Saturday, November 21, 2009

नक्सली हिंसा की चुनौती

Nov 04, 11:51 pm
नक्सल समस्या एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले दिनों में सुरक्षा बलों और नक्सलियों की पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी में आमना-सामना होगा। जाहिर है कि इसमें बहुत लोग मारे जाएंगे। अफसोस इस बात का विशेष तौर से होगा कि मारे जाने वालों में अधिकांश गरीब तबके और जनजातीय लोग होंगे। सुरक्षा बलों को भी नुकसान अवश्य होगा। क्या इस दुखदायी स्थिति से बचा जा सकता था? दुखदायी इसलिए कि सुरक्षा बलों को अपने ही नागरिकों के एक वर्ग से संघर्ष करना पड़ेगा। सच तो यह है कि सरकार के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा था। प्रधानमंत्री ने हाल में ही पुलिस प्रमुखों को संबोधित करते हुए कहा कि नक्सल आंदोलन देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हो गया है। गृहमंत्री ने स्पष्ट किया कि नक्सल गुटों का प्रभाव बीस प्रदेशों के लगभग 223 जनपदों में कमोबेश फैल चुका है। उन्होंने यह भी बताया कि नक्सल हिंसा से 13 प्रदेशों के नब्बे जनपदों में चार सौ पुलिस स्टेशन क्षेत्र विशेष तौर से प्रभावित हैं। नक्सल हिंसा का तांडव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। विगत वर्ष 2008 में नक्सल हिंसा की कुल 1591 घटनाएं हुई थीं, जिनमें 721 व्यक्ति मारे गए थे। इस वर्ष अगस्त के अंत तक 1405 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 580 व्यक्ति मारे गए हैं। सुरक्षाकर्मी विशेष तौर से नक्सलियों के निशाने पर रहे। 2008 में 231 सुरक्षाकर्मी मारे गए, इस वर्ष यह संख्या 270 के ऊपर पहुंच चुकी है।
नक्सल आंदोलन के विस्तार के कारणों को भी समझना जरूरी है। हमारी योजनाएं कागज पर कितनी ही अच्छी बनी हों, इनके क्रियान्वयन में बहुत कमी रही है। योजना आयोग ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता के साठ वर्ष पश्चात भी हमारी एक चौथाई से ज्यादा आबादी आज भी गरीब है। विकास हुआ है, जीडीपी बढ़ी है, परंतु विकास का लाभ सभी वर्गो को उनकी आवश्यकतानुसार नहीं मिला है। जनजातियों के साथ विशेष तौर से सौतेला व्यवहार हुआ है। एक आकलन के अनुसार 1947 से 2004 के बीच में विभिन्न योजनाओं के कारण देश में कुल 6 करोड़ आदमी विस्थापित हुए। इसमें चालीस प्रतिशत जनजातियों के लोग थे। भूमि संबंधी सुधार जो देश में होने चाहिए थे वेआंशिक रूप से ही हुए और प्रदेश सरकारें इस दिशा में उदासीन हैं। भ्रष्टाचार इतना ज्यादा व्याप्त है कि विकास संबंधी योजनाएं कागज पर ही धरी रह जाती हैं। झारखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री और उनके कैबिनेट सहयोगियों के विरुद्घ आरोप है कि वे करीब 4000 करोड़ रुपये खा गए। इस रकम का थाइलैंड और लाइबेरिया जैसे देशों में निवेश किया गया। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने हाल में बयान दिया था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सरकार जो खर्च करती है उसमें एक रुपये का केवल 16 पैसा गरीब आदमी तक पहुंचता है। फलस्वरूप जो लाभ गरीब तबके के लोगों के पास पहुंचना चाहिए वह नहीं पहुंच पाता। देश में बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां प्रशासकीय व्यवस्था एकदम लचर है। छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जनपद में अबुजमांड चार हजार वर्ग किलोमीटर का एक ऐसा क्षेत्र है जहां सरकारी तंत्र आज भी नहीं पहुंच पाया है। उस क्षेत्र का प्रदेश सरकार के