वर्तमान में बिहार का जिक्र आने पर जो परिदृश्य उभरकर सामने आता है, उसमें राजधानी पटना की उंची इमारतें, चकाचक रोड, भीड़ के कोलाहल से गुंजायमान डाकबंगला रोड, देर रात तक गुलजार रहने वाला मौर्यालोक परिसर, मुख्यमंत्री, मंत्रियों एवं अधिकारियों के आलीशान बंगले और फ़िर 24 घंटे में कम से कम 22 घंटे बिजली रहने की गारंटी। यानि सबकुछ ठीक ठाक्। जब भी कोई विदेशी मेहमान आता है, पटना को देखता है और फ़िर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नाम का जयकारा लगाता है। अगले दिन बिहार के अखबार वाले इस जयकारे में अपनी चमचागिरी का तड़का लगाकर बिहार की बेहाल जनता के सामने खबर परोसते हैं। यह खबर कैसी होती है, इसका एक उदाहरण देखिये।
अभी हाल ही में माइक्रोसाफ़्ट के मालिक बिल गेट्स और उनकी पत्नी मिलिंडा गेट्स बिहार आई थीं। दोनों ने बिहार के उन गावों का दौरा किया, जिन्हें, उनके चैरिटी संस्थान गेट्स फ़ाऊंडेशन ने गोद ले रखा है। जब श्री गेट्स ने गोद लिये गये गावों में चल रहे कार्यक्रमों की समीक्षा कर ली, तब पूर्व से तय कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भेंट की। इस बैठक में श्री गेट्स ने मुख्यमंत्री से शिकायती लहजे में कहा था कि राज्य की स्वास्थ्य संबंधी आधारभूत संरचना अत्यंत दयनीय है। प्रेस कर्मियों से पूछे गये एक सवाल के क्रम में उन्होंने कहा था कि – बिहार इज स्टील बिहाइन्ड सेंचुरिज। यानि बिहार अभी भी विकास के मामले में कई शताब्दियां पीछे है।
अगले दिन जब खबर छपी तो, पुछिये मत। शायद ही कोई ऐसा अखबार रहा होगा, जिसने श्री गेट्स के इस बयान को छापा हो। सभी ने कहा – गेट्स सैल्यूटेड नीतीश फ़ार फ़ास्ट डेवलपमेंट आफ़ बिहार। वास्तविकता क्या थी और अखबारों ने क्या छापा, इसका अंदाज तो आसानी से लग जाता है। खैर, बात हो रही है बिहार के विकास की।
असल में बिहार सरकार के मुखिया नीतीश कुमार बहुत ही तेज दिमाग के मालिक हैं। तेज इसलिये हैं क्योंकि बिहार की जनता में एकता नहीं है। इसकी हालत बिल्कुल उन बकरों की तरह है, जिनका एक साथी मांस विक्रेता द्वारा हलाल किया जा रहा हो और वे इस बात को सोचकर मगन हों कि अभी उनकी बारी नहीं आई है। अगर यकीन न आये तो दो दिनों के लिये पहले पटना में रह लिजीये और फ़िर दो दिनों के लिये आप लखीसराय या फ़िर कोई भी जिला चुन लिजीये, चले जाइये। पटना के निवासियों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि कटिहार जिले में क्यों केवल 2 घंटे बिजली है ? उसी प्रकार किसी खाते पीते घर को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उसका पड़ोसी क्यों भूखा है? जब कोई भूख से मर जाता है तो वह सोचता है कि चलो, अच्छा हुआ, कोई उसके घर का नहीं मरा न?
बक्सर, रोहतास, औरंगाबाद और आरा के किसानों की तकलीफ़ कोई मिथिलांचल वाले नहीं समझना चाहते हैं कि आखिर क्यों सोन कैनाल में पानी नहीं दिया जा रहा है? उसी प्रकार मगध का वासी यह जानने की कोशिश भी नहीं करता कि कोशी 2008 के पीड़ितों का मकान बना या नहीं बना? ये तो बहुत दूर की बात रही। आज का बिहारी समुदाय किस कदर स्वार्थी हो गया है कि जब कोई व्यक्ति किसी कारणवश बेखौफ़ हो चुके अपराधियों की गोली का शिकार होता है तो वह सोचता है कि जरूर उसने भी किसी का खून किया होगा, तभी वह मारा गया। अभी एक दिन पहले ही राजधानी पटना के फ़ुलवारी प्रखंड में एक वार्ड पार्षद रेखा की हत्या गैंगरेप के बाद कर दी गई। जानते हैं, उसके अपने आस पड़ोस के लोगों ने क्या कहा। लोगों ने कहा कि बड़ा बनती थी, अब चली गई न दूनिया से।
सवाल यह है कि आखिर क्यों बिहारी इतने असंवेदनशील होते जा रहे हैं। सरकार कहती है कि उसके विकास कार्यक्रमों ने जातिवाद की दीवार को ढाह दिया है। इसका प्रमाण वह बिहार विधान सभा चुनाव परिणाम को देती है। वैसे इस बात में कोई दम नहीं है। इसका सबसे बड़ा आधार यही है कि भूमिहार समाज में ही अनंत सिंह के स्थान पर बड़े से बड़े दिग्गज और इंसान बिहार में निवास करते हैं। यदि बिहार सरकार जातिवाद नहीं करती तो आज पटना के सीनियर एसपी और डीएम दोनों जाति के कुर्मी नहीं होते।
दरअसल नीतीश कुमार बिहार में विकास शब्द की आड़ में सुशासन नहीं, बल्कि लूट का शासन चला रहे हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह कि आज बिहार में त्रिस्तरीय लूट व्यवस्था कायम हो गई है। पहले मुख्यमंत्री, मंत्री और राजधानी में बैठे अफ़सर लूटते हैं, फ़िर बारी आती है जिले और प्रखंड में बैठे अफ़सरों की। इन महानुभावों के लूटने के बाद जो धनराशि बचती है, उस पर पंचायती राज के प्रतिनिधियों और ठेकेदारों का अधिकार बनता है। अभी हाल ही में एक संवाददाता सम्मेलन में राज्य निर्वाचन आयोग के आयुक्त जे के दत्ता ने कहा कि उन्होंने राज्य सरकार को आयोग की ओर से दी गई अनुशंसा में स्पष्ट तौर पर उल्लेखित किया है कि मुखिया को वित्तीय शक्ति देने से पंचायती राज व्यवस्था तार तार हुई है।
सवाल यही है कि आखिर जब विकास हुआ है अथवा हो रहा है फ़िर भी इतनी खामियां क्यों हैं। सत्तापक्ष के नेताओं द्वारा यह कहा जाता है कि सूबे में 15 सालों के जंगलराज के दुष्प्रभाव को जाने में समय लगेगा। गाहे-बेगाहे सत्ता पक्ष के बिहार की बदहाली के लिए लालू राज पर दोषारोपण करते हैं। क्या वाकई में इन सबके लिये लालू राज जिम्मेवारी है कि पिछले 3 माह में राजधानी पटना में 38 युवाओं ने आत्महत्यायें कर लीं? क्या इसके लिये भी लालू ही जिम्मेवार हैं कि पिछले साढे पांच सालों में 1 लाख 99 हजार करोड़ रुपये के निवेश के बदले केवल 2000 करोड़ रुपये का निवेश हुआ है? क्या इसके लिये लालू यादव को दोषी ठहराया जा सकता है कि बिहार के विभिन्न विभागों द्वारा करीब साढे सोलह हजार करोड़ रुपये के खर्चे का हिसाब नहीं दिया गया है, जिसे सीएगी की नजर में वित्तीय अनियमितता और आम आदमी की नजर में घोटाला कहा जाता है?
बहरहाल, नीतीश सरकार पर कोई सवाल उठता है तब सत्ता पक्ष के लोग बिहार की जनता को लालू राज का भय दिखाकर अथवा याद दिलाकर पूरे मुद्दे का राजनीतिकरण कर देते हैं। इसका एक प्रमाण यह देखिये कि बिहार सरकार में शामिल रहे रामाधार सिंह की तुलना लालू यादव से कर सुशील कुमार मोदी ने अपनी निम्न मानसिकता का परिचय दिया है। जबकि अभी भी बिहार सरकार में चार मंत्री ऐसे हैं, जिनके खिलाफ़ घोटाले के मामले लंबित पड़े हैं। इनमें से एक हमारे सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी हैं। सवाल यही है कि क्या नीतीश सरकार लालू नाम के सहारे बिहार की जनता को दिग्भ्रमित करने में सफ़ल रह पायेगी? वर्तमान परिवेश में संभव है कि इसका उत्तर सकारात्मक है, क्योंकि अभी भी समाज का जो वर्ग वोकल है, वह किसी न किसी रुप में नीतीश सरकार के सोशल इंजीनियरिंग से लाभान्वित है और उसके लिये तो घटिया कंपनी के द्वारा उत्पादित जैक आपूर्ति पर मुहर लगाकर करोड़ों लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले नीतीश कुमार किसी महापुरुष से कम नहीं। खैर, अब इनके दिन भी लदने वाले हैं। बस थोड़ा इंतजार और।
Monday, May 23, 2011
Sunday, May 22, 2011
اخلاقی زوال کے شکار ذرائع ابلاغ
سادہ الفاظ میں خبروں کے جمع کرنے، لکھنے اور ان کو نشر یا شائع کرنے کے نظام یا شعبے کا نام صحافت یا میڈیا ہے۔ ذرا وسیع معنوں میں وہ قرا ¿تی، سمعی اور بصری ذرائع جن کے ذریعے حادثات و واقعات، مسائل اور رجحانات و میلانات کے بارے میں معلومات اکٹھی کی جاتی ہیں` ان کی سند اور صداقت کے بارے میں تحقیق کی جاتی ہے اور پھر ان کو اخبارات و رسائل، ریڈیو، ٹی وی یا انٹرنیٹ پر نشر کیا جاتا ہے، میڈیا کی تعریف میں آتے ہیں۔ موجودہ دور میں نیوز میڈیا کا دائرہ اتنی وسعت حاصل کرچکا ہے کہ اطلاعات و معلومات اور آراءوافکار کو عوام تک پہنچانے کا یہ واحد ذمہ دار یا ٹھیکے دار بن گیا ہے۔ لفظ میڈیا کے رواجِ عام سے پہلے اس نظام کے لیے اردو میں صحافت اور انگریزی میں Journalism کی اصطلاح عام تھی جو فرانسیسی زبان کے Journal اور لاطینی زبان کے Diurnal سے ماخوذ تھی، جس کا مطلب روزنامہ ہے۔ قدیم روم میں
Acta Diuma The ہاتھ سے لکھے ہوئے خبری بلیٹن کو کہا جاتا تھا جو کسی اہم پبلک مقام پر رکھ یا پہنچا دیا جاتا تھا اور لوگ وہاں جمع ہوکر اسے پڑھتے اور اس دن کی تازہ خبر سے آگاہ ہوتے تھے۔ یہ گویا دنیا کا پہلا اخبار تھا۔ لیکن انگریزی زبان کا پہلا اخبار Daily Courant مانا جاتا ہے جو 1702ءسے 1735ءتک شائع ہوتا رہا۔ اقرائی ذرائع میں کبھی صرف کتابیں، رسالے اور اخبارات شامل تھے، فلم اور ڈرامے نے سمعی اور بصری پہلو کا اضافہ کیا اور اسے ایک نئی جہت بخشی۔ آج انٹرنیٹ کا جن بوتل سے نکل کر ان سب پر چھا گیا ہے، اس نے لوگوں کی توجہ جرائد و کتب سے ہٹادی ہے۔ گزشتہ ایک ڈیڑھ عشرے سے مطالعہ کے ذوق اور سرگرمی پر جو دھند گہری ہوئی جارہی ہے اسی بوتل کا دھواں ہے جس سے یہ جن نکلا ہے۔ دلچسپ بات یہ ہے کہ جہاں انٹرنیٹ ایجاد ہوا اور اس کا سب سے پہلے اور سب سے زیادہ استعمال شروع ہوا وہاں تو کتاب خوانی کے رجحان میں کوئی کمی نہیں آئی ہے۔ ہر ماہ ہی نہیں ہر ہفتے کسی نہ کسی موضوع پر کوئی کتاب چھپتی ہے اور Seller Best کا درجہ پاکر لاکھوں قارئین کے ہاتھوں میں اور مطالعہ کی میز پر پہنچ جاتی ہے، لیکن ہماری نگاہیں انٹرنیٹ سے ایسی خیرہ ہوئی ہیں کہ اس کے سوا کچھ اور سجھائی ہی نہیں دے رہا ہے۔ اخبارات اور رسائل کے بعد ریڈیو میڈیا کا حصہ بنا۔ اس سے حالات و حوادث سے آگہی اور تفریح کے امکانات میں اور وسعت آئی۔ ہمارے ہاں 1970 کے عشرے میں بلیک اینڈ وائٹ ٹی وی کی آمد ہوئی۔ پھر رنگین ٹی وی نے آکر واقعات و شخصیات کو متحرک اور Live حالت میں ناظرین کے سامنے پیش کرنا شروع کیا تو اس کے اثرات کا دائرہ اور زیادہ پھیل گیا۔ اب واقعات محض خبروں کی صورت میں نہیں بلکہ اپنی اصلی صورت میں نگاہوں کے سامنے آنے لگے۔ اس وقت سمعی اور بصری ذرائع ابلاغ کی برادری میں ایک اور رکن یعنی موبائل فون کا اضافہ بھی ہوچکا ہے۔ میڈیا کا دائرہ ¿ کار یا ذمہ داری میڈیا کی ذمہ داریوں میں معروضی انداز میں خبر دینا، حالات سے باخبر رکھنا، واقعات کے پس منظر پر روشنی ڈالنا، حقائق کی تہہ تک پہنچنا، انسانی معلومات سے تھوڑا آگے جاکر اس کے شعور کو بیدار کرنا، ایک خاص نہج پر رائے سازی اور معاشرتی تقاضوں کے مطابق لوگوں کے رویوں اور رجحانات کی تعمیر ( Trend Setting) کرنا شامل ہیں۔ جدید دور کے میڈیا نے خبر دینے کے ساتھ خبر لینے کو بھی اپنے مقاصد میں شامل کرلیا ہے۔ اس کا مطلب یہ ہے کہ میڈیا جہاں ہر طبقے، ہر گروہ اور ہر سیاسی پارٹی، مذہبی جماعت اور سماجی تنظیم کی سرگرمیوں کی معروضی انداز میں خبریں دیتا ہے وہاں وہ عوامی نمائندگی کرتے ہوئے ان جماعتوں اور تنظیموں اور گروہوں کی غلطیوں اور کوتاہیوں پر ان کا مواخذہ اور محاسبہ بھی کرتا ہے تاکہ ان کی کوئی پالیسی اور سرگرمی قومی مفاد اور سماجی بہبود کے منافی نہ ہو۔ میڈیا کی اسی اہمیت کے باعث اس کو جمہوری نظام کا اہم ترین ستون شمار کیا جاتا ہے۔ ان مقاصد کو سامنے رکھا جائے تو میڈیا کا کردار بڑا مقدس نظر آتا ہے۔ جس طرح ناولوں اور ڈراموں میں برائی اور اچھائی کی کشمکش میں برائی کو اس انداز میں پیش کیا جاتا تھا کہ پڑھنے والوں کے دل میں ہیرو سے عقیدت اور ہمدردی پیدا ہوجاتی تھی اور ولن شر و فساد کا نمائندہ بن کر سامنے آتا اور اس سے نفرت کے جذبات ابھرتے تھے۔ قارئین فطری طور پر ہیرو کی فتح اور ولن کی ذلت و رسوائی کی تمنا کرتے اور اس کے روپ میں مجسم باطل کو کیفر کردار تک پہنچا ہوا دیکھنا چاہتے تھے، عین اسی طرح میڈیا پر کرپٹ اور گھٹیا ذہنیت و اخلاق کے سیاستدانوں، بگاڑ اور فساد کی قوتوں اور معاشرے میں پھیلے ہوئے دیگر تخریبی عناصر کو بے نقاب کرکے ان کو انجام تک پہنچانے کی مہم خیر اور بھلائی کے غلبے کی مہم چلانے کی ذمہ داری ہے۔ قومی ذمہ داری کے اعتبار سے ملک و قوم کی اساسات سے ہم آہنگ اعتقادات، نظریات و افکار اور تعمیری رجحانات و میلانات کو فروغ دینا میڈیا کا اصل کام سمجھا جاتا ہے۔ جس طرح ایک استاد سے یہ توقع کرنا بعید ازامکان ہے کہ وہ اپنے شاگردوں کو برائی کی تعلیم دے گا اور جرائم کا عادی بنائے گا اسی طرح میڈیا کے بارے میں یہ سوچنا انوکھی بات سمجھی جاتی تھی کہ وہ ان اخلاقی رویوں اور افکار و معتقدات کا پرچار کرے گا جو قومی مقاصد سے متصادم ہوں۔ جو معیارات و اصول اب قصہ ¿ پارینہ ہیں ایک وقت تھا، جب ایک مشن کے سوا میڈیا کا کوئی اور کردار تصور میں ہی نہیں آسکتا تھا۔ ہمارے ماضی قریب کی تاریخ میں سامراج سے آزادی کی جدوجہد کو ا ±س وقت کے پرنٹ میڈیا کا سب سے بڑا جہاد سمجھا جاتا تھا۔ مولانا ظفر علی خان، مولانا محمد علی جوہر، مولانا ابوالکلام آزاد اور ایسی ہی دیگر شخصیات کا قلمی جہاد وہ وقیع کارنامہ تھا جس کے ذریعے انہوں نے تاریخ میں اپنا روشن کردار رقم کرایا اور قوم و ملت کے محبوب و محترم قرار پائے۔ ا ±س زمانے میں روزنامہ صحافت کا کچھ زیادہ چلن نہیں تھا۔ متعدد وقیع دینی اور علمی ماہنامے اپنی ایک پہچان رکھتے تھے۔ اکثر ماہنامے اپنے عالی قدر مدیروں کی رحلت کے بعد بند ہوگئے۔ فکری یکجہتی، اپنے خاص آدرش کے تحت ذہن سازی اور رائے اور فکر کی تشکیل سب کا مشترک مطمح نظر تھا۔ اپنے نظریے اور فکر کی پاسداری میں ا ±س دور کے مدیرانِ کرام نے بڑی قربانیاں دیتے، جیلیں کاٹتے اور بھاری جرمانے بھرتے تھے، مگر اس طرح کی ہر تلخی اور ترشی ان کے نشہ ¿ جدوجہد آزادی اور جنون مقاصد کو اور بڑھا دیتی تھی۔ وہ اپنے نظریی، اصول اور اپنے نصب العین پر کسی سودے بازی کا تصور بھی نہیں کرسکتے تھے۔ وہ نہ بکتے تھے اور نہ جھکتے تھے۔ ان کے نزدیک قلم کی حرمت پر حرص و ہوس کی آنچ آنے دینا ماں بہن کی آبرو بیچنے کے مترادف تھا۔ ان کے الفاظ اتنی بڑی قیمت رکھتے تھے کہ کوئی ان کی قیمت لگانے کی ہمت ہی نہیں کرتا تھا۔ وہ فقر و فاقہ اور مشکلات و مصائب کی حالت میں بھی اپنے اصولوں سے غذا اور روشنی پاتے تھے۔ یہی ان کی قوت کا راز تھا۔ کردار کے کھرے پن کا اپنا ایک وزن اور اثر ہوتا ہے۔ مولانا محمد علی جوہرؒ سے بڑھ کر کون سامراج دشمن ہوسکتا تھا اور کس نے انگریز کو چیلنج کرنے کی اس سے بڑی جسارت کی ہوگی! لیکن یہی چیز ان کی اس عظمت کی دلیل تھی جس کے اعتراف میں انگریز وائسرائے صبح دم اپنے ناشتے کی میز پر سب سے پہلے ”کامریڈ“ دیکھنا پسند کرتا تھا۔ معیارِ زبان و بیان بھی روبہ زوال وقت گزرنے کے ساتھ ہر چیز کی قیمت و قامت گھٹنے لگی۔ صحافت یا مروجہ اصطلاح میں میڈیا کی اصولی آب و تاب بھی ایک گہن کی لپیٹ میں آگئی ہے۔ بیان کی لذت اور شائستگی اور زبان کی مہارت کے لحاظ سے بھی اب وہ معیار خواب و خیال ہوکر رہ گیا ہے جو صحافت کے ان اساطین نے قائم کیا تھا۔ ان میں سے اکثر اپنے وقت کے نامور ادیب اور شاعر تھے۔ بات صرف اردو ہی تک محدود نہیں ہی، مولانا ظفر علی خان اور مولانا محمد علی جوہر اور دوسرے کئی عظیم صحافیوں کو انگریزی زبان پر بھی کامل قدرت حاصل تھی۔ مشہور تھا کہ کئی انگریز مولانا محمد علی جوہر کی انگریزی پڑھ کر اپنی لغوی غلطیاں دور کرتے تھے۔ پھر اپنی تہذیبی جڑوں کے ساتھ ان کا رشتہ بہت گہرا تھا۔ سیرت و کردار کے لحاظ سے بڑے ا ±جلے تھے۔ آج ذرائع ابلاغ سے وابستہ خواتین و حضرات کے کردار میں وہ بلندی، اور مقاصد میں وہ رفعت غائب ہوگئی ہے جو ماضی میں صحافی کی پہچان تھی۔ اب ذہن اور قلم دونوں پر For Sale یعنی برائے فروخت کا لیبل لگا کر صحافی اپنے دفتروں میں بیٹھتے ہیں۔ میڈیا میں اب کالی بھیڑوں نے جگہ بنالی ہے۔ کردار کی بلندی میں آج کے صحافی مذکورہ بالا بزرگوں سے کوئی نسبت نہیں رکھتے۔ ان کی نظریاتی بینائی بہت کمزور ہے۔ اغراض کے بندوں اور ناتراشیدہ ذہنوں کے لشکر اس شعبے میں داخل ہوگئے ہیں۔ یہ ہمیشہ ہری گھاس پر نگاہ رکھتے ہیں۔ جدھر چارہ زیادہ ملتا ہے ا ±دھر چلے جاتے ہیں۔ میڈیا مراکز نے بھی صحافیوں کو خریدنے کی منڈیاں لگا رکھی ہیں۔ ایک خاتون یا حضرت صبح ایک چینل پر خبریں پڑھتے نظر آتے ہیں تو شام کو کسی دوسرے چینل پر جھلک دکھاتے ہیں۔ اینکر اور کالم نویس کبھی ایک چینل یا اخبار کے مالکان کے کلمے پڑھ رہے ہوتے ہیں، اور ذرا بھاو ¿ بڑھ جائے تو اسی زبان اور لہجے میں دوسری انتظامیہ کے قصیدے شروع کردیتے ہیں۔ کبھی ایک جماعت کے حامی ہوتے ہیں تو کبھی دوسری کے دسترخوان کی خوشہ چینی میں لگ جاتے ہیں۔ پی سائی ناتھ انگریزی اخبار Hindu کے دیہی امور کے ایڈیٹر ہیں اور عوامی مسائل اور مشکلات سے بحث کرتے ہیں۔ 30 جون کو نئی دہلی میں MassMedia پر اپنے ایک لیکچر میں انہوں نے ایسی باتیں کی ہیں جو میڈیا سے تعلق رکھنے والی ایک معتبر شخصیت کی طرف سے بڑی تلخ حقیقت کے بارے میں شہادت کا درجہ رکھتی ہیں: 1۔ میڈیا اب کوئی مقدس مشن نہیں، بلکہ یہ اب کارپوریٹ سیکٹر کا حصہ ہے۔ 2۔ میڈیا کا کاروبار کرنے والی کمپنیوں کے معیشت کے مختلف شعبوں میں زبردست مفادات ہیں۔ ان کی اولین ترجیح مفادات کی حفاظت ہے۔ 3۔ میڈیا کمپنیوں یا اداروں کے ایڈیٹر، رپورٹر، کالم نگار اور دیگر قلم کار ان کمپنیوں کے تنخواہ دار کارندے ہیں۔ ان کا اولین کام اپنے مالکان کے مفادات کا تحفظ ہے۔ 4۔ جھوٹ بولنا اور پھیلانا ان صحافیوں کی حالیہ ”صحافتی اخلاقیات“ کے تحت ایک پیشہ ورانہ مجبوری بن گئی ہے۔ پی سائی ناتھ نے اس کے لیے StructuralCompulsion to lie کی اصطلاح استعمال کی۔ 5۔ میڈیا کی کمپنیاں اور ادارے بڑی بڑی تجارتی کمپنیوں کے ساتھ ایک طرح سے مفادات کے ساجھی اور ساتھی ہیں۔ صحافی انہی کے مفاد میں اسٹور یاں گھڑتے اور سنسنی خیز انداز میں ان کو پھیلاتے ہیں تاکہ ٹی وی چینلوں کی ٹی پی آر بڑھے۔ 6۔ نقد رقوم کے عوض ( PaidNews) خبروں اور اسکینڈلز کی اشاعت میڈیا میں پھیلنے والی بہت بڑی لعنت ہے جس میں بڑے بڑے نامور رپورٹر، ٹی وی اینکر، تبصرہ نگار اور کالم نویس ملوث ہیں۔ ان کی تحریروں میں اب نہ معروضیت ہے اور نہ غیر جانبداری۔ وہ وہی لکھتے ہیں جس کا اشارہ ان کے مالکان کی طرف سے ہوتا ہے۔
Acta Diuma The ہاتھ سے لکھے ہوئے خبری بلیٹن کو کہا جاتا تھا جو کسی اہم پبلک مقام پر رکھ یا پہنچا دیا جاتا تھا اور لوگ وہاں جمع ہوکر اسے پڑھتے اور اس دن کی تازہ خبر سے آگاہ ہوتے تھے۔ یہ گویا دنیا کا پہلا اخبار تھا۔ لیکن انگریزی زبان کا پہلا اخبار Daily Courant مانا جاتا ہے جو 1702ءسے 1735ءتک شائع ہوتا رہا۔ اقرائی ذرائع میں کبھی صرف کتابیں، رسالے اور اخبارات شامل تھے، فلم اور ڈرامے نے سمعی اور بصری پہلو کا اضافہ کیا اور اسے ایک نئی جہت بخشی۔ آج انٹرنیٹ کا جن بوتل سے نکل کر ان سب پر چھا گیا ہے، اس نے لوگوں کی توجہ جرائد و کتب سے ہٹادی ہے۔ گزشتہ ایک ڈیڑھ عشرے سے مطالعہ کے ذوق اور سرگرمی پر جو دھند گہری ہوئی جارہی ہے اسی بوتل کا دھواں ہے جس سے یہ جن نکلا ہے۔ دلچسپ بات یہ ہے کہ جہاں انٹرنیٹ ایجاد ہوا اور اس کا سب سے پہلے اور سب سے زیادہ استعمال شروع ہوا وہاں تو کتاب خوانی کے رجحان میں کوئی کمی نہیں آئی ہے۔ ہر ماہ ہی نہیں ہر ہفتے کسی نہ کسی موضوع پر کوئی کتاب چھپتی ہے اور Seller Best کا درجہ پاکر لاکھوں قارئین کے ہاتھوں میں اور مطالعہ کی میز پر پہنچ جاتی ہے، لیکن ہماری نگاہیں انٹرنیٹ سے ایسی خیرہ ہوئی ہیں کہ اس کے سوا کچھ اور سجھائی ہی نہیں دے رہا ہے۔ اخبارات اور رسائل کے بعد ریڈیو میڈیا کا حصہ بنا۔ اس سے حالات و حوادث سے آگہی اور تفریح کے امکانات میں اور وسعت آئی۔ ہمارے ہاں 1970 کے عشرے میں بلیک اینڈ وائٹ ٹی وی کی آمد ہوئی۔ پھر رنگین ٹی وی نے آکر واقعات و شخصیات کو متحرک اور Live حالت میں ناظرین کے سامنے پیش کرنا شروع کیا تو اس کے اثرات کا دائرہ اور زیادہ پھیل گیا۔ اب واقعات محض خبروں کی صورت میں نہیں بلکہ اپنی اصلی صورت میں نگاہوں کے سامنے آنے لگے۔ اس وقت سمعی اور بصری ذرائع ابلاغ کی برادری میں ایک اور رکن یعنی موبائل فون کا اضافہ بھی ہوچکا ہے۔ میڈیا کا دائرہ ¿ کار یا ذمہ داری میڈیا کی ذمہ داریوں میں معروضی انداز میں خبر دینا، حالات سے باخبر رکھنا، واقعات کے پس منظر پر روشنی ڈالنا، حقائق کی تہہ تک پہنچنا، انسانی معلومات سے تھوڑا آگے جاکر اس کے شعور کو بیدار کرنا، ایک خاص نہج پر رائے سازی اور معاشرتی تقاضوں کے مطابق لوگوں کے رویوں اور رجحانات کی تعمیر ( Trend Setting) کرنا شامل ہیں۔ جدید دور کے میڈیا نے خبر دینے کے ساتھ خبر لینے کو بھی اپنے مقاصد میں شامل کرلیا ہے۔ اس کا مطلب یہ ہے کہ میڈیا جہاں ہر طبقے، ہر گروہ اور ہر سیاسی پارٹی، مذہبی جماعت اور سماجی تنظیم کی سرگرمیوں کی معروضی انداز میں خبریں دیتا ہے وہاں وہ عوامی نمائندگی کرتے ہوئے ان جماعتوں اور تنظیموں اور گروہوں کی غلطیوں اور کوتاہیوں پر ان کا مواخذہ اور محاسبہ بھی کرتا ہے تاکہ ان کی کوئی پالیسی اور سرگرمی قومی مفاد اور سماجی بہبود کے منافی نہ ہو۔ میڈیا کی اسی اہمیت کے باعث اس کو جمہوری نظام کا اہم ترین ستون شمار کیا جاتا ہے۔ ان مقاصد کو سامنے رکھا جائے تو میڈیا کا کردار بڑا مقدس نظر آتا ہے۔ جس طرح ناولوں اور ڈراموں میں برائی اور اچھائی کی کشمکش میں برائی کو اس انداز میں پیش کیا جاتا تھا کہ پڑھنے والوں کے دل میں ہیرو سے عقیدت اور ہمدردی پیدا ہوجاتی تھی اور ولن شر و فساد کا نمائندہ بن کر سامنے آتا اور اس سے نفرت کے جذبات ابھرتے تھے۔ قارئین فطری طور پر ہیرو کی فتح اور ولن کی ذلت و رسوائی کی تمنا کرتے اور اس کے روپ میں مجسم باطل کو کیفر کردار تک پہنچا ہوا دیکھنا چاہتے تھے، عین اسی طرح میڈیا پر کرپٹ اور گھٹیا ذہنیت و اخلاق کے سیاستدانوں، بگاڑ اور فساد کی قوتوں اور معاشرے میں پھیلے ہوئے دیگر تخریبی عناصر کو بے نقاب کرکے ان کو انجام تک پہنچانے کی مہم خیر اور بھلائی کے غلبے کی مہم چلانے کی ذمہ داری ہے۔ قومی ذمہ داری کے اعتبار سے ملک و قوم کی اساسات سے ہم آہنگ اعتقادات، نظریات و افکار اور تعمیری رجحانات و میلانات کو فروغ دینا میڈیا کا اصل کام سمجھا جاتا ہے۔ جس طرح ایک استاد سے یہ توقع کرنا بعید ازامکان ہے کہ وہ اپنے شاگردوں کو برائی کی تعلیم دے گا اور جرائم کا عادی بنائے گا اسی طرح میڈیا کے بارے میں یہ سوچنا انوکھی بات سمجھی جاتی تھی کہ وہ ان اخلاقی رویوں اور افکار و معتقدات کا پرچار کرے گا جو قومی مقاصد سے متصادم ہوں۔ جو معیارات و اصول اب قصہ ¿ پارینہ ہیں ایک وقت تھا، جب ایک مشن کے سوا میڈیا کا کوئی اور کردار تصور میں ہی نہیں آسکتا تھا۔ ہمارے ماضی قریب کی تاریخ میں سامراج سے آزادی کی جدوجہد کو ا ±س وقت کے پرنٹ میڈیا کا سب سے بڑا جہاد سمجھا جاتا تھا۔ مولانا ظفر علی خان، مولانا محمد علی جوہر، مولانا ابوالکلام آزاد اور ایسی ہی دیگر شخصیات کا قلمی جہاد وہ وقیع کارنامہ تھا جس کے ذریعے انہوں نے تاریخ میں اپنا روشن کردار رقم کرایا اور قوم و ملت کے محبوب و محترم قرار پائے۔ ا ±س زمانے میں روزنامہ صحافت کا کچھ زیادہ چلن نہیں تھا۔ متعدد وقیع دینی اور علمی ماہنامے اپنی ایک پہچان رکھتے تھے۔ اکثر ماہنامے اپنے عالی قدر مدیروں کی رحلت کے بعد بند ہوگئے۔ فکری یکجہتی، اپنے خاص آدرش کے تحت ذہن سازی اور رائے اور فکر کی تشکیل سب کا مشترک مطمح نظر تھا۔ اپنے نظریے اور فکر کی پاسداری میں ا ±س دور کے مدیرانِ کرام نے بڑی قربانیاں دیتے، جیلیں کاٹتے اور بھاری جرمانے بھرتے تھے، مگر اس طرح کی ہر تلخی اور ترشی ان کے نشہ ¿ جدوجہد آزادی اور جنون مقاصد کو اور بڑھا دیتی تھی۔ وہ اپنے نظریی، اصول اور اپنے نصب العین پر کسی سودے بازی کا تصور بھی نہیں کرسکتے تھے۔ وہ نہ بکتے تھے اور نہ جھکتے تھے۔ ان کے نزدیک قلم کی حرمت پر حرص و ہوس کی آنچ آنے دینا ماں بہن کی آبرو بیچنے کے مترادف تھا۔ ان کے الفاظ اتنی بڑی قیمت رکھتے تھے کہ کوئی ان کی قیمت لگانے کی ہمت ہی نہیں کرتا تھا۔ وہ فقر و فاقہ اور مشکلات و مصائب کی حالت میں بھی اپنے اصولوں سے غذا اور روشنی پاتے تھے۔ یہی ان کی قوت کا راز تھا۔ کردار کے کھرے پن کا اپنا ایک وزن اور اثر ہوتا ہے۔ مولانا محمد علی جوہرؒ سے بڑھ کر کون سامراج دشمن ہوسکتا تھا اور کس نے انگریز کو چیلنج کرنے کی اس سے بڑی جسارت کی ہوگی! لیکن یہی چیز ان کی اس عظمت کی دلیل تھی جس کے اعتراف میں انگریز وائسرائے صبح دم اپنے ناشتے کی میز پر سب سے پہلے ”کامریڈ“ دیکھنا پسند کرتا تھا۔ معیارِ زبان و بیان بھی روبہ زوال وقت گزرنے کے ساتھ ہر چیز کی قیمت و قامت گھٹنے لگی۔ صحافت یا مروجہ اصطلاح میں میڈیا کی اصولی آب و تاب بھی ایک گہن کی لپیٹ میں آگئی ہے۔ بیان کی لذت اور شائستگی اور زبان کی مہارت کے لحاظ سے بھی اب وہ معیار خواب و خیال ہوکر رہ گیا ہے جو صحافت کے ان اساطین نے قائم کیا تھا۔ ان میں سے اکثر اپنے وقت کے نامور ادیب اور شاعر تھے۔ بات صرف اردو ہی تک محدود نہیں ہی، مولانا ظفر علی خان اور مولانا محمد علی جوہر اور دوسرے کئی عظیم صحافیوں کو انگریزی زبان پر بھی کامل قدرت حاصل تھی۔ مشہور تھا کہ کئی انگریز مولانا محمد علی جوہر کی انگریزی پڑھ کر اپنی لغوی غلطیاں دور کرتے تھے۔ پھر اپنی تہذیبی جڑوں کے ساتھ ان کا رشتہ بہت گہرا تھا۔ سیرت و کردار کے لحاظ سے بڑے ا ±جلے تھے۔ آج ذرائع ابلاغ سے وابستہ خواتین و حضرات کے کردار میں وہ بلندی، اور مقاصد میں وہ رفعت غائب ہوگئی ہے جو ماضی میں صحافی کی پہچان تھی۔ اب ذہن اور قلم دونوں پر For Sale یعنی برائے فروخت کا لیبل لگا کر صحافی اپنے دفتروں میں بیٹھتے ہیں۔ میڈیا میں اب کالی بھیڑوں نے جگہ بنالی ہے۔ کردار کی بلندی میں آج کے صحافی مذکورہ بالا بزرگوں سے کوئی نسبت نہیں رکھتے۔ ان کی نظریاتی بینائی بہت کمزور ہے۔ اغراض کے بندوں اور ناتراشیدہ ذہنوں کے لشکر اس شعبے میں داخل ہوگئے ہیں۔ یہ ہمیشہ ہری گھاس پر نگاہ رکھتے ہیں۔ جدھر چارہ زیادہ ملتا ہے ا ±دھر چلے جاتے ہیں۔ میڈیا مراکز نے بھی صحافیوں کو خریدنے کی منڈیاں لگا رکھی ہیں۔ ایک خاتون یا حضرت صبح ایک چینل پر خبریں پڑھتے نظر آتے ہیں تو شام کو کسی دوسرے چینل پر جھلک دکھاتے ہیں۔ اینکر اور کالم نویس کبھی ایک چینل یا اخبار کے مالکان کے کلمے پڑھ رہے ہوتے ہیں، اور ذرا بھاو ¿ بڑھ جائے تو اسی زبان اور لہجے میں دوسری انتظامیہ کے قصیدے شروع کردیتے ہیں۔ کبھی ایک جماعت کے حامی ہوتے ہیں تو کبھی دوسری کے دسترخوان کی خوشہ چینی میں لگ جاتے ہیں۔ پی سائی ناتھ انگریزی اخبار Hindu کے دیہی امور کے ایڈیٹر ہیں اور عوامی مسائل اور مشکلات سے بحث کرتے ہیں۔ 30 جون کو نئی دہلی میں MassMedia پر اپنے ایک لیکچر میں انہوں نے ایسی باتیں کی ہیں جو میڈیا سے تعلق رکھنے والی ایک معتبر شخصیت کی طرف سے بڑی تلخ حقیقت کے بارے میں شہادت کا درجہ رکھتی ہیں: 1۔ میڈیا اب کوئی مقدس مشن نہیں، بلکہ یہ اب کارپوریٹ سیکٹر کا حصہ ہے۔ 2۔ میڈیا کا کاروبار کرنے والی کمپنیوں کے معیشت کے مختلف شعبوں میں زبردست مفادات ہیں۔ ان کی اولین ترجیح مفادات کی حفاظت ہے۔ 3۔ میڈیا کمپنیوں یا اداروں کے ایڈیٹر، رپورٹر، کالم نگار اور دیگر قلم کار ان کمپنیوں کے تنخواہ دار کارندے ہیں۔ ان کا اولین کام اپنے مالکان کے مفادات کا تحفظ ہے۔ 4۔ جھوٹ بولنا اور پھیلانا ان صحافیوں کی حالیہ ”صحافتی اخلاقیات“ کے تحت ایک پیشہ ورانہ مجبوری بن گئی ہے۔ پی سائی ناتھ نے اس کے لیے StructuralCompulsion to lie کی اصطلاح استعمال کی۔ 5۔ میڈیا کی کمپنیاں اور ادارے بڑی بڑی تجارتی کمپنیوں کے ساتھ ایک طرح سے مفادات کے ساجھی اور ساتھی ہیں۔ صحافی انہی کے مفاد میں اسٹور یاں گھڑتے اور سنسنی خیز انداز میں ان کو پھیلاتے ہیں تاکہ ٹی وی چینلوں کی ٹی پی آر بڑھے۔ 6۔ نقد رقوم کے عوض ( PaidNews) خبروں اور اسکینڈلز کی اشاعت میڈیا میں پھیلنے والی بہت بڑی لعنت ہے جس میں بڑے بڑے نامور رپورٹر، ٹی وی اینکر، تبصرہ نگار اور کالم نویس ملوث ہیں۔ ان کی تحریروں میں اب نہ معروضیت ہے اور نہ غیر جانبداری۔ وہ وہی لکھتے ہیں جس کا اشارہ ان کے مالکان کی طرف سے ہوتا ہے۔
Thursday, May 12, 2011
دنیا کی بد امنی کی اہم وجہ مزدوروں کے دل کی آہ !
