Friday, June 24, 2011
تاجکستان کی مسلم دشمن حکومت پر نزع طاری
تقریباً75برسوں تک اللہ ،قرآن،مدارس اور مساجد پر نام نہاد روسی جمہوریت نوازوں کے ذریعہ پابندی عائد کئے جانے کے طویل عرصہ بعد ایک بار پھر مسولینی اور ہٹلر کے فرما بردار واطاعت گذار تاجکستان کے موجودہ ایمو مالی رخمون کے چیلے چپاٹوں اور خود صدر کی اسلام دشمن ذہنیت نے اسلام مخالف سابقہ تواریخ کا اطباع کرتے ہوئے تاجکستان میں مساجد کے دروازے وہاں کے نوجوان اور نو عمر مسلمانوں کے لئے بند کردینے کا فیصلہ کیا ہے۔ اپنی اس غلیظ پالیسی کو جواز بخشنے کےلئے یہ بہانابنایاجارہاہے کہ عبادت گاہوں میں اپنے اپنے طور سے خالق و مسجود کو پکارنا اور یاد کرنا انسانوں کو مذہب کی بنیاد پر تقسیم کردیتے ہیں۔ رخمون کی انتظامیہ شاید یہ بھول گئی ہے کہ تاجکستان ان 15ممالک میں سے ایک ہے جسے ابھی چند برس قبل ہی روسی جبروت اور اشتراکیت سے پاک ہوکر ایک خدائے واحد کی آغوش رحمت آفریں میں زندگی اور نظام کو آگے بڑھانے کا موقع فراہم ہوا تھا۔ مسولینی کے بندوں کو شاید یہ بات یاد نہیںرہی کہ رو س سے آزاد ہونے کے بعد چیچنیا اور دیگر ممالک میں کس طرح مسلمانوں نے اسلام کو پھر اپنی زندگی کا راز اور کامیابی کا زینہ باور کرتے ہوئے کلیجے سے لگا لیا۔ایساتو قطعاً نہیں کہاجاسکتا کے روسی استبداد کے دور میں مسلمانوں نے اسلام کو خیر آباد کہہ دیا تھا بلکہ مسولینی فرعونیت اور حالات سے سمجھوتہ کرتے ہوئے انہوں نے مساجد کے تالوں پر تو صبر کرلیا مگر اسلام کےلئے اپنے دل کے دروازے کبھی بھی بند نہیں کئے ۔ معروف عالم دین و محقق مولانا علی میاں ندوی اپنی کتاب ماذا خسر العا لم بانحطاط المسلمین میں روس کا تذکرہ کرتے ہوئے تحریر فرماتے ہیں کہ وہاں کمیونسٹ حکومت کے قیام کے بعد جب مساجد پر بلڈوزر چلادئے گئے مدارس زمیں بوس کردئے گئے تو وہاں کی سرفروش مسلم ماﺅں نے اپنی جگر گوشوں اور معصوم بچوں کو گھروں میں ہی قرآن پڑھانے اور اسلامی تعلیمات سے جوڑنے کا چلن اپنا لیا ۔ چونکہ مذہب سے محبت عقیدت کی بنیاد پر ہوتی ہے اور عقیدت کا تعلق دل سے ہے۔ لہذا کمیونسٹ کی خوں آشام فوج نے مدارس کے نام ونشان توروسی قلمرومیںہمیشہ کےلئے مٹاڈالے،اسلام اورظاہری اسلامی تشخص کو مسلما نوں کی زندگی سے مٹادینے کی ایڑی چوٹی کازورلگادیااوروقتی طورپروہ اس میںکامیاب بھی رہے، مسجدیں اگرچہ ڈھا دیں مگر جس ایمان اور مذہب کا تعلق دل سے ہوتا ہے، اسے کھرچ کھرچ کر انسانی ذہن و قلوب سے صاف کرنے میں قطعی کامیابی حاصل نہیں کی۔ یہی وجہ رہی کہ تقریباً75برسوں کے بعد جب روس کا زوال شروع ہوا اور اس کے ظلم و جبر کے خاتمے کا قدرت نے فیصلہ کرلیا تو اسے ا ن تمام ممالک کو آزادی دینی پڑی جنہیں وہاں کی سرخ فوج نے بارود اور آگ کی طاقت کا استعمال کرکے سرنگو ںکرلیا تھا ۔دنیا جانتی ہے کہ جس بخاریٰ کو اپنی شیطانی طاقت کے ذریعہ روسی کمیونسٹوں نے اسلام سے نا آشنا کردینے کی ناپاک کوشش تھی کبھی وہ عظیم محدث محمدبن اسمعیل بخاری کا وطن ہوا کرتا تھا۔ معروف فقیہ اور اسلامک اسکالر ابواللیث سمر قندی،نیشا پور کے ابوالحسین امام مسلم ابن الحجاج،ترمذکے محدث کبیر امام ابوعیسی ابن محمد ابن سورہ ابن شدادترمذی کا تعلق بھی اسی دیار سے تھا ، مورخ اسلام علی میاں ندی لکھتے ہیں کہ سمر قند کی شایدکوئی گلی ایسی ہو جس میں کسی محدث یا عظیم المرتبت فقیہ نے جنم نہ لیا ہو ۔ فقہ حنفی کی معروف کتاب ہدایہ کے مصنف امام برہان الدین مرغینانی کا تعلق بھی اسی خطے سے رہا ہے۔ ہم کہنا یہ چاہ رہے ہیں کہ جہاں مذہب اسلام کی اتنی عظیم اور شہرت یافتہ ہستیاں جنم لیتی ہوں کیا ان علاقوں میں رہنے بسنے والے مسلمانوں کے سینوں سے مادی طاقتوں کے ذریعہ اسلام کو بے نام و نشان کردینے کا خواب کبھی شرمندہ تعبیر ہوسکتا ہے؟ وقت سب سے بڑا طمانچہ ہوتا ہے اگر تاجکستان کے صدر کو قدرت سے عقل کا تھوڑا بھی حصہ ملا ہوتا تو وہ غور کرسکتے تھے کہ جب روس کی ظالم و جابر سرخ فوج کی درندگی بھی اسلام کو مٹا نے میں کامیابی حاصل نہیں کرسکی تو رخمون کی مٹھی بھر طوطا دل فوج کیا خاک تاجکستان کے مسلمانوں کی زندگی سے اسلام کو فناءکرپائے گی؟ رخمون کو غور کرنا چاہئے کہ کس طرح اس نے کسی دیوانے کے خواب کے مترادف تاجکستان کی مساجدکے دروازے وہاں کے مسلم نوجوانوں اور بچوں کے لئے بند کردینے کا پلان بنالیا ہے۔ مذہب کا تعلق ظاہر سے نہیں بلکہ اندر سے ہوتا ہے۔ دنیا اسے ختم کردینے یا مٹادینے کے لاکھ جتن کرے مگر یہ کسی مادی طاقت کا اثر قبول نہیں کرتا۔بلکہ ا س کے برعکس اسے مٹا دینے کی جتنی کوشش کی جائے اسے اور بھی جلا ملتی ہے۔ حالانکہ رخمون انتظامیہ نے اپنے اس بد بختانہ فیصلے کو جواز بخشنے کےلئے یہ ضرور کہا ہے کہ ایسا صرف مسلمانوں کے خلاف کسی غصے کے اظہار کے لئے نہیں ہے بلکہ ہماری اس پالیسی کا مقصد عیسائی اور مسلم نوجوانوں میں پلنے والے بین مذہبی خلفشار و انتشار اور خانہ جنگی کے عذاب سے ملک کو نجات دلانے کے پاکیزہ مقصدسے کیاجارہاہے۔شاید 1992سے تاجکستان پر اپنی جابرانہ حکومت کے ذریعہ دست مشیت کو رخمون نے اتنا ناراض کردیا ہے کہ اب قدرت خدا وندی نے رخمون کے ہاتھ سے زمامِ حکومت چھین لینے کا فیصلہ کرلیا ہے اور یہ ساری واہیات رخمون کے ذریعہ اسی بد نصیب کی طرح انجام پارہی ہیں جسکی تباہی آتی ہے تو پہلے اس کی عقل سلب کرلی جاتی ہے۔ یا یوں کہہ لیجئے کہ گیدڑ کی جب موت آتی ہے تو وہ شہر کا رخ کرتا ہے لہذا ہم کہہ سکتے ہیں کہ رخمون کے ناپاک دماغ میں پیدا ہونے والی مذکورہ پالیسی ا س کی اسی کم نصیبی کے طفیل ہے جس کے بعد کسی بھی سربراہ کا شرمندگی کے ساتھ اقتدار سے بے دخل کردیا جانا یقینی بن جایاجاکرتا ہے۔ اسی کا نتیجہ ہے کہ آج مساجد اور عیسائی معابد پر نوجوانوں اور بچوں کے لئے تالے ڈالے جانے کی بھنک لگتے ہی رخمون حکومت کے خلاف وہاں کے عوام میں شدید اضطراب اور بے چینی پیدا ہوگئی ہے اور دنیا اس حقیقت سے واقف ہوگی کہ جب کسی فرما ںروایا سربراہ کے خلاف عوام کے غیظ و غضب کا لاوا پھوٹتا ہے تو پھر اس سربراہ یا فرما ں رواکی الٹی گنتی شروع ہوجاتی ہے جسے اقتدار چھوڑنے سے دنیا کی کوئی طاقت نہیں روک پاتی۔
कब तक देंगे गरीबी हटाओ का नारा
चुनावों में नारों की हमेशा भूिमका रही है। पर नारों में अगर कुछ नयापन न हो तो लोगों पर इसका असर कम होता है। देश के िहंदी हाटॆलैंड में तो नारों की भूिमका हमेशा रही है। कई बार तो नारों ने देश की राजनीित की तसवीर ही बदल दी। पर नारों में नयापन था इसिलए राजनीित की तसवीर बदली। मसलन एक नारा १९७७ में लगा---जब कट रहे थे कामदेव तुम कहां था रामदेव-----। उस दौरान ही कई नारे और आए। १९८० में एक नारा लगा--यह देखो जनता का खेल १४ रुपए कड़ुआ तेल---। इस नारे ने काफी हद िबहार और यूपी में गैर कांगरेसी सरकारों को उखाड़ फेंका। एक बार िफर कांगरेस सता में आ गई। जब १९८९ मंे एक बार िफर देश में गैर कांगरेसवाद की लहर आयी तो कई नए नारे आए। इन नारों के मुखय केंदर थे पूवॆ पीएम वीपी िसंह। पूरे देश में नारा लगा--- राजा नहीं फकीर है भारत की तकदीर है----। उस समय मैं इलाहाबाद िवशविवदालय में बीए का सटूडेंट था। वीपी िसंह की दौरे की शुरूआत इलाहाबाद से से हुई थी और मैं अनुगरह नारायण िसंह(िफलहाल इलाहाबाद उतरी से कांगरेसी िवधायक)और मोहन िसंह(िफलहाल देविरया से सपा के सांसद) के कािफले में नारे लगाते हुए रेलवे सटेशन तक गया था। छातरों का िवशाल हुजूम वीपी िसंह के सवागत में उमड़ा था। यहीं से िफर देश में गैर कांगरेसवाद का एक और युग शुरू हुआ जो आज तक खतम नहीं हुआ। पर इसमें भी नारों का भारी रोल था। कई नारे सामने आए और कांगरेस के पांव उखड़ते गए। जब देश में मंडलवाद का दौर आया तो लालू यादव ने नारा िदया--भूरा बाल साफ करो-----। इसके बाद उनहोंने इसमें आगे संशोधन करते हुए एक और नारा िदया-- भूिमहार को साफ करो,पंिडत को हाफ करो,लाला तो साला है,राजपूत को माफ करो-----। इस नारे ने भी िबहार में राजनीित की िदशा बदल दी। कांगरेस का जो बुरा हाल हुआ वो सारे देश ने देखा। इस दौरान बातों और नारों के सहारे राजनीित करने वाली पारटी भाजपा ने भी जम कर नारों का इसतेमाल िकया। इनके नारों ने भी लोगों को परभािवत िकया। नारे थे--ए पारटी िवद िडफरेंस---।---आप हमें वोट दीिजए,हम आपको देंगे राम,रोटी और इंसाफ। इसका मतलब भी समझाया गया। राम का मतलब भय से मुिकत। रोटी का मतलब आभावों से मुिकत। इंसाफ का मतलब भेदभाव से मुिकत। इन नारों ने भाजपा की तरफ जनता का झुकाव बढ़ाया।अगले दो महीनें में एक बार िफर कांगरेस गरीबी हटाओ के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में है। उनके सटार कैंपेनर होंगे राहुल गांधी। अपरैल-मई में होने वाले चुनावों में कांगरेस इस सटार कैंपेनर और गरीबी हटाओं के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरेगी। पर अहम सवाल यह है िक गरीबी हटाओ का नारा इस देश में कांगरेस िकतनी बार देगी? बीते साठ सालों में पचास साल सता तो कांगरेस के हाथ में ही रही। पचास साल में कांगरेस ने गरीबी नहीं हटाया तो अब कया हटाएगी? यह नारा थोथा है। इससे शायद ही जनता परभािवत हो। अब उदाहरण लीिजए। िजस लोकसभा हलके से राहुल गांधी जीत कर आते है वहां गरीबी हटाओ के नारे को िकतना अमल में लाया गया? उनकी माता सोिनया गांधी के लोकसभा हलके राय बरेली में िकतनी गरीबी हट गई? अमेठी राहुल गांधी से पहले इनके िपता राजीव गांधी का चुनावी हलका था। राजीव गांधी से पहले राहुल के चाचा संजय गांधी यहां से चुनाव लड़ते थे। जबिक राय बरेली से सोिनया गांधी से पहले इंिदरा गांधी चुनाव लड़ती थी। ये दोनो इलाके देश के िपछड़े इलाकों में से एक है। इन दोनों इलाके के लोग माइगरेंट मजदूर के तौर पर िदलली,चंडीगढ़,लुिधयाना,अहमदाबाद,कोलकाता,मुंबई जैसे शहरों में िमल जाएंगे। अब सीधा सवाल उठता है िक आिखर जब कांगरेस पारटी के मुिखया अपने चुनावी हलकों की गरीबी नहीं हटा सके तो पूरे देश की गरीबी कैसे हटाएंगे? हाल ही में अखबारों में एक िदलचसप फोटो छपा। इस फोटो में राहुल गांधी के साथ इंगलैंड के िवदेश सिचव भी थे। दोनों ने दिलत मिहला के घर रात गुजारी और उसकी दयनीय िसथित को देखा,समझा और महसूस िकया। इस तसवीर को छापी गई और अखबारों में कांगरेस के युवराज को जोरदार शाबाशी िमली। इस तसवीर का दूसरा पहलू भी है। राहुल गांधी ने इससे कई मैसेज देने की कोिशश की। एक मैसेज तो यह था िक उनहोंने पहली बार वो काम िकया है जो उनके िपता राजीव गांधी और दादी इंिदरा गांधी ने नहीं िकया। राजीव गांधी और इंिदरा गांधी ने कभी िकसी दिलत के घर रात नहीं गुजारी। उनके दरद को नहीं समझा। कम से कम इस मामले में वो अपने िपता और दादी से अलग है। पर इससे जनता के बीच एक मैसेज और गया जो शायद इस देश की मीिडया जनता को देना नहीं चाहती। कयोंिक इससे युवराज की गिरमा को चोट पहुंच सकती है। िजस गरीब-गुरबा के घर राहुल गांधी ने पूरी रात गुजारी उसकी इस गरीबी के िलए िजममेवार कौन है?इस देश में बीते पचास सालों में शासन िकसने िकया?अब पचास साल बाद इस गरीब दिलत मिहला की याद कांगरेस को कयों आयी? कया यह चुनावी सटंट नहीं है?िजस मुसिलम,दिलत और पंिडत समीकरण पर कांगरेस ने पचास सालों तक राज िकया उसमें से एक दिलत बेचारों का हाल अभी भी कयों बेहाल है?िफर िजस दिलत मिहला के घर राहुल गांधी गए,वो कोई आम दिलत मिहला नहीं थी। वो तो उस लोकसभा हलके से संबंध रखती थी िजसकी बागडोर कांगरेस के तीन युवराज,संजय गांधी,राजीव गांधी और राहुल गांधी ने संभाली। कहीं एेसा तो नहीं िक मायावती नामक दिलत मिहला के सता में आने के बाद अमेठी की इस दिलत मिहला की िकसमत खुल गई?कांगरेस के युवराज उसके घर पधारे।िजस दिलत मिहला िशवकुमारी कोरी के घर राहुल गांधी गए उसका घर अमेठी लोकसभा हलके के िसमरा गांव में है। कोरी के अनुसार तीस से चालीस रुपये िदहाड़ी वो कमाती है और इसी से अपना घर चलाती है। जब युवराज पहुंचे तो शायद उसके घर खाने के िलए कुछ भी नहीं था। उनके साथ इंगलैंड के िवदेश सिचव डेिवड िमिलबैंड ने भी इस दुिखयारी की दीनदशा देखी। पर सवाल उठता है िक इस गरीब दिलत मिहला की इस हालत के िजमेवार कौन है?कम से कम मायावती को तो इसके िलए िजममेवार नहीं ठहरा सकते? अनय दिलत मिहलाओं की गरीबी की िजममेवार मायावती नहीं हो सकती? शायद इस दिलत मिहला की खराब हालत के िलए डेिवड िमिलबैंड भी िजममेवार न हो िजनके पुरखों ने इस देश को दो सौ साल गुलाम रखा? यह सचचाई है िक सिदयों से ये शोषण के िशकार हुए और इसके िलए िजमेवार हम सब है। इनकी खराब हालत के िलए वे युवराज भी िजममेवार है िजनके पिरवार ने ही इस देश पर पचास सालों तक राज िकया। पचास साल तक उनका वोट तो लेते रहे पर उनकी दीन-हीन हालत को सुधारने के िलए कोई कदम नहीं उठाया।राहुल गांधी िनिशचत तौर पर आगामी लोकसभा चुनाव में सटार कैंपेनर होंगे। पर िपछले पांच साल भी तो वे सटार कैंपेनर रहे है। यूपी में िवधानसभा चुनावों से पहले उनहोंने जोरदार रोड शो िकया। पर पिरणाम वही आए। कांगरेस बुरी तरह से हारी। गुजरात िवधानसभा चुनावों से पहले वहां भी रोड शो िकया। वहां भी बुरी तरह से हारे। यािन की कांगरेस के युवराज अभी जनता की पसंद नहीं बने है। बेशक उनहोंने िवदरभ की कलावती का दरद समझा,बुंदेलखंड के िकसानों के साथ दुख-दरद बांटा,िशवकुमारी के घर रात िबताया। समय अब बात करने या नारा देना का नहीं,काम करने का है। िकतने साल तक आप देश की जनता को बेवकूफ बनाएंगे। खोखले नारे देने से कया होगा?लोगों को अब काम चािहए।कांगरेस के बलाक,िजला औऱ परदेश अधयछों के सममेलन में गरीबी हटाओं के नारे से तो देश में गरीबी नहीं हटेगी। नई िदलली में नारा देने से दूर-दराज के गांवों में तो लोगों का भला नहीं होगा। सोिनया गांधी कम से कम अपने परितिनिधयों से यह तो पूछ ही सकती थी िक देश के कई िहससों में नकसली आंदोलन के बढ़ते परभाव का कारण कया है? कम से कम िबहार,झारखंड और छतीसगढ़ के कांगरेस नेताओं को तो इसकी जानकारी है ही। अगर पचास सालों में गरीब हट गई होती तो नकसिलयों का परभाव इतना नहीं बढ़ता। आज १५० से जयादा िजले इनके परभाव में है। आज िसथित यह है िक सोिनया गांधी की ससुराल इलाहाबाद भी नकसली परभाव में आ चुका है। बात साफ है िक अगर गरीबी पहले हट गई होती तो यह िसथित ही नहीं आती। अब एक बार िफर गरीबी हटाओ के नारे के साथ देश को कयों बेवकूफ बना रहे है?
