26 Oct 2009, 1130 hrs IST,नवभारत टाइम्स संजय कुंदन
एक सच यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि लगातार संपन्न हो रहे हैं और दूसरा सच यह है कि संपन्न लोग
ही जनप्रतिनिधि बन रहे हैं। कुल जमा बात यह है कि भारतीय राजनीति धन के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटने लगी है। हाल में संपन्न तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों का भी यही संदेश है। असोसिएशन फॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और नैशनल इलेक्शन वॉच के एक अध्ययन के मुताबिक महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश की विधानसभाओं में इस बार चुनकर आए आधे विधायक करोड़पति हैं। पिछली असेंबली की तुलना में इन तीनों राज्यों में करोड़पतियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। महाराष्ट्र में पिछली विधानसभा में 108 करोड़पति थे जबकि इस बार 184 हैं। हरियाणा में ऐसे विधायकों की संख्या पिछली बार 47 थी तो इस बार 65 है। अरुणाचल प्रदेश में पिछली बार यह संख्या 17 थी जबकि इस बार 35 है। एक तबका कह रहा है कि असेंबली में करोड़पतियों की बढ़ती संख्या राज्यों की बढ़ती खुशहाली को दर्शा रही है। दरअसल, सामाजिक-आर्थिक विकास की तीव्र प्रक्रिया ने इन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में करोड़पति पैदा किए हैं। लेकिन यह आधा-अधूरा सच है। इन राज्यों में ऐसे भी उम्मीदवार चुनाव में खड़े थे जिनकी संपत्ति दस लाख से कम थी पर ऐसे कम लोग ही जीतकर आए। ज्यादातर जीते वही कैंडिडेट, जिनकी संपत्ति दस करोड़ या उससे ज्यादा थी। महाराष्ट्र में दस लाख रुपये से कम संपत्ति वाले केवल 0.98 प्रतिशत कैंडिडेट्स ही चुनाव जीत सके जबकि हरियाणा में ऐसे केवल 2.34 प्रतिशत उम्मीदवारों को ही यह सौभाग्य मिल सका। दूसरी तरफ दस करोड़ से ज्यादा संपत्ति वाले 48 फीसदी उम्मीदवार महाराष्ट्र में, 44 फीसदी हरियाणा में और 53 फीसदी अरुणाचल प्रदेश में सफल रहे। मतलब साफ है कि जिसके पास संपत्ति है उसके जीतने की गुंजाइश ज्यादा हो गई है और जो साधारण पृष्ठभूमि का है उसके सफल होने की संभावना घट गई है। यह बदली हुई भारतीय राजनीति है। सवाल है कि तरह-तरह की मुश्किलों के बीच जीवन गुजार रहे बहुसंख्य लोग समृद्ध तबके को ही चुनाव में क्यों जिता रहे हैं? इस सवाल का एक सीधा जवाब तो यह है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। कमोबेश सभी पार्टियां करोड़पति उम्मीदवारों को ही टिकट दे रही हैं। इन तीन राज्यों में अव्वल रहने वाली कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भले ही सादगी की बात कर रहा हो पर उसने यहां ज्यादातर थैलीशाहों को चुनाव मैदान में उतारा। आज कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भले ही गांव-गांव में गरीब दलितों के बीच घूम रहे हों और अपनी इस अदा से देश के भद्रलोक की शाबाशी बटोर रहे हों पर उनकी पार्टी ने गरीबों को राजनीति में भागीदारी देने के लिए हाल में कोई गंभीर कदम नहीं उठाया है। कांग्रेस गरीबों की बात जरूर करती है, उसके नेतृत्व वाली सरकार ने निर्धनों के कल्याण के लिए कुछ सार्थक कदम भी उठाएं हैं लेकिन वह पहले की तरह राजनीति का दरवाजा गरीबों के लिए नहीं खोलना चाहती। अब दूसरी पार्टियों का भी कमोबेश यही रवैया होता जा रहा है। जो दल दबे-कुचले वर्ग के नाम पर राजनीति करके सत्ता में आए, उनमें भी अब करोड़पतियों की ही पूछ होती है। शायद इसकी वजह यह है कि सियासत ही धन-केंदित हो गई है। सवाल केवल चुनाव में खर्च का ही नहीं है बल्कि हर पार्टी इस बात को लेकर सशंकित रहती है कि सरकार बनाने-बचाने के लिए उसे न जाने कितने सांसद-विधायकों को पटाना पड़ेगा। लेकिन यह भी तय है कि सियासत में गरीबी का मुद्दा कभी खत्म नहीं होने वाला है। वह तो बना रहेगा। यह मुद्दा उठाते रहेंगे करोड़पति विधायक-सांसद। इन करोड़पतियों के बीच इस बात की होड़ मचेगी कि कौन कितना गरीब समर्थक है। कुछ धनपति साबित करेंगे कि वे गरीबों के साथ रह सकते हैं, खा-पी सकते हैं। करोड़पति जनप्रतिनिधि साधनहीनों के लिए पहले की तरह योजनाएं बनाते रहेंगे। इसके साथ जनप्रतिनिधियों की संपन्नता भी बढ़ती रहेगी। एक गरीब यह सब चुपचाप देखेगा। अपने लिए खुद नीतियां तय करने का उसका सपना थोड़ा और दूर हो गया है।
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