M.Z.FAZLI
447/27,Trilok puri
Delhi- 110091
Mobile: 09868093558,09312017945,09555812750
E-mail: fazli.mz@gmail.com,mz734@yahoo.com , www.fazlidbg.blogspot.com
EDUCATION QUALIFICATION
FAZIL from Darul Ulloom Deoband
ALIM, Bihar Madrasa Education Board Patna equal of B.A. Hons,
10th Bihar School Examination Board Patna
OCCUPATION
Editor, Translator, Reporter & Columnist.
PROFESSIONAL EXPERIENCE:
Worked as a Sub Editor daily Azadhind Kolkata, for 1995to1997
Worked as a Sub Editor daily Hind Kolkata for 1997to 1999.
Worked as a Asst. Editor Monthly Al-Islah Kolkata for 1997 to 2002.
Worked as a Sub Editor Daily Indinon(Hindi) delhi 2006
Working as a reporter UNN news agency in Hindi & Urdu Part time
Working as a News Editor Daily Hamarasamaj (Urdu) Delhi March 2007 to till Date.
LINGUISTIC ABILITY
Urdu, Hindi, English, Arabic, Persian and Gujarati
Computer DTP & Pagemaking Knowledge
PERSONAL DETAIL:
Name : Muhammed Ziaullah Fazli
Father’s Name : Late. Ab. Malik
D.O.B. : 25/01/1976
Gender : Male
Nationality : Indian
Marital Status : Married
Hobbies : Column Writing
Permanent Address:
: At & P.O.Jahangir Tola
: Via, Jogiara
: Dist. Darbhanga Bihar.847303
Place: Delhi Signature
Date… Meem Zad Fazli (Dr. M.Z. FAZLI)
Saturday, June 20, 2009
पैसे ले खबर छापना सही तो पैसे ले गोली मारना गलत कैसे?
मुददे पर बहस करें तो ज्यादा सार्थक होगा : मुद्दा था अखबारों के पैकेज संबंधी गोरखधंधे का। पर पिछले कुछ दिनों से मुख्य मुद्दा गौण हो गया। अब एक दूसरे पर आरोप लगाने की नौबत तक आ गई है। कौन गलत? कौन सही? जनसता का प्रसार घटा तो क्यों घटा? जनसत्ता महान या जागरण महान? शहर के अंदेशे में काजी जी दुबले क्यों? खैर जो कुछ है, उससे स्पष्ट हो गया है, हिंदी पत्रकारिता की दशा और दिशा क्या है। कैसे पत्रकार हिंदी जगत में है। उनकी शैक्षिक योग्यता क्या है? सामान्य रूप से पत्रकार हिंदी जगत में वही बनता है जिसे कहीं और नौकरी नहीं मिलती है। मैं भी उसी में से एक हूं। कहीं और नौकरी नहीं लगी तो पत्रकार बन गया। हिंदी जगत में कुल अस्सी प्रतिशत लोग ऐसे ही पत्रकार होंगे। यही कारण है कि निचले स्तर से उपर चापलूसी कर संपादक बने कई संपादक अपनी मूर्खता को छुपाने के लिए कई रास्ते अपनाते हैं। कई संपादक जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती वो अंग्रेजी के दो चार शब्दों का इस्तेमाल अपने जूनियर के सामने करेंगे। कई संपादक हिंदी के प्रगतिशील कवियों के उदाहरण देंगे। कई संपादक रिपोर्टर की खबरों में व्याकरण की गलतियों को निकाल उन्हें बुलाकर समझाने की कोशिश करेंगे। कई कहेंगे कि जब मैं रिपोर्टर था तो संपादकों को पीट देता था, अफसरों को पीट देता था। इस तरह के संपादकों से मेरा पाला पड़ चुका है।
मसला यह नहीं है। मसला यह है कि 2009 के लोकसभा चुनावों में अखबारों ने पैकेज सिस्टम लाया। यह खुलेआम एक भ्रष्टाचार था। अर्थात पैसे लेकर खबरें छापी गई और जिन उम्मीदवारों ने पैसे नहीं दिया उन्हें अखबारों के पृष्ठ से गायब कर दिया गया। इस मसले को उठाया भाजपा के प्रत्याशी राम इकबाल सिंह, लालजी टंडन, समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह और बसपा के हरमोहन धवन ने। इसके बाद विवाद की शुरुआत हुई। पत्रकारों के एक वर्ग ने इसे बुरा माना। इसमें प्रभाष जोशी एक थे। प्रभात खबर के हरिवंश ने सबसे पहले इस पर टिप्पणी की और खबरों का धंधा करने का खुला विरोध किया। इसके बाद मसला ज्यादा गरमाया। प्रभाष जोशी ने दैनिक जागरण पर हमला किया। उन्होंने अखबार का नाम नहीं लिखा, पर इशारा साफ जागरण की तरफ था क्योंकि राज्यसभा में दो अखबार मालिक अकेले जागरण समूह से ही गए हैं।
अब मसला था कि अखबारों के भ्रष्टाचार कितने नैतिक और कितने कानूनी हैं? पर कुछ पत्रकारों ने मुख्य मुदे से ध्यान हटाने के लिए निजी हमला शुरू कर दिया, कहा कि प्रभाष जोशी सफल है, जनसता असफल है, अर्थात प्रभाष जोशी असफल अखबार के सफल संपादक थे। ये दो अलग-अलग मुद्दे हैं। जनसता का अच्छा या बुरा होना अलग मुद्दा है, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर व पंजाब केसरी द्वारा पैसे लेकर खबरें छापना अलग मुद्दा है। इन दोनों मुद्दों का आपस में गड्डमड्ड नहीं किया जाना चाहिए। कोई अखबार कितना बिकता है, उससे अखबार की महानता नहीं सामने आती। लड़कियों की नंगी तस्वीर छापकर कोई अखबार समूह बीस लाख अखबार बेचता है तो वो बड़ा समूह नहीं हो जाएगा। हो सकता है कुछ दिनों में नंगी तस्वीर के कारण अखबार का सरकुलेशन पचास लाख हो जाए, पर क्या यह नैतिक या कानूनी रूप से जायज होगा? जनसता पर हमला करने वाले पत्रकार महोदय के तर्क को तब सही माना जाता जब वे प्रामाणिकता से कहते, प्रभाष जी, जनसता ने भी तो अमुक खबर लिखने के लिए पैसे लिए थे! जनसता ने भी तो चुनावों के दिनों में खबरें छापने के लिए प्रत्याशियों से पैसे लिए थे!! साथ ही इसका प्रमाण भी उपलब्ध करवा देते!!! पर प्रमाण पत्रकार महोदय के पास नहीं थे तो बड़े ही मारपीट की भाषा में कहा, जनसता से ज्यादा तो गली-कूचे के अखबार पढ़े जाते हैं। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि जनसता इसलिए सरवाइव नहीं कर पाया क्योंकि जनसता वो भ्रष्टाचार नहीं कर सका जो अन्य अखबारों ने किया?
