पिता की विरासत को सहेजती बेटियां
हाल ही में एक वकील ने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि एक जाने-माने व्यवसायी ने बेटे के होते हुए भी अपनी बेटी की मेहनत और निष्ठा को देखते हुए अपने व्यवसाय की सारी जिम्मेदारी उसे जीते जी सौंप दी। बेटी ने न केवल अपने पिता की विरासत को संभाला बल्कि अपनी सोच और मेहनत से व्यवसाय को नए आयाम भी दिए। बेटे की लापरवाहियों ने पिता को पूरे तौर पर निराश कर दिया था। लेकिन पिता के मरते ही बेटे ने कोर्ट में मुकदमा दायर किया और अपने हक की मांग की। कोर्ट ने उसके पक्ष में फैसला सुनाते हुए दोनों भाई-बहनों को आधा-आधा व्यवसाय सौंप दिया। अगले कुछ ही सालों में भाई ने उस आधे को भी पूरा समाप्त कर दिया। जबकि बहन ने अपने हिस्से में आई विरासत को संजोने और आगे ले जाने में पूरी जान लगा दी। यह निर्विवाद सच है कि बेटियां अपने पिता के प्रति अधिक निष्ठावान होती हैं। हमारे जीवन में पिता की भूमिका कुछ ऐसी ही है। अपवादों की बात न करें तो अनेक उदाहरण ऐसे मिल जाएंगे जिन्होंने तमाम बंदिशों के बाद भी अपने घर-परिवार का नाम रोशन किया। पिता के व्यक्तित्व से प्रभावित ऐसी बेटियों की कमी नहीं है जिन्होंने उनके पदचिह्नों पर चलकर मिसाल कायम की।
संबंध पिता-पुत्री का
इसमें संदेह नहीं कि आम तौर पर पिता का पुत्री के साथ और पुत्र का मां के साथ नाता गहरा होता है। प्रख्यात मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड के अनुसार विपरीत सेक्स के कारण यह आकर्षण प्रबल होकर इस लगाव का मुख्य कारण बनता है। जीवन में आने वाले सर्वप्रथम पुरुष पिता से लडकियां स्वत: प्रभावित होती हैं। वे आजीवन इस मजबूत और आदर्श व्यक्तित्व से प्रभावित रहती हैं और सारी उम्र अपने साथी में भी पिता के गुणों को खोजती हैं।
बदला दृष्टिकोण
आज पिता की भूमिका बदल गई है। वह पहले की तरह घर-परिवार से दूर रहने वाला केवल कामकाजी व्यक्ति नहीं रह गया। आज का पिता पहले की तुलना में कहीं अधिक व्यावहारिक हो गया है। वह चाहता है कि उसकी व्यावहारिकता और अनुभव उसके बच्चों के काम आएं। यूं भी बहुत से परिवर्तन हमारे समाज में आए हैं। पहले जहां बेटियों को पराया धन मानकर उसे तवज्जो नहीं दी जाती थी और बेटे की परवरिश पर ध्यान दिया जाता था, वहीं अब दोनों को बराबरी का हक मिलता है। सोच और दृष्टि में आए बदलावों ने बेटियों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव ला दिए। इसी बदलाव के चलते ये संबंध और प्रगाढ हुए।
इतिहास गवाह है
ऐसे उदाहरण जिन्होंने अपने पिता की परंपरा को न केवल जीवित रखा बल्कि बख्ाूबी निभा कर आगे भी ले गई, कम नहीं हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी हों या पंडित रविशंकर की बेटी अनुष्का शंकर। ये उस जमाने की बेटियां हैं जिन्हें सुविधाओं और अवसरों की कमी नहीं है। लेकिन दूसरी तरफ आज से चार सौ साल पहले जन्मी चांद बीबी [1550-1599] अरबी, फारसी, टर्की के साथ मराठी और कन्नड भाषा