आईबीएन7 पर संवाददाता एहेतशाम खान की दिल दहला देने वाली खबर चल रही थी। ये कहानी भूख और बीमारी के कहर में लिपटे झारखंड के गढ़वा जिले के आदिवासियों की थी। मिराल ब्लाक के गांव टेटुका कलां के साठ पार के बूधन भुइयां कांपती आवाज में बता रहे थे कि उनके दो नौजवान बेटे परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाने की जद्दोजहद में भरी जवानी मौत का शिकार बन गए। भूख ने शरीर को इस कदर तोड़ दिया था कि घात लगाए बैठी बीमारियों का हमला बर्दाश्त नहीं हुआ। बूधन की एक-एक अंतड़ी टी.वी के पर्दे पर चमक रही थी। तन पर बस लाज ढकने भर का कपड़ा था। बता रहे थे कि किसी तरह मक्के का जुगाड़ हो पाता है। वो भी रोज नहीं। सरकारी मदद का कोई चेहरा आसपास नजर नहीं आता। हताश बूधन जैसे भविष्यवाणी कर रहे थे—‘इसी तरह एक दिन हम भी मर जाएंगे’ अचानक याद आया कि गढ़वा तो माओवादियों के असर वाला जिला माना जाता है। यानी जिस दिन माओवादी टेटुका कलां में एक बैनर टांग देंगे या बूधन भुइयां चुपचाप मरने के बजाय हालात से लड़ने की बात करने लगेंगे, भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हो जाएंगे। सुरक्षा बलों की गोलियां बूधन को निशाना बनाने के लिए आजाद होंगी और सवाल उठाने की इजाजत नहीं होगी। आजादी के 62 साल बाद आदिवासियों की यही नियति है। कहीं ऐसा तो नहीं कि माओवादी हौव्वे के पीछे शासक वर्ग की आपराधिक नाकामी को छिपाने की नीयत है। आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद की तमाम विकास परियोजनाओं के नाम पर पांच करोड़ से ज्यादा आदिवासियों को विस्थापित किया गया। जल-जंगल-जमीन पर उनके अधिकार को कानून बनाकर छीन लिया गया पर कहीं से आवाज नहीं आई। ये संयोग नहीं कि जिसे माओवादियों का लाल गलियारा कहकर प्रचारित किया जाता है, वो दरअसल, भारत का आदिवासी बहुल क्षेत्र है। जिसकी जमीन के नीचे विशाल खनिज संपदा दबी पड़ी है। दुनिया की तमाम कंपनियों की इस पर नजर है। सरकार से वे समझौता भी कर चुकी हैं। उन्हें जमीन चाहिए। कीमत आदिवासियों को चुकानी पडे़गी। यहां सरकारी विकास योजनाओं का दूसरा मतलब आदिवासियों को उनकी जमीन से खदेड़ना है। मेरे सामने 13 सितंबर 1946 को संविधान सभा में दिया गया कैप्टन जयपाल सिंह का भाषण है- "अगर भारतीय जनता के किसी समूह के साथ सबसे बुरा व्यवहार हुआ है तो वो मेरे लोग (आदिवासी) हैं। पिछले छह हजार सालों से उनके साथ उपेक्षा और अमानवीय व्यवहार का ये सिलसिला जारी है। मैं जिस सिंधु घाटी सभ्यता की संतान हूं, उसका इतिहास बताता है कि बाहरी आक्रमणकारियों ने हमें जंगलों में रहने के लिए मजबूर किया। हमारा पूरा इतिहास बाहरियों के शोषण और कब्जे से भरा है जिसके खिलाफ हम लगातार विद्रोह करते रहे। बहरहाल, मैं पं.नेहरू और आप सब के इस वादे पर भरोसा करता हूं कि हम एक नया अध्याय शुरू कर रहे हैं। ऐसा भारत बनाने जा रहे हैं जहां सभी को अवसर की समानता होगी और किसी की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी। "कैप्टन जयपाल सिंह ऐसा नाम नहीं है जिसे भुला दिया जाए। 