Saturday, June 4, 2011
तरकीब भरी रामदेव लीला
अन्ना के अनशन में जितनी नैतिक आभा दिखती थी, रामदेव के अनशन पर बैठने के पहले ही उतनी ही बेशर्म महत्त्वाकांक्षा दिखने लगी है. अन्ना की पूंजी उनका त्याग और सादी जीवन शैली थी, रामदेव की पूंजी सचमुच ग्यारह सौ करोड़ रुपए से ज्यादा की कूती जाती है. रामदेव ने जिस तरह अन्ना के समांतर और खिलाफ उभरने की तरकीब की है, उसके चलते उनकी तुलना अन्ना के साथ फिलहाल की जाती रहेगी. लोकपाल आंदोलन में एक नैतिक आह्वान था, मगर रामदेव के अनशन में शुरू से तरकीब दिख रही है.
अन्ना बैठे थे जंतर मंतर के लोकतांत्रिक खुलेपन में. रामदेव सुविधा और ऐश्वर्य के इंतजाम में बंद महामंडप में बैठ रहे हैं. इतना बड़ा, भव्य और सुंदर पंडाल शायद किसी आमरण अनशन में कभी नहीं देखा गया हो. पंखे, कूलर, एयरकंडीशन आराम कक्षों, क्लोज सर्किट कैमरे से लैस मंडप. निश्चित ही यह फाइव स्टार अनशन है. यह अनशन, योग शिविर, रामलीला, आज मेरे यार की शादी है, इत्यादि के बीच का कोई मुकाम है. यह धन, प्रबंधन और अनशन का दुर्लभ योग है. इसीलिए यह नैतिकता और आंदोलन का वियोग भी है. वैसे भी रामदेव की दास्तान तेजी से उभरे व्यक्ति की है, जिसके व्यवसाय ने कम समय में बड़ी मुनाफा दर हासिल की हो और जिसकी जबरदस्त राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा भी हो.
अन्ना ने जब अनशन शुरू किया तो उनके पास खुद की कोई संगठित भीड़ नहीं थी. साधारण उपस्थिति धीरे-धीरे स्वयंस्फूर्त लामबंदी में बदल गई. मगर रामदेव अपने अकूत पैसे और संगठन के बल का प्रदर्शन कर रहे हैं. लाई गई भीड़ कितनी भी ज्यादा हो, वह कभी भी थोड़ी सी आई गई भीड़ तक का मुकाबला नहीं कर सकती. रामदेव की संस्थाओं, उद्योगों के कर्मचारियों, भारत स्वाभिमान नाम के अर्ध-राजनीतिक दल, योग शिविरों में आने वाले लोगों की तादाद और भाजपा और आरएसएस की लामबंद की हुई जनता का कुल जमा योग इस अनशन में जुड़ सकता है. हालांकि यह भीड़ भी दिखाने के लिए काफी हो जाएगी. मगर इसके स्वयंस्फूर्त रूप से फैलने की ताकत कम हो गई है. रामदेव के शिविरों में पैसा चुकाकर शामिल होने वाले सभी इस आंदोलन में आ जाएंगे, ऐसा नहीं सोचा जा सकता. इसलिए सरकार के मंत्रियों के रामदेव के लिए पलक-पांवड़े बिछा देने के पीछे की घबराहट या दांव को बूझा जाना बाकी है.
लगता यही है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘जनतर-मनतर के जनतंतर’ से निकली प्रक्रिया को कमजोर करने की नीयत से शुरू हो रही है दिल्ली के मैदान में रामदेव लीला. लीला के मुख्य पात्र और निर्माता दोनों रामदेव हैं. मगर कहानी, पटकथा और निर्देशन है आरएसएस का. आरएसएस के नायक सदा देश की बृहत्तर पटकथा में खलनायक साबित हुए हैं.
रामदेव के कांग्रेस की झोली में गिरने का कयास लगाया जा रहा है. यह हुआ भी तो पर्दे के पीछे होगा और बाद में पता चलेगा. नाटक की पटकथा भले रामदेव ने आरएसएस को दे दी हो, मगर निर्माता के रूप में उनके आर्थिक हित भी होंगे ही. कोई संयोग नहीं कि रामदेव के अनशन के ऐलान के होते ही सरकार ने सबसे पहले अपने आला आयकर अफसरों को बातचीत के लिए भेजा. इसलिए अनशन शुरू तो होगा. आरएसएस के खुलेआम करीबी रामदेव कांग्रेस से अदावत और मोहब्बत की नफासत को अपनी सियासत से कहां तक जोड़ पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी. रामदेव ने यह कहकर कि देश के ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ नहीं बोलना चाहिए, कुछ देर के लिए कांग्रेस को तसल्ली दी ही. मगर निर्माता और निर्देशक के बीच मतभेद के ज्यादा देर तक चलने के आसार नहीं हैं. राज्यों में गले तक भ्रष्टाचार में डूबी भाजपा केंद्र में विपक्ष की राजनीति तक नहीं कर पा रही है. उसे रामदेव जैसा सहारा चाहिए, जिसके सहारे वह दिल्ली पर फिर दावा कर सके. रामदेव को ‘अपनी’ सरकार में योग और आध्यात्म के धंधे के और चमकने की आशा रहेगी ही. यह जरूर है कि कांग्रेस ने सौदेबाजी के लिए आतुर रामदेव के मन के लड्डूओं की झांकी सरेआम निकलवा दी.
कांग्रेस के आओ समिति-समिति खेलें के खेल से आहत अन्ना की हालत यह है कि वे रामदेव की चाल की आलोचना शब्दों के बीच की खाली जगह में ही कर पा रहे हैं. उनके एक तरफ कांग्रेस तो दूसरी तरफ रामदेव हैं. अन्ना के पहले रामदेव अगर अनशन पर बैठे होते तो उनके खुद के अनुयायियों और भाजपा की लामबंदी के बावजूद आंदोलन की स्वयंस्फूर्तता पैदा नहीं हो पाती. रामदेव एक और सियासी खेमे के बेहद दमदार भोंपू बनकर रह जाते. मगर डेढ़ माह पहले लोकपाल विधेयक के लिए हुए अनशन से तस्वीर बदल चुकी है.
अन्ना बैठे थे जंतर मंतर के लोकतांत्रिक खुलेपन में. रामदेव सुविधा और ऐश्वर्य के इंतजाम में बंद महामंडप में बैठ रहे हैं. इतना बड़ा, भव्य और सुंदर पंडाल शायद किसी आमरण अनशन में कभी नहीं देखा गया हो. पंखे, कूलर, एयरकंडीशन आराम कक्षों, क्लोज सर्किट कैमरे से लैस मंडप. निश्चित ही यह फाइव स्टार अनशन है. यह अनशन, योग शिविर, रामलीला, आज मेरे यार की शादी है, इत्यादि के बीच का कोई मुकाम है. यह धन, प्रबंधन और अनशन का दुर्लभ योग है. इसीलिए यह नैतिकता और आंदोलन का वियोग भी है. वैसे भी रामदेव की दास्तान तेजी से उभरे व्यक्ति की है, जिसके व्यवसाय ने कम समय में बड़ी मुनाफा दर हासिल की हो और जिसकी जबरदस्त राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा भी हो.
अन्ना ने जब अनशन शुरू किया तो उनके पास खुद की कोई संगठित भीड़ नहीं थी. साधारण उपस्थिति धीरे-धीरे स्वयंस्फूर्त लामबंदी में बदल गई. मगर रामदेव अपने अकूत पैसे और संगठन के बल का प्रदर्शन कर रहे हैं. लाई गई भीड़ कितनी भी ज्यादा हो, वह कभी भी थोड़ी सी आई गई भीड़ तक का मुकाबला नहीं कर सकती. रामदेव की संस्थाओं, उद्योगों के कर्मचारियों, भारत स्वाभिमान नाम के अर्ध-राजनीतिक दल, योग शिविरों में आने वाले लोगों की तादाद और भाजपा और आरएसएस की लामबंद की हुई जनता का कुल जमा योग इस अनशन में जुड़ सकता है. हालांकि यह भीड़ भी दिखाने के लिए काफी हो जाएगी. मगर इसके स्वयंस्फूर्त रूप से फैलने की ताकत कम हो गई है. रामदेव के शिविरों में पैसा चुकाकर शामिल होने वाले सभी इस आंदोलन में आ जाएंगे, ऐसा नहीं सोचा जा सकता. इसलिए सरकार के मंत्रियों के रामदेव के लिए पलक-पांवड़े बिछा देने के पीछे की घबराहट या दांव को बूझा जाना बाकी है.
लगता यही है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘जनतर-मनतर के जनतंतर’ से निकली प्रक्रिया को कमजोर करने की नीयत से शुरू हो रही है दिल्ली के मैदान में रामदेव लीला. लीला के मुख्य पात्र और निर्माता दोनों रामदेव हैं. मगर कहानी, पटकथा और निर्देशन है आरएसएस का. आरएसएस के नायक सदा देश की बृहत्तर पटकथा में खलनायक साबित हुए हैं.
रामदेव के कांग्रेस की झोली में गिरने का कयास लगाया जा रहा है. यह हुआ भी तो पर्दे के पीछे होगा और बाद में पता चलेगा. नाटक की पटकथा भले रामदेव ने आरएसएस को दे दी हो, मगर निर्माता के रूप में उनके आर्थिक हित भी होंगे ही. कोई संयोग नहीं कि रामदेव के अनशन के ऐलान के होते ही सरकार ने सबसे पहले अपने आला आयकर अफसरों को बातचीत के लिए भेजा. इसलिए अनशन शुरू तो होगा. आरएसएस के खुलेआम करीबी रामदेव कांग्रेस से अदावत और मोहब्बत की नफासत को अपनी सियासत से कहां तक जोड़ पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी. रामदेव ने यह कहकर कि देश के ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ नहीं बोलना चाहिए, कुछ देर के लिए कांग्रेस को तसल्ली दी ही. मगर निर्माता और निर्देशक के बीच मतभेद के ज्यादा देर तक चलने के आसार नहीं हैं. राज्यों में गले तक भ्रष्टाचार में डूबी भाजपा केंद्र में विपक्ष की राजनीति तक नहीं कर पा रही है. उसे रामदेव जैसा सहारा चाहिए, जिसके सहारे वह दिल्ली पर फिर दावा कर सके. रामदेव को ‘अपनी’ सरकार में योग और आध्यात्म के धंधे के और चमकने की आशा रहेगी ही. यह जरूर है कि कांग्रेस ने सौदेबाजी के लिए आतुर रामदेव के मन के लड्डूओं की झांकी सरेआम निकलवा दी.
कांग्रेस के आओ समिति-समिति खेलें के खेल से आहत अन्ना की हालत यह है कि वे रामदेव की चाल की आलोचना शब्दों के बीच की खाली जगह में ही कर पा रहे हैं. उनके एक तरफ कांग्रेस तो दूसरी तरफ रामदेव हैं. अन्ना के पहले रामदेव अगर अनशन पर बैठे होते तो उनके खुद के अनुयायियों और भाजपा की लामबंदी के बावजूद आंदोलन की स्वयंस्फूर्तता पैदा नहीं हो पाती. रामदेव एक और सियासी खेमे के बेहद दमदार भोंपू बनकर रह जाते. मगर डेढ़ माह पहले लोकपाल विधेयक के लिए हुए अनशन से तस्वीर बदल चुकी है.
