Saturday, November 21, 2009

नक्सलवाद का नासूर

Oct 31, 10:34 pm
जब से केंद्र सरकार ने नक्सलवाद को नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाने की पहल शुरू की है तब से नक्सली संगठनों का उत्पात और अधिक बढ़ता जा रहा है। वे एक के बाद एक दुस्साहसिक वारदातें कर केंद्र और राज्य सरकारों को चुनौती देने में लगे हुए हैं। इन चुनौतियों के बीच केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम लगातार इसके लिए प्रयास कर रहे हैं कि नक्सली संगठनों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई के लिए आम सहमति का माहौल कायम हो। वह नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों से बातचीत कर सुरक्षा-व्यवस्था दुरुस्त करने के प्रयास भी कर रहे हैं और केंद्रीय सुरक्षा बलों को भी सुसज्जित कर रहे हैं। वह नक्सलियों को हिंसा छोड़कर बातचीत के लिए आगे आने के लिए भी निमंत्रित कर रहे हैं। ऐसी ही बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह रहे हैं, लेकिन नक्सली इसके लिए तैयार नहीं दिख रहे। वे सुरक्षाबलों और आम लोगों को निशाना बनाने में लगे हैं। हाल में उन्होंने पश्चिम बंगाल में थाने पर हमला कर दो पुलिसकर्मियों को मार डाला और एक का अपहरण कर लिया। बाद में उन्होंने अपहृत पुलिसकर्मी को मीडिया की मौजूदगी में रिहा तो कर दिया, लेकिन शर्ते मनवाने के बाद। इसके बाद उन्होंने एक सार्वजनिक उपक्रम की सुरक्षा में तैनात चार सुरक्षा जवानों को मार डाला। सबसे सनसनीखेज घटना राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाने की रही। इसके पूर्व उन्होंने रांची में एक पुलिस इंस्पेक्टर का अपहरण कर उसकी बर्बरता पूर्वक हत्या कर दी थी।
नक्सलियों से निपटने की तैयारी के बीच यह साफ दिख रहा है कि कई राजनीतिक दल नक्सलवाद को लेकर संकीर्ण राजनीति कर रहे हैं। बंगाल सरकार ने अपहृत पुलिस कर्मी की रिहाई के एवज में नक्सलियों की शर्तो के समक्ष झुकने से पहले केंद्र से इस बारे में विचार-विमर्श करना जरूरी नहीं समझा। इसी तरह राजधानी एक्सप्रेस बंधक कांड में दर्ज एफआईआर में रेलवे पुलिस ने नक्सली समर्थक उस संगठन का उल्लेख तक नहीं किया गया जिसके नेता छत्रधर महतो को रिहा करने की मांग की गई थी। मजबूरी में सीआरपीएफ के जरिये केंद्र को दूसरी एफआईआर दर्ज करानी पड़ी। रेलवे पुलिस की कार्रवाई से इसकी पुष्टि हो गई कि पश्चिम बंगाल सरकार उनके प्रति नरम है जिनके परोक्ष-प्रत्यक्ष संबंध नक्सली संगठनों से हैं। समस्या यह है कि ऐसी ही नरमी ममता बनर्जी भी दिखा रही हैं। यही कारण है कि माकपा नेता यह आरोप लगा रहे हैं कि ममता बनर्जी नक्सलवाद को समर्थन दे रही हैं। यह बात और है कि वे यह नहीं बताना चाहते कि बंगाल सरकार नक्सलियों के खिलाफ सीधी कार्रवाई करने में क्यों हिचक रही है? दरअसल इस हिचक का कारण माकपा की माओवादियों से सहानुभूति है, जिसकी ओर चिदंबरम ने यह कहकर इशारा भी किया कि अभी हाल तक तो माकपा माओवादियों को हथियारबंद काडर मानती थी। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि बंगाल सरकार माओवादियों पर पाबंदी लगाने के लिए तब तक तैयार नहीं हुई जब तक केंद्र ने इसके लिए उस पर दबाव नहीं डाला। इसमें संदेह नहीं कि वाम दल माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते रहे हैं और अभी भी वे उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं। इसी तरह यह भी साफ है कि तृणमूल कांग्रेस की हमदर्दी उन तत्वों से हैं जो नक्सलियों से मिले हुए हैं। इसका प्रमाण यह है कि ममता बनर्जी लालगढ़ से केंद्रीय सुरक्षा बलों को हटाने की मांग कर रही हैं, जबकि यह इलाका अभी भी नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है। माकपा, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य दल नक्सलवाद से निपटने के मामले में ढुलमुल रवैया तब अपनाए हुए हैं