जो भी पत्रकार मीडिया के इस गोरखधंधे पर लिख रहे हैं, उन्हें न तो कानून की जानकारी है न ही सामाजिक परंपरा की, जो कानून के रूप में इस देश में सदियों से चला आ रहा है। दिलचस्प बात यह है इसमें रिपोर्टर ही नहीं, कुछ संपादक भी शामिल हैं। वे अखबारों के पैकेज को सही ठहराते हुए इसे अपनी रोजी-रोटी से जोड़ रहे हैं। खैर, ये वो पत्रकार हैं जो पत्रकार इसलिए बन गए क्योंकि किसी अखबार के संपादक के घर सब्जी, दूध, दही पहुंचाते होंगे। उनकी इस सेवा से प्रसन्न संपादक ने उन्हें कई सितारे दे दिए होंगे। लेकिन बहस तो इस बात पर होनी चाहिए थी कि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में अखबारों ने जो पैकेज का गोरखधंधा चलाया, क्या वो कानूनी रूप से जायज था? क्या ये चुनावी आचार संहिता के अनुकूल था? चुनावी आचार संहिता और भारत का जनप्रतिनिधि कानून इस पर क्या कहता है? इस संबंध में प्रेस, मीडिया एंड टेलीकम्यूनिकेशन ला क्या कहता है? इस संबंध में प्रेस एवं रजिस्ट्रेशन से संबंधित एक्ट क्या कहते हैं?
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि अभी तक इन कानूनी पहलुओं पर कोई बहस नहीं छेड़ी गई। न तो किसी पत्रकार महोदय ने इस पर लिखने की जहमत उठायी, न ही कोई आगे शायद उठाए। अच्छा होता सुप्रीम कोर्ट के किसी वकील से इस मुददे पर बहस कराई जाती। इस मसले पर भाजपा के वकील नेता अरुण जेतली, रविशंकर प्रसाद, कांग्रेस के वकील नेता अभिषेक मनु सिंघवी और कपिल सिब्बल से कुछ लिखवाया जाता? कम से कम इस देश के पत्रकार जगत को तो यह तो पता चलता कि आखिर देश का कानून इस संबंध में क्या कहता है? साथ ही इस बात पर भी बहस होनी चाहिए थी कि दुनिया के दूसरे देश जहां लोकतांत्रित तरीके से सरकार का गठन होता, वहां मीडिया की भूमिका क्या है? अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस जैसे देश में चुनावों के दौरान मीडिया कवरेज से संबंधित क्या कानून हैं? इनकी क्या परंपरा है? इन कानूनों और परंपराओं का कितना पालन होता है? फिर कम से कम राजनीतिक दलों से यह सवाल पूछा जाना चाहिए था कि अखबारों के इस गोरखधंधे पर उनका कया स्टैंड है? कुल मिलाकर सर्वसम्मति से इस गंभीर मसले पर एक निष्कर्ष निकालने की कोशिश होनी चाहिए।
सवाल उठता है कि अगर मतदान केंद्र पर कब्जा करना अपराध है, गैर-कानूनी है, मतदाताओं को पैसे देकर वोट खरीदना अपराध है, गैर-कानूनी है तो फिर अखबारों से पैकेज खरीद कर खबरों को छपवाना कैसे कानूनसम्मत होगा? 1990 के पहले चुनावी आचार संहिता शब्द देश की जनता नहीं जानती थी। चुनाव आयोग में जब मजबूत चुनाव आयुक्त आए तो चुनावी आचार संहिता देश के लोग जानने लगे। चुनावी आचार संहिता का कड़ाई से पालन होने लगा। उम्मीदवारों को चुनाव आयोग का डर भी होने लगा। पहले चुनावों में बेशुमार खर्च होते थे। ये खर्च दिखते थे। उम्मीदवार झंडे, डंडे, गाड़ी और बूथ लूटेरों पर बेतहाशा धन खर्च करते थे। चुनाव आयोग ने खर्च सीमा तय कर कुछ हद तक इसे रोकने की कोशिश की। झंडे-डंडे गायब हो गए गाड़ियां भी गायब हो गईं। पर खर्च के और अलग तरीके उम्मीदवारों ने ढूंढ लिया। अब प्रत्याशी शराब और पैसे लोगों के बीच बांटने लगे। बिहार जैसे राज्य में, जहां लोकसभा चुनाव दस लाख रुपये में निपट जाता था, अब करोड़ों का खर्च होने लगा है। वहां बूथ लूटेरों का आतंक कम हुआ तो शराब बंटने लगी। पंजाब में तो वोटर आई-कार्ड खरीदे जाने लगे। विरोधी दल का वोट देने वाला मतदाता, मतदान केंद्र पर न पहुंचे इसे सुनिश्चित करने के लिए चुनावों में प्रति वोटर आई-कार्ड दो से पांच हजार रुपये तक बांटे गए। इससे भी संतुष्टि नहीं हुई और लगा कि कहीं कोई और प्रूफ लेकर मतदाता, मतदान केंद्र तक न पहुंच जाए, तो उसकी अंगुली पर स्याही लगा दिया गया। मतलब की जो काम गैर-कानूनी था, उसे आयोग की सख्ती के बाद भी अंजाम दिया गया। आयोग अभी भी पूरी तरह से लोकतांत्रित प्रक्रिया बहाल करने में विफल रहा है। पर निश्चित तौर पर चुनाव के दौरान पैसे बांटना, शराब बांटना, वोटर आईकार्ड की खरीद गैर-कानूनी काम है। फिर जब ये गैरकानूनी है तो अखबारों द्वारा पैसे लेकर चुनावी खबर छापना कैसे कानूनी होगा?