में निपुण थीं और जिस जमाने में बेटियों के घर से निकलने पर भी पाबंदी थी, उसी दौर में चांद ने बीजापुर की सल्तनत में विवाह करने के बाद भी अपने पिता [अहमदनगर के हुसैन निजाम शाह] का नाम अमर किया। इनके दो सौ साल बाद 1725-1795 में अहिल्या बाई हुई। एक बडी फिलॉसफर होने के साथ महान बिल्डर बनीं। उनके बनाए भव्य मंदिर आज भी देश-विदेश में चर्चा के केंद्र हैं। उनके पिता मनकाजी शिंदे तो चोंडी गांव, अहमदनगर के पाटिल ही रहे, लेकिन बेटी अहिल्या के कारण उनका नाम इतिहास में आज भी इज्जत से लिया जाता है।
सक्षम है बेटी
वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉक्टर जयंती दत्ता का कहना है कि स्त्री की सहनशीलता, ईमानदारी और ताकत को भगवान भी मानते हैं। यदि नहीं मानते तो सृष्टि के सृजन का माध्यम उसे नहीं बनाते। बेटी को केवल इस वजह से पराया धन मान लेना कि एक दिन उसे दूसरे घर जाना है, एकदम गलत है। अपनी संतान को खून से सींच कर पालते हैं। यही काम बेटी आगे चलकर करती है क्या कोई बेटा ये काम कर सकता है? तो बेटियां क्यों नहीं पिता की विरासत को आगे बढा सकतीं। वे भी सक्षम हैं हर काम करने में।
बेटी में मां की झलक
जयंती मानती हैं कि पिता अपनी पुत्री में अपने ही खून का बदला हुआ चेहरा देखता है। वह उसमें अपनी मां की झलक देखता है। वह उसकी देखभाल करती है, सलाह मानती है और सलाह देती भी है, गुस्सा भी होती है। इसलिए बेटी से उसका लगाव बेहद मजबूत होता है। ये भावनात्मक संबंध संसार के सभी संबंधों से एकदम अलग और अटूट है। उसे बाहर की दुनिया से रूबरू कराने का काम भी पिता ही करता है। मानसिक व शारीरिक सक्षमता के कारण वह हर जगह खडा होता है। यही वजह है कि बेटी भी अपने निकटतम संबंधों में अपने पिता का सा व्यक्तित्व और गुण खोजती रहती है। विज्ञान भी इस बात को मानता है कि पिता और पुत्री का संबंध अटूट व रचनात्मक है। इसे इलेक्ट्राकॉम्प्लेक्स कहते हैं। ये निरंतर सीखने व आगे ले जाने की परंपरा का निर्वाह करता है। ऐसी कुछ जानी-मानी बेटियों के अनुभव जिन्होंने पिता की विरासत को संजोने व आगे बढाने में सक्षम भूमिका निभाई।
पापा के पदचिह्नों पर चलने की कोशिश की
रवीना टंडन थदानी, अभिनेत्री व निर्माता
मेरे पापा रवि टंडन ने अपने जमाने में कई बेहतरीन फिल्मों का निर्माण-निर्देशन किया। उनके साथ मेरी कोई बराबरी किसी क्षेत्र में हो ही नहीं सकती। एक इंसान और योग्य निर्देशक के रुप में जो गुण उनमें हैं, उनसे मेरी तुलना नहीं हो सकती। जहां तक पिता की परंपरा निभाने का सवाल है, तो मैं यही कहूंगी कि मैंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोडी उनकी तरह बनने में। मैंने स्वयं कुछ सॉफ्टेवयर प्रोग्राम्स किए, कुछ फिल्म मेकिंग की शुरुआत की। आप सभी जानते हैं कि मैंने फिल्म स्टंप्ड का निर्माण किया, पर यह फिल्म ओवर बजट होने से सफल नहीं हुई। यदि अभिनय और फिल्म निर्माण-निर्देशन एक सिक्के के दो पहलू हैं, तो मैंने अपने पापा के