Nov 04, 11:51 pm
नक्सल समस्या एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले दिनों में सुरक्षा बलों और नक्सलियों की पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी में आमना-सामना होगा। जाहिर है कि इसमें बहुत लोग मारे जाएंगे। अफसोस इस बात का विशेष तौर से होगा कि मारे जाने वालों में अधिकांश गरीब तबके और जनजातीय लोग होंगे। सुरक्षा बलों को भी नुकसान अवश्य होगा। क्या इस दुखदायी स्थिति से बचा जा सकता था? दुखदायी इसलिए कि सुरक्षा बलों को अपने ही नागरिकों के एक वर्ग से संघर्ष करना पड़ेगा। सच तो यह है कि सरकार के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा था। प्रधानमंत्री ने हाल में ही पुलिस प्रमुखों को संबोधित करते हुए कहा कि नक्सल आंदोलन देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हो गया है। गृहमंत्री ने स्पष्ट किया कि नक्सल गुटों का प्रभाव बीस प्रदेशों के लगभग 223 जनपदों में कमोबेश फैल चुका है। उन्होंने यह भी बताया कि नक्सल हिंसा से 13 प्रदेशों के नब्बे जनपदों में चार सौ पुलिस स्टेशन क्षेत्र विशेष तौर से प्रभावित हैं। नक्सल हिंसा का तांडव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। विगत वर्ष 2008 में नक्सल हिंसा की कुल 1591 घटनाएं हुई थीं, जिनमें 721 व्यक्ति मारे गए थे। इस वर्ष अगस्त के अंत तक 1405 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 580 व्यक्ति मारे गए हैं। सुरक्षाकर्मी विशेष तौर से नक्सलियों के निशाने पर रहे। 2008 में 231 सुरक्षाकर्मी मारे गए, इस वर्ष यह संख्या 270 के ऊपर पहुंच चुकी है।
नक्सल आंदोलन के विस्तार के कारणों को भी समझना जरूरी है। हमारी योजनाएं कागज पर कितनी ही अच्छी बनी हों, इनके क्रियान्वयन में बहुत कमी रही है। योजना आयोग ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता के साठ वर्ष पश्चात भी हमारी एक चौथाई से ज्यादा आबादी आज भी गरीब है। विकास हुआ है, जीडीपी बढ़ी है, परंतु विकास का लाभ सभी वर्गो को उनकी आवश्यकतानुसार नहीं मिला है। जनजातियों के साथ विशेष तौर से सौतेला व्यवहार हुआ है। एक आकलन के अनुसार 1947 से 2004 के बीच में विभिन्न योजनाओं के कारण देश में कुल 6 करोड़ आदमी विस्थापित हुए। इसमें चालीस प्रतिशत जनजातियों के लोग थे। भूमि संबंधी सुधार जो देश में होने चाहिए थे वेआंशिक रूप से ही हुए और प्रदेश सरकारें इस दिशा में उदासीन हैं। भ्रष्टाचार इतना ज्यादा व्याप्त है कि विकास संबंधी योजनाएं कागज पर ही धरी रह जाती हैं। झारखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री और उनके कैबिनेट सहयोगियों के विरुद्घ आरोप है कि वे करीब 4000 करोड़ रुपये खा गए। इस रकम का थाइलैंड और लाइबेरिया जैसे देशों में निवेश किया गया। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने हाल में बयान दिया था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सरकार जो खर्च करती है उसमें एक रुपये का केवल 16 पैसा गरीब आदमी तक पहुंचता है। फलस्वरूप जो लाभ गरीब तबके के लोगों के पास पहुंचना चाहिए वह नहीं पहुंच पाता। देश में बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां प्रशासकीय व्यवस्था एकदम लचर है। छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जनपद में अबुजमांड चार हजार वर्ग किलोमीटर का एक ऐसा क्षेत्र है जहां सरकारी तंत्र आज भी नहीं पहुंच पाया है। उस क्षेत्र का प्रदेश सरकार के पास कोई आधिकारिक नक्शा तक नहीं है। इन हालात में नक्सलियों ने वहां अपना गढ़ बना लिया है। अन्य प्रदेशों में भी बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां मूलभूत सुविधाएं-शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, सड़क और स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। यह सब असंतोष का कारण बनता है। नक्सलवाद के पनपने और इसके देश के बड़े भौगोलिक क्षेत्र