जब केंद्रीय गृह सचिव इसके लिए आगाह कर रहे हैं कि ट्रेनों को बंधक बनाने सरीखी घटनाएं और हो सकती हैं। केंद्र के समक्ष समस्या केवल नक्सलवाद की आड़ में होने वाली राजनीति ही नहीं, बल्कि मानवाधिकारवादियों के एक वर्ग की ओर से की जा रही व्यर्थ की चीख-पुकार भी है। वे यह देखने से इनकार कर रहे हैं कि नक्सली किस तरह बर्बर हिंसा पर उतर आए हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि शोषित-वंचित तबकों ने अन्याय और उपेक्षा से त्रस्त होकर नक्सली विचारधारा की शरण ली और फिर शासन तंत्र के खिलाफ हथियार उठाए। पहले उन्होंने जंगलों और खनिज खदानों पर प्रभुत्व कायम किया, लेकिन अब वे समानांतर शासन कायम करते दिख रहे हैं। हाल की घटनाएं यह संकेत करती हैं कि उनकी तैयारी राज्य सत्ता के खिलाफ विद्रोह करने की है। अब ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि नक्सलियों के संबंध कुछ आतंकी संगठनों से तो हैं ही, उन्हें विदेशों से भी हथियार मिल रहे हैं। गृहमंत्रालय की मानें तो नक्सलियों ने लिंट्टे के सहयोग से खुद को इतना मजबूत बना लिया है कि सुरक्षा बलों के समक्ष मुश्किल आ सकती है। सच्चाई जो भी हो, यह तथ्य है कि नक्सली आंदोलन अपने प्रारंभिक दौर के मुकाबले अब बिलकुल अलग राह पर चल निकला है। नक्सली संगठन आतंकी संगठनों की तर्ज पर सक्रिय हैं। उनकी हरकतें बता रही हैं कि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं, लेकिन कई राजनीतिक दल ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे खतरे की कोई बात ही नहीं। यद्यपि नक्सली समय-समय पर राजनेताओं को भी निशाना बनाते रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके उन्हें अनेक राजनीतिज्ञों का समर्थन हासिल है। स्पष्ट है कि राजनेताओं का एक समूह यह समझने से इनकार कर रहा है कि नक्सली कितने खतरनाक हैं? पश्चिम बंगाल में माकपा-तृणमूल कांग्रेस जिस तरह आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं उससे केंद्र सरकार का काम और कठिन हो रहा है। चूंकि केंद्र को नक्सलवाद के प्रति ममता बनर्जी के ढुलमुल रवैये का न चाहते हुए बचाव करना पड़ रहा है इसलिए माकपा केंद्रीय सत्ता पर भी निशाना साधने में लगी हुई है। कुछ ऐसी ही कठिनाई कथित बुद्धिजीवी भी पेश कर रहे हैं। हाल में अरुंधती राय और कुछ समाजसेवी संगठन जिस तरह नक्सलियों के पक्ष में खुलकर खड़े हुए उससे तो यही लगा कि वे यह चाहते हैं कि नक्सलियों को हथियार उठाने का अधिकार मिलना चाहिए। यह सही है कि देश के एक हिस्से में विकास की रोशनी नहीं पहुंच सकी है और वहां की जनता उपेक्षा से त्रस्त है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि विकास से वंचित लोगों को हिंसा के रास्ते पर चलने की छूट दे दी जाए। एक ऐसे समय जब केंद्र सरकार के समक्ष नक्सलियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह गया है तब बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का उनके पक्ष में खड़े होना आश्चर्यजनक है। ये बुद्धिजीवी नक्सलियों के खिलाफ केंद्र सरकार की तैयारी का तो विरोध कर रहे हैं, लेकिन इसके लिए प्रयास नहीं कर रहे कि वे केंद्र से बातचीत करने के लिए आगे आएं, जबकि केंद्र सरकार सभी जंगल, जमीन, विकास योजनाओं समेत मुद्दों पर बातचीत करने की पेशकश करने के साथ यह भी कह रही है कि इस वार्ता में राज्यों को भी शामिल किया जाएगा। भले ही नक्सलवादी देश के पिछड़े क्षेत्रों में विकास कार्य न होने की बातें कर रहे हों, लेकिन सच यह है कि अब वे खुद विकास विरोधी बन गए हैं। इन स्थितियों में यह आवश्यक है कि केंद्र और राज्य वास्तव में मिलकर नक्सलियों से लड़ें। कोशिश यह होनी चाहिए कि यह लड़ाई लंबी न खिंचे और इसमें आम लोगों को कोई नुकसान न पहुंचे, अन्यथा इस लड़ाई को जीतना और कठिन हो जाएगा।

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