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में भारत को हॉकी का पहला स्वर्णपदक जिस टीम ने दिलाया था, जयपाल सिंह उसी के कैप्टन थे। बाद में बतौर आदिवासी नेता मशहूर हुए और संविधान सभा के सदस्य चुने गए। उनके इस भाषण में 1855 के संथाल विद्रोह, 1890 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए 'उलगुलान' और 1911 के बस्तर विद्रोह की गूंज है। ये बताता है कि हजारों साल के दमन के खिलाफ विद्रोह की इस परंपरा को इस आशा से स्थगित किया गया था कि आदिवासियों को बेहतर जिंदगी नसीब होगी। पर अब आदिवासी इस युद्धविराम को तोड़ रहे हैं। इसके साथ ही वे रातो-रात माओवादी घोषित कर दिए गए हैं जो इस देश की सत्ता पर कब्जा करने के लिए हथियारबंद हो रहे हैं। अजब तस्वीर सामने है। पिछले दिनों राजधानी एक्सप्रेस के बहुप्रचारित हाईजैक (हालांकि ट्रेन कहीं और नहीं ले जाई गई। तीर-कमान के बल पर ट्रेन वैसे ही कुछ घंटे रोके रखी गई जैसे देश की सभी पार्टियां देश के हर हिस्से में अपने आंदोलन के दौरान करती है) का अंत पैन्ट्री कार में रखा दाल चावल और कंबल लूटे जाने के साथ हुआ। यानी अलकायदा से लेकर लिट्टे तक से हथियार जुटा रहे माओवादियों के पास दाल चावल और कंबल नहीं है। ये गजब का रूपक है। ‘राजधानी’ के खाने पर भूखे-नंगे लोग हथियार लेकर टूट पड़े हैं। वाकई ये युद्द है, जिसे चिदंबरम साहब हर हाल में जीतना चाहते हैं। पर दिक्कत ये है कि इस युद्ध के लिए वो जो तर्क दे रहे हैं, वो सिक्के का बस एक पहलू दिखाते हैं, और खराब नीयत का सुबूत हैं। उनका सबसे बड़ा तर्क है हिंसा का, जिसके लिए माओवादी बदनाम हैं, और लोकतंत्र का, जिसे माओवादी खत्म कर देना चाहते हैं। पहले बात हिंसा की। महावीर, बुद्ध और उनके ढाई हजार साल बाद गांधी जी ने भारतीय समाज में अहिंसा के मंत्र को जोरदार ढंग से फूंका। लेकिन जनता के बीच न्याय के लिए हुई हिंसा कभी भी त्याज्य नहीं मानी गई। हिंदुओं का एक भी देवता ऐसा नहीं है जिसके पास कोई विशिष्ट हथियार न हो। ये देवता अपने हथियार से अक्सर किसी असुर का गला काटते नजर आते हैं। और मुसलमानों के लिए कर्बला की लड़ाई हमेशा ही जीवनदर्शन रही है। इसी तरह गांधी के जवाब में बम का दर्शन लिखने वाले भगत सिंह का नाम आते ही आज भी भारतीयों का खून गर्म हो जाता है। यानी हिंसक कह देने भर से आदिवासी समुदाय माओवादियों से दूर नहीं होंगे। लोकतंत्र के पहरुओं को साबित करना होगा कि उनकी व्यवस्था हिंसा से रहित है। वे संगीनों के जरिए आदिवासियों को उजाड़ने के लिए जंगल नहीं पहुंचे हैं। बल्कि उनकी जिंदगी बेहतर करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। वैसे भी, न्याय के लिए हिंसा का सहारा लेने के लिए भारतीयों को मार्क्स, लेनिन या माओ पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ी। जरा महाभारत के शांतिपर्व के इस श्लोक पर ध्यान दीजिए। सरशैया पर पड़े भीष्म राजकाज का गुर सीखने गए युधिष्ठिर से कहते हैं—
“ अहं वो रक्षितेत्युक्त्वा यो न रक्षति भूमिप:
स संहत्य निहंतव्य: श्वेन सोन्माद आतुर:”
(जो राजा प्रजा से कहता है कि मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा, किंतु नहीं करता, वह पागल औऱ बीमार कुत्ते की तरह सारी जनता द्वारा मार डालने लायक है)
समझा जा सकता है कि महाभारत को घर में न रखने की बात क्यों प्रचारित की गई थी। शासक वर्ग ऐसी बातों से डरता है। इसका मतलब ये नहीं कि हिंसा किसी समस्या का समाधान है। लेकिन अन्याय के रहते अहिंसा की कल्पना वैसे ही है जैसे आग के निकट ताप न होने या पानी पड़ने पर गीला न होने की कल्पना।