سچ بول دوں
میم ضاد فضلی
09576659393
قسط ۱
آج ساری دنیا بد عنوانی ، رشوت ستانی کے علاوہ جس انتشار اور بد عملی کی وجہ سے جہنم کا نمونہ بن چکی ہے، اس کے مختلف اسباب بیان کئے جاتے ہےں ۔ مگر نہ جانے کیوں ہمارے مبصرین اور ماہرین ماحولیات و سیاسیات بد امنی اور انتشار پر خامہ فرسائی کر تے ہوئے اس دیانت اور ایمانداری کا مظاہرہ نہےں کر تے جس کی وجہ سے اصل مرض کی نشاندہی ہماری نظروں سے او جھل ہو جاتی ہے اور اس کے صحیح علاج کی جانب ہماری توجہ نہیںجاتی ۔یہی وجہ ہے کہ ہمارا قلم الفاظ کے زیرو بم سے کھیلتے ہوئے قارئین کو چٹخارے کا سامان تو فراہم کر تا ہے، ٹھہرے ہوئے پانی پر کنکڑ مارنے کے بعد اٹھنے والی جنبش کی طرح قاری کے قلب میں سگبگاہٹ تو ضرور ہو تی ہے، مگر اس مسئلے کا حقیقی حل جوں کا توں مسئلہ بنا رہتا ہے ۔نہ تو ہماری تحریروں سے صحیح بیماری کی تشخیص ہو تی ہے اور نہ اس کے علاج کی دیانتدارانہ نشاندہی۔ہمیں یہ کہنے میں ذرہ برابر بھی ہچکچاہٹ نہےں ہو نی چاہئے کہ آج معاشرے میں پھیلی ہوئی سراسیمگی ، بے اطمینانی ، انتشار و افتراق اور قتل و غارت کے شب و روز رو نما ہو نے والے واقعات جس بیماری کی وجہ سے جنم لیتے ہےں اس پر قلم اٹھانے سے بلا استثنا ئے زبان وبیان ہمارے میڈیا میں شامل اکثر قلم کارگھبراتے ہیں۔ چوں کہ ان کی پر شکوہ زندگی کے سامان کا انحصاروہ سر مایہ داروں ساہو کاروں ، سیاستدانو ں اور منصب حکومت پر فائز لیڈروں کی چاپلوسی ،چمچہ گیری اور ان کی قدم بوسی کو باور کر چکے ہےں ۔ یہی وجہ ہے کہ ہمارے قلم اور تحریروں سے معاشرے کی بد امنی کی اہم بیماری کی جانب اشارہ یا رہنمائی کی کوئی مہک نہےںاٹھتی، اس کے بر خلاف ہم ہندوستان کی افرا تفری کا ذمہ دار عالمی صورت حال کو قرار دیتے ہوئے آگے بڑھ جاتے ہےں ۔اسی طرح پاکستان والا اپنے ملک میں جاری قتل و خون کی ارزانی کودیگر ممالک کی ایجنسیوں پر تھوپ کر اپنے ملک کے نہتھے اور مظلوم باشندوں کے دلوں میں اٹھنے والی آگ کو سرد کر نے کی ناکام کوشش کر تا ہے بعینہ یہی صورت حال اس وقت ساری دنیاکی ہے۔المیہ یہ کہ اس وقت دنیا کے تمام ممالک کے اندر پائی جانے والی بے قراری ، بے چینی اور اضطراب کی جو اصل وجہ ہے ا س پر پردہ ڈالنے کی مجرمانہ کوشش کی جار ہی ہے اور اس پروپیگنڈہ میں جمہوریت کا چوتھا ستون کہا جانے والا ہمارا میڈیا پیش پیش ہے ۔اس جرم کا ارتکاب کر نے والوں میں انگریزی ، ہندی اور اردو کے ساتھ ان تمام زبانوں کے صحافیوں کا کارواں شامل ہے ۔ جس نے ذخیرہ اندوزی اور مادی منفعت کے بدلے اپنے قلم اور فکر کو گروی رکھ دیا ہے ۔ ہم کہہ سکتے ہےں کہ آج ہمارا قلم سیاسی چکلے کا وہ ایجنٹ بن چکا ہے جس کا کام صرف ارباب حکومت کی ثنا خوانی میں اپنی توانائی صرف کرنارہ گیاہے۔اس کی کوشش ہوتی ہیکہ بھول کر بھی ان تسامحات اور سیاسی منصوبوں پر جس سے غریبوں کا نقصان ہو تا ہو زبان کھولنے یا قلم چلانے کی غلطی نہ کی جائے۔
ایک حقیقت یہ بھی ہے کہ اس کے اصل ذمہ دار صحافتی شعبہ میں اپنا جسم گھلا رہے ملازمین سے زیادہ اس سیکٹر پر قابض مالکان ہےں۔ اگر ان کے یہاں ملازمت کر نے والا کوئی قلم بر گوش صحافی انگلی اٹھانے یا زبان کھولنے کی جرا_؟ت کر تا ہے تو اس پیشے سے جڑے ہمارے مالکان اسے نوکری سے بر خاست کر دیتے ہےں یا ان کی تحریروں کو آگ کے حوالے کردیا جاتاہے ۔یہ وہ تلخ حقیقت ہے جس کا اعتراف اس پیشے سے جڑا کوئی مالک تو پل بھر کے لئے نہےں کرے گا جس نے حکومت کے تلوے چاٹنے کو ہی اپنی کامیابی کی اساس باور کر لیا ہے ۔ اس سچائی کا اعتراف اس سیکٹر میں سر گرم وہ احباب کر سکتے ہےں جن کی حیثیت اخبارات و رسائل میں ایک ملازم کی ہے اور جنہیں سچائیوں سے انحراف اور چشم پوشی ماں کی گالی جیسی لگتی ہے ۔آپ کسی بھی اخبا ر کے ایسے فرد کو جس کی حیثیت قلمکار یا نامہ نویس کی ہو تخلیہ میں لے جائیں اور اس کے کلیجے پر ہاتھ رکھ کر حلفیہ پوچھےں کہ کیا آج تمہیں سچ لکھنے ، بولنے اور اسے ظاہر کر نے کی اجازت ہے ؟ وہ یقینا آپ کو جس درد و کرب سے آشنا کرائے گا اسے سن کر بس یہی کہہ سکتے ہےں کہ اب اس معزز پیشے کی حیثیت اس پیشے ور طوائف کی ہو گئی ہے جسے چند پیسے کے لئے اپنا تن من دھن سب کچھ عیاش گاہک اور خریدار کے حوالے کر نا پڑ تا ہے ۔میں نے مذکورہ تفصیل میں صحافتی ادارے کو سیاست کا ایجنٹ رعایت میں کہا ہے ورنہ عرف عام میں تو اس قسم کا کاروبار چلانے والوں کو بھڑوا کہا جاتا ہے۔ اس کی مثال میں ہم ریاست بہار کے بیشتر اردو اخبار کو بجا طور پر پیش کر سکتے ہےں جنہےں آج روئے زمین پر نتیش کمار کے علاوہ کوئی خدا بھی نظر نہےں آتا ۔جن کا ایمان انہےں لمحہ بھر کے لئے بھی یہ احساس نہےں دلاتا کہ سچائی سے آنکھیں موند کر عوام کو گمراہ کر نا ایسی غداری ہے جس کی سزا دنیا میں بھی مل سکتی ہے اور آخرت بھی تباہ ہو جائے گی ۔
ہاں تو ہم یہ کہنا چاہ رہے تھے کہ آج ہمارے ملک کے علاوہ ساری دنیا میں پھیلی ہوئی اضطراب و بے قراری کی اصل وجہ کیا ہے؟ اس کی اصل وجہ یہ ہے کہ آج عدل او ر انصاف کے وہ تمام اوصاف ہمارا ساتھ چھوڑ چکے ہےں جس کے وجود سے ہر فرد کو اطمینان اور قلبی سکون کا احساس ہو تا ہے ۔ غور کیجئے!کیا کسی مل، فیکٹری ، کارخانہ یا ادارے میں کام کر نے والے مزدوروں کا پسینہ چھوٹے بغیر ان کا قیمتی لہو جلے بنا آپ کا کاروبار چل سکتا ہے ؟ہرگزنہیںمگراجرت دیتے وقت مالکان کو یہ کیوںیادنہیں رہتاکہ وہ اپنے محنت کش مزدورکوجودے رہے ہیںاس سے زیادہ کی بسکٹ مالکان کے کتے کھایاکرتے ہیں۔ یعنی آپ کی عیاشی اور شاہ خرچی کے لئے خون پسینہ ایک کر نے والوں کو کتے کی طرح چند نوالے پھینک کر یہ باور کر لیا جائے کہ آپ نے اس کی پوری پوری مزدوری دیدی ہے اور آپ نے اپنے مزدوروںاورملازموںکے ساتھ انصاف کیاہے،یہ کون سی شرافت اور انسانیت ہے اورکوڑی برابرمزدوردینے کی دنیاکاکون ساقانون وکالت کرتاہے ۔ یہ خود انصاف کے منھ پر طمانچہ ہے ۔ علامہ اقبال نے شاید انہےں حالات کا مشاہدہ کر تے ہوئے اپنے قلم سے چنگاری پھینکنے کی کوشش کی تھی ۔
سمندر سے ملے پیاسے کو شبنم
بخیلی ہے یہ رزاقی نہےں ہے
خصوصاً ہمارے صحافتی اداروں میں مالکان اپنے سگریٹوں میں جتنا دھونک دیتے ہےں ، چائے اور پان میں جو کچھ تھوک دیتے ہےں اس کا سووا حصہ بھی اپنے ان ملازمین اور مزدوروں پر صرف کرنے کی زحمت نہےں کر تے جن کی قربانیوں ،ایثار اور انتھک جاں فشانی سے ان کا کاروبار چلتا ہے ۔
اس سلسلے کی اگلی کڑی ملاحظہ فرمائیں آئندہ ۔
میم ضاد فضلی
09576659393
قسط ۱
آج ساری دنیا بد عنوانی ، رشوت ستانی کے علاوہ جس انتشار اور بد عملی کی وجہ سے جہنم کا نمونہ بن چکی ہے، اس کے مختلف اسباب بیان کئے جاتے ہےں ۔ مگر نہ جانے کیوں ہمارے مبصرین اور ماہرین ماحولیات و سیاسیات بد امنی اور انتشار پر خامہ فرسائی کر تے ہوئے اس دیانت اور ایمانداری کا مظاہرہ نہےں کر تے جس کی وجہ سے اصل مرض کی نشاندہی ہماری نظروں سے او جھل ہو جاتی ہے اور اس کے صحیح علاج کی جانب ہماری توجہ نہیںجاتی ۔یہی وجہ ہے کہ ہمارا قلم الفاظ کے زیرو بم سے کھیلتے ہوئے قارئین کو چٹخارے کا سامان تو فراہم کر تا ہے، ٹھہرے ہوئے پانی پر کنکڑ مارنے کے بعد اٹھنے والی جنبش کی طرح قاری کے قلب میں سگبگاہٹ تو ضرور ہو تی ہے، مگر اس مسئلے کا حقیقی حل جوں کا توں مسئلہ بنا رہتا ہے ۔نہ تو ہماری تحریروں سے صحیح بیماری کی تشخیص ہو تی ہے اور نہ اس کے علاج کی دیانتدارانہ نشاندہی۔ہمیں یہ کہنے میں ذرہ برابر بھی ہچکچاہٹ نہےں ہو نی چاہئے کہ آج معاشرے میں پھیلی ہوئی سراسیمگی ، بے اطمینانی ، انتشار و افتراق اور قتل و غارت کے شب و روز رو نما ہو نے والے واقعات جس بیماری کی وجہ سے جنم لیتے ہےں اس پر قلم اٹھانے سے بلا استثنا ئے زبان وبیان ہمارے میڈیا میں شامل اکثر قلم کارگھبراتے ہیں۔ چوں کہ ان کی پر شکوہ زندگی کے سامان کا انحصاروہ سر مایہ داروں ساہو کاروں ، سیاستدانو ں اور منصب حکومت پر فائز لیڈروں کی چاپلوسی ،چمچہ گیری اور ان کی قدم بوسی کو باور کر چکے ہےں ۔ یہی وجہ ہے کہ ہمارے قلم اور تحریروں سے معاشرے کی بد امنی کی اہم بیماری کی جانب اشارہ یا رہنمائی کی کوئی مہک نہےںاٹھتی، اس کے بر خلاف ہم ہندوستان کی افرا تفری کا ذمہ دار عالمی صورت حال کو قرار دیتے ہوئے آگے بڑھ جاتے ہےں ۔اسی طرح پاکستان والا اپنے ملک میں جاری قتل و خون کی ارزانی کودیگر ممالک کی ایجنسیوں پر تھوپ کر اپنے ملک کے نہتھے اور مظلوم باشندوں کے دلوں میں اٹھنے والی آگ کو سرد کر نے کی ناکام کوشش کر تا ہے بعینہ یہی صورت حال اس وقت ساری دنیاکی ہے۔المیہ یہ کہ اس وقت دنیا کے تمام ممالک کے اندر پائی جانے والی بے قراری ، بے چینی اور اضطراب کی جو اصل وجہ ہے ا س پر پردہ ڈالنے کی مجرمانہ کوشش کی جار ہی ہے اور اس پروپیگنڈہ میں جمہوریت کا چوتھا ستون کہا جانے والا ہمارا میڈیا پیش پیش ہے ۔اس جرم کا ارتکاب کر نے والوں میں انگریزی ، ہندی اور اردو کے ساتھ ان تمام زبانوں کے صحافیوں کا کارواں شامل ہے ۔ جس نے ذخیرہ اندوزی اور مادی منفعت کے بدلے اپنے قلم اور فکر کو گروی رکھ دیا ہے ۔ ہم کہہ سکتے ہےں کہ آج ہمارا قلم سیاسی چکلے کا وہ ایجنٹ بن چکا ہے جس کا کام صرف ارباب حکومت کی ثنا خوانی میں اپنی توانائی صرف کرنارہ گیاہے۔اس کی کوشش ہوتی ہیکہ بھول کر بھی ان تسامحات اور سیاسی منصوبوں پر جس سے غریبوں کا نقصان ہو تا ہو زبان کھولنے یا قلم چلانے کی غلطی نہ کی جائے۔
ایک حقیقت یہ بھی ہے کہ اس کے اصل ذمہ دار صحافتی شعبہ میں اپنا جسم گھلا رہے ملازمین سے زیادہ اس سیکٹر پر قابض مالکان ہےں۔ اگر ان کے یہاں ملازمت کر نے والا کوئی قلم بر گوش صحافی انگلی اٹھانے یا زبان کھولنے کی جرا_؟ت کر تا ہے تو اس پیشے سے جڑے ہمارے مالکان اسے نوکری سے بر خاست کر دیتے ہےں یا ان کی تحریروں کو آگ کے حوالے کردیا جاتاہے ۔یہ وہ تلخ حقیقت ہے جس کا اعتراف اس پیشے سے جڑا کوئی مالک تو پل بھر کے لئے نہےں کرے گا جس نے حکومت کے تلوے چاٹنے کو ہی اپنی کامیابی کی اساس باور کر لیا ہے ۔ اس سچائی کا اعتراف اس سیکٹر میں سر گرم وہ احباب کر سکتے ہےں جن کی حیثیت اخبارات و رسائل میں ایک ملازم کی ہے اور جنہیں سچائیوں سے انحراف اور چشم پوشی ماں کی گالی جیسی لگتی ہے ۔آپ کسی بھی اخبا ر کے ایسے فرد کو جس کی حیثیت قلمکار یا نامہ نویس کی ہو تخلیہ میں لے جائیں اور اس کے کلیجے پر ہاتھ رکھ کر حلفیہ پوچھےں کہ کیا آج تمہیں سچ لکھنے ، بولنے اور اسے ظاہر کر نے کی اجازت ہے ؟ وہ یقینا آپ کو جس درد و کرب سے آشنا کرائے گا اسے سن کر بس یہی کہہ سکتے ہےں کہ اب اس معزز پیشے کی حیثیت اس پیشے ور طوائف کی ہو گئی ہے جسے چند پیسے کے لئے اپنا تن من دھن سب کچھ عیاش گاہک اور خریدار کے حوالے کر نا پڑ تا ہے ۔میں نے مذکورہ تفصیل میں صحافتی ادارے کو سیاست کا ایجنٹ رعایت میں کہا ہے ورنہ عرف عام میں تو اس قسم کا کاروبار چلانے والوں کو بھڑوا کہا جاتا ہے۔ اس کی مثال میں ہم ریاست بہار کے بیشتر اردو اخبار کو بجا طور پر پیش کر سکتے ہےں جنہےں آج روئے زمین پر نتیش کمار کے علاوہ کوئی خدا بھی نظر نہےں آتا ۔جن کا ایمان انہےں لمحہ بھر کے لئے بھی یہ احساس نہےں دلاتا کہ سچائی سے آنکھیں موند کر عوام کو گمراہ کر نا ایسی غداری ہے جس کی سزا دنیا میں بھی مل سکتی ہے اور آخرت بھی تباہ ہو جائے گی ۔
ہاں تو ہم یہ کہنا چاہ رہے تھے کہ آج ہمارے ملک کے علاوہ ساری دنیا میں پھیلی ہوئی اضطراب و بے قراری کی اصل وجہ کیا ہے؟ اس کی اصل وجہ یہ ہے کہ آج عدل او ر انصاف کے وہ تمام اوصاف ہمارا ساتھ چھوڑ چکے ہےں جس کے وجود سے ہر فرد کو اطمینان اور قلبی سکون کا احساس ہو تا ہے ۔ غور کیجئے!کیا کسی مل، فیکٹری ، کارخانہ یا ادارے میں کام کر نے والے مزدوروں کا پسینہ چھوٹے بغیر ان کا قیمتی لہو جلے بنا آپ کا کاروبار چل سکتا ہے ؟ہرگزنہیںمگراجرت دیتے وقت مالکان کو یہ کیوںیادنہیں رہتاکہ وہ اپنے محنت کش مزدورکوجودے رہے ہیںاس سے زیادہ کی بسکٹ مالکان کے کتے کھایاکرتے ہیں۔ یعنی آپ کی عیاشی اور شاہ خرچی کے لئے خون پسینہ ایک کر نے والوں کو کتے کی طرح چند نوالے پھینک کر یہ باور کر لیا جائے کہ آپ نے اس کی پوری پوری مزدوری دیدی ہے اور آپ نے اپنے مزدوروںاورملازموںکے ساتھ انصاف کیاہے،یہ کون سی شرافت اور انسانیت ہے اورکوڑی برابرمزدوردینے کی دنیاکاکون ساقانون وکالت کرتاہے ۔ یہ خود انصاف کے منھ پر طمانچہ ہے ۔ علامہ اقبال نے شاید انہےں حالات کا مشاہدہ کر تے ہوئے اپنے قلم سے چنگاری پھینکنے کی کوشش کی تھی ۔
سمندر سے ملے پیاسے کو شبنم
بخیلی ہے یہ رزاقی نہےں ہے
خصوصاً ہمارے صحافتی اداروں میں مالکان اپنے سگریٹوں میں جتنا دھونک دیتے ہےں ، چائے اور پان میں جو کچھ تھوک دیتے ہےں اس کا سووا حصہ بھی اپنے ان ملازمین اور مزدوروں پر صرف کرنے کی زحمت نہےں کر تے جن کی قربانیوں ،ایثار اور انتھک جاں فشانی سے ان کا کاروبار چلتا ہے ۔
اس سلسلے کی اگلی کڑی ملاحظہ فرمائیں آئندہ ۔
Saturday, May 7, 2011
اسلام کی نظر میں معاشرہ
جس طرح انسان کا بدن مختلف اعضاء سے مل کر بناہے اوران اعضاء کے درمیان فطری رابطہ موجود ہے اسی طرح معاشرہ بھی چھوٹے بڑے خاندانوں سے مل کر بنتاہے ۔جب کسی خاندان کے افراد میں اتحاد اور یگانگت ہوتی ہے تو اس سے ایک مضبوط اور سالم معاشرہ بنتا ہے ۔اس کے بر خلاف اگر ان افرادمیں اختلاف ہو تو معاشرے کا پہیہ پورا نہیں گھومتا اورتشتت و پراگندگی کا شکار ہوجاتا ہے ۔ انسان فطری طور پر زندہ رہنا چاہتا ہے اور اپنی اس خواہش کو پوری کرنے کے لئے ہر قسم کی کوشش کرتا ہے اس مقصد کے حصول کے لئے سب سے آسان طریقہ ایجاد نسل ہے کیونکہ جب تک نسل انسانی رہے گی ، زندگی رہے گی اور ایجاد نسل کے لۓ ایک خانوادے کی تشکیل کی ضرورت ہے۔زندگی کی گاڑی چلانے کیلئے اقتصاد کی ضرورت ہوتی ہےایجاد خانوادے میں بھی مختلف نظریات کارفرماہیں کچھ لوگ تاجرانہ ذہنیت رکھتے ہیں انکا خیال ہے کہ اقتصادیات کوحل کرنے کے لئے خانوادے کی تشکیل کی جاتی ہے اور شادی بیاہ بھی دو خاندانوں کے درمیان ایک قسم کا تجارتی مسئلہ ہے۔مگر یہ طرز فکر اجتماع کی واقعی غرض ــــــــــــــ یعنی شادی بیاہ کا مقصد بقائے نسل ہے ــــــــــــــ سے دور ہے ۔ مولرلیور لکھتا ہے کہ شادی بیاہ کے تین اسباب ہوتے ہيں : (1)اقتصادی ضرورت (2) اولاد کی خواہش (3) عشق ۔ یہ اسباب اگر چہ ہر معاشرے میں موجود ہيں مگر مختلف زمانوں میں ان کے اندرمختلف تغیر ہوا ہے ۔ ابتدائی معاشروں میں اقتصادی علت کی اہمیت زیادہ تھی اور آج کے دور میں عشق کی اہمیت زیادہ ہے ۔ (جامعہ شناسی ساموئیل کینگ) اسلام نے تشکیل خانوادہ ــــــــــــــ جو عفت عمومی کے حفاظت کابہترین ذریعہ ہے ــــــــــــــ کی طرف تشویق دلانے کے ساتھ ساتھ فطری مانگ کابھی مثبت جواب دیا ہے اورشادی بیاہ کوبقائے نوع انسانی اوراولادصالح کی پیدائش کاواحد ذریعہ قراردیا ہے چنانچہ قرآن کہتا ہے خدانے تمہاری ہی جنس سے تمہارے لئے بیویاں بنائيں اور ان سے تمہارے لئے اولاد دراولاد کاسلسلہ قرار دیا۔اور پاک چیزوں کو تمہاری روزی قراردی ۔(نحل 72) اسلام نےجوانوں کوجنسی بے راہ روی سے روکنے کیلئے خاندان کے ذمہ داروں کوابھارا ہے کہ جوانوں کی شادی جلد ازجلد کریں کیونکہ جوجوان شخصی طور پراپنی شادی کرنے پرقادرنہیں ہے کہیں ایسانہ ہو کہ شہوانی جذبے سے مجبور ہوکرخودکو تباہی کے غارمیں گرادے،اس لئے بچوں کی شادی بیاہ کی ذمہ داری والدین کے سر ڈال دی اوروالدین کواس انسانی فریضہ کی ادائیگی کیطرف ضرورت سے زیادہ تشویق دلائی ۔کیونکہ جلد از جلد شادی کردینا بچوں کے اخلاق وایمان کومحفوظ رکھےگا۔ اسلام کاعقیدہ ہے کہ جنسی افراط و تفریط سے بچانے اور خوش بختی کی زندگی بسر کرنے کے لئے شادی بیاہ کرنا اور خاندان کی تشکیل کرنا ضروری ہے ۔ رسول اسلام (ص) نے ایک دن منبر سے اعلان فرمایامسلمانو!تمہاری لڑکیاں درختوں پر پکے ہوئے میوے کیطرح ہیں اگرانکو بروقت توڑانہ گیا (یعنی لڑکیوں کی شادی نہ کی گئی) توآفتاب کی حرارت اورفضائی عوامل اسے تباہ وبرباد کردینگے اسی طرح لڑکیوں کی فطری خواہش کو پورا نہ کیا گیا اور ان کی بروقت شادی نہ کی گئی تو ان کے فاسدہونے کا خطرہ ہے کیونکہ وہ بھی انسان ہيں اورانکی ضرورتوں کوپورا کر نا ہی چاہئے ۔