Saturday, October 31
बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में इंदिरा गांधी ने हर मोर्चे पर जिस तरह से साथ दिया, उसे उस पार के लोग कभी भूल नहीं सकते। मुक्ति संग्राम में अमूल्य अवदानः इंदिरा गांधी का सबसे बड़ा योगदान बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में उनकी ऐतिहासिक भूमिका है। 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में इंदिरा गांधी ने हर मोर्चे पर जिस तरह से साथ दिया, उसे उस पार (बांग्लादेश) के लोग कभी भूल नहीं सकते। इंदिरा जी के उस अवदान का असर दोनों देशों के संबंधों पर भी पड़ा और यह सकारात्मक असर रहा। शेख मुजीबुर्रहमान से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना तक ने उस मैत्री संबंधों को निरंतर मजबूती दी है। बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में यथेष्ट सहयोग कर इंदिरा जी ने अपने अपार साहस का परिचय दिया था। इंदिरा जी भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं किंतु साहस में कोई भी प्रधानमंत्री उनकी बराबरी नहीं कर सका। इंदिरा जी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। उन्होंने 20 सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा भी की थी। इससे जाहिर है कि समाज के गरीब और दलित तबके के उत्थान के प्रति उनकी नीयत साफ थी और वे हाशिए पर पड़े समाज का वास्तविक विकास चाहती थीं।
पंजाब में ऑपरेशन ब्लू स्टार और इमरजेंसी के उनके फैसलों से हमारे जैसे अनेक लोगों को भारी निराशा हुई थी। लेकिन इन्हीं कमजोरियों के कारण इंदिराजी का दूसरे क्षेत्रों में अवदान कम नहीं हो जाता। वे उन प्रधानमंत्रियों में से थीं, जो साहित्य-कला-संस्कृति के प्रति अत्यंत आदर भाव रखते थे। शायद इसके पीछे शांतिनिकेतन और स्वयं उनके घर के परिवेश की महती भूमिका रही हो। इंदिरा जी शांतिनिकेतन की छात्रा थीं और इसीलिए वहां के अपने गुरुओं को आजीवन सम्मान दिया। शांतिनिकेतन में इंदिराजी को हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पढ़ाया था और इसीलिए द्विवेदी जी जब भी चाहते प्रधानमंत्री का कार्यालय या आवास उनके लिए सदैव खुला रहता। दूसरे बुद्धिजीवियों के प्रति भी इंदिराजी बहुत संवेदनशील रवैया रखती थीं। यह चीज उन्हें विरासत में मिली थी। पुत्री के नाम पिता के पत्र से साफ है कि जवाहरलाल नेहरू बेटी को किस तरह की शिक्षा देना चाहते थे। विरासत की शिक्षा इंदिराजी को इस रूप में मिली कि भारत के मूलभूत सवालों के प्रति एक नया परिप्रेक्ष्य उनके सामने खुलता जाता।
विरासत में मिली थी गुटनिरपेक्षता
इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ के साथ स्वाभाविक मित्रता को कायम रखते हुए अमेरिका के साथ एक निश्चित सामरिक दूरी बनाए रखी। इंदिरा गांधी ने भारत में अमेरिका का पांव जमने नहीं दिया। जब वह प्रधानमंत्री थीं तो अमेरिका ने बहुत कोशिश की कि वह अंडमान निकोबार के पोर्ट ब्लेयर द्वीप समूह में अपना सैन्य अड्डा स्थापित कर ले। किंतु इंदिराजी को पता था कि अमेरिका अपने सामरिक महत्व की जगह को किस तरह से तहस नहस कर देता है। आज हम देख रहे हैं कि कैसे अमेरिका ने भारत के सैनिकों के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास के जरिए अपना प्रभाव स्थापित करने की शुरुआत कर दी है। इंदिरा गांधी ने सही दोस्तों की पहचान की। सोवियत संघ के साथ स्वाभाविक मित्रता को कायम रखते हुए अमेरिका के साथ एक निश्चित सामरिक दूरी उन्होंने बनाए रखी। वे अमेरिका से भले ही हथियार खरीदती थीं, किंतु अमेरिका के पैर कभी भी भारत में जमने नहीं दिए। तब विश्व तीन ध्रुवों में बंटा था। एक तरफ सोवियत संघ था तो दूसरी तरफ अमेरिका और तीसरा गुट निरपेक्ष देशों का समूह। पंडित जी की गुटनिरपेक्ष नीति इंदिराजी को विरासत में मिली थी, जिसे उन्होंने क्षण भर के लिए छोड़ा नहीं। इंदिराजी ने अपने को गुटनिरपेक्ष देशों के समूह का सबसे ताकतवर नेता बनाया और बाकी दोनों ध्रुवों के साथ इस समूह को संतुलन की शक्ति के रूप में स्थापित किया। लेकिन उस दौरान भी उनका झुकाव स्वाभाविक मित्र सोवियत संघ के प्रति बरकरार रहा। सोवियत संघ ने भी मित्रता के निर्वाह में कोई कसर बाकी नहीं रखी। जबकि अमेरिका की यह नीति रही कि वह भारत को कोई तकनीक देता तो उस पर अपना नियंत्रण भी रखना चाहता था। सोवियत संघ ने कई बड़े कल कारखाने स्थापित करने में भारत की मदद की थी और उसे तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के पूरे अवसर उपलब्ध कराए। उसने तकनीकी रूप से दक्ष विशेषज्ञों को भेजकर भारत के लोगों को समुचित प्रशिक्षण दिया। इसी तरह इतिहासस्वीकृत तथ्य है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर इंदिराजी ने अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया था। इंदिराजी ने राष्ट्रीयकरण के अलावा प्रिवी पर्स आदि से जुड़े जो फैसले किए वे उन पर वाम प्रभाव की देन थे। इससे उनकी विश्वसनीयता और साख बहुत ज्यादा बढ़ गई थी।-(प्रो. नदीम हसनैन)