ऐसा ही मसला लोकतंत्र का भी है। लाल गलियारे में रहने वाले आदिवासियों के लिए लोकतंत्र का वही मतलब नहीं है जो महानगरों के सुरक्षित खोहों में रहने वालों के लिए है। जो बार-बार अपनी जमीन से खदेड़े जाते हों, जिनकी स्त्रियों के खिलाफ बलात्कार की घटनाओं की गिनती न हो सके और जिनके बच्चों को दूध और दवा के अभाव में हर पल तड़पना पड़े, वे इस लोकतंत्र को आनंदवन कभी नहीं मानेंगे।
और जब देश की सभी राजनीतिक पार्टियां उनके मुद्दे पर खामोश हों तो वो क्या करें। हद तो ये है कि बौद्धिकों का एक तबका इसे विकास की स्वाभाविक परिणति मान रहा है। आखिर उनके सपनों के देश अमेरिका की महान सभ्यता रेड इंडियनों के संहार पर ही रची गई थी। वे आदिवासियों की समस्याओं पर कंधे उचकाने के अलावा कुछ नहीं करते। उनके लिए समस्या तभी है जब आदिवासी मरने-मारने पर आमादा हो जाएं। आदिवासी जीवन की अमानुषिक तस्वीर उनके लिए कोई समस्या नहीं है। उनके लिए कारण नहीं, परिणाम ही महत्वपूर्ण है। वे इस सवाल से तो खासतौर पर चिढ़ते हैं कि माओवादी जिस स्थिति का फायदा उठा रहे हैं उसका निर्माता कौन है?
खैर, अभी-अभी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान आया है कि माओवादियों का दिल जीतने की जरूरत है। तो क्या चिदंबरम का युद्ध सिद्धांत पलटा जाएगा..। ये आसान नहीं है, क्योंकि यहां भी दिल जीतने का रास्ता पेट से होकर गुजरता है। और आदिवासियों का पेट भरना?...बाप रे बाप...सरकारों से क्या-क्या तो उम्मीद की जाती है!
Sunday, March 28, 2010
Friday, March 19, 2010
पंजाब में सड़ रहा है सैकड़ों करोड़ का गेहूं
Fri, Mar 19, 2010 at 11:56
पंजाब के फतेहगढ़ जिले में गेहूं की बोरियों का पहाड़ खड़ा है।
नई दिल्ली। देश भर में अनाज की भारी किल्लत है। लाखों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं लेकिन पंजाब में लाखों टन अनाज बाहर पड़ा सड़ रहा है। कारण है अनाज रखने के लिए जगह की कमी। सैकड़ों करोड़ रुपये का गेहूं खराब हो रहा है। हालत ये है कि गेहूं की फसल तैयार है लेकिन अब तक पिछले दो सालों की फसल नहीं उठी तो नई फसल को कहां रखा जाए? पंजाब सरकार इसके लिए केंद्र को जिम्मेदार ठहरा रही है। जबकि केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का कहना है कि वो इसके लिए फिक्रमंद हैं।पंजाब के फतेहगढ़ जिले में गेहूं की बोरियों का पहाड़ खड़ा है। 2008 में काटे गई इस गेहूं को केंद्र ने पंजाब से खरीदा। लेकिन हजारों करोड़ रुपये खर्च कर खरीदे गेहूं को यहीं छोड़ दिया। पंजाब के वितमंत्री के मुताबिक यहां खराब हो रहे गेहूं की हालत काफी खराब है। ऐसे में अगर केंद्र ने जल्दी ही कोई कदम नहीं उठाया तो ये किसी इस्तेमाल के लायक नहीं बचेगा। वित्तमंत्री मनप्रीत बादल कहते हैं कि हम लोग थक गए हैं। सड़क हो या पानी हर जगह गेहूं से अटी पड़ी है। हमारे पास गोदाम खत्म हो चुके हैं अब और जगह नहीं है। पंजाब के खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री आदेश प्रताप सिंह कैरों इस संकट को लेकर शरद पवार से शनिवार को दिल्ली में मिलेंगे। वो कहते हैं कि हम कई बार केंद्र को कह चुके हैं पर केंद्र कुछ नहीं कर रहा।