में विस्तार के लिए सरकार जिम्मेदार है, परंतु इन मुदं्दों के आधार पर कानून को हाथ में लेने का कोई औचित्य नहीं बनता। नक्सली भी दलितों और जनजातियों को केवल मोहरा बना रहे हैं। उनका मूल लक्ष्य राज्य सत्ता पर कब्जा करना है। उनकी सशस्त्र क्रांति की योजना में हिंसा है, सरकारी तंत्र पर हमला है, विध्वंस है, परंतु कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं है। माओवाद तो चीन में ही दफना दिया गया है। आज की तारीख में उसके आधार पर देश में कोई संरचना असंभव है। हमारे लोकतंत्र में खामियां हैं, विकास योजनाओं में प्राथमिकताएं सही नहीं हैं, परंतु फिर भी यह व्यवस्था जन समर्थन से बनी है और इसमें हर व्यक्ति को अपना दृष्टिकोण रखने का अधिकार है। रकार ने बार-बार यह कहा है कि नक्सली अगर हिंसा का रास्ता त्याग दें तो उनसे बातचीत हो सकती है, परंतु हम देख रहे हैं कि नक्सली हिंसाओं में वृद्घि हो रही है। अक्टूबर माह में ही झारखंड में पुलिस इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदुवार की गला काटकर हत्या की गई, गढ़चिरौली में 18 पुलिस कर्मियों को मार डाला गया। पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के सीमावर्ती जनपदों में दो दिन का बंद हुआ, जिसमें जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया गया। केंद्रीय औद्योगिक बल के चार जवान बारूदी सुरंग से उड़ा दिए गए। राजधानी एक्सप्रेस को पश्चिमी मिदनापुर में पांच घंटों तक रोका गया। इन घटनाओं से तो यह लगता है कि नक्सली वार्ता करने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं, बल्कि सरकार को बराबर चुनौती दे रहे हैं। माओवादी नेता जिस तरह के बयान देते हैं उनसे भी ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि नक्सली शांति वार्ता चाहते हैं। ऐसी परिस्थितियों में सरकार के पास सख्ती के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता। किसी भी सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह जनजीवन को सुरक्षा प्रदान करे और हिंसात्मक कार्रवाइयों पर नकेल लगाए। इसी नीति के अंतर्गत भारत सरकार ने नक्सल प्रभावित प्रदेशों में सशस्त्र कार्रवाई करने का निर्णय लिया है। एक राज्य के अंदर समानांतर हुकूमत नहीं चल सकती। एक राज्य के अंदर दो विरोधी सुरक्षा बल भी नहीं हो सकते। सरकार को नक्सलियों के राजनीतिक ढांचे को ध्वस्त करना होगा और उनकी गुरिल्ला फौज को छिन्न-भिन्न करना होगा। इस सारी कार्रवाई में यह विशेष ध्यान देना होगा कि नागरिकों को कम से कम नुकसान हो और बेकसूर आदमी न मारे जाएं। सशस्त्र कार्रवाई में कम से कम पांच-छह महीने का समय तो लग ही जाएगा। कालांतर में यह सुनिश्चित करना होगा कि जैसे-जैसे प्रभावित क्षेत्रों से नक्सली हटते जाते हैं वहां नागरिक प्रशासन स्थापित किया जाए और लोगों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। विकास का कार्य इमानदारी से सुनिश्चित कराना होगा। यह भी देखना होगा कि विकास मानवीय दृष्टिकोण से हो अर्थात वहां के निवासियों को न्यूनतम कष्ट हो और जो अनिवार्य रूप से विस्थापित होते हैं उनके पुनर्वास एवं रोजगार की व्यवस्था की जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया और सशस्त्र कार्रवाई के बाद सरकार अपने पुराने ढर्रे पर, जिसमें भ्रष्टाचार को अस्सी प्रतिशत बर्दाश्त किया जाता है, फिर से चलने लगती है तो यह मान लिया जाए कि नक्सलवाद पुन: उभर कर आएगा और उसका स्वरूप वर्तमान से भी ज्यादा भयंकर होगा।
[प्रकाश सिंह: लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं]
Saturday, November 21, 2009
नक्सलवाद का नासूर
Oct 31, 10:34 pm
