Friday, September 11, 2009

भारत के तीस टुकड़े करने का एक चीनी सपना

भारत के तीस टुकड़े करने का एक चीनी सपना
1 Sep 2009, 0812 hrs IST,नवभारत टाइम्स अवधेश कुमार
हाल के अरसे
में भारत के खिलाफ चीन की आक्रामकता में बढ़ोतरी होती दिखाई दी है। जहां जम्मू - कश्मीर के लेह इलाके में चीनी हेलिकॉप्टरों की घुसपैठ की घटनाएं हुई हैं , वहीं सिक्किम में नाथु - ला पर दोनों देशों की सेनाओं के बीच हल्के संघर्ष की खबरें भी मिलीं। कुछ ही दिनों पहले एक चीनी थिंक टैंक ने यह सलाह अपनी सरकार को दी है कि चीन को भारत के 20-30 टुकड़े कर देने चाहिए। हालांकि इसी दौरान भारत - चीन के बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए वार्ताएं भी हुई हैं , पर इस बीच चीन की तरफ से घुसपैठ आदि की जो घटनाएं हुई हैं , उनसे चीन के व्यवहार और उद्देश्य को लेकर भ्रम पैदा होता है। चीनी थिंक टैंक - चाइना इंटरनैशनल इंस्टिट्यूट फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज की वेबसाइट पर झान लू नामक लेखक ने लिखा है कि चीन अपने मित्र देशों - पाकिस्तान , बांग्लादेश , नेपाल और भूटान की मदद से तथाकथित भारतीय महासंघ को तोड़ सकता है। झान लू तमिल और कश्मीरियों को आजाद कराने और अल्फा जैसे संगठनों का समर्थन करने की बात भी कहते हैं। झान कहते हैं कि चीन बांग्लादेश को प . बंगाल की आजादी को समर्थन देने के लिए प्रोत्साहित करे , ताकि एक बांग्ला राष्ट्र का उदय हो सके। वह अरुणाचल प्रदेश में 90 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन को मुक्त कराने की सलाह भी देते हैं। चीनी सरकार को सलाह देने वाले थिंक टैंक की यह वेबसाइट अधिकृत हो या नहीं , पर यह इस बात का प्रमाण तो है ही कि वहां के बुद्धिजीवी अभी भी भारत के बारे में क्या सोचते हैं। ऐसी व्याख्याएं करते वक्त वे यह भूल जाते हैं कि आजादी के बाद भारत के टूट जाने संबंधी उतने सिद्धांत सामने नहीं आए हैं जितने चीन के। चीन की टूट की भविष्यवाणी करने वालों में चीनी सरकार से असंतुष्ट , ताइवानी पृष्ठभूमि से लेकर अन्य श्रेणी के लोग भी शामिल हैं। ये चीन का विखंडन निश्चित मानते हैं। जापान में केनिची ओहमेइ ने लिखा है कि चीन के टूटने के बाद 11 गणराज्य पैदा हो सकते हैं , जो एक ढीलाढाला संघीय गणराज्य कायम कर लेंगे। 1993 में दो विद्वानों ने युगोस्लाविया से तुलना करते हुए चीन की संभावित टूट के प्रति आगाह किया था। उन्होंने केंद्रीय सरकार के वित्तीय केंद्रीकरण की नीति को युगोस्लाविया के समान मानते हुए कहा कि इस वजह से इस देश को एक रख पाना संभव नहीं होगा। सोवियत संघ एवं पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्ट शासन के ध्वंस काल में अमेरिकी रक्षा विभाग ने चीन के भविष्य के आकलन के लिए एक 13 सदस्यीय पैनल का गठन किया , जिसमें बहुमत से चीन के बिखर जाने की बात कही गई थी। 