अब अखबार वाले कहेंगे कि अगर प्रत्याशी बाकी मामलों में पैसे खर्च कर रहा है तो अखबार ने कुछ पैसे ले लिए तो क्या हुआ? पर सच्चाई यह है कि अखबारों ने इस मसले पर भारी अपराध किया है। यह तो उनका सौभाग्य है कि अभी चुनाव आयोग चुप है। शायद अखबारों से चुनाव आयोग भी फिलहाल डरा हुआ लग रहा है। नहीं तो अखबारों ने आयोग के उस निर्देश की धज्जियां उड़ायी है जिस पर मामला तक दर्ज हो सकता है। अखबारों ने पैसे लेकर जो संपादकीय छापे हैं, उन्हें अगर आयोग ने चुनावी खर्चे में शामिल कर दिया तो प्रत्याशी भी फंसेंगे और अखबार भी। अखबारों ने इस बार प्रत्याशियों के विज्ञापन इसलिए नहीं छापे क्योंकि इससे विज्ञापन का बिल चुनावी खर्च में शामिल हो जाता। अर्थात अखबारों ने एडोटोरियल के माध्यम से प्रत्याशियों को चोरी का नया रास्ता बताया। पर अखबारों ने यह नहीं सोचा कि इतने खर्चीले चुनाव का सबसे ज्यादा असर इस देश के लोकतंत्र पर पड़ेगा। अगर अखबारों ने यही धं¡धा जारी रखा तो गरीब प्रत्याशी आगे चुनाव लड़ने को ही नहीं सोचेगा। प्रत्याशी चुनाव लड़ने से पहले अपने खर्चों को गिनाते वक्त कहेगा, शराब के लिए पचास लाख, मतदाताओं को बांटने के लिए एक करोड़ और अखबारों के पैकेज के लिए दो करोड़। गरीब प्रत्याशी चाहे वो किसी भी दल का हो, पैकेज का शिकार होगा। अर्थात चुनाव को महंगा बनाने और गरीबों को चुनाव लड़ने से रोकने में सबसे बड़ी भागीदारी अखबारों की है। फिर तो निश्चित तौर पर कोई कलावती और भगवतिया देवी लोकसभा का मुंह नहीं देख पाएगी। यह दुर्भाग्य की बात है कि 2009 में गठित लोकसभा में साठ प्रतिशत से ज्यादा उम्मीदवार करोड़ों रुपये के पति हैं।
पैकेज बेचकर अखबारों में खबर छापने के बाद अखबार किस नैतिकता से किसी गलत काम का विरोध करेंगे? अगर कोई प्रत्याशी अखबारों के पैकेज खरीद चुनाव जीत जाता है, तो पैसे के बल पर यूपीएससी और राज्य सिविल सेवा की परीक्षा में चुनकर आने वाला कोई अभ्यर्थी कैसे गलत होगा? आखिर वो भी तो रोजी-रोटी के लिए ही नौकरी में पैसे देकर चयनित हुआ? फिर ऐसी कदाचार संबंधी खबरें छापने का कितना नैतिक हक किसी अखबार को होगा? अगर कोई शूटर पैसे लेकर किसी की हत्या कर देता है तो यह कितना गैर-कानूनी काम होगा? आखिर उसने भी तो रोजी-रोटी के लिए किसी को गोली मारी? अगर कोई ठेकेदार जिला, राज्य, केंद्र स्तर पर अधिकारियों को घूस देकर काम करा लेता है तो क्या गलत है? आखिर ठेकेदार और अफसर दोनों की रोजी-रोटी का ही सवाल है? कम से कम इस महंगाई के दौर में वेतन से तो काम नहीं ही चलता?