तेवर खोती उर्दू मीडिया
mumbai से‘इंकलाब’, दिल्ली से ‘हिन्दुस्तान एक्सप्रैस ’ व ‘मिलाप’, कनाटर्क से ‘दावत’ और पटना से ‘कौमी तन्जीम’ सहित अन्य उर्दू पत्र इस कोशिश में लगे हैं कि उर्दू पत्रकारिता को एक मुकाम दिया जाए। लेकिन बाजार और अन्य समस्याओं के जकड़न से यह निकल नहीं पा रहा है। भारतीय मीडिया में हिन्दी व अंग्रेजी की तरह उर्दू समाचार पत्रों का हस्तक्षेप नहीं दिखता है। वह तेवर नहीं दिखता जो हिन्दी या अंगे्रजी के पत्रों में दिखता है। आधुनिक मीडिया से कंधा मिला कर चलने में अभी भी यह लड़खड़ा रहा है।
देखा जाये तो उर्दू पत्रकारों की स्थिति बद से बदतर है तो महिला पत्रकार नहीं के बराबर हैं। यह इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार से प्रकाशित एक दर्जन से ज्यादा उर्दू अखबरों में एक भी महिला श्रमजीवी पत्रकार नहीं है। पटना से प्रकाशित एक बड़ा उर्दू अखबार अपने पत्रकारों को पांच हजार से बीस हजार रूपये महीना तनख्वाह देता है जबकि मंझोल और छोट उर्दू अखबारों में शोषण जारी है। वहाँ पत्रकारों को तनख्वाह सरकारी दफ्तरों में कार्यरत आदेशपाल से भी कम मिलता है। वहीं अखबारों पर आरोप है कि वे विज्ञापनों के लिए निकल रही हैं। एक आध उर्दू पत्र दिख जाते हैं बाकि की फाइलें बनती है। एक ओर वर्षों से बिहार सहित देष भर में बडे/मंझोले/छोटे उर्दू अखबार उर्दू भाषी जनता के लिए अपनी परंपरागत तरीके से अखबार निकाल रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर उर्दू अखबरों के प्रकाशन क्षेत्र में कारपोरेट जगत घुसपैठ कर उनकी नींद उड़ा रही है। सहारा ग्रुप तो पहले ही आ चुका है अब इस क्षेत्र में हिन्दी के बड़े अखबार घराने कूदने की पूरी तैयारी की चुकें हैं। ऐसे में पांरम्परिक उर्दू अखबारों के समक्ष चुनौतियों का दौर शुरू होने जा रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। लेकिन, हकीकत यह है कि मीडिया के झंझावाद ने लोकतंत्र के चैथे खम्भे को मजबूत बनाने में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता के योगदान को आज दरकिनार कर दिया गया है। उर्दू पत्र व पत्रकार अपने बजूद के लिए आज हर मुकाम पर संघर्ष कर रहे हैं। इसके लिए किसी ने उर्दू पत्रकारिता की हालत बंदर के हाथ में नारियल जैसी बताया, तो किसी ने उर्दू पत्रकारिता को आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर चलते हुए। उर्दू पत्रकारिता की बदहाल दषा और दिशा पर कई पत्रकारों से बातचीत हुई। कई सवालों को खंगाला गया। उर्दू दैनिक ‘कौमी तन्जीम’ पटना के संपादक एस.एम. अजमल फरीद सच को स्वीरकते हुए कहते है, सच है कि वर्तमान समय में उर्दू अखबारात अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में उतनी गति हासिल नहीं कर पा रहे हैं जितना कि इसका स्वर्णिम इतिहास रहा है। चाहे वो आधुनिक तकनीक अपनाने, विषय वस्तु विषेशज्ञ पत्रकारों की टीम तैयार करने या आज खुद को बिल्कुल नये रूप में ढालने की बात हो। इनका दायरा थोड़ा सीमित है। उर्दू भाषा जिसकी महत्ता और उच्चारण की मधुरता को स्वीकार तो सब कोई करता है लेकिन इसके विकास के लिए सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं और इसको एक विषेश वर्ग से जोड़कर देखा जाने लगा है। श्री फरीद कहते हैं कि इन सब के बावजूद एक सीमित संसाधन में उर्दू अखबारात पाठक वर्ग तक बेहतर अखबार पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं और अच्छी संख्या में उर्दू अखबारात पाबंदी से प्रकाशित हो रहे हैं। उर्दू अखबारात की प्रसार संख्या और पाठकों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। उर्दू अखबारात का महत्व अंग्रेजी या हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में इस मायने में अब भी बरकरार है कि सकारात्मक पत्रकारिता उर्दू अखबारों का मूल उद्देश्य है जहां अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों में पश्चिमी संस्कृति पूरी तरह हावी नजर आती है। खबरों से लेकर तस्वीरों की प्रस्तुति में जिस तरह का खेल अंग्रेजी और हिन्दी अखबारों में खेला जा रहा है। इससे उर्दू अखबारात अब भी बहुत हद तक सुरक्षित हैं। समाचार या लेख की प्रस्तुति में भी इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि भारतीय परंपरा और गंगा-यमुनी संस्कृति का ही समावेश हो। पाठक वर्ग का ध्यान रखते हुए भले ही अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफी या जुल्म की खबरों को थोड़ी प्राथमिकता मिलती है लेकिन इसमें सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे यह अब भी उर्दू अखबारों का बड़ा लक्ष्य होता है।
श्री फरीद जोर देकर कहते है कि हाल के वर्षों में कारपोरेट घरानों का आकर्षण भी उर्दू अखबारों की ओर बढ़ा है और अब कारपोरेट घराने भी उर्दू अखबार निकाल रहे हैं, जिससे इस बात की आषंका बढ़ गई है कि भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को बरकरार रखते हुए अबतक उर्दू पत्रकारिता जो एक स्वस्थ समाज की कल्पना के साथ आगे बढ़ रही थी वो बाधित हो सकती है, क्योंकि कारपोरेट घरानों के उर्दू अखबार भी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित नजर आते हैं और अपने पाठकवर्ग के विचारों की अनदेखी करते हुए उनपर एक नयी संस्कृति थोपने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार ख़ुर्शीद हाशमी कहते है कि मुझे उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा दोनों गड़बड़ नजर आती है। मेरी नजर में उर्दू पत्रकारिता की हालत आज वैसी ही है जैसी बंदर के हाथ में नारियल की होती है। बंदर नारियल के साथ कब तक खेलेगा, कब उसे पानी में उछाल देगा या कब उसे किसी के सिर पर दे मारेगा, कहना मुश्किल है।
यह स्थिति इसलिए है कि उर्दू पत्रकारिता मुख्यतः आज भी निजी हाथों में हैं। उर्दू पत्रकारिता के भाग्य विधाता वह लोग बने बैठे हैं, जो न उर्दू जानते हैं और न पत्रकारिता का ज्ञान रखते हैं। यह लोग उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के मालिक होते हैं। मालिक होने के नाते नीति-निर्धारक से लेकर संपादक और व्यवस्थापक तक सब कुछ यही लोग होते हैं। वे जैसा चाहते हैं, करते हैं। उनकी नजर में पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं होती है। वह उन्हें क्लर्क या एजेन्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, इसलिए अधिक तेज या पढ़े-लिखे लोग उनको रास नहीं आते, वैसे भी अधिक पढ़े-लिखे लोग महंगे होंगे, और यह लोग चीफ एंड वेस्ट में विश्वास रखते हैं। ऐसी स्थिति में अगर कोई तेज पत्रकार आ भी जाता है तो वह उनकी उपेक्षा का शिकार हो जाता है। उसकी हर बात और हर राय की अनदेखी करके उसे उसकी औकात बता दी जाती है। वे कहते हैं कि हम बिजनेस करने के लिए आये हैं, और बिजनेस कैसे करना है, यह हम जानते हैं, लेकिन वास्तव में वह बिजनेस करना भी नहीं जानते, इसलिए वह उर्दू की सेवा या पत्रकारिता तो करते ही नहीं, ढंग से बिजनेस भी नहीं कर पाते हैं। श्री हाशमी कहते हैं, उर्दू पत्रकारिता में अब कारपोरेट सेक्टर ने भी पांव पसारना शुरू कर दिया है। वैसे तो वहां भी कुछ समझौते होते हैं और कई बार अयोग्य लोगों को कमान सौंप दी जाती है, जो अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए अपने से भी अधिक अयोग्य लोगों को लाकर पत्रकारिता की कबर खोदने का प्रयास करते हैं, फिर भी निजी हाथों की तुलना में कारपोरेट सेक्टर में स्थिति अच्छी है। मगर समस्या यह है कि कारपोरेट सेक्टर का नाम सुनते ही उर्दू के पाठक भड़क उठते हैं। उन्हें लगता है कि कारपोरेट जगत के अखबार उनकी आवाज मजबूती के साथ नहीं उठा सकते और उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं।
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार और पटना कामर्स कालेज के पत्रकारिता विभाग के काडिनेटर तारिक फातमी का मानना है कि उर्दू पत्रकारिता आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ी है जहाँ दूर-दूर तक बेहतर भविष्य के लिए रौशनी की कोई किरण दिखाई नहीं देती है। उर्दू प्रेस के मालिकान उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चाहे जितने भी आशांवित हों लेकिन दरअसल एक कडवी सच्चाई यह भी है की उर्दू पत्रकारों का भविष्य उस अँधेरे कुँए की तरह है जहाँ से न रौशनी की उम्मीद की जा सकती और न प्यास बुझाने के लिए पानी की, दूसरे शब्दों में कहें तो उर्दू पत्रकार आज अपने भविष्य को लेकर एक अनिश्चितता के स्थिति से गुजर रहा है और अपने भविष्य की इसी अनिश्चिता के कारण वह परेशान भी है। दुखी भी। जो लोग उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास की बातें करते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की जिन लोगों ने उर्दू पत्रकारिता की नीवं रखी थी उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि समाज और मानवता की सेवा करना था, लेकिन आज स्थिति उलट गई है। आज उर्दू प्रेस मालिकों का एक मात्र उद्देश्य सरकारी और निजी विज्ञापनों को प्रकाशित करके पैसा कमाना और उर्दू समाचार पत्रों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकारों से बेशर्मी के साथ उनका शोषण करना मात्र है। आप बिहार से प्रकाशित किसी भी उर्दू समाचार पत्रों के कार्यालयों में चाहे वो कौमी तंजीम, फारूकी तंजीम, पिनदार, संगम, प्यारी उर्दू हो या कार्पोरेट जगत द्वारा प्रकाशित रोजनामा उर्दू सहारा, का भ्रमण करे तो आपको वहां कार्यरत पत्रकारों दशा देख कर मेरे दावे की पुष्टि हो जाएगी कौमी तंजीम, के संपादक उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं, सच्चाई यह है की भविष्य उर्दू पत्रकारिता का नहीं उनका जरूर उज्जवल है क्योंकि उर्दू समाचार पत्र के मालिक हैं, वह स्वय पत्रकार नहीं, उन्हें संपादक का पद विरासत में मिला है, उन्होंने कभी चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती सर्दी या भरी बरसात में मीलों पैदल चल कर समाचारों का संकलन नहीं किया। इसलिए उन्हें उस दर्द का एहसास नहीं होगा, जो दो हजार से पांच हजार की पगार पर बारह-बारह घंटों तक दफ्तर में बेगारी करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों को होता है। यही हाल बिहार से प्रकाशित होने वाले सभी दैनिक समाचार पत्रों का है, पिन्दार, फारूकी तंजीम,संगम, इन सभों के वर्तमान मालिकों (तथाकथित संपादकों) का पत्रकारिता से कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। इन तथाकथित संपादकों में कोई किरानी की नौकरी करता था तो कोई चिकित्सक है, कोई ठेके पर समाचार पत्र निकाल रहा है, तो कोई कमीशन पर विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए समाचार पत्र का संपादक बना बैठा है। जाहिर है जब स्थिति इतनी भयावह हो तो उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। सचाई तो ये है की आज पूरे देश विशेष कर बिहार में उर्दू पत्रकारिता उसी तरह दिशाहीन है जिस तरह देश का अल्पसंख्यक नेतृत्व, जिस तरह अल्पसंख्यक समुदाय आज मुस्लिम नेताओं के हाथों छला जा रहा है उसी तरह तथाकथित संपादकों द्वारा उर्दू पाठक और उर्दू समाचर पत्रों में कार्य करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों का शोषण और दोहन जारी है। बिहार की उर्दू पत्रकारिता आज सत्ता के इर्द -गिर्द घूम रही है । हर समाचार पत्र सरकारी विज्ञापन पाने के लिए वर्तमान सरकार की हर सही-गलत नीतियों का समर्थन करना अपना धर्म और फर्ज समझता है ,पद और सम्मान पाने के लिए उर्दू समाचार पत्रों के कुछ पत्रकार सत्ता के गलियारों में नेताओं के आगे-पीछे दुम हिलाते और चापलूसी करते देखे जा सकते हैं। जाहिर है जब एक पत्रकार पद, पैसा और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए राजनीतिज्ञों के पास अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दे तो उस समाचार पत्र या पत्रकार से समाज कल्याण, मानव सेवा, भाषा, देश, राज्य और समाज के विकास में भागीदारी निभाने की आशा करना बेमानी है। देश और विशेष कर बिहार की उर्दू पत्रकारिता में आज जोश ,जज्बा और क्षमता नहीं है कि वह किसी बड़े आन्दोलन की अगवाई कर सके ?