पद्चिह्नों पर इस क्षेत्र में गंभीरता से चलने का प्रयास किया। पापा बेहद संजीदा इंसान हैं, उन्होंने अपने पेशे और परिवार से बेहद गहराई से प्यार किया। मेरी और भाई राजीव की परवरिश करने में उन्होंने कभी कोई भेद नहीं रखा। मैंने मिठीबाई कॉलेज में पढते समय ही मॉडलिंग शुरू की। मुझे एड फिल्म्स की मेकिंग में बडी दिलचस्पी थी, सो पापा ने मुझे एड गुरू प्रहलाद कक्कड से मिलवाया। रोमांचक होता है इस क्षेत्र में काम करना पर यहां काम करने का समय तय नहीं होता। मैंने अपनी मर्जी से एड वर्ल्ड छोड दिया। मुझे फिल्मों के लिए ऑफर्स आ रहे थे। मेरे हर काम में उन्होंने मुझे पूरा सहयोग दिया। उनका कहना था कि मुझे तुम पर पूरा भरोसा है कि तुम कुछ ऐसा नहीं करोगी, जिससे मुझे शर्मसार होना पडेगा। मैंने पापा के विश्वास को कायम रख। पापा हमेशा चुपचाप सामाजिक सारोकारों के लिए बरसों से काम करते रहे। मैं यूनिसेफ और क्राय की ब्रैंड एंबेसेडर हूं। मुझे खुशी है कि मैंने अपने पापा के पदचिह्नों पर चलने का प्रयास किया। राजीव, मेरा भाई पापा की तरह नामचीन मेकर नहीं बन सका, अब फिल्म इंड्स्ट्री के सारे गणित बदल चुके है, शायद नई फिल्म इंडस्ट्री में राजीव खुद को नहीं ढाल पाया हो। मेरे विचार में शादीशुदा स्त्री के लिए यह बहुत मायने रखता है कि वो अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में कितनी सफल मां, पत्नी और गृहिणी है। मेरे पापा मेरी जीवन के असली हीरो हैं। आज जब वह मेरे बच्चे राशा और रणबीर को गोदी में लेते हैं, तो बडा सुकून मिलता है।
मैं उनकी परंपरा नहीं निभा पाई
मॉडल-अभिनेत्री पूजा बेदी
मैं अपने डैड के बारे में जितना कहूं उतना ही कम होगा। मेरे पिता बॉलीवुड और हॉलीवुड के बेहतरीन अभिनेता हैं। बेदी परिवार की शायद सबसे बडी खासियत यह रही है कि परिवार का हर सदस्य अपनी मर्जी का मालिक है। मैंने यदि अपने पिता की परंपरा निभाई है, तो वह मेरे जींस में है।
मेरे पिता का जन्म पंजाब में हुआ। उनके पिताजी यानी मेरे दादाजी का नाम था-बाबा फायरेलाल बेदी। वह लेखक और चिंतक थे। उन्होंने उन्नीसवीं सदी के आरंभ में आजादी की लडाई लडी। तमाम विरोध सहते हुए मेरी दादी फ्रेदा होलस्टन, जो ब्रिटिशर थीं, से हिंदू तरीके से शादी की। उन्नीसवीं-सदी का आरंभ और अठारहवीं सदी के अंत में हमारे बेदी परिवार में एक साथ सिख-हिंदू और क्रिश्यियन धर्म की पंरपराओं का पालन एक ही छत के नीचे किया जाता रहा है। उस समय में भी बेदी परिवार विचारों से सौ साल आगे था और भी है। दादा-दादी दोनों ने मिलकर काफी समाज सुधारक काम किए। मेरे पिताजी पढाई के लिए शेरवुड कॉलेज, नैनीताल गए। वहीं कॉलेज के नाटकों में काम करते-करते उन्हें अभिनय का शौक लगा। डैड ने अभिनय की जिन गहराइयों को छुआ, वहां तक पहुंचने के लिए मुझे अगले जन्म का इंतजार करना पडेगा। डैड ने बॉलीवुड और हॉलीवुड में कई ऐतिहासिक किरदार निभाए। उस दौर में अभिनेता होना कुछ खास बात नहीं थी। मेरी मां प्रोतिमा बेदी ओडिसी