बहस अगर सार्थक हो तो ज्यादा अच्छा होगा। बहस की सीमा यहीं तक होनी चाहिए कि क्या अखबारों का पैकेज का धंधा कानूनसम्मत है? अगर कानून सम्मत नहीं है तो आने वाले दिनों में इसे कानूनसम्मत बनाया जाए ताकि अखबारों को फलने-फूलने का पूरा मौका मिले? अगर यह कानून सम्मत नहीं है तो अखबारों के खिलाफ क्या अपराधिक मामला दर्ज होना चाहिए? क्या अखबारों को अब सीधे रूप में चुनावी आचार संहिता के अंदर लाया जाना चाहिए? क्या चुनावों के दौरान आयोग अखबारों की खबरों की मॉनेटरिंग के लिए हर लोकसभा क्षेत्र में अलग से एक पर्यवेक्षक तैनात करे? अगर पर्यवेक्षक अखबारों की खबरों में पक्षपात की बू पाता है और किसी प्रत्याशी के पक्ष में पाता है, तो क्या अखबारों को नोटिस जारी होना चाहिए? क्या अखबारों के उपर ठीक उसी तरह से कार्रवाई होनी चाहिए जिस तरह से चुनाव आयोग आचार संहिता लागू होने के बाद पक्षपाती अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करता है? दुर्भाग्य की बात है कि अभी तक इस मसले पर कोई बहस नहीं छिड़ी है।
लेखक संजीव जुझारू पत्रकार हैं और पिछले कई वर्षों से चंडीगढ़ में विभिन्न मीडिया माध्यमों से जुड़े हुए हैं। उनसे संपर्क के लिए sanjiv.panday@yahoo.com This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it पर मेल कर सकते हैं या फिर 09417005113 पर रिंग कर सकते हैं।
मसला यह नहीं है। मसला यह है कि 2009 के लोकसभा चुनावों में अखबारों ने पैकेज सिस्टम लाया। यह खुलेआम एक भ्रष्टाचार था। अर्थात पैसे लेकर खबरें छापी गई और जिन उम्मीदवारों ने पैसे नहीं दिया उन्हें अखबारों के पृष्ठ से गायब कर दिया गया। इस मसले को उठाया भाजपा के प्रत्याशी राम इकबाल सिंह, लालजी टंडन, समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह और बसपा के हरमोहन धवन ने। इसके बाद विवाद की शुरुआत हुई। पत्रकारों के एक वर्ग ने इसे बुरा माना। इसमें प्रभाष जोशी एक थे। प्रभात खबर के हरिवंश ने सबसे पहले इस पर टिप्पणी की और खबरों का धंधा करने का खुला विरोध किया। इसके बाद मसला ज्यादा गरमाया। प्रभाष जोशी ने दैनिक जागरण पर हमला किया। उन्होंने अखबार का नाम नहीं लिखा, पर इशारा साफ जागरण की तरफ था क्योंकि राज्यसभा में दो अखबार मालिक अकेले जागरण समूह से ही गए हैं।
अब मसला था कि अखबारों के भ्रष्टाचार कितने नैतिक और कितने कानूनी हैं? पर कुछ पत्रकारों ने मुख्य मुदे से ध्यान हटाने के लिए निजी हमला शुरू कर दिया, कहा कि प्रभाष जोशी सफल है, जनसता असफल है, अर्थात प्रभाष जोशी असफल अखबार के सफल संपादक थे। ये दो अलग-अलग मुद्दे हैं। जनसता का अच्छा या बुरा होना अलग मुद्दा है, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर व पंजाब केसरी द्वारा पैसे लेकर खबरें छापना अलग मुद्दा है। इन दोनों मुद्दों का आपस में गड्डमड्ड नहीं किया जाना चाहिए। कोई अखबार कितना बिकता है, उससे अखबार की महानता नहीं सामने आती। लड़कियों की नंगी तस्वीर छापकर कोई अखबार समूह बीस लाख अखबार बेचता है तो वो बड़ा समूह नहीं हो जाएगा। हो सकता है कुछ दिनों में नंगी तस्वीर के कारण अखबार का सरकुलेशन पचास लाख हो जाए, पर क्या यह नैतिक या कानूनी रूप से जायज होगा? जनसता पर हमला करने वाले पत्रकार महोदय के तर्क को तब सही माना जाता जब वे प्रामाणिकता से कहते, प्रभाष जी, जनसता ने भी तो अमुक खबर लिखने के लिए पैसे लिए थे! जनसता ने भी तो चुनावों के दिनों में खबरें छापने के लिए प्रत्याशियों से पैसे लिए थे!! साथ ही इसका प्रमाण भी उपलब्ध करवा देते!!! पर प्रमाण पत्रकार महोदय के पास नहीं थे तो बड़े ही मारपीट की भाषा में कहा, जनसता से ज्यादा तो गली-कूचे के अखबार पढ़े जाते हैं। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि जनसता इसलिए सरवाइव नहीं कर पाया क्योंकि जनसता वो भ्रष्टाचार नहीं कर सका जो अन्य अखबारों ने किया?
जो भी पत्रकार मीडिया के इस गोरखधंधे पर लिख रहे हैं, उन्हें न तो कानून की जानकारी है न ही सामाजिक परंपरा की, जो कानून के रूप में इस देश में सदियों से चला आ रहा है। दिलचस्प बात यह है इसमें रिपोर्टर ही नहीं, कुछ संपादक भी शामिल हैं। वे अखबारों के पैकेज को सही ठहराते हुए इसे अपनी रोजी-रोटी से जोड़ रहे हैं। खैर, ये वो पत्रकार हैं जो पत्रकार इसलिए बन गए क्योंकि किसी अखबार के संपादक के घर सब्जी, दूध, दही पहुंचाते होंगे। उनकी इस सेवा से प्रसन्न संपादक ने उन्हें कई सितारे दे दिए होंगे। लेकिन बहस तो इस बात पर होनी चाहिए थी कि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में अखबारों ने जो पैकेज का गोरखधंधा चलाया, क्या वो कानूनी रूप से जायज था? क्या ये चुनावी आचार संहिता के अनुकूल था? चुनावी आचार संहिता और भारत का जनप्रतिनिधि कानून इस पर क्या कहता है? इस संबंध में प्रेस, मीडिया एंड टेलीकम्यूनिकेशन ला क्या कहता है? इस संबंध में प्रेस एवं रजिस्ट्रेशन से संबंधित एक्ट क्या कहते हैं?