(وسائل باب 22 ) امام محمد باقر (ع) کے صحابی "علی بن اسباط "نے حضرت کوایک خط لکھا اس میں تحریر کیا : مناسب ومعقول لڑکے ہماری لڑکیوں کے لئےنہیں ملتے اب بتائے ہم کیا کر یں ؟ حضرت نے جواب دیا ہر لحاظ سے مناسب جوان کاانتظارمت کرو کیونکہ رسول اکرم(ص)نے فرمایا: اگرایسے جوان تمہاری لڑکیوں کی خواستگاری کریں جو مذہبی واخلاقی لحاظ سے تم کوپسندہوں تواپنی لڑکیوں کی شادی کردواسکے علاوہ صورت میں اپنے لڑکے اورلڑکیوں کی بے راہ روی سے مطمئن نہ ہو ۔(وسائل باب 27) پس اسلام نہ صرف یہ کہ شادی بیاہ میں کوئی اڑچن نہيں پیدا کرتا ،بلکہ اس فطری قوت سے شخصی زندگی اوراجتماع کوفائدہ حاصل کرنے پرآمادہ بھی کرتاہے ۔شادی بیاہ سے جسمانی سکون کے علاوہ روحانی، فکری ، اخلاقی سکون بھی ملتاہے۔ کیونکہ جوشخص وحشت واضطراب کے عالم میں ہووہ واقعی سعادت کودرک نہیں کرسکتا ۔اسلام کی نظرمیں یہ انسانی پیوند ــــــــــــــ شادی ــــــــــــــ دلوں کامقدس عہدو پیمان ہے ۔اس کا مطلب یہ ہے کہ طرفین سکون و آرام کی زندگی بسر کرسکیں۔قرآن میں ارشاد ہے خدا کے وجود کی نشانیوں میں سے ایک نشانی یہ بھی ہے کہ اس نے تمہاری ہی نوع سے تمہارے لۓ بیویاں پیدا کیں تاکہ تم ان سے آرام حاصل کرو اور تمہارے درمیان مہر و محبت قرار دی اور جو لوگ اس محبت و دوستی میں غورو فکر کریں گے ان کے لئے بہت سی نشانیاں اس میں موجود ہيں ۔(سورہ روم 21) افراد خاندان میں استحکام روابط کے لئے اسلام نے کچھ معاشرتی اصول و قوانین بھی بتائے ۔اسلام نے شادی کو" پیمان محکم " کے لفظ سے تعبیر کیا ہے ۔( نساء 25) اور تمام مادی وسائل کو اپنے مقصد سے بالکل الگ رکھاہے ۔ خاندان کے افراد میں اتحادوہم آہنگی برقراررکھنے کے لئے ہرایک کے فرائض عادلانہ طریقے سے بتادئے تا کہ ہر شخص اپنے فنی استعداد کے لحاظ سے اپنے امور زندگی کو پورا کرسکے ۔چنانچہ ارشاد ہے عورت ومردایک دوسرے کے ساتھ برابرحقوق رکھتے ہيں۔(بقرہ 228) تقسیم کار کے سلسلے میں بھی عورت و مرد کی فطرت کا بہت ہی دقیق نظر سے مطالہ کیا ہے ۔مرد پر اقتصادیات کی فراہمی اوران سے متعلق امور لازم کئے گئے اور عورتوں سے بچوں کی تربیت و پرورش اورامور خانہ داری کا انتظام متعلق کیاگيا ۔ اسلام نے عورت کے ذمے اسکے فطری فرائض ہی رکھےاوراس سلسلے میں معمولی سی بھی فروگذاشت نہیں رکھی اوراس بات کالحاظ رکھاہے کہ اسکے فطری رجحانات ضائع و برباد نہ ہوجائيں ۔البتہ کسی شخصی یا اجتماعی امر کی بناپر عورت کو اس بات کی اجازت دی ہے کہ وہ گھر سے باہروالے کام بھی انجام دے سکے لیکن معاشرے میں اس بات کی اجازت ہرگز نہیں ہےدی کہ وہ دوسرے مردوں سے غلط روابط قائم کرسکے ۔ ہرانتظامیہ کاایک سربراہ ہوناضروری ہے گھراورگھرداری بھی ایک قسم کا انتظامیہ ہے جس کا ایک سربراہ ہونا ضروری ہے کیونکہ بغیرسر براہ انتظامیہ ہرج و مرج میں مبتلا ہوسکتا ہے ۔اسی لئے گھریلو انتظامیہ کی سربراہی مرد یا عورت کے ہاتھ میں ہونی چاہئے ۔ آئیے ذرا دیکھیں یہ کام کس کے سپرد ہوناچاہئے ۔اس انتظامیہ کی ذمہ داری بچوں کی تربیت نگرانی۔خانوادے کا سنگین بار اٹھانے کے لۓ عورت سے زیادہ مرد لائق و سزاوار ہے صرف مرد ہی ہے جواتنی بڑی ذمہ داری کو اپنے کاندھوں پر اٹھاسکتا ہے ۔ اپنی جگہ پر یہ بات طے شدہ ہے کہ عورت اپے جذبات کی تابع ہوتی ہے اور اس کی خلقت ہی کچھ اسطرح کی گئی ہے کہ فطری طورپروہ مردہ سے زیادہ زود حس ہے، بر خلاف مرد کے کہ وہ فطری طور پرعقل کا تابع ہوتا ہے۔اس بناپر عاطفہ کے مقابلے میں فکرکی زیادہ اہمیت ہوئی اسی لئے اسلام نے خانوادے کی ریاست مرد کے ہاتھوں میں رکھی۔(فرانس کے جدید قانون مادہ صفحہ 213میں تصریح کی گئی ہے کہ خانوادے کی سرپرستی مرد سے متعلق ہے ۔ ) لیکن اس کا مطلب یہ نہیں ہے کہ عورت سے کسی قسم کا مشورہ نہ لیا جائے اورمرد حسب خواہش ایک مطلق العنان ڈکٹیٹر بن جائے ۔ اسلا م نے مرد کو سرپرست بنانے کے ساتھ اس کو عورتوں پرہر قسم کی زیادتی و ظلم سے روک دیا ہے ۔ قرآن اعلان کرتا ہے ظلم و تعدی سے الگ ہوکر شائستہ اور معقول طریقے سے عورتوں کے ساتھ زندگی بسر کرو ۔ (نساء 19) گھریلو امور کی ذمہ داری مرد کے سپرد ہونے باوجود گھرکے داخلی معاملات میں عورت مستقل ہے اوروسائل زندگی کی ذمہ داری اس پر ہے۔رسول اکرم(ص) نے فرمایا : خانوادے کا نگہبان مرد ہے مگرعورت بھی گھر، شوہر ، بچوں کے بارے میں مسئول ہے ۔(مجموعہ ورام صفحہ 6) ہمارے یہاں آج کل جو شادی بیاہ کی قدروقیمت گھٹ گئی ہے کہ معمولی معمولی باتوں پرعلیحدگی ہوجاتی ہے اس کی وجہ یہ ہے کہ آج کل شادی بیاہ میں واقعیات زندگی کا خیال نہیں رکھا جاتا اس قسم کی شادیاں عموما رومانی اوربچکانہ و کچے تصورات کی بناء پرکی جاتی ہیں ۔ بہت سے لوگ ہم آہنگی اتحاد نظریات کے بغیر محض دولت و شہرت اورظاہری نمائش پرشادی کرلیتے ہیں اس کے نتیجے میں یہ شادیاں ناکامیاب ہوتی ہیں ان کا مستقبل تاریک ہوتا ہے کیونکہ عورت و مرد کے اختلاف نظریات روزبروزوسیع سے وسیع ترہوتے جاتے ہیں اورآخری نتیجہ علیحدگی کی صورت میں ظاہرہوتاہے ۔جب تک لوگ اصولی اور صاحب فکرونظر نہ ہوں گے زندگی کے واقعی مسائل کاصحیح مطالعہ نہيں کریں گے اس قسم کےحالات روز بروز بڑھتےجائيں گےاسیوجہ سےاسلام نےایسے طرزفکرــــــــــــــجوبد بختی اور کشمکش کے علاوہ کچھ بھی نہیں دیتا ــــــــــــــ کو رد کردیاہے ۔ اسلام کی نظر میں تشکیل خانوادے کے لئے دولت ، شہرت ،مادی ، امور کی کوئی قیمت نہيں ہے بلکہ شادی کا دارومدار ایمان و فضیلت عفت و پاک دامنی پر ہے مرد وعورت کے تقوی و پرہیز گاری کیطرف خصوصی دیتاہے پیغمبر اسلام (ص) فرماتےہيں : جو شخص کسی عورت سے خوبصورتی کی بناء پر شادی کرے گا اپنی محبوب چیز اس میں نہيں پائے گا اور جو کسی عورت سے محض دولت کی خاطر شادی کرے گا خدا اس کو اسی کے حوالے کردے گا ۔ اس لئے تم لوگ باایمان و پاک دامن عورت سے شادی کرو ۔(وسائل جلد3 صفحہ 6) اسلام نے تشکیل معاشرے کی طرف بہت تشویق وترغیب دلائی ہے ۔حدیہ ہے کہ شادی سے زیادہ پسندیدہ کسی چیز کو نہيں قراردیا ۔(من لا یحضرہ الفقیہ 409) جولوگ نامعقول اسباب کی بناء پر شادی نہيں کرتے ان کی مذمت کی ہے اور ہر اس بہانے کوجوجنسی روکو غلط راستے پر ڈال دے سختی سے روکتا ہے فرماتے ہيں : نکاح میری سنت ہے جو میری سنت سے اعراض کرے گا وہ مجھ سے نہیں ہے ۔ (سفینۃ البحارجلد1صفحہ561)اسی طرح ایسے لوگوں سے اسلام شادی کو روکتا ہے جن کے اندر نفسانی کمالات اورروحانی فضائل نہ پائے جائيں اورجو خاندان نجیب نہ ہو، یا اخلاقی و مذبہی تربیت سے بےبہرہ ہواس سے بھی شادی کو روکتا ہے گھورے کی سرسبزی سے بچو! لوگوں نے پوچھا اس سے کیامرادہے ؟فرمایاایسی خوبصورت عورت جس کا خاندانی ماحول خراب ہو ۔(وسائل کتاب نکاح باب 7) ظاہر ہے کہ جو بیویاں اخلاقی ومذہبی اصول وقوانین کی پابندی نہيں ہیں وہ خاندان کوخوش بخت وسعادت مند نہيں بناسکتیں،اورایسی شادیوں کانتیجہ بدکار، شہوت پرست اولاد کی صورت میں ظاہر ہوتا ہے ۔اسی لئے اسلام دونوں کی نیک بختی کی طرف عقلی واخلاقی لحاظ سے خاص نظررکھتا ہے اوربری وفاسد نسلوں سے شادی کو منع کرتا ہے ۔ اگر نوجوان بیوی کومنتخب کرتے وقت ظاہری ٹھاٹھ باٹھ کونہ دیکھتے ہوئے اسلامی اصول کی پابندی کریں اورخواہشات نفس کے بجائے عقل سے کام لیں تو بدبختی سےبچ سکتے ہيں ۔ ہمارے آج کل کے نوجوان بیوی کے انتخاب کے لئے صحیح راستہ یہ سمجھتے ہیں کہ کچھ دنوں تک عورت کےساتھ باقاعدہ نشست برخاست رکھی جائے ۔ساتھ رہا جائے تاکہ اس کے اخلاق وعادات سے جانکاری کے بعداقدام کیا جائے تاکہ پوری زندگی خوشگوار طور سے گزرے حالانکہ یہ طریقہ اپنے مفاسد ونقصانات کےساتھ بیوی کے صفات وخصائص پرپوری طرح سبب اطلاع نہيں ہے کیونکہ اس کے لئے بہت طولانی معاشرت کی ضرورت ہے ۔ کیونکہ " خبث نفس نگردد بسالہا معلوم" تھوڑے دنوں کی آمدورفت نشست و برخاست سے کافی معلومات نہیں حاصل ہوسکتے ۔ بلکہ جوں جوں زندگی میں واقعات و حادثات رونما ہوتے رہیں گے اسی طرح انسان کی شخصیت آشکاراہوگی درحقیقت کسی کے صبروشکیبائی، متانت، بردباری،قناعت، درگزر، فداکاری وغیرہ کا اندازہ اس وقت ہوتا ہے جب کوئی جاں گداز واقعہ پیش آجائے ورنہ خوشی و آسائش و تفریح کے وقت ان اخلاقی صفات کا اندازہ نہيں لگایا جاسکتا ۔ کیا تفریح گاہ یا سینمامیں ملاقات سے طرفین کی حقیقت معلوم ہوسکتی ہے ؟ جبکہ ابتدامیں دونوں طرف کی کوشش یہ ہوتی ہے کہ اپنی کمیوں کا اظہار نہ ہونے پائے ، بلکہ تصنع کرکے اپنے کونیک خصلت ، پسندیدہ صفت ظاہر کرنےکی کوشش کرتے ہيں ایسی صورت میں صحیح حالات کاعلم کیونکر ہوسکتا ہے ؟ بھلا سوچئے تو جو نوجوان عمر کے شدید جذباتی دور میں ہیں وہ محض چند دنوں ساتھ رہ کر کس طرح سے پتہ لگاسکتے ہیں کہ روحانی اوراخلاقی لحاظ سے دونوں میں کوئی اختلاف نہيں ہے ؟اس شہوانی دوراورخواب دیکھنے کی عمرنوجوان جنسیات کے علاوہ کچھ سوچتا ہی نہيں۔! کیاوہ نوجوان مختصر سی مدت ساتھ رہنے کے بعد اپنی بیوی کاانتخاب کریں گےاور اس سے شادی کریں گے ، وہ آخری عمرتک لڑائی جھگڑے کشمکش سے بچے رہیں گے؟ ان کےاوران کی بیوی میں کسی قسم کااختلاف نہیں ہوگا ؟ اور یہ دونوں قابل غبطہ زندگی بسر کرسکیں گے ؟ ہرگز نہيں ۔ ! تجربات اس کے برخلاف موجود ہيں ! کیونکہ اس قسم کی شادی میں شروع شروع تومیاں بیوی بہت خوش خوش رہتے ہیں لیکن رفتہ فتہ ایک دوسرے کی کمی کی گرفت کرنےلگتے ہیں اور پھرنتیجہ طلاق کی صورت میں ظاہرہوتاہے ــــــــــــــ ہر جوان کویہ بات یادرکھنی چاہئے کہ دو آدمیوں میں روحی تطابق ہرجہت سے اس طرح مشکل کیابلکہ محال ہے جس طرح کہ ظاہری قیافہ میں اتحاد اورشکل و صورت میں مطابقت مشکل ہے۔اس کے علاوہ عورتوں کااندازہ فکر اوران کے احساسات کچھ اس قسم کے ہوتے ہیں کہ خواہ مخواہ ان کومرد سے الگ صورت میں مشخص کرتے ہیں ۔ اسلام شادی بیاہ میں جس اہمیت کاقائل ہےاسی کے پیش نظراس نے ہرفردکواجازت دی ہے کہ نکاح سے پہلے اپنی ہونے والی بیوی کودیکھ لےاوراس کےاخلاقیات ودیگر خصوصیات کا علم جانکارافراد کے ذریعے بہت آسانی سے حاصل کرسکتا ہے ۔ خاندان کی نیک بختی سب سےپہلے مردوعورت کے روابط ویگانگت پرموقوف ہوا کرتی ہےاس گھر کے دواصلی افرادمیں روحانی روابط جتنے زیادہ استوارہوں گے اسی قدراس گھر کی خوش قسمتی بھی ہوگی۔جب مردعورت میں ایک دوسرے پرفدا کاری کا جذبہ جتنا زیادہ موجودہوگا تو ماحول اتنا ہی اچھاہوگااور یہی جذبہ فدا کاری خاندان کوتباہ وبرباد ہونے سے بچالیتی ہے ۔ معاشرتی حقوق و قوانین کے علاوہ بھی اسلام نے گھریلو زندگی میں بھی ایسے مبنی برانصاف قانون بنائے ہیں جس سے ہر ایک کے فریضے الگ الگ ہوجاتے ہيں
Sunday, May 1, 2011
قومی یہکجحتی میں صحافیوں کا کردار
کالم، کالم --- سید انجم شاہ
شعبہ صحافت قومی زندگی کا ایسا آئنیہ دار ہے جس میں ملک کےخدوخال اپنی تمام تر رنگینیوں ،دلچسپی اورکامیوں کے ساتھ روشن نظر آتے ہیں صحافی اسی معاشرے کا ایک حصہ ہے وہ ہر اچھی یا بری بات سے اسی طرح متاثر ہوتے ہیں جس طرح کے باقی افراد متاثر ہوتے ہیں فرق صرف یہ ہے کہ عام آدمی متاثر ہوتا ہے اور صحافی اپنے تاثرات کو ایک تصویر کیصورت پیش کرتا ہے دراصل صحافی باقی افراد کی نسبت زیادہ حساس ہوتا ہےاس لئے اسکے اظہار میں اسکا تاثرنکھر کر سامنے آتا ہے معاشرے میں جو کچھ شب وروز ہوتا ہے صحافی وہ نہ صرف دیکھتا ہے بلکہ اس سے نتائج بھی اخذ کرتا ہے اور اسکے اسباب پر بھی غور کرتا ہے یہی غود وفکر اسک رپورٹنگ یا اسکے کالم کی جان ہوتا ہے ورنہ مخص یہ بتا دینا کہ کیا واقعہ ظہور پذیر ہوا خبر نگاری تو ہو سکتی ہے صحافت نہیں
میرے نزدیک صحافت اس چیز کا نام ہے کہ معاشرے کے ایک ذمہ دارکی حثیت سے صحافی صرف خبر ہی نہ پہنچائے بلکہ اپنی ذہانت اور تربیت سے کام لے کر یہ فرض بھی ادا کرے کہ بحثیت قوم افراد ملت کو کیا طرز عمل اختیار کرنا چاہیئے صحافی غیر محسوس طریقے پر بڑی خو بی کے ساتھ قوم کی فکر ،سوچ اور عمل کی راہ کا تعین کر سکتا ہے اگر وہ صحافی قومنی صحافت کے قومی تقاضوں کو پورا نہیں کرتا تو وہ ہر گز قومی صحافی کہلوانے کا مستحق نہیں ہے
یہ تو ہو سکتا ہے کہ کسیصحافی کی دلچسپی کسی مخصوصگروہ،مخصوص جماعت یا مخصوص نکتہ نظر کے ساتھ ہو لیکن سچا ط وہ ہے ذاتی دلچسپی اور گروہ دلچسپیوں پر قومی اور ملکی مداف کو فوقیت دے اور ذاتی مفادات کو ملی ملی مفادات پر قربان کرنے میں ذرا بھی ہچکچاہٹ محسوس نہ کرے یہی وہ خصوصیت ہے جس سے قومی صحافت وجود میں آتی ہے ورنہ مخص گروہی خبر نامے وجود میں آتے ہیں یا اخبار نہیں
صحافت کا اولین فرض ہے کہ وہ ملی یکجہتی کو کسی طور پر نقصان نہ پہچنے دے ایک روشن ضمیر صحافی کا مقصد حیات ،اتحاد ملک و ملت ہوتا ہے وہ کوشش کرتا ہے کہ اپنے مضامین اداریوں اور کالم کے ذریعے افراد اور قوم میں ملکی مفاد پر ایک مرکز پر جمع کونے کی صلاحیت پیدا کرے
وہ صحافی جنکے اخبارات چھوٹی سے آبادی سے لے کر مرکزی شہروں تک یکساں دلچسپی کے ساتھ پڑے جاتے ہیں ان پر ذمہ داری عائد ہوتی ہے کہ وہ علاقائیت کی فضا رکھتے ہوئے اپنے فرائض سر انجام دیتے ہیں وہ علاقائیت اخبارات کہلاتے ہیں لیکن میں سمجھتا ہوں کہ پورے ملک میں پڑھے جانے والے اخبارات کی نسبت علاقائی اخبارات اپنے علاقے کی عوام کے قلب و ذہن پر زیادہ مضبوط گرفت رکھتے ہیں اس لئے وہ چھوٹے علاقے کے تمام مسائل سے پوری طرح واقفیت رکھتے ہیں وہ یہ جانتے ہیں کہ کسی معاملے میں عوامی سوچ کیا رخ اختیار کر سکتی ہے اور کون سی بات انہیں کس انداز میں متاثر کر سکتی ہے گویا وہ اپنے حلقی اثر کی نفسیات سے پوری طرح آگاہن ہوتے ہیں اسلئے ان کے اوپر یہ نازک ذمہ داری عائد ہوتی ہے کہ وہ اپنے علاقے کی حد تک اپنے اداریوں ،خبروں اور کالمز کےذریعے اپنے حلقہ اثر کو ایسی ذہنی تربیر دیں کہ انکی سوچ قومی رخ اختیار کرے اور وہ اس بات پر آمادہ ہوں کہ اگر قومی اور ملکی مفاد کےلئے اپنا سب کچھ نقصان بھی کرنا پڑے تو ایک جذبے اور خوش دلی کے ساتھ یہ کام کر گزریں یہ تربیت علاقائی صحافت بڑی سہولت کے ساتھ فراہم کر سکتی ہے اور اس طرح پورے ملک میں ملی یکجہتی کے چراغ روشن ہو سکتے ہیں اختلافی مسائل پر اختلافات کو مزید ہوا دینا ہو تو ایک شخص ہوا دینے کا کام کر سکتا ہے لیکن قابل تعظیم وہی صحافی ہے جو اس مرحلہ میں لوگوں کو نفرت تعصب اور برائی کی دلدل سے نکال کر ایسی شاہراہ پر لانے کا کارنامہ سرانجام دے جو قومی یکجہتی کی روشن راہ ہے وہی صحافی کہلانے کی مستحق ہیں جو کسی خبر میں مخص سنسنی پیھلا کر اخبار بیچنے کی بجائے ایسا انداز اختیار کریں کہ دیانت دار اور صداقت کے ساتھ خبر بھی لوگوں تک پہنچے اور انکی فکر کا رخ بھی مثبت ہو ایسا صحافی خواہ قومی صحافی ہو یا علاقائی صحافی کی انجمنیں ایسے لوگوں کا احتساب کریں جو درحقیقت صحافینہیں ہیں
مخص خیز خبریں گھڑ کے پیسے کمانے کےلئے صحافت کا لبادہ اوڑھ لیتے ہیں اور شریف شہریوں کی پگڑیاں اچھالنا شروع کر دیتے ہیں اور ان صحافیوں کو خبر بھی لکھنا نہیں آتی کسی دوست وکیل وغیرہ کا سہارہ لیتے ہیں ایسے لوگوں سے صحافت کو پاک کیا جانا ہے ورنہ ہم جانتے ہیں کہ اچھائی کی تبلیغ دیر میں رنگ لاتی ہے لیکن برائی اور سنسنی خیزی فوری اثر کرتی ہے اور اسقسم کی زرد صحافت وہ گل کھلاتی ہے جو قوم کےلئے باعث شرم ہوتا ہے
علاقائی صحافی کا کام بہت نازک ہوتا ہے اس لئے کہ اسے حقائق کا اظہار بھی کرنا ہوتا ہے اور برائی کو برائی اور اچھائی کو اچھا کہنا ہوتا ہے اس کا ایک محدود حلقہ ہوتا ہے جہاں تمام لوگوں سے اس کے ذاتی رابطے اور تعلقات ہوتے ہیں انتظامیہ سے برارست اسکا رابطہ ہوتا ہے اسلئے خامیوں اور کوتاہیوں اور برائیوں کی نشاندہی اسکےلئے بہت مشکل کام ہوتا ہے اسکی حق گوئی و بے باکی کو خریدنے کی بھی کوشش کی جاتی ہے اسکی تذلیل کا بندوبست بھی کیا جاتا ہے اور خوفزدہ کرنے کی بھی کوشش کی جاتی ہےت لیکن ان سب طوفانوں سے علاقائی صحافی جرات ہمت کے ساتھ نبرد آزما ہوتا ہے اسلئے اسے محفلوں اجلاسوں اور سرکاری تقریبات میں یا تو باوقار مقام نہیں دیا جاتا یا پھر اس سے تیسرے درجے کے شہری کا سلوک کیا جاتا ہے بعض اوقات اسکی حق گوئی و بے باکی کی سزا کا بھی بندوبست کیا جاتا ہے اسکے خلاف جھوٹے مقدمات قائم کئے جاتے ہیں خریدے ہوئے گواہ پیش کئے جاتے ہیں بعض اوقات صحافی اپنی جان سے بھی ہاتھ دھو بیٹھتے ہیں ایسے ہی کسی صحافی کے بارے میں قتیل شفائی لکھتے ہیں