डांसर रही हैं। पिताजी ने जो किया उसका अगर मैं एक अंश भी कर सकूं तो बहुत बडी बात होगी। मेरे भाई -सिद्धार्थ को पढने-लिखने में गहरी दिलचस्पी थी, शायद वह भविष्य में नाम कमाता पर वह इस दुनिया में नहीं रहा..। दूसरा भाई एडम बेदी भी आज विज्ञापन की दुनिया में बडा नाम बन चुका है, जो ग्लैमर से ही जुडा है। मैं अपने पिताजी की अभिनय की विरासत को निभाने में सक्षम नहीं रही। मुझे जितने मौके मिले, मैंने उन्हें ईमानदारी से निभाने की पूरी कोशिश की। पिताजी इस बात से संतुष्ट हैं कि मैं एक बेहद अच्छी मां हूं। शायद भविष्य में मेरी बेटी आलिया या बेटा फरहान अभिनय के क्षेत्र से जुडें.. काल के गर्भ में क्या छिपा है, नहीं पता।
उनके सपने मैं पूरे करना चाहती हूं
मेघना [डायरेक्टर-एक्टिव इंस्टीट्यूट]
आजकल बेटे और बेटी में कोई अंतर नहीं रह गया। मेरे हिसाब से जो काम पहले बेटे करते थे, अब बेटियां करती हैं। मैं अपने पिता सुभाष घई की इकलौती पुत्री हूं। मुझे हमेशा पिता का स्नेह मिला। उन्होंने मुझे हमेशा हर काम में डटे रहने का सुझाव दिया। मेरे पिता का सपना था कि मैं एक ऐसी संस्था खोलूं जिसमें गांव और छोटे शहरों से आने वाले बच्चों को निर्देशन, कला, डबिंग, एडिटिंग, एक्टिंग आदि की शिक्षा दी जाए। ताकि अगर कोई इस क्षेत्र में आना चाहे तो वह कामयाब हो सके।
मेरे पिता ने मुझे हर काम के लिए प्रोत्साहन दिया। मैंने 16 वर्ष की आयु से इस क्षेत्र में कदम रखा। जब मेरी छुट्टियां होतीं तो मैं अपने पिता के साथ ऑफिस चली जाती। उन्होंने कभी ये नहीं कहा कि लडकी हो और घर पर बैठो। वे हमेशा मुझे अपने साथ शूट पर ले जाते थे। फलस्वरूप मुझे भी इस क्षेत्र में आने की प्रेरणा मिली। इसके अलावा जब मैं उनके साथ सेट पर जाती और उनके काम को देखती तो अनायास ही मुझे इससे लगाव होने लगा। वह हमेशा कहते हैं कि आप कितने भी ऊपर पहुंच जाएं या सफलता हासिल कर लें पर अपनी जड को कभी मत भूलें। ईगो को कभी आगे आने मत दें। वे खुद भी अपनी टीम के हर सदस्य से परिवार जैसा रिश्ता रखते हैं। चाहे लाइटमैन हो या निर्देशक सबसे मिलते हैं, बातें करते हैं। 35 साल से भी अधिक समय उन्होंने इस फिल्मी दुनिया में बिताए। सबसे उनका अच्छा व्यवहार है। उनका कहना है कि हर व्यक्ति का काम महत्वपूर्ण है तथा सबसे मिलकर ही टीम बनती है। मुझे किसी प्रकार की परेशानी कभी नहीं आई, पर हमेशा ये चिंता रही है कि मैं उनके सपनों को साकार कर सकूं और उनके नाम को आगे बढाऊं। उनकी बेटी हूं, ऐसा सोचकर मुझे गर्व महसूस होता है। उनके अनुभव ही मेरे काम आ रहे हैं। अब तो लगता है कि मुझे सब पता है। यह एक बडा ही प्यारा काम है और उनके सपने मैं पूरे करना चाहती हूं।
संभाली पिता की विरासत
मीता पंडित, शास्त्रीय गायिका