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि अभी तक इन कानूनी पहलुओं पर कोई बहस नहीं छेड़ी गई। न तो किसी पत्रकार महोदय ने इस पर लिखने की जहमत उठायी, न ही कोई आगे शायद उठाए। अच्छा होता सुप्रीम कोर्ट के किसी वकील से इस मुददे पर बहस कराई जाती। इस मसले पर भाजपा के वकील नेता अरुण जेतली, रविशंकर प्रसाद, कांग्रेस के वकील नेता अभिषेक मनु सिंघवी और कपिल सिब्बल से कुछ लिखवाया जाता? कम से कम इस देश के पत्रकार जगत को तो यह तो पता चलता कि आखिर देश का कानून इस संबंध में क्या कहता है? साथ ही इस बात पर भी बहस होनी चाहिए थी कि दुनिया के दूसरे देश जहां लोकतांत्रित तरीके से सरकार का गठन होता, वहां मीडिया की भूमिका क्या है? अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस जैसे देश में चुनावों के दौरान मीडिया कवरेज से संबंधित क्या कानून हैं? इनकी क्या परंपरा है? इन कानूनों और परंपराओं का कितना पालन होता है? फिर कम से कम राजनीतिक दलों से यह सवाल पूछा जाना चाहिए था कि अखबारों के इस गोरखधंधे पर उनका कया स्टैंड है? कुल मिलाकर सर्वसम्मति से इस गंभीर मसले पर एक निष्कर्ष निकालने की कोशिश होनी चाहिए।
सवाल उठता है कि अगर मतदान केंद्र पर कब्जा करना अपराध है, गैर-कानूनी है, मतदाताओं को पैसे देकर वोट खरीदना अपराध है, गैर-कानूनी है तो फिर अखबारों से पैकेज खरीद कर खबरों को छपवाना कैसे कानूनसम्मत होगा? 1990 के पहले चुनावी आचार संहिता शब्द देश की जनता नहीं जानती थी। चुनाव आयोग में जब मजबूत चुनाव आयुक्त आए तो चुनावी आचार संहिता देश के लोग जानने लगे। चुनावी आचार संहिता का कड़ाई से पालन होने लगा। उम्मीदवारों को चुनाव आयोग का डर भी होने लगा। पहले चुनावों में बेशुमार खर्च होते थे। ये खर्च दिखते थे। उम्मीदवार झंडे, डंडे, गाड़ी और बूथ लूटेरों पर बेतहाशा धन खर्च करते थे। चुनाव आयोग ने खर्च सीमा तय कर कुछ हद तक इसे रोकने की कोशिश की। झंडे-डंडे गायब हो गए गाड़ियां भी गायब हो गईं। पर खर्च के और अलग तरीके उम्मीदवारों ने ढूंढ लिया। अब प्रत्याशी शराब और पैसे लोगों के बीच बांटने लगे। बिहार जैसे राज्य में, जहां लोकसभा चुनाव दस लाख रुपये में निपट जाता था, अब करोड़ों का खर्च होने लगा है। वहां बूथ लूटेरों का आतंक कम हुआ तो शराब बंटने लगी। पंजाब में तो वोटर आई-कार्ड खरीदे जाने लगे। विरोधी दल का वोट देने वाला मतदाता, मतदान केंद्र पर न पहुंचे इसे सुनिश्चित करने के लिए चुनावों में प्रति वोटर आई-कार्ड दो से पांच हजार रुपये तक बांटे गए। इससे भी संतुष्टि नहीं हुई और लगा कि कहीं कोई और प्रूफ लेकर मतदाता, मतदान केंद्र तक न पहुंच जाए, तो उसकी अंगुली पर स्याही लगा दिया गया। मतलब की जो काम गैर-कानूनी था, उसे आयोग की सख्ती के बाद भी अंजाम दिया गया। आयोग अभी भी पूरी तरह से लोकतांत्रित प्रक्रिया बहाल करने में विफल रहा है। पर निश्चित तौर पर चुनाव के दौरान पैसे बांटना, शराब बांटना, वोटर आईकार्ड की खरीद गैर-कानूनी काम है। फिर जब ये गैरकानूनी है तो अखबारों द्वारा पैसे लेकर चुनावी खबर छापना कैसे कानूनी होगा?
