Nov 04, 11:51 pm
नक्सल समस्या एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले दिनों में सुरक्षा बलों और नक्सलियों की पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी में आमना-सामना होगा। जाहिर है कि इसमें बहुत लोग मारे जाएंगे। अफसोस इस बात का विशेष तौर से होगा कि मारे जाने वालों में अधिकांश गरीब तबके और जनजातीय लोग होंगे। सुरक्षा बलों को भी नुकसान अवश्य होगा। क्या इस दुखदायी स्थिति से बचा जा सकता था? दुखदायी इसलिए कि सुरक्षा बलों को अपने ही नागरिकों के एक वर्ग से संघर्ष करना पड़ेगा। सच तो यह है कि सरकार के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा था। प्रधानमंत्री ने हाल में ही पुलिस प्रमुखों को संबोधित करते हुए कहा कि नक्सल आंदोलन देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हो गया है। गृहमंत्री ने स्पष्ट किया कि नक्सल गुटों का प्रभाव बीस प्रदेशों के लगभग 223 जनपदों में कमोबेश फैल चुका है। उन्होंने यह भी बताया कि नक्सल हिंसा से 13 प्रदेशों के नब्बे जनपदों में चार सौ पुलिस स्टेशन क्षेत्र विशेष तौर से प्रभावित हैं। नक्सल हिंसा का तांडव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। विगत वर्ष 2008 में नक्सल हिंसा की कुल 1591 घटनाएं हुई थीं, जिनमें 721 व्यक्ति मारे गए थे। इस वर्ष अगस्त के अंत तक 1405 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 580 व्यक्ति मारे गए हैं। सुरक्षाकर्मी विशेष तौर से नक्सलियों के निशाने पर रहे। 2008 में 231 सुरक्षाकर्मी मारे गए, इस वर्ष यह संख्या 270 के ऊपर पहुंच चुकी है।
नक्सल आंदोलन के विस्तार के कारणों को भी समझना जरूरी है। हमारी योजनाएं कागज पर कितनी ही अच्छी बनी हों, इनके क्रियान्वयन में बहुत कमी रही है। योजना आयोग ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता के साठ वर्ष पश्चात भी हमारी एक चौथाई से ज्यादा आबादी आज भी गरीब है। विकास हुआ है, जीडीपी बढ़ी है, परंतु विकास का लाभ सभी वर्गो को उनकी आवश्यकतानुसार नहीं मिला है। जनजातियों के साथ विशेष तौर से सौतेला व्यवहार हुआ है। एक आकलन के अनुसार 1947 से 2004 के बीच में विभिन्न योजनाओं के कारण देश में कुल 6 करोड़ आदमी विस्थापित हुए। इसमें चालीस प्रतिशत जनजातियों के लोग थे। भूमि संबंधी सुधार जो देश में होने चाहिए थे वेआंशिक रूप से ही हुए और प्रदेश सरकारें इस दिशा में उदासीन हैं। भ्रष्टाचार इतना ज्यादा व्याप्त है कि विकास संबंधी योजनाएं कागज पर ही धरी रह जाती हैं। झारखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री और उनके कैबिनेट सहयोगियों के विरुद्घ आरोप है कि वे करीब 4000 करोड़ रुपये खा गए। इस रकम का थाइलैंड और लाइबेरिया जैसे देशों में निवेश किया गया। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने हाल में बयान दिया था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सरकार जो खर्च करती है उसमें एक रुपये का केवल 16 पैसा गरीब आदमी तक पहुंचता है। फलस्वरूप जो लाभ गरीब तबके के लोगों के पास पहुंचना चाहिए वह नहीं पहुंच पाता। देश में बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां प्रशासकीय व्यवस्था एकदम लचर है। छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जनपद में अबुजमांड चार हजार वर्ग किलोमीटर का एक ऐसा क्षेत्र है जहां सरकारी तंत्र आज भी नहीं पहुंच पाया है। उस क्षेत्र का प्रदेश सरकार के पास कोई आधिकारिक नक्शा तक नहीं है। इन हालात में नक्सलियों ने वहां अपना गढ़ बना लिया है। अन्य प्रदेशों में भी बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां मूलभूत सुविधाएं-शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, सड़क और स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। यह