पिता एल के पंडित और दादा पद्मभूषण कृष्णराव शंकर के कारण घर में शास्त्रीय संगीत का माहौल तो हमेशा रहा। बचपन से संगीत के प्रति अनुराग रहा है। संगीत के प्रति दीवानगी इस हद तक थी कि हम संगीत ही खाते, संगीत ही पहनते और संगीत ही ओढते थे। संगीत की इस दीवानगी में हमारा बचपन कब और कैसा बीता मुझे पता नहीं चला। हमें नहीं पता कि बचपन क्या होता है। हम गरमी की छुट्टियां मनाने कहीं जाते तो हारमोनियम और तबला भी हमारे साथ जाता। ताकि अवसर निकाल कर हम रियाज भी कर लिया करें। मगर तब तक हमने यह नहीं सोचा था कि दादाजी और पिताजी की विरासत को एक ऊंचाई देने में मेरी भी कुछ भूमिका होगी। यह सन् 1994 की बात है, मैं बी. कॉम कर रही थी। तब तक मैंने भविष्य को लेकर कोई निश्चित योजना नहीं बनाई थी। दुर्भाग्यवश उन्हीं दिनों मेरे परमप्रिय भाई तुषार पंडित की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। तुषार ही वास्तव में पिता की इस कला विरासत को आगे ले जाने के लिए प्रयासरत थे। भाई के इस दुखद अवसान के बाद मुझे लगा कि उनके छोडे अधूरे अभियान को मैं पूरा करूंगी। इस तरह मैंने ख्ाुद को शास्त्रीय संगीत की दुनिया को समर्पित कर दिया। मगर मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि पिता का वारिस केवल बेटा ही हो सकता है खासकर उनके शौक, उनके प्रोफेशन, उनकी हसरतों को लेकर। हो सकता है कि बी.कॉम के बाद मैं किसी जॉब से जुडने के साथ-साथ गीत-संगीत की इस विधा से भी इतने ही अपनेपन के साथ जुडी रहती। कोई इंसान एक बार में दो काम क्यों नहीं कर सकता? बहन शोभना अपने जॉब के साथ-साथ शास्त्रीय नृत्य के शोज भी निरंतर कर रही हैं। कथक की सर्वश्रेष्ठ नृत्यांगना के तौर पर वह देश-विदेश में विख्यात है। जहां तक परवरिश की बात है, घर का माहौल गीत-संगीत का होने की वजह से इसके प्रति रुझान भी बचपन से बना हुआ था।
पिताजी ने एक गुरु की तरह मुझे संगीत की तालीम दिलाई है। सारे सुर-ताल मैंने उन्हीं से सीखे। पिता के साथ गुजरे वक्त के साथ मुझे सीखने को मिला कि स्टेज के पीछे किस तरह का वातावरण होता है? ग्रीन रूम के भीतर कैसा माहौल रहता है इत्यादि। इन स्थितियों से कैसे निबटा जाता है ये भी उन्होंने सिखाया। ऐसे परिवार का हिस्सा रहते हुए आप काफी कुछ सीख समझ जाते हैं। आप किसी भी फील्ड में तरक्की करते हैं तो कुछ लोग आपकी तरक्की से जलते हैं। मगर ऐसे लोगों को तवज्जो दिए बिना हमें अपना काम करते रहना चाहिए। इसी में हमारी सफलता निहित है। यदि पिताजी मेरे गौरव हैं तो उन्हें भी अपनी बेटी पर गर्व होना चाहिए।
मेरे आदर्श रहे पापा
डॉ. समीना खलिल
मेरे पिता डॉ. खलीलुल्लाह का नाम मेडिकल प्रोफेशन में किसी पहचान या परिचय का मोहताज नहीं। कार्डियोलॉजिस्ट के रूप में वह केवल देश में ही नहीं, विदेशों में भी लोकप्रिय रहे। मां भी डॉक्टर थीं, लेकिन वह बच्चों की विशेषज्ञ थीं। पापा दिल के विशेषज्ञ थे। मैंने देखा कि इस क्षेत्र में कितना सम्मान और संतोष है। लोग आते, पापा का धन्यवाद करते। उनका धन्यवाद करने का तरीका भी इतना अनोखा होता कि देखकर हृदय द्रवित हो जाता। कभी कोई अपने खेतों की फसल ही ले आता तो एक बार एक व्यक्ति अपनी इकलौती मुर्गी दे गया। उसके पास संपत्ति के नाम पर केवल वही थी। वह गरीब लोगों का नि:शुल्क इलाज करते। लगता कि इससे अच्छा और नोबल प्रोफेशन और कोई नहीं हो सकता। हम दो बहनें ही थीं। मैंने पापा का क्षेत्र अपनाया तो बहन ने मां का। यह जरूर है कि वह इतना ज्यादा व्यस्त रहते थे कि हमारे लिए समय कम पड जाता। लेकिन जब उनका संतोष और प्रसन्नता देखती तो समझ में आता कि क्यों वह दिन-रात अपने काम में लगे रहते हैं। एम.