दूसरी ओर ‘बिहार की खबरें’ के संपादक अंजुम आलम कहते हैं कि बिहार से सर्वप्रथम प्रकाषित होने वाला पत्र भी उर्दू था। इसके बावजूद इसकी वर्तमान दषा उत्साहवर्द्धक नहीं है। हालांकि अभी भी पटना सहित राज्य से दर्जनों उर्दू दैनिक एवं पचासों पत्रिकायें प्रकाशित हो रही हैं परंतु इनका स्तर उस बुलंदी पर नहीं है, जिसकी उम्मीद की जाती है। बिहार में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का भी दर्जा प्राप्त है। उर्दू समाचार पत्रों को राज्य सरकार से विज्ञापन भी मिलता है। सरकारी विज्ञापनों के कारण उर्दू समाचार पत्रों की आर्थिक स्थिति सम्पन्न नहीं तो संतोषजनक अवश्य है। इसके बावजूद उर्दू पत्रकारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। परिणाम स्वरूप युवा पीढ़ी उर्दू पत्रकारिता की ओर आकर्षित नहीं हो रही है। इस कारण आने वाले दिनों में उर्दू समाचार पत्रों को संकटमय स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। अखबार मालिकों को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। श्री अंजुम आलम कहते है कि स्वतंत्रता के बाद से गुलाम सरवर, शीन मुजफ्फरी, शाहिद राम नगरी इत्यादि उर्दू पत्रकारों, जो मील का पत्थर छोड़ा था वहां तक आज कोई नहीं पहुंच पाया है। मौजूदा उर्दू पत्रकारिता जगत में आज भी कई अच्छे पत्रकार सक्रिय हैं। परंतु, उनकी दशा से नई नस्ल प्रभावित नहीं हो पा रही है। आज का युवा वर्ग इसे करियर के रूप में अपनाने का इच्छुक नजर नहीं आ रहा है। उर्दू में अभी बिहार से कई रंगीन एवं आकर्षक उर्दू समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन सीमित समाचार नेटवर्क का अभाव पाठकों को खटकता है। उर्दू समाचार पत्र सामान्यतः आम लोगों द्वारा प्रकाशित होते थे। परंतु हाल के वर्षों में सहारा इंडिया ने इस क्षेत्र में भी कदम रखा है।
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार राशिद अहमद का मानना है कि भारत की राजनीति विशेष रूप से स्वतंत्रता संग्राम में अदम्य भूमिका निभाने वाली उर्दू पत्रकारिता आज हिन्दी और अंग्रेजी की तुलना में पिछड़ गई है। यह एक कटु सत्य है मगर यह भी सच है कि जहां एक ओर इसके पिछड़ेपन की बात में कहानी और कल्पना अधिक है वहीं इसके पिछड़ेपन के आयाम भी विचारनीय हैं। उर्दू पत्रकारिता का पिछड़ापन पत्रकारिता के मूल तत्व से जुड़ा हुआ नहीं है क्योंकि अगर मुद्दों और सामाजिक सरोकारों की बात करें, तो समय की मांग और समस्या के मूल्यांकन में यह पीछे नहीं रही, तुलनात्मक अध्ययन करते समय कुछ बातों की अनदेखी की जाती है, जिसके कारण नतीजा गलत निकलता है। समाचार पत्र के सरोकारों का सीधा नाता उसके पाठकवर्ग से होता है। समाज की विस्तृत तस्वीर पेश करने के साथ-साथ समाचार पत्र और उससे जुड़े पत्रकार उस पूरे फ्रेम में अपने पाठक के स्थान तलाश करते हैं और उचित स्थान न मिल पाने के कारण और उससे जुड़ी समस्याआंे का मूल्यांकन करते हैं। अंग्रेजी हिन्दी पत्रकारिता का विश्लेषण करते समय तो पाठक तत्व का विशेष ध्यान रखा जाता है मगर उर्दू पत्रकारिता के विश्लेषण के समय उसके पाठक तत्व को अनदेखा करके उसे उर्दू और हिन्दी के पाठक तत्व की कसौटी पर परखा जाता है। कहने का मतलब केवल इतना है कि उर्दू पत्रकारिता की बदहाली मुद्दों और सरोकारों से दूर रहने की नहीं है बल्कि आर्थिक पिछड़ेपन की कहानी है।
समाचार पत्र का अर्थ विज्ञापन से जुड़ा हुआ है। मगर उर्दू समाचार पत्रों को हमेशा विज्ञापन के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। संघर्षरत रहना पड़ता है। विज्ञापन सरकारी हो या गैर सरकारी। व्यापारी भी उर्दू पाठक को अपना उपभोक्ता तो जरूरत समझते हैं। उसके हाथ अपना सामान अधिक से अधिक बेचने का प्रयास तो जरूर करते हैं। मगर उन तक पहुंचने का रास्ता वह उर्दू समाचार पत्र के स्थान पर दूसरी भाषाओं के समाचार पत्रों में तलाश करते हैं। यह मानना होगा कि आर्थिक तंगी के कारण नई तकनीक अपनाने में उर्दू पत्रकारिता पिछड़ जाती है। वह नए प्रयास नहीं कर पाती, यह भी सही है कि आर्थिक तंगी के कारण उर्दू समाचार पत्र अपने पत्रकारों को उतनी और सुविधायें नहीं दे पाते जितना हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारों को मिलती है। इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
वरिष्ठ उर्दू पत्रकार इमरान सगीर कहते है शुरूआती दौर में उर्दू अखबारों को यह गौरव हासिल था कि उर्दू अखबार के संपादक या पाठक किसी विशेष वर्ग के नहीं हुआ करते थे, बल्कि यह पूरे तौर से सामान्य वर्ग के लिए था। लेकिन समय के साथ-साथ परिवर्तन यह हुआ कि उर्दू अखबार एक विशेष वर्ग तक सीमित होने लगा। ये उर्दू पत्रकारिता के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है। आज हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता में बड़ी क्रांति आयी है, लेकिन इसकी अपेक्षा उर्दू पत्रकारिता को उतनी गति नहीं मिल पा रही है। हिन्दी और अंग्रेजी समाचार-पत्रों की तुलना में आधुनिक तकनीक को अपनाने में अब भी उर्दू अखबरात संघर्षरत हैं, इसका कारण स्पष्ट है कि सरकारी स्तर पर इसे अपेक्षाकृत सहयोग नहीं मिल पाता वहीं निजी या व्यवसायिक विज्ञापनों से भी उर्दू समाचार-पत्रों को उतनी आमदनी नहीं हो पाती जिससे की आर्थिक रूप से संपन्न हो सकें। इन सबके बावजूद सीमित संसाधनों में उर्दू अखबरात सकारात्मक सोच के साथ उर्दू पत्रकारिता के सफर को आगे बढ़ा रहे हैं। उर्दू अखबरात की सबसे बड़ी खूबी ये है कि ये आम आदमी का अखबार होने का धर्म निभाते हैं। हिन्दी या अंग्रेजी समाचार-पत्रों तक आम लोगों की पहुंच आसान नहीं हो पाती, वहीं उर्दू अखबार तक समाज में हाशिये पर खड़ा व्यक्ति की भी आसानी से पहुंच सकता है। अर्थात् समाज का कोई व्यक्ति उर्दू अखबारों से बिल्कुल जुड़ा हुआ महसूस करता है। ये उर्दू अखबारों की लोकप्रियता का बड़ा कारण है। उर्दू अखबारों की विश्वसनीयता और महत्ता इसके पाठक वर्ग में इसे लेकर भी है, कि ये उनके साथ होने वाली किसी भी स्तर पर नाइंसाफी की आवाज प्रमुखता से उठाते हैं, ऐसी खबरों को प्रमुखता से सामने लाते हैं, जिन्हें भेदभाव के नतीजे में अंग्रेजी या हिन्दी समाचार-पत्रों में या तो जगह नहीं दी जाती या फिर उन्हें तोड़-मरोड़कर संक्षेप में किसी कोने में जगह दी जाती है। ऐसे में उर्दू समाचार पत्र ही उनकी उत्सुकता दूर कर पाते हैं। आज के आधुनिक युग में दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लोगों को उर्दू अखबार नहीं मिल पाता, वैसे गांव के लोग अब भी उर्दू अखबार के दफ्तर से डाक के माध्यम से अखबार मंगाते हैं, और दो-तीन दिन पुरानी ही सही लेकिन इसे पढ़ना जरूर पसंद करते हैं। डाक से अखबार मंगा का कर पढ़ने का शौक उर्दू अखबारों की अहमियत का एक बड़ा उदाहरण है। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल ही कहा जायेगा।
उर्दू पत्रकारिता में महिलाएं नहीं के बराबर है। बल्कि उर्दू पत्रकारिता से कोसो दूर है। स्वतंत्र उर्दू पत्रकार डा0 सुरैया जबीं कहती है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में नई क्रांति तो आयी अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तुलना में न सही लेकिन उर्दू पत्रकारिता में भी क्रांति आयी है। बड़ी संख्या में उर्दू समाचार-पत्र नये रंग-रूप में प्रकाशित किये जा रहे हैं। जहां आधुनिक तकनीक का प्रयोग भी हो रहा है। समाचारों की प्रस्तुति में सीमित दायरे से बाहर निकलकर अब उर्दू अखबारों में भी सामान्य खबरें पढ़ने को मिलती हैं। अलग-अलग विषयों पर साप्ताहिक विशेषांक भी प्रकाशित होते हैं, और अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तरह खुद को स्थापित कर रहे हैं। यह उर्दू पत्रकारिता के लिए एक शुभ संकेत हैं। पहले उर्दू अखबारों में खबरों का दायरा बिल्कुल सीमित था। वर्तमान में उर्दू पत्रकारिता के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण बात ये भी है कि बिहार की उर्दू प्रिंट मीडिया में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है, क्योंकि उर्दू अखबारों में महिला मीडियाकर्मियों को इन्ट्री नहीं मिल पाती, आज कालेजों में उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स भी चलाये जा रहे हैं। उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करने वालों में बड़ी संख्या छात्राओं की भी है, लेकिन इन्हें भी उर्दू अखबारों के दफ्तरों में इन्ट्री नहीं मिल पा रही है। उर्दू पत्रकारिता की सेवा से महिलाओं की दूरी अब भी कायम है, ये दुर्भाग्यपूर्ण है और ये दूरी मिटनी चाहिए।
बिहार हो या देश का कोई हिस्सा उर्दू पत्रकारिता की दशा-दिशा को प्रभावित करने वाले कारणों पर उर्दू पत्रकारों ने जो विचार दिये वह सवाल छोड़ जाते हैं। उर्दू पत्रकारिता की बदहाली के पीछे आर्थिक तंगी, भाषा, कारपोरेट घराना और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव जहां महत्वपूर्ण हैं वहीं पर राजनीतिक-सामाजिक कारण भी अहम है। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद शुरूआती दौर की तरह आज यह अपने शिखर पर नहीं है। इसके सिमट जाने से उर्दू एक वर्ग/समुदाय तक ही रह गयी है। शुरूआती दौर में यह किसी एक वर्ग/समुदाय तक ही समीति नहीं थी बल्कि गैरमुस्लिम विद्वान उर्दू समाचार पत्रों के संपादन किया करते थे। आज ढूंढ़ने पर भी गैरमुस्लिम विद्वान नहीं मिलेगें जो उर्दू के अखबारों का संपादन करते हो ? इसके पीछे वजह जो भी रही हो एक वजह साफ है कि उर्दू को मुसलमनों की भाषा से जोड़ कर देखा गया। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद भी उर्दू अखबार गैरमुस्लिम घरों में नहीं जाता है।
संजय कुमार ,ऑल इंडिया रेडियो , पटना में कार्यरत हैं .आपने एएमयू से पत्रकारिता की पढाई करने के बाद विभिन्न मीडिया हाउस में काम किया है . मीडिया की बारीकियों का सूक्ष्मता से अध्ययन करते हुए इन्होने मीडिया से जुड़े विभिन्न विषयों पर कई किताबें लिखी हैं जिनमें से छः अब तक प्रकाशित हो चुकी है . मीडिया विश्लेषक के तौर पर इनकी जान-पहचान पूरे देश भर में है
देखा जाये तो उर्दू पत्रकारों की स्थिति बद से बदतर है तो महिला पत्रकार नहीं के बराबर हैं। यह इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार से प्रकाशित एक दर्जन से ज्यादा उर्दू अखबरों में एक भी महिला श्रमजीवी पत्रकार नहीं है। पटना से प्रकाशित एक बड़ा उर्दू अखबार अपने पत्रकारों को पांच हजार से बीस हजार रूपये महीना तनख्वाह देता है जबकि मंझोल और छोट उर्दू अखबारों में शोषण जारी है। वहाँ पत्रकारों को तनख्वाह सरकारी दफ्तरों में कार्यरत आदेशपाल से भी कम मिलता है। वहीं अखबारों पर आरोप है कि वे विज्ञापनों के लिए निकल रही हैं। एक आध उर्दू पत्र दिख जाते हैं बाकि की फाइलें बनती है। एक ओर वर्षों से बिहार सहित देष भर में बडे/मंझोले/छोटे उर्दू अखबार उर्दू भाषी जनता के लिए अपनी परंपरागत तरीके से अखबार निकाल रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर उर्दू अखबरों के प्रकाशन क्षेत्र में कारपोरेट जगत घुसपैठ कर उनकी नींद उड़ा रही है। सहारा ग्रुप तो पहले ही आ चुका है अब इस क्षेत्र में हिन्दी के बड़े अखबार घराने कूदने की पूरी तैयारी की चुकें हैं। ऐसे में पांरम्परिक उर्दू अखबारों के समक्ष चुनौतियों का दौर शुरू होने जा रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। लेकिन, हकीकत यह है कि मीडिया के झंझावाद ने लोकतंत्र के चैथे खम्भे को मजबूत बनाने में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता के योगदान को आज दरकिनार कर दिया गया है। उर्दू पत्र व पत्रकार अपने बजूद के लिए आज हर मुकाम पर संघर्ष कर रहे हैं। इसके लिए किसी ने उर्दू पत्रकारिता की हालत बंदर के हाथ में नारियल जैसी बताया, तो किसी ने उर्दू पत्रकारिता को आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर चलते हुए। उर्दू पत्रकारिता की बदहाल दषा और दिशा पर कई पत्रकारों से बातचीत हुई। कई सवालों को खंगाला गया। उर्दू दैनिक ‘कौमी तन्जीम’ पटना के संपादक एस.एम. अजमल फरीद सच को स्वीरकते हुए कहते है, सच है कि वर्तमान समय में उर्दू अखबारात अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में उतनी गति हासिल नहीं कर पा रहे हैं जितना कि इसका स्वर्णिम इतिहास रहा है। चाहे वो आधुनिक तकनीक अपनाने, विषय वस्तु विषेशज्ञ पत्रकारों की टीम तैयार करने या आज खुद को बिल्कुल नये रूप में ढालने की बात हो। इनका दायरा थोड़ा सीमित है। उर्दू भाषा जिसकी महत्ता और उच्चारण की मधुरता को स्वीकार तो सब कोई करता है लेकिन इसके विकास के लिए सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं और इसको एक विषेश वर्ग से जोड़कर देखा जाने लगा है। श्री फरीद कहते हैं कि इन सब के बावजूद एक सीमित संसाधन में उर्दू अखबारात पाठक वर्ग तक बेहतर अखबार पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं और अच्छी संख्या में उर्दू अखबारात पाबंदी से प्रकाशित हो रहे हैं। उर्दू अखबारात की प्रसार संख्या और पाठकों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। उर्दू अखबारात का महत्व अंग्रेजी या हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में इस मायने में अब भी बरकरार है कि सकारात्मक पत्रकारिता उर्दू अखबारों का मूल उद्देश्य है जहां अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों में पश्चिमी संस्कृति पूरी तरह हावी नजर आती है। खबरों से लेकर तस्वीरों की प्रस्तुति में जिस तरह का खेल अंग्रेजी और हिन्दी अखबारों में खेला जा रहा है। इससे उर्दू अखबारात अब भी बहुत हद तक सुरक्षित हैं। समाचार या लेख की प्रस्तुति में भी इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि भारतीय परंपरा और गंगा-यमुनी संस्कृति का ही समावेश हो। पाठक वर्ग का ध्यान रखते हुए भले ही अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफी या जुल्म की खबरों को थोड़ी प्राथमिकता मिलती है लेकिन इसमें सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे यह अब भी उर्दू अखबारों का बड़ा लक्ष्य होता है।
श्री फरीद जोर देकर कहते है कि हाल के वर्षों में कारपोरेट घरानों का आकर्षण भी उर्दू अखबारों की ओर बढ़ा है और अब कारपोरेट घराने भी उर्दू अखबार निकाल रहे हैं, जिससे इस बात की आषंका बढ़ गई है कि भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को बरकरार रखते हुए अबतक उर्दू पत्रकारिता जो एक स्वस्थ समाज की कल्पना के साथ आगे बढ़ रही थी वो बाधित हो सकती है, क्योंकि कारपोरेट घरानों के उर्दू अखबार भी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित नजर आते हैं और अपने पाठकवर्ग के विचारों की अनदेखी करते हुए उनपर एक नयी संस्कृति थोपने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार ख़ुर्शीद हाशमी कहते है कि मुझे उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा दोनों गड़बड़ नजर आती है। मेरी नजर में उर्दू पत्रकारिता की हालत आज वैसी ही है जैसी बंदर के हाथ में नारियल की होती है। बंदर नारियल के साथ कब तक खेलेगा, कब उसे पानी में उछाल देगा या कब उसे किसी के सिर पर दे मारेगा, कहना मुश्किल है।
यह स्थिति इसलिए है कि उर्दू पत्रकारिता मुख्यतः आज भी निजी हाथों में हैं। उर्दू पत्रकारिता के भाग्य विधाता वह लोग बने बैठे हैं, जो न उर्दू जानते हैं और न पत्रकारिता का ज्ञान रखते हैं। यह लोग उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के मालिक होते हैं। मालिक होने के नाते नीति-निर्धारक से लेकर संपादक और व्यवस्थापक तक सब कुछ यही लोग होते हैं। वे जैसा चाहते हैं, करते हैं। उनकी नजर में पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं होती है। वह उन्हें क्लर्क या एजेन्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, इसलिए अधिक तेज या पढ़े-लिखे लोग उनको रास नहीं आते, वैसे भी अधिक पढ़े-लिखे लोग महंगे होंगे, और यह लोग चीफ एंड वेस्ट में विश्वास रखते हैं। ऐसी स्थिति में अगर कोई तेज पत्रकार आ भी जाता है तो वह उनकी उपेक्षा का शिकार हो जाता है। उसकी हर बात और हर राय की अनदेखी करके उसे उसकी औकात बता दी जाती है। वे कहते हैं कि हम बिजनेस करने के लिए आये हैं, और बिजनेस कैसे करना है, यह हम जानते हैं, लेकिन वास्तव में वह बिजनेस करना भी नहीं जानते, इसलिए वह उर्दू की सेवा या पत्रकारिता तो करते ही नहीं, ढंग से बिजनेस भी नहीं कर पाते हैं। श्री हाशमी कहते हैं, उर्दू पत्रकारिता में अब कारपोरेट सेक्टर ने भी पांव पसारना शुरू कर दिया है। वैसे तो वहां भी कुछ समझौते होते हैं और कई बार अयोग्य लोगों को कमान सौंप दी जाती है, जो अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए अपने से भी अधिक अयोग्य लोगों को लाकर पत्रकारिता की कबर खोदने का प्रयास करते हैं, फिर भी निजी हाथों की तुलना में कारपोरेट सेक्टर में स्थिति अच्छी है। मगर समस्या यह है कि कारपोरेट सेक्टर का नाम सुनते ही उर्दू के पाठक भड़क उठते हैं। उन्हें लगता है कि कारपोरेट जगत के अखबार उनकी आवाज मजबूती के साथ नहीं उठा सकते और उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं।
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार और पटना कामर्स कालेज के पत्रकारिता विभाग के काडिनेटर तारिक फातमी का मानना है कि उर्दू पत्रकारिता आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ी है जहाँ दूर-दूर तक बेहतर भविष्य के लिए रौशनी की कोई किरण दिखाई नहीं देती है। उर्दू प्रेस के मालिकान उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चाहे जितने भी आशांवित हों लेकिन दरअसल एक कडवी सच्चाई यह भी है की उर्दू पत्रकारों का भविष्य उस अँधेरे कुँए की तरह है जहाँ से न रौशनी की उम्मीद की जा सकती और न प्यास बुझाने के लिए पानी की, दूसरे शब्दों में कहें तो उर्दू पत्रकार आज अपने भविष्य को लेकर एक अनिश्चितता के स्थिति से गुजर रहा है और अपने भविष्य की इसी अनिश्चिता के कारण वह परेशान भी है। दुखी भी। जो लोग उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास की बातें करते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की जिन लोगों ने उर्दू पत्रकारिता की नीवं रखी थी उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि समाज और मानवता की सेवा करना था, लेकिन आज स्थिति उलट गई है। आज उर्दू प्रेस मालिकों का एक मात्र उद्देश्य सरकारी और निजी विज्ञापनों को प्रकाशित करके पैसा कमाना और उर्दू समाचार पत्रों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकारों से बेशर्मी के साथ उनका शोषण करना मात्र है। आप बिहार से प्रकाशित किसी भी उर्दू समाचार पत्रों के कार्यालयों में चाहे वो कौमी तंजीम, फारूकी तंजीम, पिनदार, संगम, प्यारी उर्दू हो या कार्पोरेट जगत द्वारा प्रकाशित रोजनामा उर्दू सहारा, का भ्रमण करे तो आपको वहां कार्यरत पत्रकारों दशा देख कर मेरे दावे की पुष्टि हो जाएगी कौमी तंजीम, के संपादक उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं, सच्चाई यह है की भविष्य उर्दू पत्रकारिता का नहीं उनका जरूर उज्जवल है क्योंकि उर्दू समाचार पत्र के मालिक हैं, वह स्वय पत्रकार नहीं, उन्हें संपादक का पद विरासत में मिला है, उन्होंने कभी चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती सर्दी या भरी बरसात में मीलों पैदल चल कर समाचारों का संकलन नहीं किया। इसलिए उन्हें उस दर्द का एहसास नहीं होगा, जो दो हजार से पांच हजार की पगार पर बारह-बारह घंटों तक दफ्तर में बेगारी करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों को होता है। यही हाल बिहार से प्रकाशित होने वाले सभी दैनिक समाचार पत्रों का है, पिन्दार, फारूकी तंजीम,संगम, इन सभों के वर्तमान मालिकों (तथाकथित संपादकों) का पत्रकारिता से कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। इन तथाकथित संपादकों में कोई किरानी की नौकरी करता था तो कोई चिकित्सक है, कोई ठेके पर समाचार पत्र निकाल रहा है, तो कोई कमीशन पर विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए समाचार पत्र का संपादक बना बैठा है। जाहिर है जब स्थिति इतनी भयावह हो तो उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। सचाई तो ये है की आज पूरे देश विशेष कर बिहार में उर्दू पत्रकारिता उसी तरह दिशाहीन है जिस तरह देश का अल्पसंख्यक नेतृत्व, जिस तरह अल्पसंख्यक समुदाय आज मुस्लिम नेताओं के हाथों छला जा रहा है उसी तरह तथाकथित संपादकों द्वारा उर्दू पाठक और उर्दू समाचर पत्रों में कार्य करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों का शोषण और दोहन जारी है। बिहार की उर्दू पत्रकारिता आज सत्ता के इर्द -गिर्द घूम रही है । हर समाचार पत्र सरकारी विज्ञापन पाने के लिए वर्तमान सरकार की हर सही-गलत नीतियों का समर्थन करना अपना धर्म और फर्ज समझता है ,पद और सम्मान पाने के लिए उर्दू समाचार पत्रों के कुछ पत्रकार सत्ता के गलियारों में नेताओं के आगे-पीछे दुम हिलाते और चापलूसी करते देखे जा सकते हैं। जाहिर है जब एक पत्रकार पद, पैसा और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए राजनीतिज्ञों के पास अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दे तो उस समाचार पत्र या पत्रकार से समाज कल्याण, मानव सेवा, भाषा, देश, राज्य और समाज के विकास में भागीदारी निभाने की आशा करना बेमानी है। देश और विशेष कर बिहार की उर्दू पत्रकारिता में आज जोश ,जज्बा और क्षमता नहीं है कि वह किसी बड़े आन्दोलन की अगवाई कर सके ?
