Friday, April 29, 2011

उर्दू पत्रकारिता जैसे बंदर के हाथ में नारियल: हाशमी

( बिहार में का पहला उर्दू समाचार पत्र ‘साप्ताहिक उर्दू अखबार’ 1810 में मौलवी अकरम अली ने संपादित कर कोलकता से छपवाया था। बिहार में जहां व्यक्तिगत स्तर पर उर्दू समाचार पत्रों का प्रकाशन हुआ वहीं पर सरकारी स्तर पर भी समाचार पत्र प्रकाशित हुए। बिहार में अखबारों के स्वर्णिम सफर की शुरूआत सर्वप्रथम उर्दू अखबार से ही हुई, 1853 में सबसे पहला अखबार उर्दू भाषा में ‘नूर उल अनवार’ था, जिसका उर्दू उच्चारण‘‘नूरूल अनवार’’ है जो आरा शहर से प्रकाशित हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ बिहारी अस्मिता की नींव भी उर्दू अखबारों ने ही रखी। वर्ष 1853 से लेकर आज के दौर में बिहार की उर्दू पत्रकारिता ने कई करवटे लीं है और आज भी बिहार में इसकी भूमिका है। इन्ही मुद्दों को लेकर बिहार में उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा पर यहां के चर्चित उर्दू पत्रकारों ने अपनी बेवाक टिप्पणियां दी। टिप्पणियों को एक-एक कर बहस के लिए रखा जायेगा। आप भी अपनी बेवाक टिप्पणी दे सकते हैं-संपादक )

खुर्शीद हाशमी / मुद्दा। उर्दू पत्रकारिता आज समय के साथ चलने और Latest Technology का प्रयोग करने में जुटी हुई है, और उर्दू पत्रकारिता में आज पहले से अधिक पढ़े लिखे और पत्रकारिता का ज्ञान या डिग्री, डिप्लोमा रखने वाले लोग आ रहे हैं, मुझे उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा दोनों गड़बड़ नजर आती है। मेरी नजर में उर्दू पत्रकारिता की हालत आज वैसी ही है जैसी बंदर के हाथ में नारियल की होती है। बंदर नारियल के साथ कब तक खेलेगा, कब उसे पानी में उछाल देगा या कब उसे किसी के सिर पर दे मारेगा, कहना मुश्किल है।
यह स्थिति इसलिए है कि उर्दू पत्रकारिता मुख्यतः आज भी निजी हाथों में हैं और उर्दू पत्रकारिता के भाग्य विधाता वह लोग बने बैठे हैं, जो न उर्दू जानते हैं और न पत्रकारिता का ज्ञान रखते हैं। यह लोग उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के मालिक होते हैं। और मालिक होने के नाते नीति-निर्धारक से लेकर संपादक और व्यवस्थापक तक सब कुछ यही लोग होते हैं। वे जैसा चाहते हैं, करते हैं। उनकी नजर में पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं होती है। वह उन्हें क्लर्क या एजेन्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, इसलिए अधिक तेज या पढ़े-लिखे लोग उनको रास नहीं आते, वैसे भी अधिक पढ़े-लिखे लोग महंगे होंगे, और यह लोग चीफ एंड वेस्ट में विश्वास रखते हैं। ऐसी स्थिति में अगर कोई तेज पत्रकार आ भी जाता है तो वह उनकी उपेक्षा का शिकार हो जाता है। उसकी हर बात और हर राय की अनदेखी करके उसे उसकी औकात बता दी जाती है। वे कहते हैं कि हम बिजनेस करने के लिए आये हैं, और बिजनेस कैसे करना है, यह हम जानते हैं, लेकिन वास्तव में वह बिजनेस करना भी नहीं जानते, इसलिए वह उर्दू की सेवा या पत्रकारिता तो करते ही नहीं, ढंग से बिजनेस भी नहीं कर पाते हैं।
उर्दू पत्रकारिता में अब कारपोरेट सेक्टर ने भी पांव पसारना शुरू कर दिया है। वैसे तो वहां भी कुछ समझौते होते हैं और कई बार अयोग्य लोगों को कमान सौंप दी जाती है, जो अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए अपने से भी अधिक अयोग्य लोगों को लाकर पत्रकारिता की कबर खोदने का प्रयास करते हैं, फिर भी निजी हाथों की तुलना में कारपोरेट सेक्टर में स्थिति अच्छी है। मगर समस्या यह है कि कारपोरेट सेक्टर का नाम सुनते ही उर्दू के पाठक भड़क उठते हैं। उन्हें लगता है कि कारपोरेट जगत के अखबार उनकी आवाज मजबूती के साथ नहीं उठा सकते और उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं।

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