पास कोई आधिकारिक नक्शा तक नहीं है। इन हालात में नक्सलियों ने वहां अपना गढ़ बना लिया है। अन्य प्रदेशों में भी बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां मूलभूत सुविधाएं-शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, सड़क और स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। यह सब असंतोष का कारण बनता है। नक्सलवाद के पनपने और इसके देश के बड़े भौगोलिक क्षेत्र में विस्तार के लिए सरकार जिम्मेदार है, परंतु इन मुदं्दों के आधार पर कानून को हाथ में लेने का कोई औचित्य नहीं बनता। नक्सली भी दलितों और जनजातियों को केवल मोहरा बना रहे हैं। उनका मूल लक्ष्य राज्य सत्ता पर कब्जा करना है। उनकी सशस्त्र क्रांति की योजना में हिंसा है, सरकारी तंत्र पर हमला है, विध्वंस है, परंतु कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं है। माओवाद तो चीन में ही दफना दिया गया है। आज की तारीख में उसके आधार पर देश में कोई संरचना असंभव है। हमारे लोकतंत्र में खामियां हैं, विकास योजनाओं में प्राथमिकताएं सही नहीं हैं, परंतु फिर भी यह व्यवस्था जन समर्थन से बनी है और इसमें हर व्यक्ति को अपना दृष्टिकोण रखने का अधिकार है। रकार ने बार-बार यह कहा है कि नक्सली अगर हिंसा का रास्ता त्याग दें तो उनसे बातचीत हो सकती है, परंतु हम देख रहे हैं कि नक्सली हिंसाओं में वृद्घि हो रही है। अक्टूबर माह में ही झारखंड में पुलिस इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदुवार की गला काटकर हत्या की गई, गढ़चिरौली में 18 पुलिस कर्मियों को मार डाला गया। पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के सीमावर्ती जनपदों में दो दिन का बंद हुआ, जिसमें जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया गया। केंद्रीय औद्योगिक बल के चार जवान बारूदी सुरंग से उड़ा दिए गए। राजधानी एक्सप्रेस को पश्चिमी मिदनापुर में पांच घंटों तक रोका गया। इन घटनाओं से तो यह लगता है कि नक्सली वार्ता करने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं, बल्कि सरकार को बराबर चुनौती दे रहे हैं। माओवादी नेता जिस तरह के बयान देते हैं उनसे भी ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि नक्सली शांति वार्ता चाहते हैं। ऐसी परिस्थितियों में सरकार के पास सख्ती के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता। किसी भी सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह जनजीवन को सुरक्षा प्रदान करे और हिंसात्मक कार्रवाइयों पर नकेल लगाए। इसी नीति के अंतर्गत भारत सरकार ने नक्सल प्रभावित प्रदेशों में सशस्त्र कार्रवाई करने का निर्णय लिया है। एक राज्य के अंदर समानांतर हुकूमत नहीं चल सकती। एक राज्य के अंदर दो विरोधी सुरक्षा बल भी नहीं हो सकते। सरकार को नक्सलियों के राजनीतिक ढांचे को ध्वस्त करना होगा और उनकी गुरिल्ला फौज को छिन्न-भिन्न करना होगा। इस सारी कार्रवाई में यह विशेष ध्यान देना होगा कि नागरिकों को कम से कम नुकसान हो और बेकसूर आदमी न मारे जाएं। सशस्त्र कार्रवाई में कम से कम पांच-छह महीने का समय तो लग ही जाएगा। कालांतर में यह सुनिश्चित करना होगा कि जैसे-जैसे प्रभावित क्षेत्रों से नक्सली हटते जाते हैं वहां नागरिक प्रशासन स्थापित किया जाए और लोगों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। विकास का कार्य इमानदारी से सुनिश्चित कराना होगा। यह भी देखना होगा कि विकास मानवीय दृष्टिकोण से हो अर्थात वहां के निवासियों को न्यूनतम कष्ट हो और जो अनिवार्य रूप से विस्थापित होते हैं उनके पुनर्वास एवं रोजगार की व्यवस्था की जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया और सशस्त्र कार्रवाई के बाद सरकार अपने पुराने ढर्रे पर, जिसमें भ्रष्टाचार को अस्सी प्रतिशत बर्दाश्त किया जाता है, फिर से चलने लगती है तो यह मान लिया जाए कि नक्सलवाद पुन: उभर कर आएगा और उसका स्वरूप वर्तमान से भी ज्यादा भयंकर होगा।