दूसरी ओर ‘बिहार की खबरें’ के संपादक अंजुम आलम कहते हैं कि बिहार से सर्वप्रथम प्रकाषित होने वाला पत्र भी उर्दू था। इसके बावजूद इसकी वर्तमान दषा उत्साहवर्द्धक नहीं है। हालांकि अभी भी पटना सहित राज्य से दर्जनों उर्दू दैनिक एवं पचासों पत्रिकायें प्रकाशित हो रही हैं परंतु इनका स्तर उस बुलंदी पर नहीं है, जिसकी उम्मीद की जाती है। बिहार में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का भी दर्जा प्राप्त है। उर्दू समाचार पत्रों को राज्य सरकार से विज्ञापन भी मिलता है। सरकारी विज्ञापनों के कारण उर्दू समाचार पत्रों की आर्थिक स्थिति सम्पन्न नहीं तो संतोषजनक अवश्य है। इसके बावजूद उर्दू पत्रकारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। परिणाम स्वरूप युवा पीढ़ी उर्दू पत्रकारिता की ओर आकर्षित नहीं हो रही है। इस कारण आने वाले दिनों में उर्दू समाचार पत्रों को संकटमय स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। अखबार मालिकों को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। श्री अंजुम आलम कहते है कि स्वतंत्रता के बाद से गुलाम सरवर, शीन मुजफ्फरी, शाहिद राम नगरी इत्यादि उर्दू पत्रकारों, जो मील का पत्थर छोड़ा था वहां तक आज कोई नहीं पहुंच पाया है। मौजूदा उर्दू पत्रकारिता जगत में आज भी कई अच्छे पत्रकार सक्रिय हैं। परंतु, उनकी दशा से नई नस्ल प्रभावित नहीं हो पा रही है। आज का युवा वर्ग इसे करियर के रूप में अपनाने का इच्छुक नजर नहीं आ रहा है। उर्दू में अभी बिहार से कई रंगीन एवं आकर्षक उर्दू समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन सीमित समाचार नेटवर्क का अभाव पाठकों को खटकता है। उर्दू समाचार पत्र सामान्यतः आम लोगों द्वारा प्रकाशित होते थे। परंतु हाल के वर्षों में सहारा इंडिया ने इस क्षेत्र में भी कदम रखा है।
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार राशिद अहमद का मानना है कि भारत की राजनीति विशेष रूप से स्वतंत्रता संग्राम में अदम्य भूमिका निभाने वाली उर्दू पत्रकारिता आज हिन्दी और अंग्रेजी की तुलना में पिछड़ गई है। यह एक कटु सत्य है मगर यह भी सच है कि जहां एक ओर इसके पिछड़ेपन की बात में कहानी और कल्पना अधिक है वहीं इसके पिछड़ेपन के आयाम भी विचारनीय हैं। उर्दू पत्रकारिता का पिछड़ापन पत्रकारिता के मूल तत्व से जुड़ा हुआ नहीं है क्योंकि अगर मुद्दों और सामाजिक सरोकारों की बात करें, तो समय की मांग और समस्या के मूल्यांकन में यह पीछे नहीं रही, तुलनात्मक अध्ययन करते समय कुछ बातों की अनदेखी की जाती है, जिसके कारण नतीजा गलत निकलता है। समाचार पत्र के सरोकारों का सीधा नाता उसके पाठकवर्ग से होता है। समाज की विस्तृत तस्वीर पेश करने के साथ-साथ समाचार पत्र और उससे जुड़े पत्रकार उस पूरे फ्रेम में अपने पाठक के स्थान तलाश करते हैं और उचित स्थान न मिल पाने के कारण और उससे जुड़ी समस्याआंे का मूल्यांकन करते हैं। अंग्रेजी हिन्दी पत्रकारिता का विश्लेषण करते समय तो पाठक तत्व का विशेष ध्यान रखा जाता है मगर उर्दू पत्रकारिता के विश्लेषण के समय उसके पाठक तत्व को अनदेखा करके उसे उर्दू और हिन्दी के पाठक तत्व की कसौटी पर परखा जाता है। कहने का मतलब केवल इतना है कि उर्दू पत्रकारिता की बदहाली मुद्दों और सरोकारों से दूर रहने की नहीं है बल्कि आर्थिक पिछड़ेपन की कहानी है।
समाचार पत्र का अर्थ विज्ञापन से जुड़ा हुआ है। मगर उर्दू समाचार पत्रों को हमेशा विज्ञापन के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। संघर्षरत रहना पड़ता है। विज्ञापन सरकारी हो या गैर सरकारी। व्यापारी भी उर्दू पाठक को अपना उपभोक्ता तो जरूरत समझते हैं। उसके हाथ अपना सामान अधिक से अधिक बेचने का प्रयास तो जरूर करते हैं। मगर उन तक पहुंचने का रास्ता वह उर्दू समाचार पत्र के स्थान पर दूसरी भाषाओं के समाचार पत्रों में तलाश करते हैं। यह मानना होगा कि आर्थिक तंगी के कारण नई तकनीक अपनाने में उर्दू पत्रकारिता पिछड़ जाती है। वह नए प्रयास नहीं कर पाती, यह भी सही है कि आर्थिक तंगी के कारण उर्दू समाचार पत्र अपने पत्रकारों को उतनी और सुविधायें नहीं दे पाते जितना हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारों को मिलती है। इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
वरिष्ठ उर्दू पत्रकार इमरान सगीर कहते है शुरूआती दौर में उर्दू अखबारों को यह गौरव हासिल था कि उर्दू अखबार के संपादक या पाठक किसी विशेष वर्ग के नहीं हुआ करते थे, बल्कि यह पूरे तौर से सामान्य वर्ग के लिए था। लेकिन समय के साथ-साथ परिवर्तन यह हुआ कि उर्दू अखबार एक विशेष वर्ग तक सीमित होने लगा। ये उर्दू पत्रकारिता के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है। आज हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता में बड़ी क्रांति आयी है, लेकिन इसकी अपेक्षा उर्दू पत्रकारिता को उतनी गति नहीं मिल पा रही है। हिन्दी और अंग्रेजी समाचार-पत्रों की तुलना में आधुनिक तकनीक को अपनाने में अब भी उर्दू अखबरात संघर्षरत हैं, इसका कारण स्पष्ट है कि सरकारी स्तर पर इसे अपेक्षाकृत सहयोग नहीं मिल पाता वहीं निजी या व्यवसायिक विज्ञापनों से भी उर्दू समाचार-पत्रों को उतनी आमदनी नहीं हो पाती जिससे की आर्थिक रूप से संपन्न हो सकें। इन सबके बावजूद सीमित संसाधनों में उर्दू अखबरात सकारात्मक सोच के साथ उर्दू पत्रकारिता के सफर को आगे बढ़ा रहे हैं। उर्दू अखबरात की सबसे बड़ी खूबी ये है कि ये आम आदमी का अखबार होने का धर्म निभाते हैं। हिन्दी या अंग्रेजी समाचार-पत्रों तक आम लोगों की पहुंच आसान नहीं हो पाती, वहीं उर्दू अखबार तक समाज में हाशिये पर खड़ा व्यक्ति की भी आसानी से पहुंच सकता है। अर्थात् समाज का कोई व्यक्ति उर्दू अखबारों से बिल्कुल जुड़ा हुआ महसूस करता है। ये उर्दू अखबारों की लोकप्रियता का बड़ा कारण है। उर्दू अखबारों की विश्वसनीयता और महत्ता इसके पाठक वर्ग में इसे लेकर भी है, कि ये उनके साथ होने वाली किसी भी स्तर पर नाइंसाफी की आवाज प्रमुखता से उठाते हैं, ऐसी खबरों को प्रमुखता से सामने लाते हैं, जिन्हें भेदभाव के नतीजे में अंग्रेजी या हिन्दी समाचार-पत्रों में या तो जगह नहीं दी जाती या फिर उन्हें तोड़-मरोड़कर संक्षेप में किसी कोने में जगह दी जाती है। ऐसे में उर्दू समाचार पत्र ही उनकी उत्सुकता दूर कर पाते हैं। आज के आधुनिक युग में दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लोगों को उर्दू अखबार नहीं मिल पाता, वैसे गांव के लोग अब भी उर्दू अखबार के दफ्तर से डाक के माध्यम से अखबार मंगाते हैं, और दो-तीन दिन पुरानी ही सही लेकिन इसे पढ़ना जरूर पसंद करते हैं। डाक से अखबार मंगा का कर पढ़ने का शौक उर्दू अखबारों की अहमियत का एक बड़ा उदाहरण है। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल ही कहा जायेगा।
उर्दू पत्रकारिता में महिलाएं नहीं के बराबर है। बल्कि उर्दू पत्रकारिता से कोसो दूर है। स्वतंत्र उर्दू पत्रकार डा0 सुरैया जबीं कहती है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में नई क्रांति तो आयी अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तुलना में न सही लेकिन उर्दू पत्रकारिता में भी क्रांति आयी है। बड़ी संख्या में उर्दू समाचार-पत्र नये रंग-रूप में प्रकाशित किये जा रहे हैं। जहां आधुनिक तकनीक का प्रयोग भी हो रहा है। समाचारों की प्रस्तुति में सीमित दायरे से बाहर निकलकर अब उर्दू अखबारों में भी सामान्य खबरें पढ़ने को मिलती हैं। अलग-अलग विषयों पर साप्ताहिक विशेषांक भी प्रकाशित होते हैं, और अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तरह खुद को स्थापित कर रहे हैं। यह उर्दू पत्रकारिता के लिए एक शुभ संकेत हैं। पहले उर्दू अखबारों में खबरों का दायरा बिल्कुल सीमित था। वर्तमान में उर्दू पत्रकारिता के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण बात ये भी है कि बिहार की उर्दू प्रिंट मीडिया में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है, क्योंकि उर्दू अखबारों में महिला मीडियाकर्मियों को इन्ट्री नहीं मिल पाती, आज कालेजों में उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स भी चलाये जा रहे हैं। उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करने वालों में बड़ी संख्या छात्राओं की भी है, लेकिन इन्हें भी उर्दू अखबारों के दफ्तरों में इन्ट्री नहीं मिल पा रही है। उर्दू पत्रकारिता की सेवा से महिलाओं की दूरी अब भी कायम है, ये दुर्भाग्यपूर्ण है और ये दूरी मिटनी चाहिए।
बिहार हो या देश का कोई हिस्सा उर्दू पत्रकारिता की दशा-दिशा को प्रभावित करने वाले कारणों पर उर्दू पत्रकारों ने जो विचार दिये वह सवाल छोड़ जाते हैं। उर्दू पत्रकारिता की बदहाली के पीछे आर्थिक तंगी, भाषा, कारपोरेट घराना और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव जहां महत्वपूर्ण हैं वहीं पर राजनीतिक-सामाजिक कारण भी अहम है। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद शुरूआती दौर की तरह आज यह अपने शिखर पर नहीं है। इसके सिमट जाने से उर्दू एक वर्ग/समुदाय तक ही रह गयी है। शुरूआती दौर में यह किसी एक वर्ग/समुदाय तक ही समीति नहीं थी बल्कि गैरमुस्लिम विद्वान उर्दू समाचार पत्रों के संपादन किया करते थे। आज ढूंढ़ने पर भी गैरमुस्लिम विद्वान नहीं मिलेगें जो उर्दू के अखबारों का संपादन करते हो ? इसके पीछे वजह जो भी रही हो एक वजह साफ है कि उर्दू को मुसलमनों की भाषा से जोड़ कर देखा गया। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद भी उर्दू अखबार गैरमुस्लिम घरों में नहीं जाता है।
संजय कुमार ,ऑल इंडिया रेडियो , पटना में कार्यरत हैं .आपने एएमयू से पत्रकारिता की पढाई करने के बाद विभिन्न मीडिया हाउस में काम किया है . मीडिया की बारीकियों का सूक्ष्मता से अध्ययन करते हुए इन्होने मीडिया से जुड़े विभिन्न विषयों पर कई किताबें लिखी हैं जिनमें से छः अब तक प्रकाशित हो चुकी है . मीडिया विश्लेषक के तौर पर इनकी जान-पहचान पूरे देश भर में है
Friday, June 3, 2011
अल्पसंख्यक नेतृत्व की तरह दिशाहीन होती उर्दू पत्रकारिता
संजय कुमार
भारतीय मीडिया में हिन्दी व अंग्रेजी की तरह उर्दू समाचार पत्रों का हस्तक्षेप नहीं दिखता है। वह तेवर नहीं दिखता जो हिन्दी या अंग्रेजी के पत्रों में दिखता है। आधुनिक मीडिया से कंधा मिला कर चलने में अभी भी यह लड़खड़ा रहा है।
यों तो देश के चर्चित उर्दू अखबरों में आठ राज्यों से छप रहा ‘रोजनामा’ हैदराबाद से ‘सियासत’ और ‘मुंसिफ’, मुंबई का ‘इंकलाब’, दिल्ली से ‘हिन्दुस्तान एक्सप्रैस’ व ‘मिलाप’, कनाटर्क से ‘दावत’ और पटना से ‘कौमी तन्जीम’ सहित अन्य उर्दू पत्र इस कोशिश में लगे हैं कि उर्दू पत्रकारिता को एक मुकाम दिया जाए। लेकिन बाजार और अन्य समस्याओं के जकड़न से यह निकल नहीं पा रहा है। देखा जाये तो उर्दू पत्रकारों की स्थिति बद से बदतर है तो महिला पत्रकार नहीं के बराबर हैं। यह इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार से प्रकाशित एक दर्जन से ज्यादा उर्दू अखबरों में एक भी महिला श्रमजीवी पत्रकार नहीं है। पटना से प्रकाशित एक बड़ा उर्दू अखबार अपने पत्रकारों को पांच हजार से बीस हजार रूपये महीना तनख्वाह देता है जबकि मंझोल और छोट उर्दू अखबारों में शोषण जारी है।