1995 में यूनिवसिर्टी ऑफ कैलिफोनिर्या के प्रो . जैक गोल्डस्टोन ने फारेन अफेयर्स में लिखे अपने लेख ' द कमिंग चाइनीज कोलैप्स ' में कहा कि अगले 10 से 15 वर्षों में चीन के शासक वर्ग के सामने बड़ा संकट पैदा होगा। इसके संदर्भ में उन्होंने बुजुर्गों की बढ़ती आबादी , कर्मचारियों व किसानों का असंतोष और नेतृत्व के बीच मतभेद का संकट तथा वित्तीय कमजोरियों के कारण नेतृत्व की प्रभावकारी शासन करने की क्षमता में तेज गिरावट आदि का उल्लेख किया था। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के ही गॉर्डन सी . चांग ने अपनी पुस्तक - कमिंग कोलैप्स ऑफ चाइना में चीन की आर्थिक संस्थाओं की कमजोरियों का विस्तृत विश्लेषण करते हुए कहा है कि विश्व व्यापार संगठन में उसका प्रवेश उसके विघटन का कारण बन जाएगा। ऐसे और भी उदाहरण हो सकते हैं। इसके पक्ष - विपक्ष में मत हो सकते हैं , किंतु कम से कम भारत के बारे में तो ऐसी भविष्यवाणियां नहीं की गई हैं। 1962 में चीन से धोखा खाने और अरुणाचल पर उसके लगातार दावे के बावजूद भारत का कोई नागरिक उसके विखंडित होने की कामना नहीं करता है। लेकिन जब 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ और उसके फलस्वरूप जब दूसरे कम्युनिस्ट देश बिखरने लगे तभी से यह सवाल उठाया जाने लगा था कि क्या अब चीन के टूटने की बारी है ? ताइवान पहले ही उसके नियंत्रण से मुक्त हो चुका है। उसके समर्थकों को चीनी नेता विखंडनवादी ( स्प्लिटिस्ट ) कहते हैं। चीन तो तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से भी खौफ खाता है। इसी तरह शिनच्यांग के उइगुरों के विद्रोह को विदेशी शक्तियों का दुष्टतापूर्ण षडयंत्र कहा गया। चीन इस बात को लेकर आशंकित रहता है कि कहीं शिनच्यांग के मुसलमान मध्य एशिया के साथ न मिल जाएं। चीन दावा करता है कि तिब्बत और शिनच्यांग दोनों सदियों से उसके भाग रहे हैं। किंतु 20 वीं सदी में ही शिनच्यांग में पूवीर् तुकिर्स्तान गणराज्य का प्रभुत्व था , जो 1949 में चाइनीज पीपल्स लिबरेशन आर्मी के दबाव में समाप्त हो गया। स्वतंत्र तिब्बत का इतिहास तो काफी पुराना है। 1912 से 1949 के बीच एक आजाद देश के रूप में तिब्बत के वजूद से तो कोई इनकार नहीं कर सकता। और फिर 1959 में तिब्बतियों के विद्रोह को कौन भूल सकता है ? हालांकि इस समय माना जा रहा है कि तिब्बत या शिनच्यांग के विदोहियों को सफलता मिलना संभव नहीं। दलाई लामा तो अब आजादी की मांग भी नहीं कर रहे हैं। लेकिन तिब्बत की आजादी के समर्थकों की संख्या चाहे जितनी हो और चीन चाहे जितनी निष्ठुरता से भूभागीय अखंडता के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को कुचलने की स्थिति में हो , यह लौ बुझ नहीं सकती। चीन के शासन के खिलाफ पूरा पश्चिमी जगत भी है। पश्चिमी देश तो चाहते हैं कि भारत चीन के खिलाफ खड़ा हो। अगर भारत उनके साथ खड़ा हो गया और तिब्बतियों से लेकर अन्य विक्षुब्ध लोगों अथवा गुटों की , अलगाववादी संघर्ष के लिए ठीक वैसी ही मदद करने लगा जैसे अपने लेख में झान लू ने चीन सरकार को भारत के खिलाफ सुझाव दिए हैं , तो चीन के न जाने कितने टुकड़े हो जाएंगे। इसलिए चीनियों को भारत की ओर उंगली उठाने की जगह अपने बारे में विचार करना चाहिए।

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