अब अखबार वाले कहेंगे कि अगर प्रत्याशी बाकी मामलों में पैसे खर्च कर रहा है तो अखबार ने कुछ पैसे ले लिए तो क्या हुआ? पर सच्चाई यह है कि अखबारों ने इस मसले पर भारी अपराध किया है। यह तो उनका सौभाग्य है कि अभी चुनाव आयोग चुप है। शायद अखबारों से चुनाव आयोग भी फिलहाल डरा हुआ लग रहा है। नहीं तो अखबारों ने आयोग के उस निर्देश की धज्जियां उड़ायी है जिस पर मामला तक दर्ज हो सकता है। अखबारों ने पैसे लेकर जो संपादकीय छापे हैं, उन्हें अगर आयोग ने चुनावी खर्चे में शामिल कर दिया तो प्रत्याशी भी फंसेंगे और अखबार भी। अखबारों ने इस बार प्रत्याशियों के विज्ञापन इसलिए नहीं छापे क्योंकि इससे विज्ञापन का बिल चुनावी खर्च में शामिल हो जाता। अर्थात अखबारों ने एडोटोरियल के माध्यम से प्रत्याशियों को चोरी का नया रास्ता बताया। पर अखबारों ने यह नहीं सोचा कि इतने खर्चीले चुनाव का सबसे ज्यादा असर इस देश के लोकतंत्र पर पड़ेगा। अगर अखबारों ने यही धं¡धा जारी रखा तो गरीब प्रत्याशी आगे चुनाव लड़ने को ही नहीं सोचेगा। प्रत्याशी चुनाव लड़ने से पहले अपने खर्चों को गिनाते वक्त कहेगा, शराब के लिए पचास लाख, मतदाताओं को बांटने के लिए एक करोड़ और अखबारों के पैकेज के लिए दो करोड़। गरीब प्रत्याशी चाहे वो किसी भी दल का हो, पैकेज का शिकार होगा। अर्थात चुनाव को महंगा बनाने और गरीबों को चुनाव लड़ने से रोकने में सबसे बड़ी भागीदारी अखबारों की है। फिर तो निश्चित तौर पर कोई कलावती और भगवतिया देवी लोकसभा का मुंह नहीं देख पाएगी। यह दुर्भाग्य की बात है कि 2009 में गठित लोकसभा में साठ प्रतिशत से ज्यादा उम्मीदवार करोड़ों रुपये के पति हैं।
पैकेज बेचकर अखबारों में खबर छापने के बाद अखबार किस नैतिकता से किसी गलत काम का विरोध करेंगे? अगर कोई प्रत्याशी अखबारों के पैकेज खरीद चुनाव जीत जाता है, तो पैसे के बल पर यूपीएससी और राज्य सिविल सेवा की परीक्षा में चुनकर आने वाला कोई अभ्यर्थी कैसे गलत होगा? आखिर वो भी तो रोजी-रोटी के लिए ही नौकरी में पैसे देकर चयनित हुआ? फिर ऐसी कदाचार संबंधी खबरें छापने का कितना नैतिक हक किसी अखबार को होगा? अगर कोई शूटर पैसे लेकर किसी की हत्या कर देता है तो यह कितना गैर-कानूनी काम होगा? आखिर उसने भी तो रोजी-रोटी के लिए किसी को गोली मारी? अगर कोई ठेकेदार जिला, राज्य, केंद्र स्तर पर अधिकारियों को घूस देकर काम करा लेता है तो क्या गलत है? आखिर ठेकेदार और अफसर दोनों की रोजी-रोटी का ही सवाल है? कम से कम इस महंगाई के दौर में वेतन से तो काम नहीं ही चलता?
बहस अगर सार्थक हो तो ज्यादा अच्छा होगा। बहस की सीमा यहीं तक होनी चाहिए कि क्या अखबारों का पैकेज का धंधा कानूनसम्मत है? अगर कानून सम्मत नहीं है तो आने वाले दिनों में इसे कानूनसम्मत बनाया जाए ताकि अखबारों को फलने-फूलने का पूरा मौका मिले? अगर यह कानून सम्मत नहीं है तो अखबारों के खिलाफ क्या अपराधिक मामला दर्ज होना चाहिए? क्या अखबारों को अब सीधे रूप में चुनावी आचार संहिता के अंदर लाया जाना चाहिए? क्या चुनावों के दौरान आयोग अखबारों की खबरों की मॉनेटरिंग के लिए हर लोकसभा क्षेत्र में अलग से एक पर्यवेक्षक तैनात करे? अगर पर्यवेक्षक अखबारों की खबरों में पक्षपात की बू पाता है और किसी प्रत्याशी के पक्ष में पाता है, तो क्या अखबारों को नोटिस जारी होना चाहिए? क्या अखबारों के उपर ठीक उसी तरह से कार्रवाई होनी चाहिए जिस तरह से चुनाव आयोग आचार संहिता लागू होने के बाद पक्षपाती अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करता है? दुर्भाग्य की बात है कि अभी तक इस मसले पर कोई बहस नहीं छिड़ी है।
लेखक संजीव जुझारू पत्रकार हैं और पिछले कई वर्षों से चंडीगढ़ में विभिन्न मीडिया माध्यमों से जुड़े हुए हैं। उनसे संपर्क के लिए sanjiv.panday@yahoo.com This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it पर मेल कर सकते हैं या फिर 09417005113 पर रिंग कर सकते हैं।
हर गलती पर देने होंगे 10 रुपये