जब से केंद्र सरकार ने नक्सलवाद को नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाने की पहल शुरू की है तब से नक्सली संगठनों का उत्पात और अधिक बढ़ता जा रहा है। वे एक के बाद एक दुस्साहसिक वारदातें कर केंद्र और राज्य सरकारों को चुनौती देने में लगे हुए हैं। इन चुनौतियों के बीच केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम लगातार इसके लिए प्रयास कर रहे हैं कि नक्सली संगठनों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई के लिए आम सहमति का माहौल कायम हो। वह नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों से बातचीत कर सुरक्षा-व्यवस्था दुरुस्त करने के प्रयास भी कर रहे हैं और केंद्रीय सुरक्षा बलों को भी सुसज्जित कर रहे हैं। वह नक्सलियों को हिंसा छोड़कर बातचीत के लिए आगे आने के लिए भी निमंत्रित कर रहे हैं। ऐसी ही बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह रहे हैं, लेकिन नक्सली इसके लिए तैयार नहीं दिख रहे। वे सुरक्षाबलों और आम लोगों को निशाना बनाने में लगे हैं। हाल में उन्होंने पश्चिम बंगाल में थाने पर हमला कर दो पुलिसकर्मियों को मार डाला और एक का अपहरण कर लिया। बाद में उन्होंने अपहृत पुलिसकर्मी को मीडिया की मौजूदगी में रिहा तो कर दिया, लेकिन शर्ते मनवाने के बाद। इसके बाद उन्होंने एक सार्वजनिक उपक्रम की सुरक्षा में तैनात चार सुरक्षा जवानों को मार डाला। सबसे सनसनीखेज घटना राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाने की रही। इसके पूर्व उन्होंने रांची में एक पुलिस इंस्पेक्टर का अपहरण कर उसकी बर्बरता पूर्वक हत्या कर दी थी।
नक्सलियों से निपटने की तैयारी के बीच यह साफ दिख रहा है कि कई राजनीतिक दल नक्सलवाद को लेकर संकीर्ण राजनीति कर रहे हैं। बंगाल सरकार ने अपहृत पुलिस कर्मी की रिहाई के एवज में नक्सलियों की शर्तो के समक्ष झुकने से पहले केंद्र से इस बारे में विचार-विमर्श करना जरूरी नहीं समझा। इसी तरह राजधानी एक्सप्रेस बंधक कांड में दर्ज एफआईआर में रेलवे पुलिस ने नक्सली समर्थक उस संगठन का उल्लेख तक नहीं किया गया जिसके नेता छत्रधर महतो को रिहा करने की मांग की गई थी। मजबूरी में सीआरपीएफ के जरिये केंद्र को दूसरी एफआईआर दर्ज करानी पड़ी। रेलवे पुलिस की कार्रवाई से इसकी पुष्टि हो गई कि पश्चिम बंगाल सरकार उनके प्रति नरम है जिनके परोक्ष-प्रत्यक्ष संबंध नक्सली संगठनों से हैं। समस्या यह है कि ऐसी ही नरमी ममता बनर्जी भी दिखा रही हैं। यही कारण है कि माकपा नेता यह आरोप लगा रहे हैं कि ममता बनर्जी नक्सलवाद को समर्थन दे रही हैं। यह बात और है कि वे यह नहीं बताना चाहते कि बंगाल सरकार नक्सलियों के खिलाफ सीधी कार्रवाई करने में क्यों हिचक रही है? दरअसल इस हिचक का कारण माकपा की माओवादियों से सहानुभूति है, जिसकी ओर चिदंबरम ने यह कहकर इशारा भी किया कि अभी हाल तक तो माकपा माओवादियों को हथियारबंद काडर मानती थी। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि बंगाल सरकार माओवादियों पर पाबंदी लगाने के लिए तब तक तैयार नहीं हुई जब तक केंद्र ने इसके लिए उस पर दबाव नहीं डाला। इसमें संदेह नहीं कि वाम दल माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते रहे हैं और अभी भी वे उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं। इसी तरह यह भी साफ है कि तृणमूल कांग्रेस की हमदर्दी उन तत्वों से हैं जो नक्सलियों से मिले हुए हैं। इसका प्रमाण यह है कि ममता बनर्जी लालगढ़ से केंद्रीय सुरक्षा बलों को हटाने की मांग कर रही हैं, जबकि यह इलाका अभी भी नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है। माकपा, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य दल नक्सलवाद से निपटने के मामले में ढुलमुल रवैया तब अपनाए हुए हैं जब केंद्रीय गृह सचिव इसके लिए आगाह कर रहे हैं कि ट्रेनों को बंधक बनाने सरीखी घटनाएं और हो सकती हैं। केंद्र के समक्ष समस्या केवल नक्सलवाद की आड़ में होने वाली राजनीति ही नहीं, बल्कि मानवाधिकारवादियों के एक वर्ग की ओर से की जा रही व्यर्थ की चीख-पुकार भी है। वे यह देखने से इनकार कर रहे हैं कि नक्सली किस