ہو نہ ہو یہ کوئی سچھ بولنے والا ہے قتیل
جس کے ہاتھ میں قلم اور پائوں میں زنجیریں ہیں
حالانکہ سرکاری سطح پر ایسے حق گو اور بے باک صحافی کو باوقار مقام بھی ملنا چاہئے اور اس کا ہر طرح کا تحفظ بھی کیا جانا چاہیئے جو اپنے تمام فائدوں کو چھوڑ کر معاشرے سے رشوت ،کرپشن ،بے ایمانی،۔جعل سازی فریب ،مکاری ،چور بازی ،ذخیرہ اندوزی ،اقربا پروری اور اس قسم کی بے شمار برائیوں کے خلاف بند قائم کرنے میںمصروف رہتا ہے
شعبہ صحافت قومی زندگی کا ایسا آئنیہ دار ہے جس میں ملک کےخدوخال اپنی تمام تر رنگینیوں ،دلچسپی اورکامیوں کے ساتھ روشن نظر آتے ہیں صحافی اسی معاشرے کا ایک حصہ ہے وہ ہر اچھی یا بری بات سے اسی طرح متاثر ہوتے ہیں جس طرح کے باقی افراد متاثر ہوتے ہیں فرق صرف یہ ہے کہ عام آدمی متاثر ہوتا ہے اور صحافی اپنے تاثرات کو ایک تصویر کیصورت پیش کرتا ہے دراصل صحافی باقی افراد کی نسبت زیادہ حساس ہوتا ہےاس لئے اسکے اظہار میں اسکا تاثرنکھر کر سامنے آتا ہے معاشرے میں جو کچھ شب وروز ہوتا ہے صحافی وہ نہ صرف دیکھتا ہے بلکہ اس سے نتائج بھی اخذ کرتا ہے اور اسکے اسباب پر بھی غور کرتا ہے یہی غود وفکر اسک رپورٹنگ یا اسکے کالم کی جان ہوتا ہے ورنہ مخص یہ بتا دینا کہ کیا واقعہ ظہور پذیر ہوا خبر نگاری تو ہو سکتی ہے صحافت نہیں
میرے نزدیک صحافت اس چیز کا نام ہے کہ معاشرے کے ایک ذمہ دارکی حثیت سے صحافی صرف خبر ہی نہ پہنچائے بلکہ اپنی ذہانت اور تربیت سے کام لے کر یہ فرض بھی ادا کرے کہ بحثیت قوم افراد ملت کو کیا طرز عمل اختیار کرنا چاہیئے صحافی غیر محسوس طریقے پر بڑی خو بی کے ساتھ قوم کی فکر ،سوچ اور عمل کی راہ کا تعین کر سکتا ہے اگر وہ صحافی قومنی صحافت کے قومی تقاضوں کو پورا نہیں کرتا تو وہ ہر گز قومی صحافی کہلوانے کا مستحق نہیں ہے
یہ تو ہو سکتا ہے کہ کسیصحافی کی دلچسپی کسی مخصوصگروہ،مخصوص جماعت یا مخصوص نکتہ نظر کے ساتھ ہو لیکن سچا ط وہ ہے ذاتی دلچسپی اور گروہ دلچسپیوں پر قومی اور ملکی مداف کو فوقیت دے اور ذاتی مفادات کو ملی ملی مفادات پر قربان کرنے میں ذرا بھی ہچکچاہٹ محسوس نہ کرے یہی وہ خصوصیت ہے جس سے قومی صحافت وجود میں آتی ہے ورنہ مخص گروہی خبر نامے وجود میں آتے ہیں یا اخبار نہیں
صحافت کا اولین فرض ہے کہ وہ ملی یکجہتی کو کسی طور پر نقصان نہ پہچنے دے ایک روشن ضمیر صحافی کا مقصد حیات ،اتحاد ملک و ملت ہوتا ہے وہ کوشش کرتا ہے کہ اپنے مضامین اداریوں اور کالم کے ذریعے افراد اور قوم میں ملکی مفاد پر ایک مرکز پر جمع کونے کی صلاحیت پیدا کرے
وہ صحافی جنکے اخبارات چھوٹی سے آبادی سے لے کر مرکزی شہروں تک یکساں دلچسپی کے ساتھ پڑے جاتے ہیں ان پر ذمہ داری عائد ہوتی ہے کہ وہ علاقائیت کی فضا رکھتے ہوئے اپنے فرائض سر انجام دیتے ہیں وہ علاقائیت اخبارات کہلاتے ہیں لیکن میں سمجھتا ہوں کہ پورے ملک میں پڑھے جانے والے اخبارات کی نسبت علاقائی اخبارات اپنے علاقے کی عوام کے قلب و ذہن پر زیادہ مضبوط گرفت رکھتے ہیں اس لئے وہ چھوٹے علاقے کے تمام مسائل سے پوری طرح واقفیت رکھتے ہیں وہ یہ جانتے ہیں کہ کسی معاملے میں عوامی سوچ کیا رخ اختیار کر سکتی ہے اور کون سی بات انہیں کس انداز میں متاثر کر سکتی ہے گویا وہ اپنے حلقی اثر کی نفسیات سے پوری طرح آگاہن ہوتے ہیں اسلئے ان کے اوپر یہ نازک ذمہ داری عائد ہوتی ہے کہ وہ اپنے علاقے کی حد تک اپنے اداریوں ،خبروں اور کالمز کےذریعے اپنے حلقہ اثر کو ایسی ذہنی تربیر دیں کہ انکی سوچ قومی رخ اختیار کرے اور وہ اس بات پر آمادہ ہوں کہ اگر قومی اور ملکی مفاد کےلئے اپنا سب کچھ نقصان بھی کرنا پڑے تو ایک جذبے اور خوش دلی کے ساتھ یہ کام کر گزریں یہ تربیت علاقائی صحافت بڑی سہولت کے ساتھ فراہم کر سکتی ہے اور اس طرح پورے ملک میں ملی یکجہتی کے چراغ روشن ہو سکتے ہیں اختلافی مسائل پر اختلافات کو مزید ہوا دینا ہو تو ایک شخص ہوا دینے کا کام کر سکتا ہے لیکن قابل تعظیم وہی صحافی ہے جو اس مرحلہ میں لوگوں کو نفرت تعصب اور برائی کی دلدل سے نکال کر ایسی شاہراہ پر لانے کا کارنامہ سرانجام دے جو قومی یکجہتی کی روشن راہ ہے وہی صحافی کہلانے کی مستحق ہیں جو کسی خبر میں مخص سنسنی پیھلا کر اخبار بیچنے کی بجائے ایسا انداز اختیار کریں کہ دیانت دار اور صداقت کے ساتھ خبر بھی لوگوں تک پہنچے اور انکی فکر کا رخ بھی مثبت ہو ایسا صحافی خواہ قومی صحافی ہو یا علاقائی صحافی کی انجمنیں ایسے لوگوں کا احتساب کریں جو درحقیقت صحافینہیں ہیں
مخص خیز خبریں گھڑ کے پیسے کمانے کےلئے صحافت کا لبادہ اوڑھ لیتے ہیں اور شریف شہریوں کی پگڑیاں اچھالنا شروع کر دیتے ہیں اور ان صحافیوں کو خبر بھی لکھنا نہیں آتی کسی دوست وکیل وغیرہ کا سہارہ لیتے ہیں ایسے لوگوں سے صحافت کو پاک کیا جانا ہے ورنہ ہم جانتے ہیں کہ اچھائی کی تبلیغ دیر میں رنگ لاتی ہے لیکن برائی اور سنسنی خیزی فوری اثر کرتی ہے اور اسقسم کی زرد صحافت وہ گل کھلاتی ہے جو قوم کےلئے باعث شرم ہوتا ہے
علاقائی صحافی کا کام بہت نازک ہوتا ہے اس لئے کہ اسے حقائق کا اظہار بھی کرنا ہوتا ہے اور برائی کو برائی اور اچھائی کو اچھا کہنا ہوتا ہے اس کا ایک محدود حلقہ ہوتا ہے جہاں تمام لوگوں سے اس کے ذاتی رابطے اور تعلقات ہوتے ہیں انتظامیہ سے برارست اسکا رابطہ ہوتا ہے اسلئے خامیوں اور کوتاہیوں اور برائیوں کی نشاندہی اسکےلئے بہت مشکل کام ہوتا ہے اسکی حق گوئی و بے باکی کو خریدنے کی بھی کوشش کی جاتی ہے اسکی تذلیل کا بندوبست بھی کیا جاتا ہے اور خوفزدہ کرنے کی بھی کوشش کی جاتی ہےت لیکن ان سب طوفانوں سے علاقائی صحافی جرات ہمت کے ساتھ نبرد آزما ہوتا ہے اسلئے اسے محفلوں اجلاسوں اور سرکاری تقریبات میں یا تو باوقار مقام نہیں دیا جاتا یا پھر اس سے تیسرے درجے کے شہری کا سلوک کیا جاتا ہے بعض اوقات اسکی حق گوئی و بے باکی کی سزا کا بھی بندوبست کیا جاتا ہے اسکے خلاف جھوٹے مقدمات قائم کئے جاتے ہیں خریدے ہوئے گواہ پیش کئے جاتے ہیں بعض اوقات صحافی اپنی جان سے بھی ہاتھ دھو بیٹھتے ہیں ایسے ہی کسی صحافی کے بارے میں قتیل شفائی لکھتے ہیں
ہو نہ ہو یہ کوئی سچھ بولنے والا ہے قتیل
جس کے ہاتھ میں قلم اور پائوں میں زنجیریں ہیں
حالانکہ سرکاری سطح پر ایسے حق گو اور بے باک صحافی کو باوقار مقام بھی ملنا چاہئے اور اس کا ہر طرح کا تحفظ بھی کیا جانا چاہیئے جو اپنے تمام فائدوں کو چھوڑ کر معاشرے سے رشوت ،کرپشن ،بے ایمانی،۔جعل سازی فریب ،مکاری ،چور بازی ،ذخیرہ اندوزی ،اقربا پروری اور اس قسم کی بے شمار برائیوں کے خلاف بند قائم کرنے میںمصروف رہتا ہے
صحافت اور فکری رہنمائی
اللہ تعالیٰ نے انسان کو حیوانی قالب میں تو پیدا کیا ہے، مگر ساتھ ہی اسے عقل و فہم اور فکر و شعور کی وہ صلاحیتیں بھی عطا فرمائی ہیں جو اسے تمام حیوانات سے ممتاز کرتی ہیں۔عقل و شعور کی یہ صلاحیت ہی انسان کا وہ اصلی شرف ہے جو اسے ایک کمزور جسم کے باوجود کرہ ارض کا حاکم بنادیتی ہے۔یہی شرف ہے جس کی مدد سے انسان نے پتھروں سے تمدن کو پیدا کیا ، بحر و بر کو مسخر کیا،بیماریوں کو شکست دی اور ہر دور میں پیدا ہونے والے اپنے مسائل کو حل کیا۔یہی عقل و فہم ہے جس کی بنیاد پر ہم ماضی سے سبق سیکھتے ہیں، حال کا تجزیہ کرتے ہیں اور مستقبل کا منصوبہ بناتے ہیں۔یہی فکری رہنمائی ہماری زندگی کی کامیابی کی ضامن ہے۔
ایک فرد کی طرح معاشرہ بھی اپنے مسائل کے حل کے لیے درست فکری رہنمائی کا طالب ہوتاہے۔ جو لوگ یہ فکری رہنمائی کریں وہ فلسفی، مفکر ، حکیم اور دانشور کہلاتے ہیں اور اجتماعی طور پر انہیں فکری قیادت (Intellectual Leadership) کہا جاتا ہے۔مثال کے طور پر علامہ اقبال برصغیر کے مسلمانوں کے لیے ایک عظیم فکری قائد تھے۔ انہی کی رہنمائی کو اپناکر مسلمانوں نے پاکستان کے قیام کی تحریک چلائی اور ہندوستان سے جدا ہوکر اپنی الگ مملکت قائم کی۔
ایک فکری قائد وہ ہوتا ہے جو دیکھتا تو وہی ہے جو سب دیکھتے ہیں ، مگر بتاتا وہ ہے جو دوسرے نہیں بتاپاتے ہے۔وہ ایسا اپنے وسیع علم،گہرے مطالعے ،کشادہ ذہن، تیز نظر اور بے لاگ تجزیہ کرنے کی خداداد صلاحیت کی بنا پر کرپاتا ہے۔بدقسمتی سے ہمارے ملک پاکستان میں جہاں اور کئی شعبوں میں زوال آیا وہیں فکری رہنمائی کرنے والی قیادت اور اس کی رہنمائی کی سطح بھی ، وقت گزرنے کے ساتھ ساتھ،گرتی چلی جارہی ہے۔اس کے بہت سے اسباب ہیں۔مثلاً علمی جمو د، تعصب اور اختلاف رائے کو برداشت نہ کرنے کی روایت وغیرہ۔تاہم اس صورتحال کا ایک بہت اہم سبب یہ ہے کہ اب قوم کی فکری رہنمائی زیادہ تر وہ لوگ کررہے ہیں جو اصل میں صحافی ہیں۔صحافی بنیادی طور پر رپورٹر ہوتا ہے جس کی اصل دلچسپی حالات حاضرہ اور خبر میں ہوتی ہے۔ چنانچہ وہ ہمیشہ حال میں جیتا اور فوری واقعات کا نوٹس لیتا ہے۔ اس کے تجزیے کا انحصار اپنے مطالعے سے زیادہ مختلف ذرائع سے سامنے آنے والی معلومات اورخبروں پر ہوتا ہے۔اس کے نتیجے میں وہ ایک دن کا مفکر تو بن سکتا ہے، مگر قوموں کی فکری رہنمائی کے لیے جس گہری نظرا ور بصیرت کی ضرورت ہوتی ہے ،وہ اکثر ایک صحافی میں ناپید ہوتی ہے۔ ایک مفکر خبروں سے جنم لینے والے حال اور ماضی قریب میں نہیں جیتا بلکہ اس کا موضوع ماضی بعید اور مستقبل ہوتا ہے۔ وہ چیزوں کی معلومات سے زیادہ ان کی حقیقت اور نوعیت کو سمجھنے میں دلچسپی لیتا ہے۔زندگی اور معاشرہ کے اصول اورفرد اور اجتماعیت کی نفسیات کو سمجھنا اس کا اصل میدان ہوتے ہیں۔ظاہر ہے کہ یہ سب ایک عام صحافی کے بس کی بات نہیں ۔ وہ تو ماضی قریب میں جیتا ہے جبکہ ایک حکیم اور مفکر ماضی بعید کی عطا کردہ حکمت میں جیتا ہے جو اسے مستقبل میں جھانکنے کے قابل بنادیتی ہے۔ یہی ایک صحافی اورمفکر کا بنیادی فرق ہوتا ہے۔
ہمارے ہاں صحافت کا ایک اور مسئلہ یہ ہے کہ ہمارے صحافی صرف اور صرف سیاست اور سیاستدانوں میں دلچسپی رکھتے ہیں۔ جبکہ دور جدید میں سیاست اجتماعی زندگی کا ایک ضمنی حصہ بن چکی ہے، مگر ہمارا صحافی اسی کو سب کچھ سمجھتا ہے۔ چونکہ سیاست کے میدان میں ہماری ناکامیاں غیر معمولی ہیں ، اس لیے وہ انھی ناکامیوں اور مایوسیوں کو قوم تک منتقل کرنے کا فریضہ سر انجام دیتا ہے۔ جوکسی قسم کی رہنمائی نہیں بلکہ سلو پوائزننگ (slow poisoning)کی ایک قسم ہے۔چنانچہ آپ اخبارات کے کالم نویسوں کو پڑھ لیجیے یا ٹی وی کے تبصرہ نگاروں کو سن لیجیے۔ وہ آپ کو قوم کے کانوں میں مایوسی کا زہر انڈیلتے ہوئے ہی نظر آئیں گے۔
ان حالات میں یہ ضروری ہے کہ لوگ ایک صحافی اور مفکر کا فرق سمجھیں۔ اخبار کا اور اپنا پیٹ بھرنے والے کالم نویسوں اور سیاسی پروگراموں کے تبصرہ نگاروں کی گفتگو سے متاثر ہونے کے بجائے کسی حکیم اور دانشور کو تلاش کریں۔ یہ لوگ کم ہوتے ہیں ، لیکن ایک دو اچھے حکیم قوم کابیڑہ پار لگانے کے لیے بہت ہوتے ہیں۔خد اکا قانون ہے کہ کسی معاشرے سے ایسے لوگ ختم نہیں ہوتے۔ بات صرف ان سے رہنمائی لینے کی ہے اور یہ ہمارے کرنے کا کام ہے ، نہ کہ ان کے کرنے کا۔
ایک فرد کی طرح معاشرہ بھی اپنے مسائل کے حل کے لیے درست فکری رہنمائی کا طالب ہوتاہے۔ جو لوگ یہ فکری رہنمائی کریں وہ فلسفی، مفکر ، حکیم اور دانشور کہلاتے ہیں اور اجتماعی طور پر انہیں فکری قیادت (Intellectual Leadership) کہا جاتا ہے۔مثال کے طور پر علامہ اقبال برصغیر کے مسلمانوں کے لیے ایک عظیم فکری قائد تھے۔ انہی کی رہنمائی کو اپناکر مسلمانوں نے پاکستان کے قیام کی تحریک چلائی اور ہندوستان سے جدا ہوکر اپنی الگ مملکت قائم کی۔
ایک فکری قائد وہ ہوتا ہے جو دیکھتا تو وہی ہے جو سب دیکھتے ہیں ، مگر بتاتا وہ ہے جو دوسرے نہیں بتاپاتے ہے۔وہ ایسا اپنے وسیع علم،گہرے مطالعے ،کشادہ ذہن، تیز نظر اور بے لاگ تجزیہ کرنے کی خداداد صلاحیت کی بنا پر کرپاتا ہے۔بدقسمتی سے ہمارے ملک پاکستان میں جہاں اور کئی شعبوں میں زوال آیا وہیں فکری رہنمائی کرنے والی قیادت اور اس کی رہنمائی کی سطح بھی ، وقت گزرنے کے ساتھ ساتھ،گرتی چلی جارہی ہے۔اس کے بہت سے اسباب ہیں۔مثلاً علمی جمو د، تعصب اور اختلاف رائے کو برداشت نہ کرنے کی روایت وغیرہ۔تاہم اس صورتحال کا ایک بہت اہم سبب یہ ہے کہ اب قوم کی فکری رہنمائی زیادہ تر وہ لوگ کررہے ہیں جو اصل میں صحافی ہیں۔صحافی بنیادی طور پر رپورٹر ہوتا ہے جس کی اصل دلچسپی حالات حاضرہ اور خبر میں ہوتی ہے۔ چنانچہ وہ ہمیشہ حال میں جیتا اور فوری واقعات کا نوٹس لیتا ہے۔ اس کے تجزیے کا انحصار اپنے مطالعے سے زیادہ مختلف ذرائع سے سامنے آنے والی معلومات اورخبروں پر ہوتا ہے۔اس کے نتیجے میں وہ ایک دن کا مفکر تو بن سکتا ہے، مگر قوموں کی فکری رہنمائی کے لیے جس گہری نظرا ور بصیرت کی ضرورت ہوتی ہے ،وہ اکثر ایک صحافی میں ناپید ہوتی ہے۔ ایک مفکر خبروں سے جنم لینے والے حال اور ماضی قریب میں نہیں جیتا بلکہ اس کا موضوع ماضی بعید اور مستقبل ہوتا ہے۔ وہ چیزوں کی معلومات سے زیادہ ان کی حقیقت اور نوعیت کو سمجھنے میں دلچسپی لیتا ہے۔زندگی اور معاشرہ کے اصول اورفرد اور اجتماعیت کی نفسیات کو سمجھنا اس کا اصل میدان ہوتے ہیں۔ظاہر ہے کہ یہ سب ایک عام صحافی کے بس کی بات نہیں ۔ وہ تو ماضی قریب میں جیتا ہے جبکہ ایک حکیم اور مفکر ماضی بعید کی عطا کردہ حکمت میں جیتا ہے جو اسے مستقبل میں جھانکنے کے قابل بنادیتی ہے۔ یہی ایک صحافی اورمفکر کا بنیادی فرق ہوتا ہے۔
ہمارے ہاں صحافت کا ایک اور مسئلہ یہ ہے کہ ہمارے صحافی صرف اور صرف سیاست اور سیاستدانوں میں دلچسپی رکھتے ہیں۔ جبکہ دور جدید میں سیاست اجتماعی زندگی کا ایک ضمنی حصہ بن چکی ہے، مگر ہمارا صحافی اسی کو سب کچھ سمجھتا ہے۔ چونکہ سیاست کے میدان میں ہماری ناکامیاں غیر معمولی ہیں ، اس لیے وہ انھی ناکامیوں اور مایوسیوں کو قوم تک منتقل کرنے کا فریضہ سر انجام دیتا ہے۔ جوکسی قسم کی رہنمائی نہیں بلکہ سلو پوائزننگ (slow poisoning)کی ایک قسم ہے۔چنانچہ آپ اخبارات کے کالم نویسوں کو پڑھ لیجیے یا ٹی وی کے تبصرہ نگاروں کو سن لیجیے۔ وہ آپ کو قوم کے کانوں میں مایوسی کا زہر انڈیلتے ہوئے ہی نظر آئیں گے۔
ان حالات میں یہ ضروری ہے کہ لوگ ایک صحافی اور مفکر کا فرق سمجھیں۔ اخبار کا اور اپنا پیٹ بھرنے والے کالم نویسوں اور سیاسی پروگراموں کے تبصرہ نگاروں کی گفتگو سے متاثر ہونے کے بجائے کسی حکیم اور دانشور کو تلاش کریں۔ یہ لوگ کم ہوتے ہیں ، لیکن ایک دو اچھے حکیم قوم کابیڑہ پار لگانے کے لیے بہت ہوتے ہیں۔خد اکا قانون ہے کہ کسی معاشرے سے ایسے لوگ ختم نہیں ہوتے۔ بات صرف ان سے رہنمائی لینے کی ہے اور یہ ہمارے کرنے کا کام ہے ، نہ کہ ان کے کرنے کا۔
زبان وادب کی تشکیل میں اردو صحافت کے کردار کا اعتراف کیوں نہیں؟
عارف عزیز
اردو صحافت، بنگلہ صحافت کے بعد ہندوستان کی قدیم ترین صحافت ہے،ہندی، مراٹھی، گجراتی یہانتک کہ ہن نیوں کی انگریزی صحافت کا اس کے بعد آغاز ہوا ، اردو کی اس صحافت نے ۹۱ ویں صدی کے عہد ساز رجحانات کے فروغ میں جو تاریخی کردار ادا کیا ، اس کا تو عام طور پر اعتراف کیا جاتا ہے لیکن زبان وادب کی تشکیل وترقی میں جو حصہ لیا اس کو فراموش کردیا گیا ہے، ۲۲۸۱ءمیں ”جام جہانما“ اردو کا پہلا مطبوعہ اخبار تھا جو کلکتہ سے شائع ہوا، اردو صحافت کے اس باقاعدہ آغاز سے پہلے صرف دہلی سے بارہ ایسے قلمی اخبارات سپرد ڈاک کئے جاتے تھے، جن کا مقصد انگریزوں کے اقتدار کے خلاف عوام میں بیداری لانا، عام لوگوں کو متحد کرنا اور ان کے دل میں قومی جذبات کو پروان چڑھانا تھا،مذکورہ اخباروں کے وقائع نگاروں میں ہندو مسلمان دونوں شامل تھے۔ اس لئے لارڈ آک لینڈ اور لارڈ کیننگ کو کہنا پڑا کہ” قلمی اخبارات نے عوام میں انگریزوں کے خلاف جذبات بھڑکاکر ۷۵۸۱ءکے انقلاب کی راہ ہموار کی ہے، “ ۷۵۸۱ءمیں گورنر جنرل کونسل کے رکن میکالے نے تو صحافت پر اپنے نوٹ میں یہانتک لکھ دیا تھا کہ ”عام لوگوں میں دیسی زبانوں کی مطبوعہ صحافت کا اتنا اثر نہیں، جتنا قلمی صحافت کا ہے، پیشہ ور وقائع نگاروں کے مرتب کئے ہوئے بے شمار اخبا ر ہندوستان میں نکلتے ہیں، ہر کچہری ، ہر دربار کے باہر وقائع نگار منڈلاتے رہتے ہیں، صرف دہلی سے ہر روز ۰۲۱ قلمی اخبار بذریعہ ڈاک باہر بھیجے جاتے ہیں“۔ مشہور محقق شانتی رنجن بھٹاچاریہ کے مطابق ۹۱ ویں صدی میں یعنی ۲۲۸۱ ءسے ۹۹۸۱ تک کم وبیش پانچ سو اخبار ورسائل ہندوستان کے کونے کونے سے منظر عام پر آئے۔