वहाँ पत्रकारों को तनख्वाह सरकारी दफ्तरों में कार्यरत आदेशपाल से भी कम मिलता है। वहीं अखबारों पर आरोप है कि वे विज्ञापनों के लिए निकल रही हैं। एक आध उर्दू पत्र दिख जाते हैं बाकि की फाइलें बनती है। एक ओर वर्षों से बिहार सहित देष भर में बडे/मंझोले/छोटे उर्दू अखबार उर्दू भाषी जनता के लिए अपनी परंपरागत तरीके से अखबार निकाल रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर उर्दू अखबरों के प्रकाशन क्षेत्र में कारपोरेट जगत घुसपैठ कर उनकी नींद उड़ा रही है। सहारा ग्रुप तो पहले ही आ चुका है अब इस क्षेत्र में हिन्दी के बड़े अखबार घराने कूदने की पूरी तैयारी की चुकें हैं। ऐसे में पांरम्परिक उर्दू अखबारों के समक्ष चुनौतियों का दौर शुरू होने जा रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। लेकिन, हकीकत यह है कि मीडिया के झंझावाद ने लोकतंत्र के चैथे खम्भे को मजबूत बनाने में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता के योगदान को आज दरकिनार कर दिया गया है। उर्दू पत्र व पत्रकार अपने बजूद के लिए आज हर मुकाम पर संघर्ष कर रहे हैं। इसके लिए किसी ने उर्दू पत्रकारिता की हालत बंदर के हाथ में नारियल जैसी बताया, तो किसी ने उर्दू पत्रकारिता को आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर चलते हुए। उर्दू पत्रकारिता की बदहाल दषा और दिशा पर कई पत्रकारों से बातचीत हुई। कई सवालों को खंगाला गया। उर्दू दैनिक ‘कौमी तन्जीम’ पटना के संपादक एस.एम. अजमल फरीद सच को स्वीरकते हुए कहते है, सच है कि वर्तमान समय में उर्दू अखबारात अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में उतनी गति हासिल नहीं कर पा रहे हैं जितना कि इसका स्वर्णिम इतिहास रहा है। चाहे वो आधुनिक तकनीक अपनाने, विषय वस्तु विषेशज्ञ पत्रकारों की टीम तैयार करने या आज खुद को बिल्कुल नये रूप में ढालने की बात हो। इनका दायरा थोड़ा सीमित है। उर्दू भाषा जिसकी महत्ता और उच्चारण की मधुरता को स्वीकार तो सब कोई करता है लेकिन इसके विकास के लिए सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं और इसको एक विषेश वर्ग से जोड़कर देखा जाने लगा है। श्री फरीद कहते हैं कि इन सब के बावजूद एक सीमित संसाधन में उर्दू अखबारात पाठक वर्ग तक बेहतर अखबार पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं और अच्छी संख्या में उर्दू अखबारात पाबंदी से प्रकाशित हो रहे हैं। उर्दू अखबारात की प्रसार संख्या और पाठकों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है।
उर्दू अखबारात का महत्व अंग्रेजी या हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में इस मायने में अब भी बरकरार है कि सकारात्मक पत्रकारिता उर्दू अखबारों का मूल उद्देश्य है जहां अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों में पश्चिमी संस्कृति पूरी तरह हावी नजर आती है। खबरों से लेकर तस्वीरों की प्रस्तुति में जिस तरह का खेल अंग्रेजी और हिन्दी अखबारों में खेला जा रहा है। इससे उर्दू अखबारात अब भी बहुत हद तक सुरक्षित हैं। समाचार या लेख की प्रस्तुति में भी इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि भारतीय परंपरा और गंगा-यमुनी संस्कृति का ही समावेश हो। पाठक वर्ग का ध्यान रखते हुए भले ही अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफी या जुल्म की खबरों को थोड़ी प्राथमिकता मिलती है लेकिन इसमें सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे यह अब भी उर्दू अखबारों का बड़ा लक्ष्य होता है।
श्री फरीद जोर देकर कहते है कि हाल के वर्षों में कारपोरेट घरानों का आकर्षण भी उर्दू अखबारों की ओर बढ़ा है और अब कारपोरेट घराने भी उर्दू अखबार निकाल रहे हैं, जिससे इस बात की आषंका बढ़ गई है कि भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को बरकरार रखते हुए अबतक उर्दू पत्रकारिता जो एक स्वस्थ समाज की कल्पना के साथ आगे बढ़ रही थी वो बाधित हो सकती है, क्योंकि कारपोरेट घरानों के उर्दू अखबार भी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित नजर आते हैं और अपने पाठकवर्ग के विचारों की अनदेखी करते हुए उनपर एक नयी संस्कृति थोपने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार ख़ुर्शीद हाशमी कहते है कि मुझे उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा दोनों गड़बड़ नजर आती है। मेरी नजर में उर्दू पत्रकारिता की हालत आज वैसी ही है जैसी बंदर के हाथ में नारियल की होती है। बंदर नारियल के साथ कब तक खेलेगा, कब उसे पानी में उछाल देगा या कब उसे किसी के सिर पर दे मारेगा, कहना मुश्किल है।
यह स्थिति इसलिए है कि उर्दू पत्रकारिता मुख्यतः आज भी निजी हाथों में हैं। उर्दू पत्रकारिता के भाग्य विधाता वह लोग बने बैठे हैं, जो न उर्दू जानते हैं और न पत्रकारिता का ज्ञान रखते हैं। यह लोग उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के मालिक होते हैं। मालिक होने के नाते नीति-निर्धारक से लेकर संपादक और व्यवस्थापक तक सब कुछ यही लोग होते हैं। वे जैसा चाहते हैं, करते हैं। उनकी नजर में पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं होती है। वह उन्हें क्लर्क या एजेन्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, इसलिए अधिक तेज या पढ़े-लिखे लोग उनको रास नहीं आते, वैसे भी अधिक पढ़े-लिखे लोग महंगे होंगे, और यह लोग चीफ एंड वेस्ट में विश्वास रखते हैं। ऐसी स्थिति में अगर कोई तेज पत्रकार आ भी जाता है तो वह उनकी उपेक्षा का शिकार हो जाता है। उसकी हर बात और हर राय की अनदेखी करके उसे उसकी औकात बता दी जाती है। वे कहते हैं कि हम बिजनेस करने के लिए आये हैं, और बिजनेस कैसे करना है, यह हम जानते हैं, लेकिन वास्तव में वह बिजनेस करना भी नहीं जानते, इसलिए वह उर्दू की सेवा या पत्रकारिता तो करते ही नहीं, ढंग से बिजनेस भी नहीं कर पाते हैं।
श्री हाशमी कहते हैं, उर्दू पत्रकारिता में अब कारपोरेट सेक्टर ने भी पांव पसारना शुरू कर दिया है। वैसे तो वहां भी कुछ समझौते होते हैं और कई बार अयोग्य लोगों को कमान सौंप दी जाती है, जो अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए अपने से भी अधिक अयोग्य लोगों को लाकर पत्रकारिता की कबर खोदने का प्रयास करते हैं, फिर भी निजी हाथों की तुलना में कारपोरेट सेक्टर में स्थिति अच्छी है। मगर समस्या यह है कि कारपोरेट सेक्टर का नाम सुनते ही उर्दू के पाठक भड़क उठते हैं। उन्हें लगता है कि कारपोरेट जगत के अखबार उनकी आवाज मजबूती के साथ नहीं उठा सकते और उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं।
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार और पटना कामर्स कालेज के पत्रकारिता विभाग के काडिनेटर तारिक फातमी का मानना है कि उर्दू पत्रकारिता आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ी है जहाँ दूर-दूर तक बेहतर भविष्य के लिए रौशनी की कोई किरण दिखाई नहीं देती है। उर्दू प्रेस के मालिकान उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चाहे जितने भी आशांवित हों लेकिन दरअसल एक कडवी सच्चाई यह भी है की उर्दू पत्रकारों का भविष्य उस अँधेरे कुँए की तरह है जहाँ से न रौशनी की उम्मीद की जा सकती और न प्यास बुझाने के लिए पानी की, दूसरे शब्दों में कहें तो उर्दू पत्रकार आज अपने भविष्य को लेकर एक अनिश्चितता के स्थिति से गुजर रहा है और अपने भविष्य की इसी अनिश्चिता के कारण वह परेशान भी है। दुखी भी। जो लोग उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास की बातें करते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की जिन लोगों ने उर्दू पत्रकारिता की नीवं रखी थी उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि समाज और मानवता की सेवा करना था, लेकिन आज स्थिति उलट गई है।
आज उर्दू प्रेस मालिकों का एक मात्र उद्देश्य सरकारी और निजी विज्ञापनों को प्रकाशित करके पैसा कमाना और उर्दू समाचार पत्रों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकारों से बेशर्मी के साथ उनका शोषण करना मात्र है। आप बिहार से प्रकाशित किसी भी उर्दू समाचार पत्रों के कार्यालयों में चाहे वो कौमी तंजीम, फारूकी तंजीम, पिनदार, संगम, प्यारी उर्दू हो या कार्पोरेट जगत द्वारा प्रकाशित रोजनामा उर्दू सहारा, का भ्रमण करे तो आपको वहां कार्यरत पत्रकारों दशा देख कर मेरे दावे की पुष्टि हो जाएगी कौमी तंजीम, के संपादक उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं, सच्चाई यह है की भविष्य उर्दू पत्रकारिता का नहीं उनका जरूर उज्जवल है क्योंकि उर्दू समाचार पत्र के मालिक हैं, वह स्वय पत्रकार नहीं, उन्हें संपादक का पद विरासत में मिला है, उन्होंने कभी चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती सर्दी या भरी बरसात में मीलों पैदल चल कर समाचारों का संकलन नहीं किया। इसलिए उन्हें उस दर्द का एहसास नहीं होगा, जो दो हजार से पांच हजार की पगार पर बारह-बारह घंटों तक दफ्तर में बेगारी करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों को होता है।
यही हाल बिहार से प्रकाशित होने वाले सभी दैनिक समाचार पत्रों का है, पिन्दार, फारूकी तंजीम,संगम, इन सभों के वर्तमान मालिकों (तथाकथित संपादकों) का पत्रकारिता से कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। इन तथाकथित संपादकों में कोई किरानी की नौकरी करता था तो कोई चिकित्सक है, कोई ठेके पर समाचार पत्र निकाल रहा है, तो कोई कमीशन पर विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए समाचार पत्र का संपादक बना बैठा है। जाहिर है जब स्थिति इतनी भयावह हो तो उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। सचाई तो ये है की आज पूरे देश विशेष कर बिहार में उर्दू पत्रकारिता उसी तरह दिशाहीन है जिस तरह देश का अल्पसंख्यक नेतृत्व, जिस तरह अल्पसंख्यक समुदाय आज मुस्लिम नेताओं के हाथों छला जा रहा है उसी तरह तथाकथित संपादकों द्वारा उर्दू पाठक और उर्दू समाचर पत्रों में कार्य करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों का शोषण और दोहन जारी है।
बिहार की उर्दू पत्रकारिता आज सत्ता के इर्द -गिर्द घूम रही है । हर समाचार पत्र सरकारी विज्ञापन पाने के लिए वर्तमान सरकार की हर सही-गलत नीतियों का समर्थन करना अपना धर्म और फर्ज समझता है ,पद और सम्मान पाने के लिए उर्दू समाचार पत्रों के कुछ पत्रकार सत्ता के गलियारों में नेताओं के आगे-पीछे दुम हिलाते और चापलूसी करते देखे जा सकते हैं। जाहिर है जब एक पत्रकार पद, पैसा और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए राजनीतिज्ञों के पास अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दे तो उस समाचार पत्र या पत्रकार से समाज कल्याण, मानव सेवा, भाषा, देश, राज्य और समाज के विकास में भागीदारी निभाने की आशा करना बेमानी है। देश और विशेष कर बिहार की उर्दू पत्रकारिता में आज जोश ,जज्बा और क्षमता नहीं है कि वह किसी बड़े आन्दोलन की अगवाई कर सके?