तरह बर्बर हिंसा पर उतर आए हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि शोषित-वंचित तबकों ने अन्याय और उपेक्षा से त्रस्त होकर नक्सली विचारधारा की शरण ली और फिर शासन तंत्र के खिलाफ हथियार उठाए। पहले उन्होंने जंगलों और खनिज खदानों पर प्रभुत्व कायम किया, लेकिन अब वे समानांतर शासन कायम करते दिख रहे हैं। हाल की घटनाएं यह संकेत करती हैं कि उनकी तैयारी राज्य सत्ता के खिलाफ विद्रोह करने की है। अब ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि नक्सलियों के संबंध कुछ आतंकी संगठनों से तो हैं ही, उन्हें विदेशों से भी हथियार मिल रहे हैं। गृहमंत्रालय की मानें तो नक्सलियों ने लिंट्टे के सहयोग से खुद को इतना मजबूत बना लिया है कि सुरक्षा बलों के समक्ष मुश्किल आ सकती है। सच्चाई जो भी हो, यह तथ्य है कि नक्सली आंदोलन अपने प्रारंभिक दौर के मुकाबले अब बिलकुल अलग राह पर चल निकला है। नक्सली संगठन आतंकी संगठनों की तर्ज पर सक्रिय हैं। उनकी हरकतें बता रही हैं कि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं, लेकिन कई राजनीतिक दल ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे खतरे की कोई बात ही नहीं। यद्यपि नक्सली समय-समय पर राजनेताओं को भी निशाना बनाते रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके उन्हें अनेक राजनीतिज्ञों का समर्थन हासिल है। स्पष्ट है कि राजनेताओं का एक समूह यह समझने से इनकार कर रहा है कि नक्सली कितने खतरनाक हैं? पश्चिम बंगाल में माकपा-तृणमूल कांग्रेस जिस तरह आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं उससे केंद्र सरकार का काम और कठिन हो रहा है। चूंकि केंद्र को नक्सलवाद के प्रति ममता बनर्जी के ढुलमुल रवैये का न चाहते हुए बचाव करना पड़ रहा है इसलिए माकपा केंद्रीय सत्ता पर भी निशाना साधने में लगी हुई है। कुछ ऐसी ही कठिनाई कथित बुद्धिजीवी भी पेश कर रहे हैं। हाल में अरुंधती राय और कुछ समाजसेवी संगठन जिस तरह नक्सलियों के पक्ष में खुलकर खड़े हुए उससे तो यही लगा कि वे यह चाहते हैं कि नक्सलियों को हथियार उठाने का अधिकार मिलना चाहिए। यह सही है कि देश के एक हिस्से में विकास की रोशनी नहीं पहुंच सकी है और वहां की जनता उपेक्षा से त्रस्त है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि विकास से वंचित लोगों को हिंसा के रास्ते पर चलने की छूट दे दी जाए। एक ऐसे समय जब केंद्र सरकार के समक्ष नक्सलियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह गया है तब बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का उनके पक्ष में खड़े होना आश्चर्यजनक है। ये बुद्धिजीवी नक्सलियों के खिलाफ केंद्र सरकार की तैयारी का तो विरोध कर रहे हैं, लेकिन इसके लिए प्रयास नहीं कर रहे कि वे केंद्र से बातचीत करने के लिए आगे आएं, जबकि केंद्र सरकार सभी जंगल, जमीन, विकास योजनाओं समेत मुद्दों पर बातचीत करने की पेशकश करने के साथ यह भी कह रही है कि इस वार्ता में राज्यों को भी शामिल किया जाएगा। भले ही नक्सलवादी देश के पिछड़े क्षेत्रों में विकास कार्य न होने की बातें कर रहे हों, लेकिन सच यह है कि अब वे खुद विकास विरोधी बन गए हैं। इन स्थितियों में यह आवश्यक है कि केंद्र और राज्य वास्तव में मिलकर नक्सलियों से लड़ें। कोशिश यह होनी चाहिए कि यह लड़ाई लंबी न खिंचे और इसमें आम लोगों को कोई नुकसान न पहुंचे, अन्यथा इस लड़ाई को जीतना और कठिन हो जाएगा।