पंजाब में इस वक्त 72 लाख मीट्रिक टन गेहूं पड़ा है जिसे केंद्र के लिए खरीदा गया। इसमें से 68 लाख मीट्रिक टन पंजाब सरकार ने केंद्र के लिए खरीदा है जबकि 4 लाख टन फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया ने खरीदा है। इसमें से 80 प्रतिशत गेहूं खुले में पड़ा है जो वक्त और मौसम के साथ खराब हो रहा है। चिंता की बात ये है कि अभी पुराना गेहूं उठा नहीं कि रबी की नयी फसल तैयार है। नयी फसल आते ही पंजाब में गेहूं समेत अनाज की मात्रा बढ़कर 251 लाख मीट्रिक टन हो जाएगी। जबकि पंजाब में इस वक्त सिर्फ 181 लाख मीट्रिक टन अनाज रखने की ही क्षमता है। इसमें गेहूं और चावल दोनों शामिल हैं। यानि आने वाले दिनों में लगभग 70 लाख मीट्रिक टक अनाज रखने की जगह ही नहीं होगी।पंजाब सरकार की तो यहां तक सलाह है कि इस अनाज को खराब होने की लिए छोड़ने की बजाय इसे गरीबों में मुफ्त बांट देना चाहिए। एक क्विंटल गेहूं की कीमत 1000 रुपये से ज्यादा है। अब अंदाजा लगाया जा सकता है कि हर साल सिर्फ पंजाब में ही 1000 करोड़ रुपये से ज्यादा का अनाज खराब हो जाता है।
पंजाब के फतेहगढ़ जिले में गेहूं की बोरियों का पहाड़ खड़ा है।
नई दिल्ली। देश भर में अनाज की भारी किल्लत है। लाखों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं लेकिन पंजाब में लाखों टन अनाज बाहर पड़ा सड़ रहा है। कारण है अनाज रखने के लिए जगह की कमी। सैकड़ों करोड़ रुपये का गेहूं खराब हो रहा है। हालत ये है कि गेहूं की फसल तैयार है लेकिन अब तक पिछले दो सालों की फसल नहीं उठी तो नई फसल को कहां रखा जाए? पंजाब सरकार इसके लिए केंद्र को जिम्मेदार ठहरा रही है। जबकि केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का कहना है कि वो इसके लिए फिक्रमंद हैं।पंजाब के फतेहगढ़ जिले में गेहूं की बोरियों का पहाड़ खड़ा है। 2008 में काटे गई इस गेहूं को केंद्र ने पंजाब से खरीदा। लेकिन हजारों करोड़ रुपये खर्च कर खरीदे गेहूं को यहीं छोड़ दिया। पंजाब के वितमंत्री के मुताबिक यहां खराब हो रहे गेहूं की हालत काफी खराब है। ऐसे में अगर केंद्र ने जल्दी ही कोई कदम नहीं उठाया तो ये किसी इस्तेमाल के लायक नहीं बचेगा। वित्तमंत्री मनप्रीत बादल कहते हैं कि हम लोग थक गए हैं। सड़क हो या पानी हर जगह गेहूं से अटी पड़ी है। हमारे पास गोदाम खत्म हो चुके हैं अब और जगह नहीं है। पंजाब के खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री आदेश प्रताप सिंह कैरों इस संकट को लेकर शरद पवार से शनिवार को दिल्ली में मिलेंगे। वो कहते हैं कि हम कई बार केंद्र को कह चुके हैं पर केंद्र कुछ नहीं कर रहा।पंजाब में इस वक्त 72 लाख मीट्रिक टन गेहूं पड़ा है जिसे केंद्र के लिए खरीदा गया। इसमें से 68 लाख मीट्रिक टन पंजाब सरकार ने केंद्र के लिए खरीदा है जबकि 4 लाख टन फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया ने खरीदा है। इसमें से 80 प्रतिशत गेहूं खुले में पड़ा है जो वक्त और मौसम के साथ खराब हो रहा है। चिंता की बात ये है कि अभी पुराना गेहूं उठा नहीं कि रबी की नयी फसल तैयार है। नयी फसल आते ही पंजाब में गेहूं समेत अनाज की मात्रा बढ़कर 251 लाख मीट्रिक टन हो जाएगी। जबकि पंजाब में इस वक्त सिर्फ 181 लाख मीट्रिक टन अनाज रखने की ही क्षमता है। इसमें गेहूं और चावल दोनों शामिल हैं। यानि आने वाले दिनों में लगभग 70 लाख मीट्रिक टक अनाज रखने की जगह ही नहीं होगी।