ظاہر ہے کہ مذکورہ اخبارات نے جہاں عوام میں سیاسی شعور کی تخم ریزی کرکے جذبہ ¿ حریت کو پروان چڑھایا، اپنے قارئین کو جدید فکر اور علوم سے آشنا کیا، وہیں اردو زبان وادب کی تشکیل میں غیر معمولی خدمت انجام دی بالخصوص فارسی آمیز مقفع ومسجع عبارت اور بوجھل الفاظ سے اردو زبان کا پیچھا چھڑا کر، عوامی زبان بنانے میں ایک اہم کردار نبھایا، جس کے نتیجہ میں اردو زبان برق رفتاری سے ایک ترقی یافتہ زبان کے سانچے میں ڈھلتی گئی، لیکن اردو صحافت کے اس کردار کو عام طور پر نظر انداز کیا گیا ، مورخ وناقد بھی اس سچائی کو قابل اعتنا نہیں سمجھتے کہ اردو اخبار ورسائل نے اپنی زبان کو بولی سے زبان تک کے سفر میں گرانقدر حصہ لیا ، اس میں سیکڑوں نہیں ہزاروں نئے الفاظ ومحاوروں کا اضافہ کیا اور آج بھی یہ سلسلہ جاری ہے، اردو زبان وادب ، انگریزی یا دوسری عصری زبانوں کے الفاظ ومحاوروں سے آج مالامال ہے، تو یہ بھی اردو صحافت کی دین ہے، مثال کے طور پر پروفیسر، ٹیچر، انجینئر، ڈاکٹر، اسپیکر، پارلیمنٹ ، اسمبلی، سپریم کورٹ، ہائی کورٹ ، سیکولرازم، کمیونزم، سوشلزم، فرنٹ، روڈ، بائیکاٹ نوٹس وغیرہ وہ الفاظ ہیں جو آج اردو زبان کا جز لاینفک بن چکے ہیں ، اردو اخبارات میں ان الفاظ کو مسلسل اور من وعن استعمال کرکے زبان کے خزانے میں جو اضافہ کیا گیا وہ اظہر من الشمس ہے، حقیقت پسندی کا تقاضا ہے کہ اس کا اعتراف کیا جائے۔
اسی طرح یہ دعویٰ کرنا بھی بے جا نہ ہوگا کہ اردو زبان کو عام فہم لیکن معیاری بنانے، اسے سنوارنے اور سجانے میں اردو صحافیوں کا قابل قدر حصہ ہے، ”خطوط غالب“ تو اردو نثر کو سلاست وبزلہ سنجی کا پیرہن عطا کرنے کی ایک انفرادی سعی تھی، جس کے محرکات کا جائزہ لیا جائے تو ممکن ہے کہ اس عہد کے اردو اخبارات کا پرتو اس میں نظر آجائے، بعد میں مولوی محمد باقر ، سرسید احمد خاں بہاری لال مشتاق، اور مولانا محمد حسین آزاد نے صحافت کے وسیلہ سے اپنے اور دوسروں کے نظریات کی اشاعت کرکے اردو زبان وادب اور تحقیق کے ساتھ ساتھ سیاست کی قندیلیں بھی روشن کیں، اسی طرح مولانا ابوالکلام آزاد کی خطابیہ صحافت ہو یا مولانا حسرت موہانی کی شگفتہ بیانی، مولانا ظفر علی خاں کی پرجوش تحریریں ہوں یا مولانا عبدالماجد دریابادی کے طنز میں بجھے ہوئے شذرات، انہوں نے صحافت کے وسیلہ سے اردو کے نثری خزانے میں بے پایاں اضافہ کیا ہے، اردو کے فکاہیہ وطنزیہ ادب کا جائزہ لیا جائے تو اس کا نوے فیصد حصہ صحافت کا عطیہ ملے گا، اگر اردو کے اخبارات و رسائل نہیں ہوتے تو کالم نگاری، انشائیہ نگاری، انٹرویو نگاری اور افسانہ نگاری کا وجود نہیں ہوتا کیونکہ ان کی اولیں اشاعت کا وسیلہ عام طور پر اخبار وجرائد ہوتے ہیں ، مذکورہ اصناف کتابی شکل میں کافی بعد میں شائع ہوتی ہیں ، اردو صحافت کا یہ بھی کارنامہ ہے کہ اس نے قصے کہانیاں، اور حکایتیں ، سفرنامے، موضوعاتی نظمیں، سیاسی مضامین، قانونی وپارلیمانی مباحث، اور طبی وسائنسی موضوعات کو اخبارات کے صفحات پر جگہ دی ہے۔ اگر ریسرچ اسکالر اردو صحافت کی ان خدمات کا جائزہ لیں تو کئی ضخیم جلدیں اس کے لئے ناکافی ہونگی اور تنقید وتحقیق کی بھی یہ اہم خدمت شمار ہوگی۔
اردو صحافیوں نے سیاسی وادبی تحریکات کو ہی پروان نہیں چڑھایا ، ادب کی مختلف اصناف کی ترقی میں بھی حصہ لیا، فکاہیہ اور طنزیہ کالموں کا ذکر گذر چکا ہے ، اس صنف کو صحافت نے جو اعتبار بخشا وہ لائق تحسین ہے، منشی سجاد حسین ، چودھری محمد علی ردولوی، حاجی لق لق، ملارموزی یا ان کے معاصرین طنزومزاح نگاروں سے اردو دنیا خاطر خواہ طور پر واقف نہیں ہوتی اگر اخبارات ورسائل میں ان کو مقام نہیں ملتا، آزادی کے بعد شوکت تھانوی، مجید لاہوری، فکر تونسوی، علامہ درپن، ابراہیم جلیس، علامہ مدہوش،تخلص بھوپالی، احمد جمال پاشا، مجتبیٰ حسین، یہ سبھی سکے صحافت کی ٹکسال کے ڈھالے ہوئے ہیں لیکن ہمارے بیشتر نقاد اردو صحافت کے اس کارنامے کا اعتراف کرنا کفر سمجھتے ہیں، اگرچہ ابتداءمیں صحافت کی اس خدمت کو سراہا گیا، مولوی محمد حسین آزاد پہلے ناقد ہیں جنہوں نے ”آب حیات“ میں لکھا کہ:
”سید میرانشاءاللہ خاں کے زمانے تک انشا پردازی اور ترقی اور وسعت زبانِ اردو، فقط شعراءکی زبان پر تھی، جن کی تصنیفات غزلیں اور قصیدے مدحیہ ہوتے تھے اور غرض، ان سے فقط اتنی تھی کہ امیر اور اہل دول سے انعام لے کر گزارہ کریں یا تفریح طبع یا یہ کہ ہم چشموں میں تحسین و آفریں کا فخر حاصل کریں، وہ بھی فقط نظم میں، نثر کے حال پر کسی کو اصلاً توجہ نہ تھی کیونکہ کارروائی مطالبِ ضروری کی سب فارسی میں ہوتی تھی، یعنی اردو نثر اردو صحافت کی ایجاد ہے۔“
زبان وادب کی تشکیل میں اردو صحافت کے کردار کے بارے میں مثالیں اور بھی ہیں لیکن ان سے اعتراض کرتے ہوئے یہاں رپورٹنگ کا حوالہ دینا کافی ہوگا اگر اردو کے اخبارات ورپورٹر نہ ہوں تو زبان وادب سے متعلق ساری سرگرمیاں ماند پڑجائیں، جلسے، مشاعرے اور مباحثے صرف ان لوگوں تک محدود رہیں جو ان میں حصہ لیتے یا سامع کی حیثیت سے شریک ہوتے ہیں، یہ اردو کے صحافی ہیں جو بیک وقت رپورٹر ومترجم کے فرائض انجام دیتے ہیں، انگریزی وہندی سے ترجمہ میں اپنی ذہنی کاوش کا مظاہرہ کرتے ہیں اور مضامین، مراسلے اور کارروائی میں زبان وبیان کی اصلاح کرکے انہیں اخبارات کی زینت بناتے ہیں۔
اردو صحافت نے زبان وادب کے فروغ کے ساتھ سیاسی وسماجی تحریکات کی ہی آبیاری نہیں کی، ادبی ولسانی معرکوں کو سرانجام دیکر اپنی زبان کا ہر نازک مرحلہ میں دفاع بھی کیا، خصوصیت سے اردو پر کسی سمت سے حملہ ہوا تو تمام اخبارات اور اس کے صحافیوں نے دل سوزی کے ساتھ اس کا مقابلہ کیا اسی طرح اپنی زبان کے حقوق و مفادات کیلئے جدوجہد ہو یا علاقائی طور پر اردو کو دوسری زبان بنانے کے مطالبہ کے لئے آواز بلند کرنا، تمام اخبارات اس میں شریک وصمیم رہے، اردو اخبارات کی جغرافیائی حیثیت بھی کافی وسیع ہے، وہ شمال میں کلکتہ سے سری نگر تک اور دہلی سے ممبئی حیدرآباد اور بنگلور تک ہر بڑے شہر میں پھیلے ہوئے ہیں اور زبان پر اپنے اثرات ڈال رہے ہیں، ملک کی گیارہ اہم ریاستوں سے شائع ہونے والے یہ اخبارات ورسائل آج اردو دنیاکی ایک موثر طاقت ہیں، ان روزناموں یا ہفتہ روزہ اخباروں اور ماہناموں کی بڑی تعداد معیاری ہے اور خوب سے خوب تر کی تلاش کےلئے ان کی کدوکاوش جاری ہے، یہ اخبار ورسائل ہر قسم کے افکار اور سیاست کی نمائندگی کرتے ہیں، ان میں ہر مذہب اور علاقے کے ترجمان مل جائیں گے، یہانتک کہ سنگھ پریوار ، آریہ سماج، اسلام، جماعت اسلامی، جمعیة علمائ، اہل حدیث، سناتن دھرم، سکھ ازم، مسیحیت، ترقی پسندی، جدیدیت کے ہمنوا نیز ادب اسلامی کے علمبردار ان میں شامل ہیں۔ اس رنگا رنگی اور مختلف جہتوں کی نمائندگی کے اثرات و عوامل اردو زبان وادب پر بھی مرتب ہورہے ہیں۔
اردو صحافت، بنگلہ صحافت کے بعد ہندوستان کی قدیم ترین صحافت ہے،ہندی، مراٹھی، گجراتی یہانتک کہ ہن نیوں کی انگریزی صحافت کا اس کے بعد آغاز ہوا ، اردو کی اس صحافت نے ۹۱ ویں صدی کے عہد ساز رجحانات کے فروغ میں جو تاریخی کردار ادا کیا ، اس کا تو عام طور پر اعتراف کیا جاتا ہے لیکن زبان وادب کی تشکیل وترقی میں جو حصہ لیا اس کو فراموش کردیا گیا ہے، ۲۲۸۱ءمیں ”جام جہانما“ اردو کا پہلا مطبوعہ اخبار تھا جو کلکتہ سے شائع ہوا، اردو صحافت کے اس باقاعدہ آغاز سے پہلے صرف دہلی سے بارہ ایسے قلمی اخبارات سپرد ڈاک کئے جاتے تھے، جن کا مقصد انگریزوں کے اقتدار کے خلاف عوام میں بیداری لانا، عام لوگوں کو متحد کرنا اور ان کے دل میں قومی جذبات کو پروان چڑھانا تھا،مذکورہ اخباروں کے وقائع نگاروں میں ہندو مسلمان دونوں شامل تھے۔ اس لئے لارڈ آک لینڈ اور لارڈ کیننگ کو کہنا پڑا کہ” قلمی اخبارات نے عوام میں انگریزوں کے خلاف جذبات بھڑکاکر ۷۵۸۱ءکے انقلاب کی راہ ہموار کی ہے، “ ۷۵۸۱ءمیں گورنر جنرل کونسل کے رکن میکالے نے تو صحافت پر اپنے نوٹ میں یہانتک لکھ دیا تھا کہ ”عام لوگوں میں دیسی زبانوں کی مطبوعہ صحافت کا اتنا اثر نہیں، جتنا قلمی صحافت کا ہے، پیشہ ور وقائع نگاروں کے مرتب کئے ہوئے بے شمار اخبا ر ہندوستان میں نکلتے ہیں، ہر کچہری ، ہر دربار کے باہر وقائع نگار منڈلاتے رہتے ہیں، صرف دہلی سے ہر روز ۰۲۱ قلمی اخبار بذریعہ ڈاک باہر بھیجے جاتے ہیں“۔ مشہور محقق شانتی رنجن بھٹاچاریہ کے مطابق ۹۱ ویں صدی میں یعنی ۲۲۸۱ ءسے ۹۹۸۱ تک کم وبیش پانچ سو اخبار ورسائل ہندوستان کے کونے کونے سے منظر عام پر آئے۔
ظاہر ہے کہ مذکورہ اخبارات نے جہاں عوام میں سیاسی شعور کی تخم ریزی کرکے جذبہ ¿ حریت کو پروان چڑھایا، اپنے قارئین کو جدید فکر اور علوم سے آشنا کیا، وہیں اردو زبان وادب کی تشکیل میں غیر معمولی خدمت انجام دی بالخصوص فارسی آمیز مقفع ومسجع عبارت اور بوجھل الفاظ سے اردو زبان کا پیچھا چھڑا کر، عوامی زبان بنانے میں ایک اہم کردار نبھایا، جس کے نتیجہ میں اردو زبان برق رفتاری سے ایک ترقی یافتہ زبان کے سانچے میں ڈھلتی گئی، لیکن اردو صحافت کے اس کردار کو عام طور پر نظر انداز کیا گیا ، مورخ وناقد بھی اس سچائی کو قابل اعتنا نہیں سمجھتے کہ اردو اخبار ورسائل نے اپنی زبان کو بولی سے زبان تک کے سفر میں گرانقدر حصہ لیا ، اس میں سیکڑوں نہیں ہزاروں نئے الفاظ ومحاوروں کا اضافہ کیا اور آج بھی یہ سلسلہ جاری ہے، اردو زبان وادب ، انگریزی یا دوسری عصری زبانوں کے الفاظ ومحاوروں سے آج مالامال ہے، تو یہ بھی اردو صحافت کی دین ہے، مثال کے طور پر پروفیسر، ٹیچر، انجینئر، ڈاکٹر، اسپیکر، پارلیمنٹ ، اسمبلی، سپریم کورٹ، ہائی کورٹ ، سیکولرازم، کمیونزم، سوشلزم، فرنٹ، روڈ، بائیکاٹ نوٹس وغیرہ وہ الفاظ ہیں جو آج اردو زبان کا جز لاینفک بن چکے ہیں ، اردو اخبارات میں ان الفاظ کو مسلسل اور من وعن استعمال کرکے زبان کے خزانے میں جو اضافہ کیا گیا وہ اظہر من الشمس ہے، حقیقت پسندی کا تقاضا ہے کہ اس کا اعتراف کیا جائے۔
اسی طرح یہ دعویٰ کرنا بھی بے جا نہ ہوگا کہ اردو زبان کو عام فہم لیکن معیاری بنانے، اسے سنوارنے اور سجانے میں اردو صحافیوں کا قابل قدر حصہ ہے، ”خطوط غالب“ تو اردو نثر کو سلاست وبزلہ سنجی کا پیرہن عطا کرنے کی ایک انفرادی سعی تھی، جس کے محرکات کا جائزہ لیا جائے تو ممکن ہے کہ اس عہد کے اردو اخبارات کا پرتو اس میں نظر آجائے، بعد میں مولوی محمد باقر ، سرسید احمد خاں بہاری لال مشتاق، اور مولانا محمد حسین آزاد نے صحافت کے وسیلہ سے اپنے اور دوسروں کے نظریات کی اشاعت کرکے اردو زبان وادب اور تحقیق کے ساتھ ساتھ سیاست کی قندیلیں بھی روشن کیں، اسی طرح مولانا ابوالکلام آزاد کی خطابیہ صحافت ہو یا مولانا حسرت موہانی کی شگفتہ بیانی، مولانا ظفر علی خاں کی پرجوش تحریریں ہوں یا مولانا عبدالماجد دریابادی کے طنز میں بجھے ہوئے شذرات، انہوں نے صحافت کے وسیلہ سے اردو کے نثری خزانے میں بے پایاں اضافہ کیا ہے، اردو کے فکاہیہ وطنزیہ ادب کا جائزہ لیا جائے تو اس کا نوے فیصد حصہ صحافت کا عطیہ ملے گا، اگر اردو کے اخبارات و رسائل نہیں ہوتے تو کالم نگاری، انشائیہ نگاری، انٹرویو نگاری اور افسانہ نگاری کا وجود نہیں ہوتا کیونکہ ان کی اولیں اشاعت کا وسیلہ عام طور پر اخبار وجرائد ہوتے ہیں ، مذکورہ اصناف کتابی شکل میں کافی بعد میں شائع ہوتی ہیں ، اردو صحافت کا یہ بھی کارنامہ ہے کہ اس نے قصے کہانیاں، اور حکایتیں ، سفرنامے، موضوعاتی نظمیں، سیاسی مضامین، قانونی وپارلیمانی مباحث، اور طبی وسائنسی موضوعات کو اخبارات کے صفحات پر جگہ دی ہے۔ اگر ریسرچ اسکالر اردو صحافت کی ان خدمات کا جائزہ لیں تو کئی ضخیم جلدیں اس کے لئے ناکافی ہونگی اور تنقید وتحقیق کی بھی یہ اہم خدمت شمار ہوگی۔
اردو صحافیوں نے سیاسی وادبی تحریکات کو ہی پروان نہیں چڑھایا ، ادب کی مختلف اصناف کی ترقی میں بھی حصہ لیا، فکاہیہ اور طنزیہ کالموں کا ذکر گذر چکا ہے ، اس صنف کو صحافت نے جو اعتبار بخشا وہ لائق تحسین ہے، منشی سجاد حسین ، چودھری محمد علی ردولوی، حاجی لق لق، ملارموزی یا ان کے معاصرین طنزومزاح نگاروں سے اردو دنیا خاطر خواہ طور پر واقف نہیں ہوتی اگر اخبارات ورسائل میں ان کو مقام نہیں ملتا، آزادی کے بعد شوکت تھانوی، مجید لاہوری، فکر تونسوی، علامہ درپن، ابراہیم جلیس، علامہ مدہوش،تخلص بھوپالی، احمد جمال پاشا، مجتبیٰ حسین، یہ سبھی سکے صحافت کی ٹکسال کے ڈھالے ہوئے ہیں لیکن ہمارے بیشتر نقاد اردو صحافت کے اس کارنامے کا اعتراف کرنا کفر سمجھتے ہیں، اگرچہ ابتداءمیں صحافت کی اس خدمت کو سراہا گیا، مولوی محمد حسین آزاد پہلے ناقد ہیں جنہوں نے ”آب حیات“ میں لکھا کہ:
”سید میرانشاءاللہ خاں کے زمانے تک انشا پردازی اور ترقی اور وسعت زبانِ اردو، فقط شعراءکی زبان پر تھی، جن کی تصنیفات غزلیں اور قصیدے مدحیہ ہوتے تھے اور غرض، ان سے فقط اتنی تھی کہ امیر اور اہل دول سے انعام لے کر گزارہ کریں یا تفریح طبع یا یہ کہ ہم چشموں میں تحسین و آفریں کا فخر حاصل کریں، وہ بھی فقط نظم میں، نثر کے حال پر کسی کو اصلاً توجہ نہ تھی کیونکہ کارروائی مطالبِ ضروری کی سب فارسی میں ہوتی تھی، یعنی اردو نثر اردو صحافت کی ایجاد ہے۔“
زبان وادب کی تشکیل میں اردو صحافت کے کردار کے بارے میں مثالیں اور بھی ہیں لیکن ان سے اعتراض کرتے ہوئے یہاں رپورٹنگ کا حوالہ دینا کافی ہوگا اگر اردو کے اخبارات ورپورٹر نہ ہوں تو زبان وادب سے متعلق ساری سرگرمیاں ماند پڑجائیں، جلسے، مشاعرے اور مباحثے صرف ان لوگوں تک محدود رہیں جو ان میں حصہ لیتے یا سامع کی حیثیت سے شریک ہوتے ہیں، یہ اردو کے صحافی ہیں جو بیک وقت رپورٹر ومترجم کے فرائض انجام دیتے ہیں، انگریزی وہندی سے ترجمہ میں اپنی ذہنی کاوش کا مظاہرہ کرتے ہیں اور مضامین، مراسلے اور کارروائی میں زبان وبیان کی اصلاح کرکے انہیں اخبارات کی زینت بناتے ہیں۔
اردو صحافت نے زبان وادب کے فروغ کے ساتھ سیاسی وسماجی تحریکات کی ہی آبیاری نہیں کی، ادبی ولسانی معرکوں کو سرانجام دیکر اپنی زبان کا ہر نازک مرحلہ میں دفاع بھی کیا، خصوصیت سے اردو پر کسی سمت سے حملہ ہوا تو تمام اخبارات اور اس کے صحافیوں نے دل سوزی کے ساتھ اس کا مقابلہ کیا اسی طرح اپنی زبان کے حقوق و مفادات کیلئے جدوجہد ہو یا علاقائی طور پر اردو کو دوسری زبان بنانے کے مطالبہ کے لئے آواز بلند کرنا، تمام اخبارات اس میں شریک وصمیم رہے، اردو اخبارات کی جغرافیائی حیثیت بھی کافی وسیع ہے، وہ شمال میں کلکتہ سے سری نگر تک اور دہلی سے ممبئی حیدرآباد اور بنگلور تک ہر بڑے شہر میں پھیلے ہوئے ہیں اور زبان پر اپنے اثرات ڈال رہے ہیں، ملک کی گیارہ اہم ریاستوں سے شائع ہونے والے یہ اخبارات ورسائل آج اردو دنیاکی ایک موثر طاقت ہیں، ان روزناموں یا ہفتہ روزہ اخباروں اور ماہناموں کی بڑی تعداد معیاری ہے اور خوب سے خوب تر کی تلاش کےلئے ان کی کدوکاوش جاری ہے، یہ اخبار ورسائل ہر قسم کے افکار اور سیاست کی نمائندگی کرتے ہیں، ان میں ہر مذہب اور علاقے کے ترجمان مل جائیں گے، یہانتک کہ سنگھ پریوار ، آریہ سماج، اسلام، جماعت اسلامی، جمعیة علمائ، اہل حدیث، سناتن دھرم، سکھ ازم، مسیحیت، ترقی پسندی، جدیدیت کے ہمنوا نیز ادب اسلامی کے علمبردار ان میں شامل ہیں۔ اس رنگا رنگی اور مختلف جہتوں کی نمائندگی کے اثرات و عوامل اردو زبان وادب پر بھی مرتب ہورہے ہیں۔
صحافت میں گُھس آنے والے کیسے کیسے اَیسے وَیسے لوگ