दैनिक हिंदुस्तान के पटना आफिस में नया नियम लागू हो गया है। यह नियम लागू कराया है यहां के स्थानीय संपादक अकु श्रीवास्तव ने। नियम ये है कि अगर कोई किसी तरह की गलती करता है तो उसे दस रुपये का जुर्माना अदा करना होगा। मतलब, अगर किसी रिपोर्टर से कोई खबर छूटती है तो उसे हर छूटी हुई खबर पर दस-दस रुपये का भुगतान करना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि अकु श्रीवास्तव ने इस नियम को खुद ही बनाकर लागू करा दिया। उन्होंने इस नियम को बनाने-लागू कराने से पहले संपादकीय विभाग के लोगों की राय ली। इसी मुद्द पर उन्होंने संपादकीय विभाग की सोमवार को बैठक बुलाई थी। बैठक में अकु ने नए नियम के बारे में सबको बताया और सबसे मशविरा किया। उनके सामने किसी ने इस नियम का विरोध नहीं किया बल्कि दबी जुबान से इसकी तारीफ ही की। वैसे भी, बॉस के गलत को गलत कहने का रिवाज मीडिया में अब नहीं रहा और बॉस लोग भी अपने गलत को दूसरे के मुंह से गलत सुनने के कतई इच्छुक नहीं होते क्योंकि बॉस लोगों का इगो ज्यादा बड़ा हो चुका है और व्यक्तित्व उसी अनुपात में छोटा। बैठक में सहमति के बाद नया नियम लागू करने का फैसला ले लिया गया। पर पत्रकार तो पत्रकार। लगते हैं एंगिल निकालने। मीटिंग के बाद इस नए नियम पर पत्रकारों ने दिमाग भिड़ा दिया और होने लगी कानाफूसी। जितने मुंह उतनी बातें। कुछ लोग इसे मंदी के दौर में संस्थान का थोड़ा और उद्धार करने का नया फार्मूला बता रहे हैं तो कुछ लोग इसे पत्रकारों के शोषण का एक और हथियार करार दे रहे हैं। कुछ इसे किसी अज्ञात सामूहिक समारोह के लिए चंदा इकट्ठा करने का उपक्रम बता रहे हैं तो कुछ लोग कम से कम गलती होने के लिए दबाव बनाने की रणनीति मान रहे हैं। वैसे तो हर मीडिया हाउस में गलती करने वालों को दंडित करने के कई तरह के कायदे कानून होते हैं लेकिन सेलरी काटने को बुरा इसलिए माना जाता है क्योंकि कोई भी कर्मचारी इरादन गलती नहीं करता और अगर मानवीय चूक के चलते गलती होती है तो उसे गंभीर अपराध नहीं माना जाना चाहिए। दूसरे, सेलरी ही वो चीज है जिसके आधार पर एक कर्मचारी अपने भविष्य की प्लानिंग करता है, घर के खर्चे का बजट बनाता है। ऐसे में सेलरी कटौती कर्मचारी के परिजनों के अरमानों को कुचलने जैसा होता है। गलती के बारे में कहा जाता है, गलती आदमी ही करता है, कंप्यूटर नहीं। इसीलिए मानवीय गलतियों को हमेशा माफी के लायक माना जाता है। अगर माफी लायक नहीं भी हैं तो गलती के स्तर के हिसाब से आमतौर पर लिखित नोटिस, सो काज, चेतावनी पत्र, फोर्स लीव, सस्पेंसन जैसे परंपरागत तरीकों से काम चलाया जाता है। लेकिन आजकल के साहब-सुब्बा लोग अपने प्रबंधन को खुश करने के लिए नए-नए तरीके इजाद करते जा रहे हैं। गलती पर सेलरी काट लेना, जुर्माना लगा देना, गाली दे देना, हाथ छोड़ देना......ये कुछ उसी तरह के तरीके हैं जो कर्मचारियों के चरम शोषण के लिए कुख्यात गैर-मीडिया संस्थानों और फैक्ट्रियों के दुर्जन मैनेजरों द्वारा लागू कराए जाते हैं। अब मीडिया संस्थानों में यही सारे तरीके लागू होने लगे हैं।
कहा जाता है कि किसी रिपोर्टर का दिन तभी खराब हो जाता है जब वह अपने प्रतिस्पर्धी अखबार में कोई बड़ी खबर देखता है, जो उससे अपने अखबार में मिस हो गई हो। वह घर से ही निराश और हताश मुद्रा में आफिस पहुंचता है। वहां उसको सिटी मीटिंग में जवाब देना होता है। कई बार तो उपर के लोगों तक अपनी सफाई पेश करनी पड़ती है। मतलब, गलती का खुद एहसास होना ही सबसे बड़ा दंड होता है। अगल गलती का एहसास नहीं है तो एहसास कराना भी एक तरह से दंड जैसा ही है। लेकिन अब बात इमोशनल से प्रोफेशनल हो चुकी है। हर चीज लिखत-पढ़त और कारपोरेट स्टाइल में। तो दंड भी क्यों न कारपोरेट स्टाइल में मिले। खैर मनाइए, हिंदुस्तान, पटना में अभी तो केवल दस रुपये कट रहे हैं। हो सकता है कि कुछ संस्थानों में हर गलती पर सौ रुपये या हजार रुपये काटे जाते हों और कई संस्थान ऐसे भी हों जहां किसी भी गलती पर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता हो। तो इन संस्थानों के मुकाबले हिंदुस्तान, पटना में गलती पर सजा देने के लिए बना नया नियम ज्यादा मानवीय है, यह कहा जा सकता है।
कहा जाता है कि किसी रिपोर्टर का दिन तभी खराब हो जाता है जब वह अपने प्रतिस्पर्धी अखबार में कोई बड़ी खबर देखता है, जो उससे अपने अखबार में मिस हो गई हो। वह घर से ही निराश और हताश मुद्रा में आफिस पहुंचता है। वहां उसको सिटी मीटिंग में जवाब देना होता है। कई बार तो उपर के लोगों तक अपनी सफाई पेश करनी पड़ती है। मतलब, गलती का खुद एहसास होना ही सबसे बड़ा दंड होता है। अगल गलती का एहसास नहीं है तो एहसास कराना भी एक तरह से दंड जैसा ही है। लेकिन अब बात इमोशनल से प्रोफेशनल हो चुकी है। हर चीज लिखत-पढ़त और कारपोरेट स्टाइल में। तो दंड भी क्यों न कारपोरेट स्टाइल में मिले। खैर मनाइए, हिंदुस्तान, पटना में अभी तो केवल दस रुपये कट रहे हैं। हो सकता है कि कुछ संस्थानों में हर गलती पर सौ रुपये या हजार रुपये काटे जाते हों और कई संस्थान ऐसे भी हों जहां किसी भी गलती पर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता हो। तो इन संस्थानों के मुकाबले हिंदुस्तान, पटना में गलती पर सजा देने के लिए बना नया नियम ज्यादा मानवीय है, यह कहा जा सकता है।