पंजाब सरकार की तो यहां तक सलाह है कि इस अनाज को खराब होने की लिए छोड़ने की बजाय इसे गरीबों में मुफ्त बांट देना चाहिए। एक क्विंटल गेहूं की कीमत 1000 रुपये से ज्यादा है। अब अंदाजा लगाया जा सकता है कि हर साल सिर्फ पंजाब में ही 1000 करोड़ रुपये से ज्यादा का अनाज खराब हो जाता है।
Sunday, March 14, 2010
समृद्धि के पीछे का सच
भूख की सूची में दुनिया के 88 देशों में भारत का क्रमांक 66 आया है। इसका अर्थ है कि समृद्धि के बेहद ऊंचे कीर्तिमान स्थापित करने के बावजूद भारत में 30 करोड़ से अधिक गरीब जनसंख्या सर्बिया, लिथुआनिया, सूरीनाम और मंगोलिया के गरीबों की तुलना में भी ज्यादा दुर्दशा की शिकार है। भूख और गरीबी के सूचकांकों की श्रेणी में भारत पाकिस्तान से बदतर है और बांग्लादेश से ही बेहतर है इस सूची में क्रमांक का निर्धारण बाल कुपोषण, बाल मृत्यु दर, कैलोरी की कमी से ग्रस्त जनसंख्या, सामान्य भोजन मात्रा, स्वास्थ्य एवं आरोग्य सेवाएं, स्वच्छ जल की उपलब्धता, शौैचालय और सफाई, स्त्रियों की शिक्षा, सरकार का प्रभाव, सामाजिक एवं राजनीतिक शांति और संघर्ष तथा एड्स जैसे रोगों की उपस्थिति का स्तर मापकर किया जाता है। जिहादी आतंकी, वोट बैंक राजनीति और सामाजिक तनावों के नित्य नए जातिगत समीकरणों में उलझा भारत कभी तेंदुलकर के विश्व कीर्तिमान में राहत और आशा ढूंढ़ता है तो कभी उन भारतीय अरबपतियों के लंदन और न्यूयार्क तक फैले ऐश्वर्य और भोग के अपार विस्तार की कथाओं से खुद को दिलासा देना चाहता है कि हम आगे बढ़ रहे हैं, पर सत्य यह है कि भारत की समृद्धि तीन सौ बड़े औद्योगिक और राजनीतिक घरानों तक सीमित रही है। शेष जनता किसी तरह स्ाघर्ष करते हुए जीवन बिताने पर विवश है। वास्तव में गरीबी दूर करने के लिए किसी की दिलचस्पी नहीं है। गरीब और अशिक्षित अच्छे वोट बैंक बनते हैं। विडंबना यह है कि हमारी सरकार के पास गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की पहचान हेतु अभी तक कोई निश्चित मापदंड तक नहीं है। योजना आयोग और ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में गरीबी के दो भिन्न मानक तथा आंकड़े प्रयुक्त किए जा रहे हैं। एक के अनुसार 26 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे है तो दूसरे के अनुसार 28 प्रतिशत। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार 80 प्रतिशत भारतीयों के पास सामान्य स्वास्थ्य सुविधाओं के उपयोग की सुविधा और उसके लिए उपयुक्त ढांचा नहीं है। पांच वर्ष से कम आयु के 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 15-19 आयुवर्ग के 71 प्रतिशत बच्चे सेकेंडरी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाते। 57 प्रतिशत भारतीय बिजली के उपयोग से वंचित हैं। 