सब असंतोष का कारण बनता है। नक्सलवाद के पनपने और इसके देश के बड़े भौगोलिक क्षेत्र में विस्तार के लिए सरकार जिम्मेदार है, परंतु इन मुदं्दों के आधार पर कानून को हाथ में लेने का कोई औचित्य नहीं बनता। नक्सली भी दलितों और जनजातियों को केवल मोहरा बना रहे हैं। उनका मूल लक्ष्य राज्य सत्ता पर कब्जा करना है। उनकी सशस्त्र क्रांति की योजना में हिंसा है, सरकारी तंत्र पर हमला है, विध्वंस है, परंतु कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं है। माओवाद तो चीन में ही दफना दिया गया है। आज की तारीख में उसके आधार पर देश में कोई संरचना असंभव है। हमारे लोकतंत्र में खामियां हैं, विकास योजनाओं में प्राथमिकताएं सही नहीं हैं, परंतु फिर भी यह व्यवस्था जन समर्थन से बनी है और इसमें हर व्यक्ति को अपना दृष्टिकोण रखने का अधिकार है। रकार ने बार-बार यह कहा है कि नक्सली अगर हिंसा का रास्ता त्याग दें तो उनसे बातचीत हो सकती है, परंतु हम देख रहे हैं कि नक्सली हिंसाओं में वृद्घि हो रही है। अक्टूबर माह में ही झारखंड में पुलिस इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदुवार की गला काटकर हत्या की गई, गढ़चिरौली में 18 पुलिस कर्मियों को मार डाला गया। पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के सीमावर्ती जनपदों में दो दिन का बंद हुआ, जिसमें जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया गया। केंद्रीय औद्योगिक बल के चार जवान बारूदी सुरंग से उड़ा दिए गए। राजधानी एक्सप्रेस को पश्चिमी मिदनापुर में पांच घंटों तक रोका गया। इन घटनाओं से तो यह लगता है कि नक्सली वार्ता करने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं, बल्कि सरकार को बराबर चुनौती दे रहे हैं। माओवादी नेता जिस तरह के बयान देते हैं उनसे भी ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि नक्सली शांति वार्ता चाहते हैं। ऐसी परिस्थितियों में सरकार के पास सख्ती के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता। किसी भी सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह जनजीवन को सुरक्षा प्रदान करे और हिंसात्मक कार्रवाइयों पर नकेल लगाए। इसी नीति के अंतर्गत भारत सरकार ने नक्सल प्रभावित प्रदेशों में सशस्त्र कार्रवाई करने का निर्णय लिया है। एक राज्य के अंदर समानांतर हुकूमत नहीं चल सकती। एक राज्य के अंदर दो विरोधी सुरक्षा बल भी नहीं हो सकते। सरकार को नक्सलियों के राजनीतिक ढांचे को ध्वस्त करना होगा और उनकी गुरिल्ला फौज को छिन्न-भिन्न करना होगा। इस सारी कार्रवाई में यह विशेष ध्यान देना होगा कि नागरिकों को कम से कम नुकसान हो और बेकसूर आदमी न मारे जाएं। सशस्त्र कार्रवाई में कम से कम पांच-छह महीने का समय तो लग ही जाएगा। कालांतर में यह सुनिश्चित करना होगा कि जैसे-जैसे प्रभावित क्षेत्रों से नक्सली हटते जाते हैं वहां नागरिक प्रशासन स्थापित किया जाए और लोगों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। विकास का कार्य इमानदारी से सुनिश्चित कराना होगा। यह भी देखना होगा कि विकास मानवीय दृष्टिकोण से हो अर्थात वहां के निवासियों को न्यूनतम कष्ट हो और जो अनिवार्य रूप से विस्थापित होते हैं उनके पुनर्वास एवं रोजगार की व्यवस्था की जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया और सशस्त्र कार्रवाई के बाद सरकार अपने पुराने ढर्रे पर, जिसमें भ्रष्टाचार को अस्सी प्रतिशत बर्दाश्त किया जाता है, फिर से चलने लगती है तो यह मान लिया जाए कि नक्सलवाद पुन: उभर कर आएगा और उसका स्वरूप वर्तमान से भी ज्यादा भयंकर होगा।
[प्रकाश सिंह: लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं]
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