लाल गलियारे के खतरनाक संकेत
पश्चिम बंगाल के पश्चिमी मिदनापुर जिले में सीपीएम और माओवादियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई काफी समय से चल रही है। आश्चर्यजनक संयोग है कि पश्चिम बंगाल में सीपीएम के कमजोर होने और तृणमूल कांग्रेस व कांग्रेस की सक्रियता बढ़ने के साथ ही इस प्रभावित क्षेत्र में माओवादी विद्रोही और मजबूत हुए हैं।पिछले कुछ दिनों से इस जिले के लालगढ़ में जारी हिंसा के बाद माओवादियों ने जिस तरह इस पूरे कस्बे को ‘आजाद क्षेत्र’ घोषित किया है और सुरक्षा बलों के लिए वहां पहुंचना दुर्गम कर दिया है, उससे इस समस्या का वह खतरनाक पहलू उजागर होता है जिसके तहत माओवादिओं ने देश के उत्तर से उत्तर-पूर्व होते हुए दक्षिण-पूर्व तक लाल गलियारे में ‘लिबेरेटेड जोन’ या ‘आजाद क्षेत्र’ बनाने का मंसूबा पाल रखा है।
लालगढ़ की हिंसा के बीच वहां के माओवादी नेता द्वारा उनकी कार्रवाई को कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के समर्थन का दावा इस घटना के राजनीतिक दांव-पेंच का उदाहरण है। पश्चिम बंगाल की कानून-व्यवस्था की स्थिति के प्रति केंद्र का रुख हमेशा अनिश्चय का रहा है, खासतौर पर पिछली और वर्तमान यूपीए सरकार के कार्यकाल में।
पिछली सरकार में तो वामदल केंद्र सरकार को समर्थन ही दे रहे थे, इसलिए गत वर्ष हुई नंदीग्राम और सिंगूर की घटनाओं में कें द्र द्वारा कोई गंभीर प्रतिक्रिया नहीं हुई और इस समय लालगढ़ में हो रही हिंसा में केंद्र के सामने एक तरफ हैं पुराने सहयोगी जिनसे भावनात्मक लगाव अभी भी है और दूसरी तरफ है वर्तमान सहयोगी, जिसकी कर्ता-धर्ता ममता बनर्जी केंद्र में मंत्री भी हैं।
केंद्र की कश्मकश समझ में आती है, क्योंकि ममता ने स्पष्ट कहा है कि उनकी केंद्र में किसी भी भूमिका में लंबे समय तक रुचि नहीं है, उनका लक्ष्य प. बंगाल का नेतृत्व है। तृणमूल को सीपीएम के साथ अपनी खूनी लड़ाई में अल्पसंख्यक कार्ड के अलावा माओवादियों का साथ लेने से भी परहेज नहीं है। पश्चिम बंगाल में वामदलों की सरकार को गिराने के लिए किसी से भी, कैसा भी समर्थन इस्तेमाल करने को जायज ठहराना कहां तक जायज है, यह विचारणीय है।
विचित्र संयोग है कि जहां देश के तमाम राज्यों में माओवादियों द्वारा की जा रही हिंसक वारदातों पर सीपीएम और अन्य वामदल खामोश रहते हैं, वहीं उन्हीं के अपने गृहराज्य में बवाल होने पर उन्हीं माओवादियों पर कठोर कार्रवाई के लिए बंगाल की राज्य सरकार तुरंत तैयार है। साफ है कि वामदलों के संकट कम होने के आसार अभी नहीं दिखते।
लालगढ़ की हिंसा के बीच वहां के माओवादी नेता द्वारा उनकी कार्रवाई को कांग्रेस व तृणमूल कांग्रेस के समर्थन का दावा इस घटना के राजनीतिक दांव-पेंच का उदाहरण है। पश्चिम बंगाल की कानून-व्यवस्था की स्थिति के प्रति केंद्र का रुख हमेशा अनिश्चय का रहा है, खासतौर पर पिछली और वर्तमान यूपीए सरकार के कार्यकाल में।
पिछली सरकार में तो वामदल केंद्र सरकार को समर्थन ही दे रहे थे, इसलिए गत वर्ष हुई नंदीग्राम और सिंगूर की घटनाओं में कें द्र द्वारा कोई गंभीर प्रतिक्रिया नहीं हुई और इस समय लालगढ़ में हो रही हिंसा में केंद्र के सामने एक तरफ हैं पुराने सहयोगी जिनसे भावनात्मक लगाव अभी भी है और दूसरी तरफ है वर्तमान सहयोगी, जिसकी कर्ता-धर्ता ममता बनर्जी केंद्र में मंत्री भी हैं।
केंद्र की कश्मकश समझ में आती है, क्योंकि ममता ने स्पष्ट कहा है कि उनकी केंद्र में किसी भी भूमिका में लंबे समय तक रुचि नहीं है, उनका लक्ष्य प. बंगाल का नेतृत्व है। तृणमूल को सीपीएम के साथ अपनी खूनी लड़ाई में अल्पसंख्यक कार्ड के अलावा माओवादियों का साथ लेने से भी परहेज नहीं है। पश्चिम बंगाल में वामदलों की सरकार को गिराने के लिए किसी से भी, कैसा भी समर्थन इस्तेमाल करने को जायज ठहराना कहां तक जायज है, यह विचारणीय है।
विचित्र संयोग है कि जहां देश के तमाम राज्यों में माओवादियों द्वारा की जा रही हिंसक वारदातों पर सीपीएम और अन्य वामदल खामोश रहते हैं, वहीं उन्हीं के अपने गृहराज्य में बवाल होने पर उन्हीं माओवादियों पर कठोर कार्रवाई के लिए बंगाल की राज्य सरकार तुरंत तैयार है। साफ है कि वामदलों के संकट कम होने के आसार अभी नहीं दिखते।
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