70 प्रतिशत भारतीयों के लिए न्यूनतम स्वच्छता स्तर के शौैचालय उपलब्ध नहीं हैं और 49 प्रतिशत उचित आवास यानी अपने घर से वंचित हैं। इस भारत का शासन तंत्र, न्याय व्यवस्था और यहां तक कि पत्रकारिता भी शहर एवं धनाढ्य वर्ग केंद्रित है। श्रम, बेहतर संस्कार और सभ्यता का भंडार होने के बावजूद किसान और ग्रामीण को उस शहरी की तुलना में कम सम्मान मिलता है जो कम सुसंस्कृत और कुशल होने पर भी दो शब्द अंग्रेजी बोलता है और दिल्ली, पटना, भोपाल का पता बताता है। देश के हर बड़े नगर और महानगर में अथाह गरीबी के अत्यन्त दारूण दृश्य दिखते हैं-फुटपाथों पर जानवरों की तरह सोते और जिंदगी बिताते लोग, गंदे नालों, रेल की पटरियों, सार्वजनिक शौचालयों के पीछे टाट के कपड़े बांध 'घर' बना कर रहते लोग, सार्वजनिक कूड़ेदानों, होटलों के बाहर और रेलगाड़ियों से जूठन और खाद्यकण बटोरते बच्चे और स्त्रियां, रिक्शा-ठेला चलाकर भरी दुपहरी या घनघोर वर्षा में भी काम करते मजदूर। ये सब भारतीय ही तो हैं। कभी रांची या बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों से पंजाब, हरियाणा, जम्मू जाने वाली रेलगाड़ियां देखी हैं आपने? गठरियों में सामान बांधे ये लोग डिब्बों में ठूंसे हुए और छत पर चढ़े हुए बेहतर जीवन की आस में घर परिवार छोड़कर जाने पर क्यों विवश होते हैं? ये अपमान, तिरस्कार, कम पगार और संवेदनहीन प्रशासन युक्त वातावरण में काम करने पर राजी हो जाते हैं। क्या इस बेबसी का कोई आकलन कर सकता है? इन राज्यों में जब से मध्यमवर्ग समृद्ध हुआ है वहां के सामान्य व छोटे कहे जाने वाले कार्यों के लिए स्थानीय मजदूर नहीं मिलते। श्रीनगर में देशविरोधी हुर्रियत नेताओं के घर बनाने के लिए भी बिहार और झारखंड से गए मजदूर काम आए थे। आधे पेट सोने वाले, भूखे उठकर काम पर जाने वाले मेहनतकश असंगठित भारतीयों की संख्या बढ़ रही है। इनमें शहरी गरीब और ग्रामीण किसान दोनों सम्मिलित हैं। जिस देश में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 70 हजार से अधिक किसान एक साल में निराशा, गरीबी और बदहाली से तंग आकर परिवार सहित आत्महत्याएं करने पर विवश हों वहां चांद पर उपग्रह छोड़ने या आतंकवादी हमलों पर गुस्से भरी बहसें कितना अर्थ रखती हैं? राजनीति और मीडिया में सनसनी और शोर का राज चल रहा है। जो जितना जोर से बोले वह उतना बड़ा सत्यवान और महारथी जान लिया जाता है। कोई यह नहीं जानना चाहता कि कितने भारतीय आज दाल खा पा रहे हैं? दूध, फल और हरी सब्जी मध्यम व उससे ऊपर के वर्ग तक ही सिमट गई है। बाकी के लिए प्याज और आलू के साथ रोटी खाना तक कठिन हो गया है। गरीबों को प्रगति की मुख्यधारा से दूर बनाए रखने के लिए अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवाद भी काफी हद तक जिम्मेदार है। आज की ज्ञान संपदा, प्रज्ञा, पराक्रम और धनार्जन के श्रेष्ठ साधन केवल अंग्रेजी तक सीमित कर दिए गए हैं। अधिकतम उदार आकलनों के अनुसार अंग्रेजी जानने वाले मात्र 9 प्रतिशत हैं। वे शेष 91 प्रतिशत भारतीयों की नियति का फैसला करने वाले और 80 प्रतिशत साधनों का उपभोग करने वाले बन गए हैं। देश में इस वातावरण में आईटी क्रांति की बात एकदम बेमानी हो जाती है, क्योंकि इस क्रांति ने वस्तुत: अंग्रेजियत को ही मजबूत किया है। जहां 91 प्रतिशत जनसंख्या भाषाई तालेबंदी का शिकार हो वहां शिक्षा और समृद्धि के नवीन अवसर कहां से जनसामान्य तक पहुंचेगे, जिसके बिना गरीबी उन्मूलन असंभव है।
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