کیا دور آ گیا ہے کہ جنرل یحییٰ خاں کی ایک داشتہ کی بیٹی جسٹس طارق محمود کو جمہوری روایات کا سبق پڑھا اور سیاستدانوں کو تلقین کر رہی تھیں کہ وہ ریفرنس کے معاملہ پر اپنی دُکانداری نہ چمکائیں۔ جن لوگوں کی ساری زندگی اِس دعوے پر گزری ہو کہ وہ ہر حکمران کے بیڈ روم تک رسائی رکھتے ہیں اور جنہیں اصولاً ان بیڈ رومز میں بدلنے والی چادروں کا حساب یاد رکھنا چاہئے وہ جب سیاسی معاملات کا تجزیہ کرتے اور دانشوری بگھارتے ہیں تو اسے صحافت کی بدقسمتی کے سوا کیا کہا جائي… نام لینے کی ضرورت نہیں جنرل یحییٰ خان سے شہرت کی ابتداء کرکے بے نظیر بھٹو چونکہ مرد نہیں تھیں اس لئے اُن کے “نائب وزیراعظم” حامد ناصر چٹھہ کے گھر سے گزرتے ہوئے موجودہ حکمرانوں تک رسائی رکھنے والے کتنے ہی لوگوں کا صحافت سے کِتنا تعلق ہے اور کِسی کو شک ہو تو ہو اُنہیں خود اپنے بارے میں کوئی شک نہیں ہو سکتا کہ صحافت ان کا پیشہ نہیں، اپنے اصل پیشے کے تحفظ کی ایک ڈھال ہے۔
سیاست، صحافت، عدالت فی الاصل ایک ہی سِکے کے رُخ ہیں لیکن جب صحافی یہ سمجھنے لگیں کہ وہ حکمرانوں یا سیاستدانوں کو ان کے پیشے کے گُر سمجھائیں گے تو اِسے بدقسمتی کے سوا کیا کہا جائے۔ پتہ نہیں کیوں کچھ اخبار نویسوں نے فرض کر لیا ہے کہ اُن کے نام کے ساتھ “معروف اور سینئر تجزیہ کار” کا خطاب آئے حالانکہ یہ نام نہاد تجزیہ کار ابھی مشکل سے شاید صحافت کی اَبجد بھی جانتے ہوں۔ ویسے بھی صحافی کون ہوتا ہے، تجزیہ کاری کرنے والا۔ وہ کسی معاملہ پر تبصرہ کر سکتا، اُس پر رائے دے سکتا یا اپنا نقطۂ نظر بیان کر سکتا ہے لیکن تبصرے، کالم، مضمون، اداریے، شذرے، مراسلے اور تجزیئے کو ایک ہی معنی پہنا دینا یہ کِس دنیا میں جائز ہے؟ داستان گوئی، شاعری، سفرنگاری، پروفیسری یا سیاست بھی کم عزت والے کام نہیں کہ ساتھ صحافت کا دُم چھلا بھی ضرور لگانا ہے۔
کِسی کی والدہ محترمہ کا کسی حکمران سے قریبی تعلق تھا تو کِسی کے والد صاحب نے کسی خاص حکمران کے لئے خاص خدمات انجام دیں لیکن خواہش اب سب کی یہ ہے کہ صحافی کہلائیں کہ صحافت کی آڑ میں ان کے دھندے بھی چُھپ جائیں گے اور وہ سوسائٹی کے خود ساختہ مصلح اور ریفارمر(Reformer) کا روپ بھی دھار لیں گے۔ پتہ نہیں اچھے اچھے اخبار نویسوں کو کیا ہو گیا ہے کہ سستی شہرت یعنی Cheap Publicity کے لئے اپنے پیشے کا تقدس بھی بھول گئے اور مختلف معاملات میں پارٹی بن رہے ہیں۔ صحافی کا کام کیا ہے؟… عوام کو Inform کرنا اور Entertain کرنا۔ اس کے سوا جو کچھ بھی ہے وہ سب ہو سکتا ہے صحافت نہیں۔ Entertainment کی حدود موجودہ دور میں کافی وسیع ہو چکی ہیں لیکن خبر اور تبصرے سے ہٹ کر Information کی کوئی تیسری قسم بھی ہو سکتی ہے کم از کم ہمارے علم میں نہیں،کوئی اخبار نویس یا صحافی کیا کسی بھی حالت میں کسی واقعہ یا Event کا بائیکاٹ کر سکتا ہے؟ اور آیا صحافتی اخلاقیات اسے اس بات کی اجازت دیتی ہیں؟ اِس پر بحث ہونا ضروری ہو گیا ہے۔
کِسی صحافی کی اِس سے زیادہ بے عزتی اور کیا ہو سکتی ہے کہ وہ کسی وزیراعلیٰ سے تحفظ کی درخواست کرے اور وزیراعلیٰ اُسے کہے کہ ان کے لئے ممکن نہیں کہ ہر صحافی کے ساتھ ایک ایک موبائل گاڑی لگا دیں۔ یہ درست ہے کہ صحافیوں کو ان کے فرائض کی ادائیگی کے دوران مشکلات کم از کم ہونی چاہئیں لیکن وہ کیوں بھول جاتے ہیں کہ صحافت کا تو پیشہ ہی مشکلات اور اُن سے نبردآزما ہونے کا ہے لیکن اگر آپ کی خواہش محض حکمرانوں تک رسائی اور Nuisance انجوائے کرنا ہے، کوئی پتھر، زخم یا ڈنڈا لگنے پر بائیکاٹ کی دہائی دینا ہے تو معاف کیجئے گا آپ کو صحافت چھوڑ کر کوئی اور کام کر لینا چاہئے کہ دنیا میں صرف ان صحافیوں کے نام زندہ اور روشن ہیں جنہوں نے مسکراتے ہوئے ہر قسم کی مشکلات کا سامنا کیا۔ نہ کسی سے گلہ کیا، نہ زبان پر حرفِ شکایت لائے۔ ممکن ہے آپ کا نقطۂ نظر درست ہو آپ کو اپنے خیال پر ڈٹے رہنے کا حق ہے لیکن آپ نے یہ حق کہاں سے لے لیا کہ کچھ نام نہاد مولویوں کی طرح دوسرے کو اس کے آپ کے خیال میں “غلط” نقطۂ نظر سے “تائب” ہونے پرمجبور کریں۔ یہ بدتمیزی، بداخلاقی، بدتہذیبی، بدکلامی اور بداسلوبی کہاں سے آپ میں دَر آئی ہے کہ آپ کی تو شان ہی آپ کا Polite لیکن Firm ہونا ہي… دن رات جرنیلوں پر تنقید کرنے والوں کے اندر بھی پتہ نہیں کس طرح ویسے ہی ڈکٹیٹر گھس آتے ہیں کہ اپنی بات کو حرفِ آخر سمجھنے لگیں… ہمارا کام کسی کو “مسلمان کرنا” کسی کو “محبّ وطن بنانا” یا کسی کو “راہِ راست پر لانا” نہیں یہ ذمہ داری سیاستدانوں اور عدالتوں کی ہے۔ ہمیں ان کاموں میں محض اداروں اور عوام کی معاونت کرنا ہے اور حالات کچھ بھی ہوں اپنا کام کرتے جانا ہے۔ دائیں بائیں، آگے پیچھے دیکھنا، کسی ترغیب تحریص کو خاطر میں لانا، ستائش اور صلے کی پروا کرنا سب کچھ ہو سکتا ہے صحافت بالکل نہیں۔
کم نہیں طمعِ عبادت بھی تو حرصِ زر سے
فقر تو وہ ہے کہ جو دین نہ دنیا رکھے
کیا اب وقت نہیں آ گیا کہ صحافتی اداروں کے مالکان، ایڈیٹرز، سینئر صحافی اور کارکن صحافیوں کی تنظیمیں آپس میں مل بیٹھیں اور صحافت کے ساتھ ساتھ موجودہ حالات کے تقاضوں پر غور کریں، کوئی ضابطۂ اخلاق بنا لیں کہ یوں تو ہم ساری دنیا کو آگے لگائے ہوئے ہیں لیکن اِس دھما چوکڑی میں اپنے پیشے کی عزت میں کتنا اضافہ ہو رہا ہے اور ہم نے کن کن لوگوں کو صحافی کے لقب سے ملقوب کردیا اور لوگ، صحافیوں کو کن کن لفظوں سے یاد کرتے ہیں؟ اس پر اب بھی غور نہ کیا گیا تو عام لوگ جس طرح جرنیلوں اور ججوں کو مجموعی طور پر مطعون کر رہے ہیں، صحافیوں کے درمیان بھی کوئی تمیز نہیں کرے گا۔
سیاست، صحافت، عدالت فی الاصل ایک ہی سِکے کے رُخ ہیں لیکن جب صحافی یہ سمجھنے لگیں کہ وہ حکمرانوں یا سیاستدانوں کو ان کے پیشے کے گُر سمجھائیں گے تو اِسے بدقسمتی کے سوا کیا کہا جائے۔ پتہ نہیں کیوں کچھ اخبار نویسوں نے فرض کر لیا ہے کہ اُن کے نام کے ساتھ “معروف اور سینئر تجزیہ کار” کا خطاب آئے حالانکہ یہ نام نہاد تجزیہ کار ابھی مشکل سے شاید صحافت کی اَبجد بھی جانتے ہوں۔ ویسے بھی صحافی کون ہوتا ہے، تجزیہ کاری کرنے والا۔ وہ کسی معاملہ پر تبصرہ کر سکتا، اُس پر رائے دے سکتا یا اپنا نقطۂ نظر بیان کر سکتا ہے لیکن تبصرے، کالم، مضمون، اداریے، شذرے، مراسلے اور تجزیئے کو ایک ہی معنی پہنا دینا یہ کِس دنیا میں جائز ہے؟ داستان گوئی، شاعری، سفرنگاری، پروفیسری یا سیاست بھی کم عزت والے کام نہیں کہ ساتھ صحافت کا دُم چھلا بھی ضرور لگانا ہے۔
کِسی کی والدہ محترمہ کا کسی حکمران سے قریبی تعلق تھا تو کِسی کے والد صاحب نے کسی خاص حکمران کے لئے خاص خدمات انجام دیں لیکن خواہش اب سب کی یہ ہے کہ صحافی کہلائیں کہ صحافت کی آڑ میں ان کے دھندے بھی چُھپ جائیں گے اور وہ سوسائٹی کے خود ساختہ مصلح اور ریفارمر(Reformer) کا روپ بھی دھار لیں گے۔ پتہ نہیں اچھے اچھے اخبار نویسوں کو کیا ہو گیا ہے کہ سستی شہرت یعنی Cheap Publicity کے لئے اپنے پیشے کا تقدس بھی بھول گئے اور مختلف معاملات میں پارٹی بن رہے ہیں۔ صحافی کا کام کیا ہے؟… عوام کو Inform کرنا اور Entertain کرنا۔ اس کے سوا جو کچھ بھی ہے وہ سب ہو سکتا ہے صحافت نہیں۔ Entertainment کی حدود موجودہ دور میں کافی وسیع ہو چکی ہیں لیکن خبر اور تبصرے سے ہٹ کر Information کی کوئی تیسری قسم بھی ہو سکتی ہے کم از کم ہمارے علم میں نہیں،کوئی اخبار نویس یا صحافی کیا کسی بھی حالت میں کسی واقعہ یا Event کا بائیکاٹ کر سکتا ہے؟ اور آیا صحافتی اخلاقیات اسے اس بات کی اجازت دیتی ہیں؟ اِس پر بحث ہونا ضروری ہو گیا ہے۔
کِسی صحافی کی اِس سے زیادہ بے عزتی اور کیا ہو سکتی ہے کہ وہ کسی وزیراعلیٰ سے تحفظ کی درخواست کرے اور وزیراعلیٰ اُسے کہے کہ ان کے لئے ممکن نہیں کہ ہر صحافی کے ساتھ ایک ایک موبائل گاڑی لگا دیں۔ یہ درست ہے کہ صحافیوں کو ان کے فرائض کی ادائیگی کے دوران مشکلات کم از کم ہونی چاہئیں لیکن وہ کیوں بھول جاتے ہیں کہ صحافت کا تو پیشہ ہی مشکلات اور اُن سے نبردآزما ہونے کا ہے لیکن اگر آپ کی خواہش محض حکمرانوں تک رسائی اور Nuisance انجوائے کرنا ہے، کوئی پتھر، زخم یا ڈنڈا لگنے پر بائیکاٹ کی دہائی دینا ہے تو معاف کیجئے گا آپ کو صحافت چھوڑ کر کوئی اور کام کر لینا چاہئے کہ دنیا میں صرف ان صحافیوں کے نام زندہ اور روشن ہیں جنہوں نے مسکراتے ہوئے ہر قسم کی مشکلات کا سامنا کیا۔ نہ کسی سے گلہ کیا، نہ زبان پر حرفِ شکایت لائے۔ ممکن ہے آپ کا نقطۂ نظر درست ہو آپ کو اپنے خیال پر ڈٹے رہنے کا حق ہے لیکن آپ نے یہ حق کہاں سے لے لیا کہ کچھ نام نہاد مولویوں کی طرح دوسرے کو اس کے آپ کے خیال میں “غلط” نقطۂ نظر سے “تائب” ہونے پرمجبور کریں۔ یہ بدتمیزی، بداخلاقی، بدتہذیبی، بدکلامی اور بداسلوبی کہاں سے آپ میں دَر آئی ہے کہ آپ کی تو شان ہی آپ کا Polite لیکن Firm ہونا ہي… دن رات جرنیلوں پر تنقید کرنے والوں کے اندر بھی پتہ نہیں کس طرح ویسے ہی ڈکٹیٹر گھس آتے ہیں کہ اپنی بات کو حرفِ آخر سمجھنے لگیں… ہمارا کام کسی کو “مسلمان کرنا” کسی کو “محبّ وطن بنانا” یا کسی کو “راہِ راست پر لانا” نہیں یہ ذمہ داری سیاستدانوں اور عدالتوں کی ہے۔ ہمیں ان کاموں میں محض اداروں اور عوام کی معاونت کرنا ہے اور حالات کچھ بھی ہوں اپنا کام کرتے جانا ہے۔ دائیں بائیں، آگے پیچھے دیکھنا، کسی ترغیب تحریص کو خاطر میں لانا، ستائش اور صلے کی پروا کرنا سب کچھ ہو سکتا ہے صحافت بالکل نہیں۔
کم نہیں طمعِ عبادت بھی تو حرصِ زر سے
فقر تو وہ ہے کہ جو دین نہ دنیا رکھے
کیا اب وقت نہیں آ گیا کہ صحافتی اداروں کے مالکان، ایڈیٹرز، سینئر صحافی اور کارکن صحافیوں کی تنظیمیں آپس میں مل بیٹھیں اور صحافت کے ساتھ ساتھ موجودہ حالات کے تقاضوں پر غور کریں، کوئی ضابطۂ اخلاق بنا لیں کہ یوں تو ہم ساری دنیا کو آگے لگائے ہوئے ہیں لیکن اِس دھما چوکڑی میں اپنے پیشے کی عزت میں کتنا اضافہ ہو رہا ہے اور ہم نے کن کن لوگوں کو صحافی کے لقب سے ملقوب کردیا اور لوگ، صحافیوں کو کن کن لفظوں سے یاد کرتے ہیں؟ اس پر اب بھی غور نہ کیا گیا تو عام لوگ جس طرح جرنیلوں اور ججوں کو مجموعی طور پر مطعون کر رہے ہیں، صحافیوں کے درمیان بھی کوئی تمیز نہیں کرے گا۔
فرض شناسی سے جانبداری تک
صحافت کے شعبے کو ہر دور میں مقدس شعبہ گردانہ گیا ہے۔ صحافی یا رپورٹر ایک مبلغ اور پیغام بر کیطرح ہوتا ہے جو کسی واقعہ کو اپنی مشاہدے کی قوت سے بغور دیکھتا اور پرکھتا ہے اور پھر اسے دوسروں تک منتقل کرتا ہے۔ رپورٹر حقیقت میں اس واقعہ کے حوالے سے ایک امین اور امانت دار شخص کی مانند ہوتا ہے جس نے بغیر کسی کمی بیشی کے اس واقعے کی رپورٹنگ کرنا ہوتی ہے۔ صحافت اور انسانی تاریخ کا چولی دامن کا ساتھ کا ہے، حضرت آدم کی زمین پر آمد اور ہابیل و قابیل کے واقعے سے لیکر آج تک انسانی تاریخ میں اس روئے زمین پر جتنے واقعات رونما ہوئے ہیں وہ امین اور غیر جانبدار رپورٹروں کے ذریعے ہم تک پہنچے ہیں انسانی تاریخ میں ممکن ہے ان واقعات کی تفصیلات کو دوسری نسلوں تک منتقل کرنے والوں کو مختلف ناموں اور عہدوں سے مخاطب کیا گيا ہو، لیکن اپنے کام کی نوعیت کے حوالے سے صحافت اور اس میں کوئی فرق نہیں تھا۔
انسانی تاریخ میں عمومی طور پر واقعات کو نقل کرنے والے کو "راوی" کیا گيا ہے۔ انسانی تاریخ انہی راویوں کی روایات اور رپورٹنگ سے نسل در نسل منتقل ہوئی ہے ان واقعات کو بعض صحافیوں نے سینہ بہ سینہ منتقل کیا، بعض نے پتھروں، جانوروں کی کھالوں اور درختوں کے پتوں یا مختلف دھاتوں پر لکھ کر دوسروں تک منتقل کیا ہے۔ اسلامی اور انسانی تاریخ میں جس واقعے کو غیر جانبدارانہ طور پر منتقل کیا گيا اس کے مثبت اثرات مرتب ہوئے اور جن لوگوں پر ان واقعات کی رپورٹنگ یا واقعات کے اثرات مرتب ہوئے اور جن لوگوں نے ان واقعات کی رپورٹنگ یا واقعات کے حوالے سے جانبداری کی تو تاریخ کو اسکے نتائج بھگتنے پڑے۔ واقعات کی تحریف ہو یا آسمانی حوالے سے جانبداری کی، تو تاریخ کو اسکے نتائج بھگتنے پڑے۔ واقعات کی تحریف ہو یا آسمانی کتابوں میں تحریف یہ سب جانبدارانہ صحافت کا نتیجہ ہے، اسلام میں بھی جو بڑے بڑے واقعات، سانحات اور انحرافات سامنے آئے ہیں وہ بھی غلط رپورٹنگ اور جانبدارانہ صحافت کا شاخسانہ ہیں۔
آج کے دور میں بھی صحافت کے شعبے میں جو کچھ ہو رہا ہے وہ بھی تاریخ کا حصّہ بن رہا ہے۔
آج کا صحافی یا نامہ نگار یہ نہ سمجھے کہ آج جو کچھ وہ رپورٹنگ کر رہا ہے وہ صرف آج کے دن یا دور سے متعلق ہے بلکہ حقیقت یہ ہے کہ یہ تاریخ کا حصّہ بنتا جا رہا ہے اور محققین جب مستقبل میں اس واقعہ کی تحقیق و جستجو کریں گے تو بالآخر ایسے نامہ نگار یا صحافی کے بارے میں اچھی رائے قائم نہیں کریں گے جس نے جانبدارانہ انداز اپناتے ہوئے حقائق کو صحیح طریقے سے پیش نہیں کیا تھا۔ انسانی تاریخ کی بدقسمتی یہ ہے کہ اس طرح کی رپورٹنگ کرنے والوں کو چاہے اسے راوی کیا جائے، مورخ کا نام دیا جائے یا آج کے دور میں نامہ نگار یا تجزيہ کار کہا جائے بادشاہوں، حکومتوں اور موثر طبقوں کے خوف یا لالچ کی بناء پر حقائق کو مسخ کرتے رہے ہیں اور یہ قبیح سلسلہ آج بھی جاری ہے۔
کسی زمانے میں ایک بادشاہ، آمر یا موثر حکومتی حلقہ نامہ نگاروں اور تجزيہ کاروں اور کالم نگاروں کو اسٹک اینڈ کیرٹ ( خوف اور لالچ ) کے حربے سے اپنے مفادات کے لئے استعمال کرتا تھا، تاہم اب جہاں یہ سلسلہ جاری ہے وہاں عالمی سطح پر ایک غاصب صیہونی لابی بھی ہے جو ہر عالمی مسئلے کو اپنے فلٹر سے گزار کر اپنے مفاد کے مطابق سامنے لاتی ہے بعض اوقات تو اس کی اصل حقیقت کو بھی اس طرح مسخ کر دیا جاتا ہے کہ حقائق لاکھ جتن کرنے کے باوجود سامنے نہیں آپاتے۔
موجودہ دور میں اگر اسکی چند مثالیں دی جائیں تو اس میں ہولوکاسٹ کے معاملے سے لیکر گیارہ ستمبر کا واقعہ، عراق میں عام تباہی پھیلانے والے ہتھیاروں کی موجودگی، دہشت گردی کے خلاف جنگ اور اسلام فوبیا کا نام با آسانی لیا جا سکتا ہے، بات یہ صرف مذکورہ مسائل تک محدود نہیں بلکہ مختلف ممالک کے اندر بھی بعض مسائل کو حد سے زيادہ اہمیت دے کر اور بعض پر مکمل سنسر عائد کر کے اپنے مفادات حاصل کئے جا سکتے ہیں۔ دیگر ممالک میں ہونے والے واقعات کو چھوڑ کر اگر صرف پاکستان کی مثال بھی سامنے لائي جائے تو انسان حیران رہ جاتا ہے کہ الیکٹرانک اور پرنٹ میڈیا پر ایسے عناصر کا قبضہ ہے کہ انہوں نے پوری پاکستانی قوم کو اپنے پروپیگنڈوں میں جکڑا ہوا ہے۔
یہ میڈیا نہ صرف حقائق کو توڑ مروڑ کر پیش کرتا ہے بلکہ واقعات ہر اسطرح خاموشی اختیار کر لیتا ہے جیسے یہ واقعہ انجام ہی نہیں پایا ہے۔ عالمی صیہونی میڈیا کے بارے میں تو یہ کہا جاتا ہے کہ اگر ان کا متعلقہ آدمی کسی مخالف ملک میں غسل خانے کے اندر صابن سے پھسل کو زخمی ہو جائے تو وہ بریکنگ نیوز بن کر اور عالمی انسانی مسئلہ بن کر دنیا بھر کی نیوز ایجنسیوں اور ٹی وی چینلوں کا موضوع بن جاتا ہے، اس کے مقابلے میں فلسطین میں صیہونی قید میں موجود کم سن بچے اور عورتیں اسرائیلی فوجیوں کے جنسی اور غیر انسانی تشدد کے نتیجے میں جاں بحق بھی ہو جائیں تو اسکی معمولی سے خبر بھی باہر نہیں آتی، پاکستان میں بھی تقریبا" یہی صورت حال ہے۔ گدھا گاڑی کی ٹانگے سے ٹکر کی خبر یا پانچ بچوں کی مان آشنا کے ساتھ فرار ہو گئی والی خبر تو ٹی وی چینلوں اور اخبارات میں کئی کالموں اور زیلی اور شہ سرخیوں میں دی جاتی ہے لیکن عالم اسلام میں ہونے والے بڑے سے بڑے واقعے کو اندر کے صفحے یا آخری خبر کے طور پر بھی شائع نہيں کیا جاتا۔
حال ہی میں غزہ پٹی کے محصور فلسطینیوں کے لئے ایشیائی کاروان امدادی سامان اور سماجی کارکنوں سمیت نئی دہلی سے روانہ ہوا اور پاکستان کے شہر لاہور سے ہوتا ہوا ایران اور پھر ترکی، مصر، شام اور لبنان سے ہوتا ہوا مصر کی بندرگاہ العریش سے غزہ پہنچا، لیکن باوجود تمام کوششوں کے اس خبر کو پاکستانی میڈیا نے اہمیت نہیں دی۔ اگر اس میں صرف ہندوستانی افراد شامل ہوتے تو شاید کوئی بہانہ بنایا جا سکتا کہ چونکہ اسکا ہندوستان سے تعلق ہے، لہذا پاکستانی میڈیا حکومت ہندوستان کے حق میں کچھ نہیں کہتا، لیکن صورتحال اسکے برعکس تھی اگرچہ اسکا آغاز ہندوستان سے تھا لیکن پاکستان، جاپان، آذربائیجان سمیت درجنوں دوسرے ایشیائی ممالک کے افراد شامل تھے۔