बी.बी.एस. करने के बाद मैंने मेडिसन में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और अब एस्कॉर्टस से कार्डियोलॉजी में महारत हासिल कर रही हूं। अभी तक तो इस क्षेत्र में आने और आगे बढने को लेकर कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। मुझे लगता है कि लोग पहले की तुलना में कहीं अधिक परिपक्व होते जा रहे हैं। अब ये मुद्दे छोटे और बेमानी हैं। चूंकि अभी मेरी शादी नहीं हुई, इसलिए पारिवारिक जिम्मेदारियां भी मेरे ऊपर कुछ खास नहीं हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि आगे कोई परेशानी आएगी।
जहां तक सवाल बेटे या बेटी का है तो मुझे नहीं लगता कि आज इन बातों के कोई मायने रह गए हैं। यह ठीक है कि समान क्षेत्र में आना कोई कम चुनौतीपूर्ण नहीं होता। लेकिन चुनौतीयों कहां नहीं हैं। आज आप कोई सा भी क्षेत्र चुनें समय की बाध्यता कहीं नहीं रह गई है। अपने को साबित करना है तो मेहनत व ईमानदारी से अपना काम करना होगा। मेरे साथ-साथ मेरी बहन को भी नाज है अपने पेरेंट्स पर। उम्मीद है कि हम उनके जैसे बन पाएंगे।
पिता के बेहद करीब हूं
एकता कपूर, निर्माता-निर्देशक
डैड का फिल्मों में आना उनकी मजबूरी थी। उन्हें चित्रपति व्ही. शांताराम ने फिल्म में पहली बार मौका दिया फिल्म गीत गाया पत्थरों ने में। सामान्य मध्यम वर्गीय परिवार से आए मेरे डैड ने मुंबई की चाल में रहकर बडी मेहनत से बॉलीवुड में अपनी जगह बनाई और हमें पाल-पोसकर बडा किया। तुषार पढने-लिखने में मुझसे अच्छा था। उसकी स्कूल के बाद की पढाई तो विदेश में हुई। डैड ने कहा, तुम एम.बी.ए. कर लो, और कोई बिजनेस शुरू कर देना। जब मैं डैड के करीबी दोस्तों को अपने घर पर देखा करती थी, कहीं न कहीं मेरे दिलो-दिमाग पर भी ग्लैमर का प्रभाव पडने लगा। लगा मुझे अपने पिता की तरह एक्टर बनना चाहिए। कभी ममा [शोभा कपूर] की तरह मेरे दिमाग ने एबाउट टर्न लेते हुए हवाई सुंदरी के करियर पर गंभीरता से सोचना शुरू किया। स्कूली एजूकेशन बॉम्बे स्कॉटिश से हुआ था और फिर कॉलेज के लिए मैंने मीठीबाई कॉलेज में एडमिशन लिया। मेरे स्कूल और कॉलेज में काफी सेलेब्रिटीज के बच्चे पढा करते थे। हर कोई अपने भविष्य के बारे में बात किया करता।