सुभाष काश्यप Saturday, October 31, 2009 02:32 [IST]
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विशेष. यूं तो इंदिराजी से जुड़े कई संस्मरण हैं, लेकिन आखिर से ही शुरू करूं। मैं उन दिनों लोकसभा में महासचिव था। 31 अक्टूबर, 1984 को कलकत्ता में पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन चल रहा था, मैं भी उसमें शामिल था। सुबह के सेशन में जलपान का अंतराल हुआ। तभी खबर आई कि दिल्ली में इंदिराजी के सुरक्षाकर्मियों ने उन पर गोली चलाई है और वो बुरी तरह घायल हो गई हैं। चिंता का ऐसा माहौल बना कि सम्मेलन को स्थगित कर दिया गया। हम कुछ लोग, लोकसभा के तत्कालीन उपाध्यक्ष बलराम जाखड़ जी के साथ तुरंत राजभवन पहुंचे। उमाशंकर दीक्षित जी राज्यपाल (पश्चिम बंगाल) थे। शीला दीक्षित भी वहीं थीं। उस समय राजीव गांधी पश्चिम बंगाल के किसी इंटीरियर क्षेत्र में थे। उन्हें तुरंत सूचना दी गई। इंडियन एयरलाइंस की एक रूटीन फ्लाइट को कैंसिल करके उनके लिए तैयार रखा गया कि जैसे ही राजीव जी कलकत्ता आएं, उनको तुरंत दिल्ली ले जाया जाए। ज्यों ही राजीव जी राजभवन पहुंचे, हम लोग नई दिल्ली के लिए रवाना हो गए। जब जहाज कलकत्ता और नई दिल्ली के बीच में था, तब राजीव गांधी कॉकपिट से बाहर आए। अगली सीट पर एक तरफ प्रणब मुखर्जी बैठे थे और दूसरी तरफ उमाशंकर दीक्षित। उन्होंने प्रणब मुखर्जी से कहा- ‘एवरीथिंग इज ओवर’। यानी उन्हें खबर मिल गई कि इंदिराजी का देहावसान हो गया। इसके बाद पूरे जहाज में दु:ख का वातावरण हो गया। ऐसे समाचार के लिए कोई तैयार नहीं था। नई दिल्ली एयरपोर्ट से हम लोग सीधे एम्स आए। प्राइवेट वार्ड की सातवीं मंजिल पर इंदिराजी का शव रखा था। वहां पर सारे कैबिनेट मंत्री मौजूद थे। सारा वातावरण (बाहर और अंदर भी) राष्ट्रीय आपदा-सा था। सातवीं मंजिल से दो-एक घंटे बाद जब हम नीचे आए तो वहां मैंने देखा कि कुछ लोग एक सिख नागरिक की पगड़ी जला रहे थे। आपे से बाहर हो गए थे वे लोग। वह बहुत दुखद दृश्य था। जहां तक इंदिराजी के साथ मेरे व्यक्तिगत संबंध का सवाल है तो मैंने पहली बार उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय कैंपस में देखा। यह बात 1946-47 की है। वे सिनेट हॉल और लाइब्रेरी बिल्डिंग के बीच में खड़ी थीं। मैं उन दिनों बीए फस्र्ट ईयर में था। छुट्टी का दिन था। मैं कैमरा लिए घूम रहा था। जब पता चला तो मैं दौड़कर इंदिराजी के पास गया और कहा- यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आपका फोटो खींच लूं। उन्होंने आज्ञा दी। मैंने फोटो खींचा। वो फोटो आज भी मेरे पास है। उन दिनों वो बहुत शर्मीली थीं और बहुत सुंदर युवती दिखती थीं।जब मैं 1953 में यूपीएससी से ऑफिसर के रूप में पार्लियामेंट में आया, तब पहली लोकसभा थी और पंडितजी प्रधानमंत्री थे। पंडितजी के निधन के बाद जब इंदिराजी लोकसभा में एक सदस्य के रूप में आईं तो कम बोलती थीं। लालबहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने, तब इंदिराजी को सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। तब भी वो बहुत कम बोलती थीं। वो शांत और सौम्य स्वभाव की थीं। बाद के दिनों में जो उनकी छवि बनी, बिल्कुल उसके विपरीत। मैं जेनेवा में युनाइटेड नेशंस इंटर पार्लियामेंट्री मीटिंग में था। यह 1982-83 की बात है। मुझे सूचना मिली कि लोकसभा में तुम्हारी जरूरत है वापस आ जाओ। यहां आने पर लोकसभा के स्पीकर बलराम जाखड़ ने बताया कि इंदिराजी चाहती हैं कि तुम लोकसभा के महासचिव का पद संभालो।
1 जनवरी,1984 को जब मैंने पद संभाला तो तीन-चार दिन बाद इंदिराजी से मिलने गया। उन्होंने कहा, ‘ये जो पद आपने लिया है, वो बहुत जिम्मेदारी भरा पद है। लोग तुम्हारे पास आएंगे और कहेंगे, ‘प्राइम मिनिस्टर वांट्स इट।’ तुम उनकी इन बातों पर विश्वास मत करना।’ उनको यह मालूम था कि लोग उनके नाम से काम कराते हैं, जो वह नहीं चाहती थीं।(लेखक लोकसभा के पूर्व महासचिव हैं .जब इंदिराजी लोकसभा में एक सदस्य के रूप में आईं तो कम बोलती थीं। लालबहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने, तब इंदिराजी को सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। तब भी वो बहुत कम बोलती थीं। वो शांत और सौम्य स्वभाव की थीं।
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