پاکستانی میڈیا کے پاس بہترین موقع تھا جب ہندوستانی حکومت نے اسے واہگہ بارڈر سے پاکستان داخل ہونے سے روک دیا تھا۔ پاکستان کا شتر بے مہار میڈیا ہندوستان کے غیر جانبدارانہ پالیسیوں کو ہدف تنقید بنا کر اور اسکی طرف سے اسرائيل کے حوالے سے نرم گوشے کو اساس بنا کر اسکی عالمی حیثیت کو خراب کر سکتا تھا، لیکن ہمارے میڈیا کو سیاستدانوں کی گالم گلوچ اور لچر اور بے ہودہ پروگرام پیش کرنے سے فرصت ہو تو وہ کسی ڈھنگ کی خبر یا پروگرام کی طرف متوجہ ہو، یہ کاروان جب لاہور میں تھا اور وہاں سے ایران کی طرف روانہ ہو رہا تھا تو اس وقت بھی کئی معروف پاکستانی سیٹلائیٹ چینلوں سے اس حوالے سے رابطہ کیا، لیکن کوئی ریسپانس نہیں ملا، اس سے بھی بڑھ کر یہ کہ جب اس کاروان کے آٹھ افراد کو العریف بندرگاہ سے غزہ جاتے ہوئے اسرائيلی طیاروں اور اسرائيلی جنگي کشتیوں نے اپنے گھیرے میں لے لیا تو اس وقت بھی میں نے ذاتی طور پر بعض ٹی وی چینلوں کو اس کشتی میں موجود اس کاروان کے ایک سماجی کارکن کا ڈائریکٹ موبائيل نمبر دیا، لیکن سوائے ایران کے " اردو ریڈیو تہران" اور انگریزي چینل پریس ٹی وی نے خطرات میں گھرے ان افراد سے براہ راست گفتگو نہیں کی۔
فلسطین کے مسئلے کی اہمیت اور غزہ میں محصور عوام کی مدد کا مسئلہ ہو تو اپنی جگہ پیشہ ورانہ حوالے سے بھی اس طرح کے حساس تاریخی موقع پر براہ راست پروگرام یا انٹرویو صحافی، ٹی وی چینل اور ٹی وی اینکر کے لئے ایک اعزاز سے کم نہیں ہوتے، ہم سی این این، بی بی سی اور اے بی سی و غیرہ جیسے ٹی وی چینلوں سے کیا گلہ کریں، ہمارے اردو چینل نے اس عالمی ایشو کو جس طرح سنسر کیا اسے دنیا کے مظلوم اقوام بالخصوص فلسطینی کاز سے تعلق رکھنے والے اور غزہ کے محصور عوام کے لئے ہمدردی رکھنے والے کبھی فراموش نہیں کر سکیں گے۔
یہ تصویر کا ایک رخ ہے، عالمی ٹی وی چینل من جملہ پاکستانی ٹی وی چینل ایک طرف تو عالم اسلام کے بارے میں حقائق کو صحیح طریقے سے منتقل نہیں کرتے، دوسری طرف اسلام کے خلاف ہونے والے اقدامات کو بڑھا چڑھا کر پیش کر کے دین مبین اسلام کے پاک و پاکیزہ اور نرم و پر کشش چہرے کو متشدد، جنگجو اور دور جہالت کا ترجمان بنا کر مسخ کرنے کا کوئی موقع ہاتھ سے نہیں جانے دیتے۔ کیا پاکستان موجودہ دہشت گردی اور مذہبی انتہا پسندی کو فروغ دینے میں پاکستانی میڈیا کے کردار کو نظر انداز کیا جا سکتا ہے؟ سیاسی عدم استحکام اور افراتفری کو رواج دینے میں کیا پاکستانی میڈیا اپنے آپ کو بری الذمہ قرار دے سکتا ہے؟
غیر اخلاقی غیر مذہبی اور پاکستانی تہذیب و ثقافت کے خلاف اقدار کو پہلے ڈراموں اور فلموں میں تو پیش کیا ہی جاتا تھا کیا آج کے ٹاک شو حتٰی سیاسی مناظروں میں جس طرح کی بازاری زبان اور رویہ دکھایا جاتا ہے اس سے ہماری آئندہ نسلیں کیا سیکھیں گی؟
پاکستان میں کبھی کرپشن، کبھی مذہبی انتہا پسندی اور کبھی بیرونی مداخلت کو سب سے بڑا مسئلہ قرار دیا ہے یہ سب بھی اپنی جگہ ایک حقیقت ہیں لیکن اس قوم کا مسئلہ یہ ہے کہ اس کے ذمہ دار افراد میں بقول شاعر مشرق " احسان زياں جاتا رہا "
انسانی تاریخ میں عمومی طور پر واقعات کو نقل کرنے والے کو "راوی" کیا گيا ہے۔ انسانی تاریخ انہی راویوں کی روایات اور رپورٹنگ سے نسل در نسل منتقل ہوئی ہے ان واقعات کو بعض صحافیوں نے سینہ بہ سینہ منتقل کیا، بعض نے پتھروں، جانوروں کی کھالوں اور درختوں کے پتوں یا مختلف دھاتوں پر لکھ کر دوسروں تک منتقل کیا ہے۔ اسلامی اور انسانی تاریخ میں جس واقعے کو غیر جانبدارانہ طور پر منتقل کیا گيا اس کے مثبت اثرات مرتب ہوئے اور جن لوگوں پر ان واقعات کی رپورٹنگ یا واقعات کے اثرات مرتب ہوئے اور جن لوگوں نے ان واقعات کی رپورٹنگ یا واقعات کے حوالے سے جانبداری کی تو تاریخ کو اسکے نتائج بھگتنے پڑے۔ واقعات کی تحریف ہو یا آسمانی حوالے سے جانبداری کی، تو تاریخ کو اسکے نتائج بھگتنے پڑے۔ واقعات کی تحریف ہو یا آسمانی کتابوں میں تحریف یہ سب جانبدارانہ صحافت کا نتیجہ ہے، اسلام میں بھی جو بڑے بڑے واقعات، سانحات اور انحرافات سامنے آئے ہیں وہ بھی غلط رپورٹنگ اور جانبدارانہ صحافت کا شاخسانہ ہیں۔
آج کے دور میں بھی صحافت کے شعبے میں جو کچھ ہو رہا ہے وہ بھی تاریخ کا حصّہ بن رہا ہے۔
آج کا صحافی یا نامہ نگار یہ نہ سمجھے کہ آج جو کچھ وہ رپورٹنگ کر رہا ہے وہ صرف آج کے دن یا دور سے متعلق ہے بلکہ حقیقت یہ ہے کہ یہ تاریخ کا حصّہ بنتا جا رہا ہے اور محققین جب مستقبل میں اس واقعہ کی تحقیق و جستجو کریں گے تو بالآخر ایسے نامہ نگار یا صحافی کے بارے میں اچھی رائے قائم نہیں کریں گے جس نے جانبدارانہ انداز اپناتے ہوئے حقائق کو صحیح طریقے سے پیش نہیں کیا تھا۔ انسانی تاریخ کی بدقسمتی یہ ہے کہ اس طرح کی رپورٹنگ کرنے والوں کو چاہے اسے راوی کیا جائے، مورخ کا نام دیا جائے یا آج کے دور میں نامہ نگار یا تجزيہ کار کہا جائے بادشاہوں، حکومتوں اور موثر طبقوں کے خوف یا لالچ کی بناء پر حقائق کو مسخ کرتے رہے ہیں اور یہ قبیح سلسلہ آج بھی جاری ہے۔
کسی زمانے میں ایک بادشاہ، آمر یا موثر حکومتی حلقہ نامہ نگاروں اور تجزيہ کاروں اور کالم نگاروں کو اسٹک اینڈ کیرٹ ( خوف اور لالچ ) کے حربے سے اپنے مفادات کے لئے استعمال کرتا تھا، تاہم اب جہاں یہ سلسلہ جاری ہے وہاں عالمی سطح پر ایک غاصب صیہونی لابی بھی ہے جو ہر عالمی مسئلے کو اپنے فلٹر سے گزار کر اپنے مفاد کے مطابق سامنے لاتی ہے بعض اوقات تو اس کی اصل حقیقت کو بھی اس طرح مسخ کر دیا جاتا ہے کہ حقائق لاکھ جتن کرنے کے باوجود سامنے نہیں آپاتے۔
موجودہ دور میں اگر اسکی چند مثالیں دی جائیں تو اس میں ہولوکاسٹ کے معاملے سے لیکر گیارہ ستمبر کا واقعہ، عراق میں عام تباہی پھیلانے والے ہتھیاروں کی موجودگی، دہشت گردی کے خلاف جنگ اور اسلام فوبیا کا نام با آسانی لیا جا سکتا ہے، بات یہ صرف مذکورہ مسائل تک محدود نہیں بلکہ مختلف ممالک کے اندر بھی بعض مسائل کو حد سے زيادہ اہمیت دے کر اور بعض پر مکمل سنسر عائد کر کے اپنے مفادات حاصل کئے جا سکتے ہیں۔ دیگر ممالک میں ہونے والے واقعات کو چھوڑ کر اگر صرف پاکستان کی مثال بھی سامنے لائي جائے تو انسان حیران رہ جاتا ہے کہ الیکٹرانک اور پرنٹ میڈیا پر ایسے عناصر کا قبضہ ہے کہ انہوں نے پوری پاکستانی قوم کو اپنے پروپیگنڈوں میں جکڑا ہوا ہے۔
یہ میڈیا نہ صرف حقائق کو توڑ مروڑ کر پیش کرتا ہے بلکہ واقعات ہر اسطرح خاموشی اختیار کر لیتا ہے جیسے یہ واقعہ انجام ہی نہیں پایا ہے۔ عالمی صیہونی میڈیا کے بارے میں تو یہ کہا جاتا ہے کہ اگر ان کا متعلقہ آدمی کسی مخالف ملک میں غسل خانے کے اندر صابن سے پھسل کو زخمی ہو جائے تو وہ بریکنگ نیوز بن کر اور عالمی انسانی مسئلہ بن کر دنیا بھر کی نیوز ایجنسیوں اور ٹی وی چینلوں کا موضوع بن جاتا ہے، اس کے مقابلے میں فلسطین میں صیہونی قید میں موجود کم سن بچے اور عورتیں اسرائیلی فوجیوں کے جنسی اور غیر انسانی تشدد کے نتیجے میں جاں بحق بھی ہو جائیں تو اسکی معمولی سے خبر بھی باہر نہیں آتی، پاکستان میں بھی تقریبا" یہی صورت حال ہے۔ گدھا گاڑی کی ٹانگے سے ٹکر کی خبر یا پانچ بچوں کی مان آشنا کے ساتھ فرار ہو گئی والی خبر تو ٹی وی چینلوں اور اخبارات میں کئی کالموں اور زیلی اور شہ سرخیوں میں دی جاتی ہے لیکن عالم اسلام میں ہونے والے بڑے سے بڑے واقعے کو اندر کے صفحے یا آخری خبر کے طور پر بھی شائع نہيں کیا جاتا۔
حال ہی میں غزہ پٹی کے محصور فلسطینیوں کے لئے ایشیائی کاروان امدادی سامان اور سماجی کارکنوں سمیت نئی دہلی سے روانہ ہوا اور پاکستان کے شہر لاہور سے ہوتا ہوا ایران اور پھر ترکی، مصر، شام اور لبنان سے ہوتا ہوا مصر کی بندرگاہ العریش سے غزہ پہنچا، لیکن باوجود تمام کوششوں کے اس خبر کو پاکستانی میڈیا نے اہمیت نہیں دی۔ اگر اس میں صرف ہندوستانی افراد شامل ہوتے تو شاید کوئی بہانہ بنایا جا سکتا کہ چونکہ اسکا ہندوستان سے تعلق ہے، لہذا پاکستانی میڈیا حکومت ہندوستان کے حق میں کچھ نہیں کہتا، لیکن صورتحال اسکے برعکس تھی اگرچہ اسکا آغاز ہندوستان سے تھا لیکن پاکستان، جاپان، آذربائیجان سمیت درجنوں دوسرے ایشیائی ممالک کے افراد شامل تھے۔
پاکستانی میڈیا کے پاس بہترین موقع تھا جب ہندوستانی حکومت نے اسے واہگہ بارڈر سے پاکستان داخل ہونے سے روک دیا تھا۔ پاکستان کا شتر بے مہار میڈیا ہندوستان کے غیر جانبدارانہ پالیسیوں کو ہدف تنقید بنا کر اور اسکی طرف سے اسرائيل کے حوالے سے نرم گوشے کو اساس بنا کر اسکی عالمی حیثیت کو خراب کر سکتا تھا، لیکن ہمارے میڈیا کو سیاستدانوں کی گالم گلوچ اور لچر اور بے ہودہ پروگرام پیش کرنے سے فرصت ہو تو وہ کسی ڈھنگ کی خبر یا پروگرام کی طرف متوجہ ہو، یہ کاروان جب لاہور میں تھا اور وہاں سے ایران کی طرف روانہ ہو رہا تھا تو اس وقت بھی کئی معروف پاکستانی سیٹلائیٹ چینلوں سے اس حوالے سے رابطہ کیا، لیکن کوئی ریسپانس نہیں ملا، اس سے بھی بڑھ کر یہ کہ جب اس کاروان کے آٹھ افراد کو العریف بندرگاہ سے غزہ جاتے ہوئے اسرائيلی طیاروں اور اسرائيلی جنگي کشتیوں نے اپنے گھیرے میں لے لیا تو اس وقت بھی میں نے ذاتی طور پر بعض ٹی وی چینلوں کو اس کشتی میں موجود اس کاروان کے ایک سماجی کارکن کا ڈائریکٹ موبائيل نمبر دیا، لیکن سوائے ایران کے " اردو ریڈیو تہران" اور انگریزي چینل پریس ٹی وی نے خطرات میں گھرے ان افراد سے براہ راست گفتگو نہیں کی۔
فلسطین کے مسئلے کی اہمیت اور غزہ میں محصور عوام کی مدد کا مسئلہ ہو تو اپنی جگہ پیشہ ورانہ حوالے سے بھی اس طرح کے حساس تاریخی موقع پر براہ راست پروگرام یا انٹرویو صحافی، ٹی وی چینل اور ٹی وی اینکر کے لئے ایک اعزاز سے کم نہیں ہوتے، ہم سی این این، بی بی سی اور اے بی سی و غیرہ جیسے ٹی وی چینلوں سے کیا گلہ کریں، ہمارے اردو چینل نے اس عالمی ایشو کو جس طرح سنسر کیا اسے دنیا کے مظلوم اقوام بالخصوص فلسطینی کاز سے تعلق رکھنے والے اور غزہ کے محصور عوام کے لئے ہمدردی رکھنے والے کبھی فراموش نہیں کر سکیں گے۔
یہ تصویر کا ایک رخ ہے، عالمی ٹی وی چینل من جملہ پاکستانی ٹی وی چینل ایک طرف تو عالم اسلام کے بارے میں حقائق کو صحیح طریقے سے منتقل نہیں کرتے، دوسری طرف اسلام کے خلاف ہونے والے اقدامات کو بڑھا چڑھا کر پیش کر کے دین مبین اسلام کے پاک و پاکیزہ اور نرم و پر کشش چہرے کو متشدد، جنگجو اور دور جہالت کا ترجمان بنا کر مسخ کرنے کا کوئی موقع ہاتھ سے نہیں جانے دیتے۔ کیا پاکستان موجودہ دہشت گردی اور مذہبی انتہا پسندی کو فروغ دینے میں پاکستانی میڈیا کے کردار کو نظر انداز کیا جا سکتا ہے؟ سیاسی عدم استحکام اور افراتفری کو رواج دینے میں کیا پاکستانی میڈیا اپنے آپ کو بری الذمہ قرار دے سکتا ہے؟
غیر اخلاقی غیر مذہبی اور پاکستانی تہذیب و ثقافت کے خلاف اقدار کو پہلے ڈراموں اور فلموں میں تو پیش کیا ہی جاتا تھا کیا آج کے ٹاک شو حتٰی سیاسی مناظروں میں جس طرح کی بازاری زبان اور رویہ دکھایا جاتا ہے اس سے ہماری آئندہ نسلیں کیا سیکھیں گی؟
پاکستان میں کبھی کرپشن، کبھی مذہبی انتہا پسندی اور کبھی بیرونی مداخلت کو سب سے بڑا مسئلہ قرار دیا ہے یہ سب بھی اپنی جگہ ایک حقیقت ہیں لیکن اس قوم کا مسئلہ یہ ہے کہ اس کے ذمہ دار افراد میں بقول شاعر مشرق " احسان زياں جاتا رہا "
हिन्दी से दूर होते हिन्दी के अखबार-१
शीर्षक पढ़कर आप चैंक गए होंगे। चैंकिये नहीं, यह हकीकत है। मैं भी तब चैंका था जब लगभग एक दर्जन समाचार पत्रों का लगभग छह महीने तक अध्ययन करता रहा। हिन्दी अखबारों की हिन्दी का मटियामेट इन छह महीनों में नहीं हुआ बल्कि इसकी शुरूआत तो लगभग डेढ़ दशक पहले ही शुरू हो गयी थी। जिस तरह एक मध्यमवर्गीय परिवार के लिये हिन्दी पाठशाला में पढ़ने वाला बच्चा हर तरह से कमजोर होता है और पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा चाहे कितना ही कमजोर क्यों न हो, वह कुशाग्र बुद्धि का ही कहलायेगा, ऐसी मान्यता है, सच्चाई नहीं। लगभग यही स्थिति हिन्दी के अखबारों का है। यह सच है कि हिन्दी के अखबारों का अपना प्रभाव है। उनकी अपनी ताकत है और यही नहीं हिन्दी के अखबार ही समाज के मार्गदर्शक भी रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम की बात करें अथवा नये भारत के गढ़ने की, हिन्दी के अखबारोें की भूमिका ही महत्वपूर्ण रही है। भारत गांवों का देश कहलाता है और हिन्दी के अखबार इनकी आवाज बने हुए हैं। बदलते समय में भी हिन्दी के अखबार प्रभावशाली बने हुए है। बाजार की सबसे बड़ी ताकत भी हिन्दी के अखबार हैं और बाजार की सबसे बड़ी कमजोरी भी हिन्दी के अखबार हैं। इन सबके बावजूद हिन्दी के अखबार कहीं न कहीं अपने आपको कमजोर महसूस करते हैं और अंग्रेजी से नकलीपन करने से बाज नहीं आते हैं। ये नकलीपन कैसा है और इसके पीछे क्या तर्क दिये जा रहे हैं, इस मानसिकता को समझना होगा। इस बात को समझने के लिये हमें अस्सी के दौर में जाना होगा। यह वह दौर था जब हिन्दी का अर्थ हिन्दी ही हुआ करता था। खबरों में अंग्रेजी के शब्दों के उपयोग की मनाही थी। पढ़ने वाले भी सुधि पाठक हुआ करते थे। समय बदला और चीजें बदलने लगीं। सबसे पहले कचहरी अथवा अदालत के स्थान पर कोर्ट का उपयोग किया जाने लगा। इसके बाद जिलाध्यक्ष एवं जिलाधीश के स्थान पर कलेक्टर और आयुक्त के स्थान पर कमिश्नर लिखा जाने लगा। हिन्दी के पाठक इस बात को पचा नहीं पाये और विरोध होने लगा तब बताया गया कि समय बदलने के साथ साथ अब हिन्दी अंग्रेजी का मिलाप होने लगा है और वही शब्द अंग्रेजी के उपयोग में आएंगे जो बोलचाल के होंगे। तर्क यह था एक रिक्शावाला कोर्ट तो समझ जाता है किन्तु कचहरी अथवा अदालत उसके समझ से परे है। जिलाध्यक्ष शब्द को लेकर यह तर्क दिया गया कि विभिन्न राजनीतिक दलों के जिलों के अध्यक्षों को जिलाध्यक्ष कहा जाता है और जिलाधीश अथवा जिलाध्यक्ष मे भ्रम होता है इसलिये कलेक्टर लिखा जाएगा ताकि यह बात साफ रहे कि कलेक्टर अर्थात जिलाध्यक्ष है जो एक शासकीय अधिकारी है न कि किसी पार्टी का जिलाध्यक्ष। आयुक्त को कमिश्नर लिखे जाने पर कोई पक्का तर्क नहीं मिल पाया तो कहा गया कि रेलपांत का हिन्दी लौहपथ गामिनी है और सिगरेट को श्वेत धूम्रपान दंडिका कहा जाता है जो कि आम बोलचाल में लिखना संभव नहीं है। इसी के साथ शुरू हुआ हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल। इसके बाद हिन्दी अखबारों को लगने लगा कि हिन्दी पत्रकारिता में खोजी पुट नहीं है और अनुवाद की परम्परा चल पड़ी। बड़े अंंग्रेजी अखबारों से हिन्दी में खबरें अनुवाद कर प्रकाशित की जाने लगी। इसके पीछे बड़ी, गंभीर, खोजी और न जाने ऐसे कितने तर्क देकर एक बार फिर अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं का गुणगान किया जाने लगा। 90 के आते आते तो लगभग हर अखबार यह करने लगा था। खासतौर पर क्षेत्रीय हिन्दी अखबार। मुझे लगता है कि इसके पीछे यह भावना भी काम कर रही थी कि देखिये हमारे पास श्रेष्ठ अनुवादक हैं जो अंग्रेजी की खबरों का अनुवाद कर आप तक पहुंचा रहे हैं। हालांकि यह दौर अनुवाद का दौर था किन्तु इसकी विशेषता यह थी कि इसमें अंग्रेजी का शब्दानुवाद नहीं किया जाता था बल्कि भावानुवाद किया जाता था। इससे अंग्रेजी में लिखी गयी खबर की आत्मा भी नहीं मरती थी और हिन्दीभाषी पाठकों को खबर का स्वाद भी मिल जाता था। ऐसा भी नहीं है कि इसका फायदा हिन्दी के पाठकांें को नहीं हुआ। फायदा हुआ किन्तु श्रेष्ठिवर्ग साबित हुआ अंग्रेजी जानने वाले और अंग्रेजी के अखबार विद्वान। अनचाहे में हिन्दी अखबार स्वयं को दूसरे दर्जे का मानने लगे और हिन्दी में काम करने वाले पत्रकार स्वयं में हीनभावना के शिकार होने लगे। प्रबंधन भी उन पत्रकारों को विशेष तवज्जो देने लगा जो अंग्रेजी के प्रति मोह रखते थे और एक तरह से स्वयं को अंग्रेजीपरस्त बताने में माहिर थे।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मेे पुस्तकाकार में प्रकाशन। फिलवक्त मीडिया की मासिक पत्रिका समागम के प्रकाशक एवं संपादक )
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं मीडिया अध्येता हैं। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मेे पुस्तकाकार में प्रकाशन। फिलवक्त मीडिया की मासिक पत्रिका समागम के प्रकाशक एवं संपादक )
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