पढाई के दौरान मुझे गॉसिप मैगजींस पढने का चस्का लगा। मैंने डैड से कहा कि मुझे पत्रकार बनना है। डैड ने हंसकर कहा, बेटा पहले किसी मैगजीन या न्यूज पेपर में काम करो। मैंने कुछ स्टार्स के इंटरव्यू लिए और उन्हें छपने के लिए भेजा भी। मेरे किए साक्षात्कार छपे भी। लेकिन आदतन मैं इस काम से भी जल्द ही ऊब गई। मुझे टीवी देखने का शौक लगा। मैं दिन-रात इडियट बॉक्स के सामने रहकर टीवी देखने लगी। यही टर्निग पॉइंट था मेरे जीवन का। उसके बाद फिर पीछे मुडकर नहीं देखा। लोगों ने मुझे क्वीन ऑफ स्मॉल स्क्रीन की उपाधि दी। फिर पिताजी के पदचिह्नों पर चलते कुछ फिल्में बनाई, कुछ चलीं.. कुछ नहीं। सच्चाई तो यही है कि डैड या मॉम ने कभी किसी भी बात के लिए दबाव नहीं डाला। उनका विश्वास और प्रेरणा हमेशा साथ है। मैं उनके बेहद करीब हूं। वह मेरी बैक बोन हैं।
दोस्त और सच्चे मार्गदर्शक थे पापा
कीर्ति जैन, रंगकर्मी
मैंने जिस परिवार में आंखें खोलीं तो वहां आसपास किताबें ही किताबें हीं थीं। लिखना-पढना हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा था। जब मैं पांच साल की थी तब इलाहाबाद में पापा ने एक दुकान शुरू की। नाम था आधुनिक पुस्तक भंडार। हंसी इस बात पर आती है कि यह दुकान आरंभ की गई व्यवसाय के लिए, लेकिन वह केवल लेखकों के जमावडे का केंद्र बन कर रह गई। पापा खुद पढने के बेहद शौकीन थे। हर रोज वहां पढने के शौकीनों का मेला लगा होता। वह स्वयं लोगों को किताबें मुफ्त दिया करते। इसके बाद हम दिल्ली आ गए। सच कहूं तो हमारा रिश्ता किताबों से कुछ ऐसा था जैसे सांस और शरीर का। घर में चारों तरफ किताबें ही किताबें थीं। हम तीन बहनें और एक भाई था। मां ने हम चारों की डयूटी लगाई हुई थी कि एक शेल्फ एक व्यक्ति रोज साफ करेगा। हम साफ करते-करते उन्हें देखते, पलटते और पढते जाते। लिखना-पढना हमारे आसपास था। पापा के संगीत नाटक अकादमी जॉइन करने के बाद दिल्ली के तमाम बडे लेखक और रंगकर्मी हमारे घर से जुडने लगे। हमने इन लोगों को केवल सुना नहीं देखा और महसूस किया।
अपने-अपने क्षेत्र चुनने की सभी को पूरी आजादी थी। एक बहन ने बिरजू महाराज से कत्थक सीखा, एक ने अमजद अली खां के पिता हाफिज अली से सितार। मेरे लिए समान क्षेत्र में आना कोई कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। यह डर तो मन में था ही कि कहीं उनके नाम को ठेस न लगे। उनसे हट कर अपनी पहचान बनाने का भी दबाव मन में बना हुआ था। लेखकों को उस समय आर्थिक संकट से गुजरना पडता था एक सच यह भी था। ऐसा नहीं कि हमने कठिन समय नहीं देखा, लेकिन मां-पापा ने कभी कोई कमी महसूस नहीं होने दी। बेहद संतोष था। पैसा कोई मुद्दा नहीं था जीवन में।
उनका व्यक्तित्व हमेशा मुझ पर हावी रहा। मैं बीच-बीच में कुछ अलग करने की भी कोशिश करती रही। यह अनजानी प्रतिस्पर्धा हर उस संतान को देखनी पडती है जो अपने माता-पिता के क्षेत्र में कदम रखता है। यही वजह है कि जब टी.वी. से जुडी तो बेहद संतोषप्रद अनुभव रहा। रचनात्मकता और अपनी पहचान बनाने का सुअवसर यहीं मिला।
पापा से मिली आलोचनात्मक दृष्टि। इससे आपका आत्मविश्वास मजबूत होता है। यही आपको ताकत देता है, विषम परिस्थितियों में खडे रहने की। ये सभी गुण हमें पापा से मिले और हर काम को परफेक्शन से करने का गुण हमने मां से सीखा।