[प्रकाश सिंह: लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं]

नक्सलवाद का नासूर

Oct 31, 10:34 pm
जब से केंद्र सरकार ने नक्सलवाद को नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाने की पहल शुरू की है तब से नक्सली संगठनों का उत्पात और अधिक बढ़ता जा रहा है। वे एक के बाद एक दुस्साहसिक वारदातें कर केंद्र और राज्य सरकारों को चुनौती देने में लगे हुए हैं। इन चुनौतियों के बीच केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम लगातार इसके लिए प्रयास कर रहे हैं कि नक्सली संगठनों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई के लिए आम सहमति का माहौल कायम हो। वह नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों से बातचीत कर सुरक्षा-व्यवस्था दुरुस्त करने के प्रयास भी कर रहे हैं और केंद्रीय सुरक्षा बलों को भी सुसज्जित कर रहे हैं। वह नक्सलियों को हिंसा छोड़कर बातचीत के लिए आगे आने के लिए भी निमंत्रित कर रहे हैं। ऐसी ही बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह रहे हैं, लेकिन नक्सली इसके लिए तैयार नहीं दिख रहे। वे सुरक्षाबलों और आम लोगों को निशाना बनाने में लगे हैं। हाल में उन्होंने पश्चिम बंगाल में थाने पर हमला कर दो पुलिसकर्मियों को मार डाला और एक का अपहरण कर लिया। बाद में उन्होंने अपहृत पुलिसकर्मी को मीडिया की मौजूदगी में रिहा तो कर दिया, लेकिन शर्ते मनवाने के बाद। इसके बाद उन्होंने एक सार्वजनिक उपक्रम की सुरक्षा में तैनात चार सुरक्षा जवानों को मार डाला। सबसे सनसनीखेज घटना राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाने की रही। इसके पूर्व उन्होंने रांची में एक पुलिस इंस्पेक्टर का अपहरण कर उसकी बर्बरता पूर्वक हत्या कर दी थी।
नक्सलियों से निपटने की तैयारी के बीच यह साफ दिख रहा है कि कई राजनीतिक दल नक्सलवाद को लेकर संकीर्ण राजनीति कर रहे हैं। बंगाल सरकार ने अपहृत पुलिस कर्मी की रिहाई के एवज में नक्सलियों की शर्तो के समक्ष झुकने से पहले केंद्र से इस बारे में विचार-विमर्श करना जरूरी नहीं समझा। इसी तरह राजधानी एक्सप्रेस बंधक कांड में दर्ज एफआईआर में रेलवे पुलिस ने नक्सली समर्थक उस संगठन का उल्लेख तक नहीं किया गया जिसके नेता छत्रधर महतो को रिहा करने की मांग की गई थी। मजबूरी में सीआरपीएफ के जरिये केंद्र को दूसरी एफआईआर दर्ज करानी पड़ी। रेलवे पुलिस की कार्रवाई से इसकी पुष्टि हो गई कि पश्चिम बंगाल सरकार उनके प्रति नरम है जिनके परोक्ष-प्रत्यक्ष संबंध नक्सली संगठनों से हैं। समस्या यह है कि ऐसी ही नरमी ममता बनर्जी भी दिखा रही हैं। यही कारण है कि माकपा नेता यह आरोप लगा रहे हैं कि ममता बनर्जी नक्सलवाद को समर्थन दे रही हैं। यह बात और है कि वे यह नहीं बताना चाहते कि बंगाल सरकार नक्सलियों के खिलाफ सीधी कार्रवाई करने में क्यों हिचक रही है? दरअसल इस हिचक का कारण माकपा की माओवादियों से सहानुभूति है, जिसकी ओर चिदंबरम ने यह कहकर इशारा भी किया कि अभी हाल तक तो माकपा माओवादियों को हथियारबंद काडर मानती थी। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि बंगाल सरकार माओवादियों पर पाबंदी लगाने के लिए तब तक तैयार नहीं हुई जब तक केंद्र ने इसके लिए उस पर दबाव नहीं डाला। इसमें संदेह नहीं कि वाम दल माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते रहे हैं और अभी भी वे उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं। इसी तरह यह भी साफ है कि तृणमूल कांग्रेस की हमदर्दी उन तत्वों से हैं जो नक्सलियों से मिले हुए हैं। इसका प्रमाण यह है कि ममता बनर्जी लालगढ़ से केंद्रीय सुरक्षा बलों को हटाने की मांग कर रही हैं, जबकि यह इलाका अभी भी नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है। माकपा, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य दल नक्सलवाद से निपटने के मामले में ढुलमुल रवैया तब अपनाए हुए हैं जब केंद्रीय गृह सचिव इसके लिए आगाह कर रहे हैं कि ट्रेनों को बंधक बनाने सरीखी घटनाएं और हो सकती हैं। केंद्र के समक्ष समस्या केवल नक्सलवाद की आड़ में होने वाली राजनीति ही नहीं, बल्कि मानवाधिकारवादियों के एक वर्ग की ओर से की जा रही व्यर्थ की चीख-पुकार भी है। वे यह देखने से इनकार कर रहे हैं कि नक्सली किस तरह बर्बर हिंसा पर उतर आए हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि शोषित-वंचित तबकों ने अन्याय और उपेक्षा से त्रस्त होकर नक्सली विचारधारा की शरण ली और फिर शासन तंत्र के खिलाफ हथियार उठाए। पहले उन्होंने जंगलों और खनिज खदानों पर प्रभुत्व कायम किया, लेकिन अब वे समानांतर शासन कायम करते दिख रहे हैं। हाल की घटनाएं यह संकेत करती हैं कि उनकी तैयारी राज्य सत्ता के खिलाफ विद्रोह करने की है। अब ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि नक्सलियों के संबंध कुछ आतंकी संगठनों से तो हैं ही, उन्हें विदेशों से भी हथियार मिल रहे हैं। गृहमंत्रालय की मानें तो नक्सलियों ने लिंट्टे के सहयोग से खुद को इतना मजबूत बना लिया है कि सुरक्षा बलों के समक्ष मुश्किल आ सकती है। सच्चाई जो भी हो, यह तथ्य है कि नक्सली आंदोलन अपने प्रारंभिक दौर के मुकाबले अब बिलकुल अलग राह पर चल निकला है। नक्सली संगठन आतंकी संगठनों की तर्ज पर सक्रिय हैं। उनकी हरकतें बता रही हैं कि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं, लेकिन कई राजनीतिक दल ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे खतरे की कोई बात ही नहीं। यद्यपि नक्सली समय-समय पर राजनेताओं को भी निशाना बनाते रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके उन्हें अनेक राजनीतिज्ञों का समर्थन हासिल है। स्पष्ट है कि राजनेताओं का एक समूह यह समझने से इनकार कर रहा है कि नक्सली कितने खतरनाक हैं? पश्चिम बंगाल में माकपा-तृणमूल कांग्रेस जिस तरह आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं उससे केंद्र सरकार का काम और कठिन हो रहा है। चूंकि केंद्र को नक्सलवाद के प्रति ममता बनर्जी के ढुलमुल रवैये का न चाहते हुए बचाव करना पड़ रहा है इसलिए माकपा केंद्रीय सत्ता पर भी निशाना साधने में लगी हुई है। कुछ ऐसी ही कठिनाई कथित बुद्धिजीवी भी पेश कर रहे हैं। हाल में अरुंधती राय और कुछ समाजसेवी संगठन जिस तरह नक्सलियों के पक्ष में खुलकर खड़े हुए उससे तो यही लगा कि वे यह चाहते हैं कि नक्सलियों को हथियार उठाने का अधिकार मिलना चाहिए। यह सही है कि देश के एक हिस्से में विकास की रोशनी नहीं पहुंच सकी है और वहां की जनता उपेक्षा से त्रस्त है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि विकास से वंचित लोगों को हिंसा के रास्ते पर चलने की छूट दे दी जाए। एक ऐसे समय जब केंद्र सरकार के समक्ष नक्सलियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह गया है तब बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का उनके पक्ष में खड़े होना आश्चर्यजनक है। ये बुद्धिजीवी नक्सलियों के खिलाफ केंद्र सरकार की तैयारी का तो विरोध कर रहे हैं, लेकिन इसके लिए प्रयास नहीं कर रहे कि वे केंद्र से बातचीत करने के लिए आगे आएं, जबकि केंद्र सरकार सभी जंगल, जमीन, विकास योजनाओं समेत मुद्दों पर बातचीत करने की पेशकश करने के साथ यह भी कह रही है कि इस वार्ता में राज्यों को भी शामिल किया जाएगा। भले ही नक्सलवादी देश के पिछड़े क्षेत्रों में विकास कार्य न होने की बातें कर रहे हों, लेकिन सच यह है कि अब वे खुद विकास विरोधी बन गए हैं। इन स्थितियों में यह आवश्यक है कि केंद्र और राज्य वास्तव में मिलकर नक्सलियों से लड़ें। कोशिश यह होनी चाहिए कि यह लड़ाई लंबी न खिंचे और इसमें आम लोगों को कोई नुकसान न पहुंचे, अन्यथा इस लड़ाई को जीतना और कठिन हो जाएगा।

अभी नक्सलियों का खतरनाक रूप सामने आना बाकी

Wednesday, October 28, 2009
अंदरुनी मोर्चे पर लगातार सरकार को चुनौती दे रहे नक्सलवादियों के तार विदेशी संगठनों से भी जुड़े हुए हैं। लिट्टे के साथ-साथ उत्तर-पूर्व और पाकिस्तान परस्त आतंकी संगठनों से उनके संपर्को के खुलासे लगातार हो रहे हैं। खुफिया एजेंसियों व सुरक्षा बलों की मानें तो अभी नक्सलियों के आधुनिक हथियारों से सुसज्जित और खतरनाक कमांडो तो पूरी तरह से सामने आए ही नहीं हैं।खुफिया सूत्रों के मुताबिक, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन और लिट्टे से लेकर पूर्वोत्तर के उल्फा तक नक्सलियों को हथियार व गोला-बारूद की आपूर्ति करता रहा है। इनमें भी नक्सली सबसे ज्यादा प्रभावित श्रीलंका के चीतों यानी लिट्टे से रहे हैं। केरल के जंगलों में लिट्टे के लड़ाकों ने नक्सलियों को कमांडों प्रशिक्षण दिया, ऐसी सूचनाएं भी आईबी. को मिली थीं। इसीलिए, जब लिट्टे के चीतों को श्रीलंका की सेना ने आक्रामक अभियान चलाकर साफ कर दिया तो नक्सलियों ने अपने कमांडरों और काडर को सतर्क कर दिया कि लिट्टे जैसी गलती न दोहराएं। वास्तव में श्रीलंका में लिट्टे के सफाये और देश में संप्रग सरकार की वापसी के बाद सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो ने इसी साल 12 जून को बैठक की। इसमें उन्होंने अपनी आगामी रणनीति का एक लंबा चौड़ा दस्तावेज तैयार किया।इन दस्तावेजों में नक्सलियों की मोबाइल वारफेयर रणनीति और दूसरे आतंकी संगठनों के साथ संबंधों का जिक्र है। माओवादियों ने अन्य संगठनों से भी अपील की है कि वे जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर में जगह-जगह वारदातों को अंजाम दें ताकि सरकार एक जगह फोकस न कर सके। उन्होंने चेताया भी है कि अगर एक साथ मिलकर न लड़े तो एक-एक करके सरकार सबको ठिकाने लगाने का प्रयास करेगी।नक्सलियों ने दूसरे आतंकी संगठनों को चेताया था कि सरकार गुरिल्ला युद्ध में कोबरा जैसे बल बना रही है, जिसमें अभी 5 साल का समय लगेगा। उससे पहले जरूरी है कि अलग-अलग जगहों पर हम दुश्मनों के सामने इतने मोर्चे खोल दें कि उनके लिए सुरक्षा बलों को एक जगह रखना मुश्किल हो जाए। इस रणनीति के तहत नक्सलियों ने तो जगह-जगह मोर्चे खोल दिए हैं। हालांकि, अभी उन्होंने आधुनिक हथियारों से लैस अपने 6 हजार कमांडों की ताकत को बचाकर रखा है।