दूसरी ओर ‘बिहार की खबरें’ के संपादक अंजुम आलम कहते हैं कि बिहार से सर्वप्रथम प्रकाषित होने वाला पत्र भी उर्दू था। इसके बावजूद इसकी वर्तमान दषा उत्साहवर्द्धक नहीं है। हालांकि अभी भी पटना सहित राज्य से दर्जनों उर्दू दैनिक एवं पचासों पत्रिकायें प्रकाशित हो रही हैं परंतु इनका स्तर उस बुलंदी पर नहीं है, जिसकी उम्मीद की जाती है। बिहार में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का भी दर्जा प्राप्त है। उर्दू समाचार पत्रों को राज्य सरकार से विज्ञापन भी मिलता है। सरकारी विज्ञापनों के कारण उर्दू समाचार पत्रों की आर्थिक स्थिति सम्पन्न नहीं तो संतोषजनक अवश्य है। इसके बावजूद उर्दू पत्रकारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।
परिणाम स्वरूप युवा पीढ़ी उर्दू पत्रकारिता की ओर आकर्षित नहीं हो रही है। इस कारण आने वाले दिनों में उर्दू समाचार पत्रों को संकटमय स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। अखबार मालिकों को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। श्री अंजुम आलम कहते है कि स्वतंत्रता के बाद से गुलाम सरवर, शीन मुजफ्फरी, शाहिद राम नगरी इत्यादि उर्दू पत्रकारों, जो मील का पत्थर छोड़ा था वहां तक आज कोई नहीं पहुंच पाया है। मौजूदा उर्दू पत्रकारिता जगत में आज भी कई अच्छे पत्रकार सक्रिय हैं। परंतु, उनकी दशा से नई नस्ल प्रभावित नहीं हो पा रही है। आज का युवा वर्ग इसे करियर के रूप में अपनाने का इच्छुक नजर नहीं आ रहा है। उर्दू में अभी बिहार से कई रंगीन एवं आकर्षक उर्दू समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन सीमित समाचार नेटवर्क का अभाव पाठकों को खटकता है। उर्दू समाचार पत्र सामान्यतः आम लोगों द्वारा प्रकाशित होते थे। परंतु हाल के वर्षों में सहारा इंडिया ने इस क्षेत्र में भी कदम रखा है।
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार राशिद अहमद का मानना है कि भारत की राजनीति विशेष रूप से स्वतंत्रता संग्राम में अदम्य भूमिका निभाने वाली उर्दू पत्रकारिता आज हिन्दी और अंग्रेजी की तुलना में पिछड़ गई है। यह एक कटु सत्य है मगर यह भी सच है कि जहां एक ओर इसके पिछड़ेपन की बात में कहानी और कल्पना अधिक है वहीं इसके पिछड़ेपन के आयाम भी विचारनीय हैं। उर्दू पत्रकारिता का पिछड़ापन पत्रकारिता के मूल तत्व से जुड़ा हुआ नहीं है क्योंकि अगर मुद्दों और सामाजिक सरोकारों की बात करें, तो समय की मांग और समस्या के मूल्यांकन में यह पीछे नहीं रही, तुलनात्मक अध्ययन करते समय कुछ बातों की अनदेखी की जाती है, जिसके कारण नतीजा गलत निकलता है।
समाचार पत्र के सरोकारों का सीधा नाता उसके पाठकवर्ग से होता है। समाज की विस्तृत तस्वीर पेश करने के साथ-साथ समाचार पत्र और उससे जुड़े पत्रकार उस पूरे फ्रेम में अपने पाठक के स्थान तलाश करते हैं और उचित स्थान न मिल पाने के कारण और उससे जुड़ी समस्याओं का मूल्यांकन करते हैं। अंग्रेजी हिन्दी पत्रकारिता का विश्लेषण करते समय तो पाठक तत्व का विशेष ध्यान रखा जाता है मगर उर्दू पत्रकारिता के विश्लेषण के समय उसके पाठक तत्व को अनदेखा करके उसे उर्दू और हिन्दी के पाठक तत्व की कसौटी पर परखा जाता है। कहने का मतलब केवल इतना है कि उर्दू पत्रकारिता की बदहाली मुद्दों और सरोकारों से दूर रहने की नहीं है बल्कि आर्थिक पिछड़ेपन की कहानी है।
समाचार पत्र का अर्थ विज्ञापन से जुड़ा हुआ है। मगर उर्दू समाचार पत्रों को हमेशा विज्ञापन के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। संघर्षरत रहना पड़ता है। विज्ञापन सरकारी हो या गैर सरकारी। व्यापारी भी उर्दू पाठक को अपना उपभोक्ता तो जरूरत समझते हैं। उसके हाथ अपना सामान अधिक से अधिक बेचने का प्रयास तो जरूर करते हैं। मगर उन तक पहुंचने का रास्ता वह उर्दू समाचार पत्र के स्थान पर दूसरी भाषाओं के समाचार पत्रों में तलाश करते हैं। यह मानना होगा कि आर्थिक तंगी के कारण नई तकनीक अपनाने में उर्दू पत्रकारिता पिछड़ जाती है। वह नए प्रयास नहीं कर पाती, यह भी सही है कि आर्थिक तंगी के कारण उर्दू समाचार पत्र अपने पत्रकारों को उतनी और सुविधायें नहीं दे पाते जितना हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारों को मिलती है। इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
वरिष्ठ उर्दू पत्रकार इमरान सगीर कहते है शुरूआती दौर में उर्दू अखबारों को यह गौरव हासिल था कि उर्दू अखबार के संपादक या पाठक किसी विशेष वर्ग के नहीं हुआ करते थे, बल्कि यह पूरे तौर से सामान्य वर्ग के लिए था। लेकिन समय के साथ-साथ परिवर्तन यह हुआ कि उर्दू अखबार एक विशेष वर्ग तक सीमित होने लगा। ये उर्दू पत्रकारिता के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है। आज हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता में बड़ी क्रांति आयी है, लेकिन इसकी अपेक्षा उर्दू पत्रकारिता को उतनी गति नहीं मिल पा रही है। हिन्दी और अंग्रेजी समाचार-पत्रों की तुलना में आधुनिक तकनीक को अपनाने में अब भी उर्दू अखबरात संघर्षरत हैं, इसका कारण स्पष्ट है कि सरकारी स्तर पर इसे अपेक्षाकृत सहयोग नहीं मिल पाता वहीं निजी या व्यवसायिक विज्ञापनों से भी उर्दू समाचार-पत्रों को उतनी आमदनी नहीं हो पाती जिससे की आर्थिक रूप से संपन्न हो सकें।
इन सबके बावजूद सीमित संसाधनों में उर्दू अखबरात सकारात्मक सोच के साथ उर्दू पत्रकारिता के सफर को आगे बढ़ा रहे हैं। उर्दू अखबरात की सबसे बड़ी खूबी ये है कि ये आम आदमी का अखबार होने का धर्म निभाते हैं। हिन्दी या अंग्रेजी समाचार-पत्रों तक आम लोगों की पहुंच आसान नहीं हो पाती, वहीं उर्दू अखबार तक समाज में हाशिये पर खड़ा व्यक्ति की भी आसानी से पहुंच सकता है। अर्थात् समाज का कोई व्यक्ति उर्दू अखबारों से बिल्कुल जुड़ा हुआ महसूस करता है। ये उर्दू अखबारों की लोकप्रियता का बड़ा कारण है। उर्दू अखबारों की विश्वसनीयता और महत्ता इसके पाठक वर्ग में इसे लेकर भी है, कि ये उनके साथ होने वाली किसी भी स्तर पर नाइंसाफी की आवाज प्रमुखता से उठाते हैं, ऐसी खबरों को प्रमुखता से सामने लाते हैं, जिन्हें भेदभाव के नतीजे में अंग्रेजी या हिन्दी समाचार-पत्रों में या तो जगह नहीं दी जाती या फिर उन्हें तोड़-मरोड़कर संक्षेप में किसी कोने में जगह दी जाती है। ऐसे में उर्दू समाचार पत्र ही उनकी उत्सुकता दूर कर पाते हैं।
आज के आधुनिक युग में दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लोगों को उर्दू अखबार नहीं मिल पाता, वैसे गांव के लोग अब भी उर्दू अखबार के दफ्तर से डाक के माध्यम से अखबार मंगाते हैं, और दो-तीन दिन पुरानी ही सही लेकिन इसे पढ़ना जरूर पसंद करते हैं। डाक से अखबार मंगा का कर पढ़ने का शौक उर्दू अखबारों की अहमियत का एक बड़ा उदाहरण है। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल ही कहा जायेगा।
उर्दू पत्रकारिता में महिलाएं नहीं के बराबर है। बल्कि उर्दू पत्रकारिता से कोसो दूर है। स्वतंत्र उर्दू पत्रकार डा0 सुरैया जबीं कहती है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में नई क्रांति तो आयी अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तुलना में न सही लेकिन उर्दू पत्रकारिता में भी क्रांति आयी है। बड़ी संख्या में उर्दू समाचार-पत्र नये रंग-रूप में प्रकाशित किये जा रहे हैं। जहां आधुनिक तकनीक का प्रयोग भी हो रहा है। समाचारों की प्रस्तुति में सीमित दायरे से बाहर निकलकर अब उर्दू अखबारों में भी सामान्य खबरें पढ़ने को मिलती हैं। अलग-अलग विषयों पर साप्ताहिक विशेषांक भी प्रकाशित होते हैं, और अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तरह खुद को स्थापित कर रहे हैं।
यह उर्दू पत्रकारिता के लिए एक शुभ संकेत हैं। पहले उर्दू अखबारों में खबरों का दायरा बिल्कुल सीमित था। वर्तमान में उर्दू पत्रकारिता के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण बात ये भी है कि बिहार की उर्दू प्रिंट मीडिया में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है, क्योंकि उर्दू अखबारों में महिला मीडियाकर्मियों को इन्ट्री नहीं मिल पाती, आज कालेजों में उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स भी चलाये जा रहे हैं। उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करने वालों में बड़ी संख्या छात्राओं की भी है, लेकिन इन्हें भी उर्दू अखबारों के दफ्तरों में इन्ट्री नहीं मिल पा रही है। उर्दू पत्रकारिता की सेवा से महिलाओं की दूरी अब भी कायम है, ये दुर्भाग्यपूर्ण है और ये दूरी मिटनी चाहिए।
बिहार हो या देश का कोई हिस्सा उर्दू पत्रकारिता की दशा-दिशा को प्रभावित करने वाले कारणों पर उर्दू पत्रकारों ने जो विचार दिये वह सवाल छोड़ जाते हैं। उर्दू पत्रकारिता की बदहाली के पीछे आर्थिक तंगी, भाषा, कारपोरेट घराना और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव जहां महत्वपूर्ण हैं वहीं पर राजनीतिक-सामाजिक कारण भी अहम है। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद शुरूआती दौर की तरह आज यह अपने शिखर पर नहीं है। इसके सिमट जाने से उर्दू एक वर्ग/समुदाय तक ही रह गयी है। शुरूआती दौर में यह किसी एक वर्ग/समुदाय तक ही समीति नहीं थी बल्कि गैरमुस्लिम विद्वान उर्दू समाचार पत्रों के संपादन किया करते थे। आज ढूंढ़ने पर भी गैरमुस्लिम विद्वान नहीं मिलेगें जो उर्दू के अखबारों का संपादन करते हो ? इसके पीछे वजह जो भी रही हो एक वजह साफ है कि उर्दू को मुसलमनों की भाषा से जोड़ कर देखा गया। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद भी उर्दू अखबार गैरमुस्लिम घरों में नहीं जाता है।
लेखक संजय कुमार आकाशवाणी, पटना में समाचार संपादक के रूप में कार्यरत हैं. उनसे संपर्क sanju3feb@gmail.comThis e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it या 09934293148 के जरिए किया जा सकता है.
भारतीय मीडिया में हिन्दी व अंग्रेजी की तरह उर्दू समाचार पत्रों का हस्तक्षेप नहीं दिखता है। वह तेवर नहीं दिखता जो हिन्दी या अंग्रेजी के पत्रों में दिखता है। आधुनिक मीडिया से कंधा मिला कर चलने में अभी भी यह लड़खड़ा रहा है।
यों तो देश के चर्चित उर्दू अखबरों में आठ राज्यों से छप रहा ‘रोजनामा’ हैदराबाद से ‘सियासत’ और ‘मुंसिफ’, मुंबई का ‘इंकलाब’, दिल्ली से ‘हिन्दुस्तान एक्सप्रैस’ व ‘मिलाप’, कनाटर्क से ‘दावत’ और पटना से ‘कौमी तन्जीम’ सहित अन्य उर्दू पत्र इस कोशिश में लगे हैं कि उर्दू पत्रकारिता को एक मुकाम दिया जाए। लेकिन बाजार और अन्य समस्याओं के जकड़न से यह निकल नहीं पा रहा है। देखा जाये तो उर्दू पत्रकारों की स्थिति बद से बदतर है तो महिला पत्रकार नहीं के बराबर हैं। यह इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार से प्रकाशित एक दर्जन से ज्यादा उर्दू अखबरों में एक भी महिला श्रमजीवी पत्रकार नहीं है। पटना से प्रकाशित एक बड़ा उर्दू अखबार अपने पत्रकारों को पांच हजार से बीस हजार रूपये महीना तनख्वाह देता है जबकि मंझोल और छोट उर्दू अखबारों में शोषण जारी है।
वहाँ पत्रकारों को तनख्वाह सरकारी दफ्तरों में कार्यरत आदेशपाल से भी कम मिलता है। वहीं अखबारों पर आरोप है कि वे विज्ञापनों के लिए निकल रही हैं। एक आध उर्दू पत्र दिख जाते हैं बाकि की फाइलें बनती है। एक ओर वर्षों से बिहार सहित देष भर में बडे/मंझोले/छोटे उर्दू अखबार उर्दू भाषी जनता के लिए अपनी परंपरागत तरीके से अखबार निकाल रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर उर्दू अखबरों के प्रकाशन क्षेत्र में कारपोरेट जगत घुसपैठ कर उनकी नींद उड़ा रही है। सहारा ग्रुप तो पहले ही आ चुका है अब इस क्षेत्र में हिन्दी के बड़े अखबार घराने कूदने की पूरी तैयारी की चुकें हैं। ऐसे में पांरम्परिक उर्दू अखबारों के समक्ष चुनौतियों का दौर शुरू होने जा रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। लेकिन, हकीकत यह है कि मीडिया के झंझावाद ने लोकतंत्र के चैथे खम्भे को मजबूत बनाने में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता के योगदान को आज दरकिनार कर दिया गया है। उर्दू पत्र व पत्रकार अपने बजूद के लिए आज हर मुकाम पर संघर्ष कर रहे हैं। इसके लिए किसी ने उर्दू पत्रकारिता की हालत बंदर के हाथ में नारियल जैसी बताया, तो किसी ने उर्दू पत्रकारिता को आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर चलते हुए। उर्दू पत्रकारिता की बदहाल दषा और दिशा पर कई पत्रकारों से बातचीत हुई। कई सवालों को खंगाला गया। उर्दू दैनिक ‘कौमी तन्जीम’ पटना के संपादक एस.एम. अजमल फरीद सच को स्वीरकते हुए कहते है, सच है कि वर्तमान समय में उर्दू अखबारात अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में उतनी गति हासिल नहीं कर पा रहे हैं जितना कि इसका स्वर्णिम इतिहास रहा है। चाहे वो आधुनिक तकनीक अपनाने, विषय वस्तु विषेशज्ञ पत्रकारों की टीम तैयार करने या आज खुद को बिल्कुल नये रूप में ढालने की बात हो। इनका दायरा थोड़ा सीमित है। उर्दू भाषा जिसकी महत्ता और उच्चारण की मधुरता को स्वीकार तो सब कोई करता है लेकिन इसके विकास के लिए सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं और इसको एक विषेश वर्ग से जोड़कर देखा जाने लगा है। श्री फरीद कहते हैं कि इन सब के बावजूद एक सीमित संसाधन में उर्दू अखबारात पाठक वर्ग तक बेहतर अखबार पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं और अच्छी संख्या में उर्दू अखबारात पाबंदी से प्रकाशित हो रहे हैं। उर्दू अखबारात की प्रसार संख्या और पाठकों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है।
उर्दू अखबारात का महत्व अंग्रेजी या हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में इस मायने में अब भी बरकरार है कि सकारात्मक पत्रकारिता उर्दू अखबारों का मूल उद्देश्य है जहां अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों में पश्चिमी संस्कृति पूरी तरह हावी नजर आती है। खबरों से लेकर तस्वीरों की प्रस्तुति में जिस तरह का खेल अंग्रेजी और हिन्दी अखबारों में खेला जा रहा है। इससे उर्दू अखबारात अब भी बहुत हद तक सुरक्षित हैं। समाचार या लेख की प्रस्तुति में भी इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि भारतीय परंपरा और गंगा-यमुनी संस्कृति का ही समावेश हो। पाठक वर्ग का ध्यान रखते हुए भले ही अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफी या जुल्म की खबरों को थोड़ी प्राथमिकता मिलती है लेकिन इसमें सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे यह अब भी उर्दू अखबारों का बड़ा लक्ष्य होता है।
श्री फरीद जोर देकर कहते है कि हाल के वर्षों में कारपोरेट घरानों का आकर्षण भी उर्दू अखबारों की ओर बढ़ा है और अब कारपोरेट घराने भी उर्दू अखबार निकाल रहे हैं, जिससे इस बात की आषंका बढ़ गई है कि भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को बरकरार रखते हुए अबतक उर्दू पत्रकारिता जो एक स्वस्थ समाज की कल्पना के साथ आगे बढ़ रही थी वो बाधित हो सकती है, क्योंकि कारपोरेट घरानों के उर्दू अखबार भी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित नजर आते हैं और अपने पाठकवर्ग के विचारों की अनदेखी करते हुए उनपर एक नयी संस्कृति थोपने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार ख़ुर्शीद हाशमी कहते है कि मुझे उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा दोनों गड़बड़ नजर आती है। मेरी नजर में उर्दू पत्रकारिता की हालत आज वैसी ही है जैसी बंदर के हाथ में नारियल की होती है। बंदर नारियल के साथ कब तक खेलेगा, कब उसे पानी में उछाल देगा या कब उसे किसी के सिर पर दे मारेगा, कहना मुश्किल है।
यह स्थिति इसलिए है कि उर्दू पत्रकारिता मुख्यतः आज भी निजी हाथों में हैं। उर्दू पत्रकारिता के भाग्य विधाता वह लोग बने बैठे हैं, जो न उर्दू जानते हैं और न पत्रकारिता का ज्ञान रखते हैं। यह लोग उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के मालिक होते हैं। मालिक होने के नाते नीति-निर्धारक से लेकर संपादक और व्यवस्थापक तक सब कुछ यही लोग होते हैं। वे जैसा चाहते हैं, करते हैं। उनकी नजर में पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं होती है। वह उन्हें क्लर्क या एजेन्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, इसलिए अधिक तेज या पढ़े-लिखे लोग उनको रास नहीं आते, वैसे भी अधिक पढ़े-लिखे लोग महंगे होंगे, और यह लोग चीफ एंड वेस्ट में विश्वास रखते हैं। ऐसी स्थिति में अगर कोई तेज पत्रकार आ भी जाता है तो वह उनकी उपेक्षा का शिकार हो जाता है। उसकी हर बात और हर राय की अनदेखी करके उसे उसकी औकात बता दी जाती है। वे कहते हैं कि हम बिजनेस करने के लिए आये हैं, और बिजनेस कैसे करना है, यह हम जानते हैं, लेकिन वास्तव में वह बिजनेस करना भी नहीं जानते, इसलिए वह उर्दू की सेवा या पत्रकारिता तो करते ही नहीं, ढंग से बिजनेस भी नहीं कर पाते हैं।
श्री हाशमी कहते हैं, उर्दू पत्रकारिता में अब कारपोरेट सेक्टर ने भी पांव पसारना शुरू कर दिया है। वैसे तो वहां भी कुछ समझौते होते हैं और कई बार अयोग्य लोगों को कमान सौंप दी जाती है, जो अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए अपने से भी अधिक अयोग्य लोगों को लाकर पत्रकारिता की कबर खोदने का प्रयास करते हैं, फिर भी निजी हाथों की तुलना में कारपोरेट सेक्टर में स्थिति अच्छी है। मगर समस्या यह है कि कारपोरेट सेक्टर का नाम सुनते ही उर्दू के पाठक भड़क उठते हैं। उन्हें लगता है कि कारपोरेट जगत के अखबार उनकी आवाज मजबूती के साथ नहीं उठा सकते और उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं।
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार और पटना कामर्स कालेज के पत्रकारिता विभाग के काडिनेटर तारिक फातमी का मानना है कि उर्दू पत्रकारिता आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ी है जहाँ दूर-दूर तक बेहतर भविष्य के लिए रौशनी की कोई किरण दिखाई नहीं देती है। उर्दू प्रेस के मालिकान उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चाहे जितने भी आशांवित हों लेकिन दरअसल एक कडवी सच्चाई यह भी है की उर्दू पत्रकारों का भविष्य उस अँधेरे कुँए की तरह है जहाँ से न रौशनी की उम्मीद की जा सकती और न प्यास बुझाने के लिए पानी की, दूसरे शब्दों में कहें तो उर्दू पत्रकार आज अपने भविष्य को लेकर एक अनिश्चितता के स्थिति से गुजर रहा है और अपने भविष्य की इसी अनिश्चिता के कारण वह परेशान भी है। दुखी भी। जो लोग उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास की बातें करते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की जिन लोगों ने उर्दू पत्रकारिता की नीवं रखी थी उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि समाज और मानवता की सेवा करना था, लेकिन आज स्थिति उलट गई है।
आज उर्दू प्रेस मालिकों का एक मात्र उद्देश्य सरकारी और निजी विज्ञापनों को प्रकाशित करके पैसा कमाना और उर्दू समाचार पत्रों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकारों से बेशर्मी के साथ उनका शोषण करना मात्र है। आप बिहार से प्रकाशित किसी भी उर्दू समाचार पत्रों के कार्यालयों में चाहे वो कौमी तंजीम, फारूकी तंजीम, पिनदार, संगम, प्यारी उर्दू हो या कार्पोरेट जगत द्वारा प्रकाशित रोजनामा उर्दू सहारा, का भ्रमण करे तो आपको वहां कार्यरत पत्रकारों दशा देख कर मेरे दावे की पुष्टि हो जाएगी कौमी तंजीम, के संपादक उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं, सच्चाई यह है की भविष्य उर्दू पत्रकारिता का नहीं उनका जरूर उज्जवल है क्योंकि उर्दू समाचार पत्र के मालिक हैं, वह स्वय पत्रकार नहीं, उन्हें संपादक का पद विरासत में मिला है, उन्होंने कभी चिलचिलाती धूप, कड़कड़ाती सर्दी या भरी बरसात में मीलों पैदल चल कर समाचारों का संकलन नहीं किया। इसलिए उन्हें उस दर्द का एहसास नहीं होगा, जो दो हजार से पांच हजार की पगार पर बारह-बारह घंटों तक दफ्तर में बेगारी करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों को होता है।
यही हाल बिहार से प्रकाशित होने वाले सभी दैनिक समाचार पत्रों का है, पिन्दार, फारूकी तंजीम,संगम, इन सभों के वर्तमान मालिकों (तथाकथित संपादकों) का पत्रकारिता से कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। इन तथाकथित संपादकों में कोई किरानी की नौकरी करता था तो कोई चिकित्सक है, कोई ठेके पर समाचार पत्र निकाल रहा है, तो कोई कमीशन पर विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए समाचार पत्र का संपादक बना बैठा है। जाहिर है जब स्थिति इतनी भयावह हो तो उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। सचाई तो ये है की आज पूरे देश विशेष कर बिहार में उर्दू पत्रकारिता उसी तरह दिशाहीन है जिस तरह देश का अल्पसंख्यक नेतृत्व, जिस तरह अल्पसंख्यक समुदाय आज मुस्लिम नेताओं के हाथों छला जा रहा है उसी तरह तथाकथित संपादकों द्वारा उर्दू पाठक और उर्दू समाचर पत्रों में कार्य करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों का शोषण और दोहन जारी है।
बिहार की उर्दू पत्रकारिता आज सत्ता के इर्द -गिर्द घूम रही है । हर समाचार पत्र सरकारी विज्ञापन पाने के लिए वर्तमान सरकार की हर सही-गलत नीतियों का समर्थन करना अपना धर्म और फर्ज समझता है ,पद और सम्मान पाने के लिए उर्दू समाचार पत्रों के कुछ पत्रकार सत्ता के गलियारों में नेताओं के आगे-पीछे दुम हिलाते और चापलूसी करते देखे जा सकते हैं। जाहिर है जब एक पत्रकार पद, पैसा और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए राजनीतिज्ञों के पास अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दे तो उस समाचार पत्र या पत्रकार से समाज कल्याण, मानव सेवा, भाषा, देश, राज्य और समाज के विकास में भागीदारी निभाने की आशा करना बेमानी है। देश और विशेष कर बिहार की उर्दू पत्रकारिता में आज जोश ,जज्बा और क्षमता नहीं है कि वह किसी बड़े आन्दोलन की अगवाई कर सके?
