक दिन पहले ही राजधानी पटना के फ़ुलवारी प्रखंड में एक वार्ड पार्षद रेखा की हत्या गैंगरेप के बाद कर दी गई। जानते हैं, उसके अपने आस पड़ोस के लोगों ने क्या कहा। लोगों ने कहा कि बड़ा बनती थी, अब चली गई न दूनिया से।
सवाल यह है कि आखिर क्यों बिहारी इतने असंवेदनशील होते जा रहे हैं। सरकार कहती है कि उसके विकास कार्यक्रमों ने जातिवाद की दीवार को ढाह दिया है। इसका प्रमाण वह बिहार विधान सभा चुनाव परिणाम को देती है। वैसे इस बात में कोई दम नहीं है। इसका सबसे बड़ा आधार यही है कि भूमिहार समाज में ही अनंत सिंह के स्थान पर बड़े से बड़े दिग्गज और इंसान बिहार में निवास करते हैं। यदि बिहार सरकार जातिवाद नहीं करती तो आज पटना के सीनियर एसपी और डीएम दोनों जाति के कुर्मी नहीं होते।
दरअसल नीतीश कुमार बिहार में विकास शब्द की आड़ में सुशासन नहीं, बल्कि लूट का शासन चला रहे हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह कि आज बिहार में त्रिस्तरीय लूट व्यवस्था कायम हो गई है। पहले मुख्यमंत्री, मंत्री और राजधानी में बैठे अफ़सर लूटते हैं, फ़िर बारी आती है जिले और प्रखंड में बैठे अफ़सरों की। इन महानुभावों के लूटने के बाद जो धनराशि बचती है, उस पर पंचायती राज के प्रतिनिधियों और ठेकेदारों का अधिकार बनता है। अभी हाल ही में एक संवाददाता सम्मेलन में राज्य निर्वाचन आयोग के आयुक्त जे के दत्ता ने कहा कि उन्होंने राज्य सरकार को आयोग की ओर से दी गई अनुशंसा में स्पष्ट तौर पर उल्लेखित किया है कि मुखिया को वित्तीय शक्ति देने से पंचायती राज व्यवस्था तार तार हुई है।
सवाल यही है कि आखिर जब विकास हुआ है अथवा हो रहा है फ़िर भी इतनी खामियां क्यों हैं। सत्तापक्ष के नेताओं द्वारा यह कहा जाता है कि सूबे में 15 सालों के जंगलराज के दुष्प्रभाव को जाने में समय लगेगा। गाहे-बेगाहे सत्ता पक्ष के बिहार की बदहाली के लिए लालू राज पर दोषारोपण करते हैं। क्या वाकई में इन सबके लिये लालू राज जिम्मेवारी है कि पिछले 3 माह में राजधानी पटना में 38 युवाओं ने आत्महत्यायें कर लीं? क्या इसके लिये भी लालू ही जिम्मेवार हैं कि पिछले साढे पांच सालों में 1 लाख 99 हजार करोड़ रुपये के निवेश के बदले केवल 2000 करोड़ रुपये का निवेश हुआ है? क्या इसके लिये लालू यादव को दोषी ठहराया जा सकता है कि बिहार के विभिन्न विभागों द्वारा करीब साढे सोलह हजार करोड़ रुपये के खर्चे का हिसाब नहीं दिया गया है, जिसे सीएगी की नजर में वित्तीय अनियमितता और आम आदमी की नजर में घोटाला कहा जाता है?
बहरहाल, नीतीश सरकार पर कोई सवाल उठता है तब सत्ता पक्ष के लोग बिहार की जनता को लालू राज का भय दिखाकर अथवा याद दिलाकर पूरे मुद्दे का राजनीतिकरण कर देते हैं। इसका एक प्रमाण यह देखिये कि बिहार सरकार में शामिल रहे रामाधार सिंह की तुलना लालू यादव से कर सुशील कुमार मोदी ने अपनी निम्न मानसिकता का परिचय दिया है। जबकि अभी भी बिहार सरकार में चार मंत्री ऐसे हैं, जिनके खिलाफ़ घोटाले के मामले लंबित पड़े हैं। इनमें से एक हमारे सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी हैं। सवाल यही है कि क्या नीतीश सरकार लालू नाम के सहारे बिहार की जनता को दिग्भ्रमित करने में सफ़ल रह पायेगी? वर्तमान परिवेश में संभव है कि इसका उत्तर सकारात्मक है, क्योंकि अभी भी समाज का जो वर्ग वोकल है, वह किसी न किसी रुप में नीतीश सरकार के सोशल इंजीनियरिंग से लाभान्वित है और उसके लिये तो घटिया कंपनी के द्वारा उत्पादित जैक आपूर्ति पर मुहर लगाकर करोड़ों लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले नीतीश कुमार किसी महापुरुष से कम नहीं। खैर, अब इनके दिन भी लदने वाले हैं। बस थोड़ा इंतजार और।