चुनौती स्वीकारी मैंने
प्रियंका मलहोत्रा, प्रकाशक
मेरे दादाजी दीनानाथ जी ने हिंद पॉकेट बुक्स प्रकाशन को नए आयाम दिए। एक समय में वह हिंदुस्तान का जाना-माना पब्लिशिंग हाउस था। पापा भी उसी क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करते रहे। बचपन से ही मैंने किताबों की दुनिया देखी। जब हम छोटे थे तो छुट्टियों में पापा के ऑफिस जाते, जो दिलशाद गार्डन में हुआ करता था। पढने का शौक बहुत था, इसलिए वहां जाने पर लगता मन मांगी मुराद मिल गई। खूब किताबें पढते। मां भी क्योंकि प्रकाशन संबंधी कामों में रुचि रखती थीं, इसलिए वह हमें कुछ न कुछ काम दे दिया करतीं - जैसे इलस्ट्रेशन बनाना या किसी किताब का डिजाइन करना। मुझे बहुत बचपन में ही पता चल गया था कि मुझे इसी क्षेत्र में करियर बनाना है। हम दो बहनें ही थीं। पापा ने कहा कोई जरूरी नहीं कि तुम सिर्फ इसलिए इस क्षेत्र को चुनो क्योंकि कोई संभालने वाला नहीं। पर मेरा लक्ष्य साफ था। मेरा मन पढने में इतना रमता था कि मुझे लगता कि यही क्षेत्र मेरे लिए उपयुक्त है। मैंने ग्रेजुएशन लंदन से पब्लिशिंग में किया। इसके बाद लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स मास्टर इन साइंस ऑफ मीडिया का कोर्स भी किया। जिस भी क्षेत्र में जाएं उसका पूरा प्रोफेशनल ज्ञान आपको होना चाहिए। यह ठीक है कि इस क्षेत्र में आना कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। एक तो इस क्षेत्र में लडकियां कम हैं, दूसरे यहां आकर अपने को भीड से अलग पहचान देना आसान काम नहीं। यह भी था कि आपकी टीम के लोग यह न समझें कि मालिक ही बेटी होने के नाते आ गई, इसे कुछ आता-जाता नहीं। यह भ्रम भी सभी के मन से दूर करना था। वह बिना मेहनत के संभव नहीं था। मेहनत से मैं नहीं घबराती। मेरी बात को गंभीरता से लोग लें, उन्हें यह समझाना भी जरूरी था।
मेरे बाबा दीनानाथ जी ने पब्लिशिंग में जो मकाम हासिल किया और पापा जिस तरह से उसे आगे ले गए, उसे बरकरार ही नहीं रखना था और आगे ले जाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी। मैंने पूरी ईमानदारी और मेहनत से इसे निभाने की कोशिश की। बहुत से नए प्रयोग भी किए। यदि आपमें लगन हो और मेहनत करने से नहीं बचते तो आपको आगे जाने से कोई रोक नहीं सकता। यह तो था परंपरा निभाने का सवाल लेकिन समान क्षेत्र में आने के जो फायदे थे वह मुझे भी मिले। हर कदम पर बडों का सहयोग और सुझाव मिलता रहा। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा और सीख रही हूं। पापा का हर तरह से पूरा सहयोग मुझे मिला। वह चाहते थे कि मैं संगीत के क्षेत्र में जाऊं और पियानो सीखूं। लेकिन कभी भी किसी प्रकार की बंदिश उन्होंने नहीं लगाई। आजाद और खुला वातावरण उन्होने अपनी बेटियों को दिया। इसी आजादी के कारण आज मैं वह कर पाई जो करना चाहती थी। उम्मीद रखती हूं कि इस नाम को अपने प्रयासों से और आगे ले जाऊंगी।
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