दूसरी ओर ‘बिहार की खबरें’ के संपादक अंजुम आलम कहते हैं कि बिहार से सर्वप्रथम प्रकाषित होने वाला पत्र भी उर्दू था। इसके बावजूद इसकी वर्तमान दषा उत्साहवर्द्धक नहीं है। हालांकि अभी भी पटना सहित राज्य से दर्जनों उर्दू दैनिक एवं पचासों पत्रिकायें प्रकाशित हो रही हैं परंतु इनका स्तर उस बुलंदी पर नहीं है, जिसकी उम्मीद की जाती है। बिहार में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का भी दर्जा प्राप्त है। उर्दू समाचार पत्रों को राज्य सरकार से विज्ञापन भी मिलता है। सरकारी विज्ञापनों के कारण उर्दू समाचार पत्रों की आर्थिक स्थिति सम्पन्न नहीं तो संतोषजनक अवश्य है। इसके बावजूद उर्दू पत्रकारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।
परिणाम स्वरूप युवा पीढ़ी उर्दू पत्रकारिता की ओर आकर्षित नहीं हो रही है। इस कारण आने वाले दिनों में उर्दू समाचार पत्रों को संकटमय स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। अखबार मालिकों को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। श्री अंजुम आलम कहते है कि स्वतंत्रता के बाद से गुलाम सरवर, शीन मुजफ्फरी, शाहिद राम नगरी इत्यादि उर्दू पत्रकारों, जो मील का पत्थर छोड़ा था वहां तक आज कोई नहीं पहुंच पाया है। मौजूदा उर्दू पत्रकारिता जगत में आज भी कई अच्छे पत्रकार सक्रिय हैं। परंतु, उनकी दशा से नई नस्ल प्रभावित नहीं हो पा रही है। आज का युवा वर्ग इसे करियर के रूप में अपनाने का इच्छुक नजर नहीं आ रहा है। उर्दू में अभी बिहार से कई रंगीन एवं आकर्षक उर्दू समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन सीमित समाचार नेटवर्क का अभाव पाठकों को खटकता है। उर्दू समाचार पत्र सामान्यतः आम लोगों द्वारा प्रकाशित होते थे। परंतु हाल के वर्षों में सहारा इंडिया ने इस क्षेत्र में भी कदम रखा है।
उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार राशिद अहमद का मानना है कि भारत की राजनीति विशेष रूप से स्वतंत्रता संग्राम में अदम्य भूमिका निभाने वाली उर्दू पत्रकारिता आज हिन्दी और अंग्रेजी की तुलना में पिछड़ गई है। यह एक कटु सत्य है मगर यह भी सच है कि जहां एक ओर इसके पिछड़ेपन की बात में कहानी और कल्पना अधिक है वहीं इसके पिछड़ेपन के आयाम भी विचारनीय हैं। उर्दू पत्रकारिता का पिछड़ापन पत्रकारिता के मूल तत्व से जुड़ा हुआ नहीं है क्योंकि अगर मुद्दों और सामाजिक सरोकारों की बात करें, तो समय की मांग और समस्या के मूल्यांकन में यह पीछे नहीं रही, तुलनात्मक अध्ययन करते समय कुछ बातों की अनदेखी की जाती है, जिसके कारण नतीजा गलत निकलता है।
समाचार पत्र के सरोकारों का सीधा नाता उसके पाठकवर्ग से होता है। समाज की विस्तृत तस्वीर पेश करने के साथ-साथ समाचार पत्र और उससे जुड़े पत्रकार उस पूरे फ्रेम में अपने पाठक के स्थान तलाश करते हैं और उचित स्थान न मिल पाने के कारण और उससे जुड़ी समस्याओं का मूल्यांकन करते हैं। अंग्रेजी हिन्दी पत्रकारिता का विश्लेषण करते समय तो पाठक तत्व का विशेष ध्यान रखा जाता है मगर उर्दू पत्रकारिता के विश्लेषण के समय उसके पाठक तत्व को अनदेखा करके उसे उर्दू और हिन्दी के पाठक तत्व की कसौटी पर परखा जाता है। कहने का मतलब केवल इतना है कि उर्दू पत्रकारिता की बदहाली मुद्दों और सरोकारों से दूर रहने की नहीं है बल्कि आर्थिक पिछड़ेपन की कहानी है।
समाचार पत्र का अर्थ विज्ञापन से जुड़ा हुआ है। मगर उर्दू समाचार पत्रों को हमेशा विज्ञापन के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। संघर्षरत रहना पड़ता है। विज्ञापन सरकारी हो या गैर सरकारी। व्यापारी भी उर्दू पाठक को अपना उपभोक्ता तो जरूरत समझते हैं। उसके हाथ अपना सामान अधिक से अधिक बेचने का प्रयास तो जरूर करते हैं। मगर उन तक पहुंचने का रास्ता वह उर्दू समाचार पत्र के स्थान पर दूसरी भाषाओं के समाचार पत्रों में तलाश करते हैं। यह मानना होगा कि आर्थिक तंगी के कारण नई तकनीक अपनाने में उर्दू पत्रकारिता पिछड़ जाती है। वह नए प्रयास नहीं कर पाती, यह भी सही है कि आर्थिक तंगी के कारण उर्दू समाचार पत्र अपने पत्रकारों को उतनी और सुविधायें नहीं दे पाते जितना हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारों को मिलती है। इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
वरिष्ठ उर्दू पत्रकार इमरान सगीर कहते है शुरूआती दौर में उर्दू अखबारों को यह गौरव हासिल था कि उर्दू अखबार के संपादक या पाठक किसी विशेष वर्ग के नहीं हुआ करते थे, बल्कि यह पूरे तौर से सामान्य वर्ग के लिए था। लेकिन समय के साथ-साथ परिवर्तन यह हुआ कि उर्दू अखबार एक विशेष वर्ग तक सीमित होने लगा। ये उर्दू पत्रकारिता के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है। आज हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता में बड़ी क्रांति आयी है, लेकिन इसकी अपेक्षा उर्दू पत्रकारिता को उतनी गति नहीं मिल पा रही है। हिन्दी और अंग्रेजी समाचार-पत्रों की तुलना में आधुनिक तकनीक को अपनाने में अब भी उर्दू अखबरात संघर्षरत हैं, इसका कारण स्पष्ट है कि सरकारी स्तर पर इसे अपेक्षाकृत सहयोग नहीं मिल पाता वहीं निजी या व्यवसायिक विज्ञापनों से भी उर्दू समाचार-पत्रों को उतनी आमदनी नहीं हो पाती जिससे की आर्थिक रूप से संपन्न हो सकें।
इन सबके बावजूद सीमित संसाधनों में उर्दू अखबरात सकारात्मक सोच के साथ उर्दू पत्रकारिता के सफर को आगे बढ़ा रहे हैं। उर्दू अखबरात की सबसे बड़ी खूबी ये है कि ये आम आदमी का अखबार होने का धर्म निभाते हैं। हिन्दी या अंग्रेजी समाचार-पत्रों तक आम लोगों की पहुंच आसान नहीं हो पाती, वहीं उर्दू अखबार तक समाज में हाशिये पर खड़ा व्यक्ति की भी आसानी से पहुंच सकता है। अर्थात् समाज का कोई व्यक्ति उर्दू अखबारों से बिल्कुल जुड़ा हुआ महसूस करता है। ये उर्दू अखबारों की लोकप्रियता का बड़ा कारण है। उर्दू अखबारों की विश्वसनीयता और महत्ता इसके पाठक वर्ग में इसे लेकर भी है, कि ये उनके साथ होने वाली किसी भी स्तर पर नाइंसाफी की आवाज प्रमुखता से उठाते हैं, ऐसी खबरों को प्रमुखता से सामने लाते हैं, जिन्हें भेदभाव के नतीजे में अंग्रेजी या हिन्दी समाचार-पत्रों में या तो जगह नहीं दी जाती या फिर उन्हें तोड़-मरोड़कर संक्षेप में किसी कोने में जगह दी जाती है। ऐसे में उर्दू समाचार पत्र ही उनकी उत्सुकता दूर कर पाते हैं।
आज के आधुनिक युग में दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लोगों को उर्दू अखबार नहीं मिल पाता, वैसे गांव के लोग अब भी उर्दू अखबार के दफ्तर से डाक के माध्यम से अखबार मंगाते हैं, और दो-तीन दिन पुरानी ही सही लेकिन इसे पढ़ना जरूर पसंद करते हैं। डाक से अखबार मंगा का कर पढ़ने का शौक उर्दू अखबारों की अहमियत का एक बड़ा उदाहरण है। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल ही कहा जायेगा।
उर्दू पत्रकारिता में महिलाएं नहीं के बराबर है। बल्कि उर्दू पत्रकारिता से कोसो दूर है। स्वतंत्र उर्दू पत्रकार डा0 सुरैया जबीं कहती है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में नई क्रांति तो आयी अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तुलना में न सही लेकिन उर्दू पत्रकारिता में भी क्रांति आयी है। बड़ी संख्या में उर्दू समाचार-पत्र नये रंग-रूप में प्रकाशित किये जा रहे हैं। जहां आधुनिक तकनीक का प्रयोग भी हो रहा है। समाचारों की प्रस्तुति में सीमित दायरे से बाहर निकलकर अब उर्दू अखबारों में भी सामान्य खबरें पढ़ने को मिलती हैं। अलग-अलग विषयों पर साप्ताहिक विशेषांक भी प्रकाशित होते हैं, और अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तरह खुद को स्थापित कर रहे हैं।
यह उर्दू पत्रकारिता के लिए एक शुभ संकेत हैं। पहले उर्दू अखबारों में खबरों का दायरा बिल्कुल सीमित था। वर्तमान में उर्दू पत्रकारिता के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण बात ये भी है कि बिहार की उर्दू प्रिंट मीडिया में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है, क्योंकि उर्दू अखबारों में महिला मीडियाकर्मियों को इन्ट्री नहीं मिल पाती, आज कालेजों में उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स भी चलाये जा रहे हैं। उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करने वालों में बड़ी संख्या छात्राओं की भी है, लेकिन इन्हें भी उर्दू अखबारों के दफ्तरों में इन्ट्री नहीं मिल पा रही है। उर्दू पत्रकारिता की सेवा से महिलाओं की दूरी अब भी कायम है, ये दुर्भाग्यपूर्ण है और ये दूरी मिटनी चाहिए।
बिहार हो या देश का कोई हिस्सा उर्दू पत्रकारिता की दशा-दिशा को प्रभावित करने वाले कारणों पर उर्दू पत्रकारों ने जो विचार दिये वह सवाल छोड़ जाते हैं। उर्दू पत्रकारिता की बदहाली के पीछे आर्थिक तंगी, भाषा, कारपोरेट घराना और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव जहां महत्वपूर्ण हैं वहीं पर राजनीतिक-सामाजिक कारण भी अहम है। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद शुरूआती दौर की तरह आज यह अपने शिखर पर नहीं है। इसके सिमट जाने से उर्दू एक वर्ग/समुदाय तक ही रह गयी है। शुरूआती दौर में यह किसी एक वर्ग/समुदाय तक ही समीति नहीं थी बल्कि गैरमुस्लिम विद्वान उर्दू समाचार पत्रों के संपादन किया करते थे। आज ढूंढ़ने पर भी गैरमुस्लिम विद्वान नहीं मिलेगें जो उर्दू के अखबारों का संपादन करते हो ? इसके पीछे वजह जो भी रही हो एक वजह साफ है कि उर्दू को मुसलमनों की भाषा से जोड़ कर देखा गया। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद भी उर्दू अखबार गैरमुस्लिम घरों में नहीं जाता है।
लेखक संजय कुमार आकाशवाणी, पटना में समाचार संपादक के रूप में कार्यरत हैं. उनसे संपर्क sanju3feb@gmail.comThis e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it या 09934293148 के जरिए किया जा सकता है.
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