जब से केंद्र सरकार ने नक्सलवाद को नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाने की पहल शुरू की है तब से नक्सली संगठनों का उत्पात और अधिक बढ़ता जा रहा है। वे एक के बाद एक दुस्साहसिक वारदातें कर केंद्र और राज्य सरकारों को चुनौती देने में लगे हुए हैं। इन चुनौतियों के बीच केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम लगातार इसके लिए प्रयास कर रहे हैं कि नक्सली संगठनों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई के लिए आम सहमति का माहौल कायम हो। वह नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों से बातचीत कर सुरक्षा-व्यवस्था दुरुस्त करने के प्रयास भी कर रहे हैं और केंद्रीय सुरक्षा बलों को भी सुसज्जित कर रहे हैं। वह नक्सलियों को हिंसा छोड़कर बातचीत के लिए आगे आने के लिए भी निमंत्रित कर रहे हैं। ऐसी ही बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह रहे हैं, लेकिन नक्सली इसके लिए तैयार नहीं दिख रहे। वे सुरक्षाबलों और आम लोगों को निशाना बनाने में लगे हैं। हाल में उन्होंने पश्चिम बंगाल में थाने पर हमला कर दो पुलिसकर्मियों को मार डाला और एक का अपहरण कर लिया। बाद में उन्होंने अपहृत पुलिसकर्मी को मीडिया की मौजूदगी में रिहा तो कर दिया, लेकिन शर्ते मनवाने के बाद। इसके बाद उन्होंने एक सार्वजनिक उपक्रम की सुरक्षा में तैनात चार सुरक्षा जवानों को मार डाला। सबसे सनसनीखेज घटना राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाने की रही। इसके पूर्व उन्होंने रांची में एक पुलिस इंस्पेक्टर का अपहरण कर उसकी बर्बरता पूर्वक हत्या कर दी थी।
नक्सलियों से निपटने की तैयारी के बीच यह साफ दिख रहा है कि कई राजनीतिक दल नक्सलवाद को लेकर संकीर्ण राजनीति कर रहे हैं। बंगाल सरकार ने अपहृत पुलिस कर्मी की रिहाई के एवज में नक्सलियों की शर्तो के समक्ष झुकने से पहले केंद्र से इस बारे में विचार-विमर्श करना जरूरी नहीं समझा। इसी तरह राजधानी एक्सप्रेस बंधक कांड में दर्ज एफआईआर में रेलवे पुलिस ने नक्सली समर्थक उस संगठन का उल्लेख तक नहीं किया गया जिसके नेता छत्रधर महतो को रिहा करने की मांग की गई थी। मजबूरी में सीआरपीएफ के जरिये केंद्र को दूसरी एफआईआर दर्ज करानी पड़ी। रेलवे पुलिस की कार्रवाई से इसकी पुष्टि हो गई कि पश्चिम बंगाल सरकार उनके प्रति नरम है जिनके परोक्ष-प्रत्यक्ष संबंध नक्सली संगठनों से हैं। समस्या यह है कि ऐसी ही नरमी ममता बनर्जी भी दिखा रही हैं। यही कारण है कि माकपा नेता यह आरोप लगा रहे हैं कि ममता बनर्जी नक्सलवाद को समर्थन दे रही हैं। यह बात और है कि वे यह नहीं बताना चाहते कि बंगाल सरकार नक्सलियों के खिलाफ सीधी कार्रवाई करने में क्यों हिचक रही है? दरअसल इस हिचक का कारण माकपा की माओवादियों से सहानुभूति है, जिसकी ओर चिदंबरम ने यह कहकर इशारा भी किया कि अभी हाल तक तो माकपा माओवादियों को हथियारबंद काडर मानती थी। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि बंगाल सरकार माओवादियों पर पाबंदी लगाने के लिए तब तक तैयार नहीं हुई जब तक केंद्र ने इसके लिए उस पर दबाव नहीं डाला। इसमें संदेह नहीं कि वाम दल माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते रहे हैं और अभी भी वे उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं। इसी तरह यह भी साफ है कि तृणमूल कांग्रेस की हमदर्दी उन तत्वों से हैं जो नक्सलियों से मिले हुए हैं। इसका प्रमाण यह है कि ममता बनर्जी लालगढ़ से केंद्रीय सुरक्षा बलों को हटाने की मांग कर रही हैं, जबकि यह इलाका अभी भी नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है। माकपा, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य दल नक्सलवाद से निपटने के मामले में ढुलमुल रवैया तब अपनाए हुए हैं जब केंद्रीय गृह सचिव इसके लिए आगाह कर रहे हैं कि ट्रेनों को बंधक बनाने सरीखी घटनाएं और हो सकती हैं। केंद्र के समक्ष समस्या केवल नक्सलवाद की आड़ में होने वाली राजनीति ही नहीं, बल्कि मानवाधिकारवादियों के एक वर्ग की ओर से की जा रही व्यर्थ की चीख-पुकार भी है। वे यह देखने से इनकार कर रहे हैं कि नक्सली किस तरह बर्बर हिंसा पर उतर आए हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि शोषित-वंचित तबकों ने अन्याय और उपेक्षा से त्रस्त होकर नक्सली विचारधारा की शरण ली और फिर शासन तंत्र के खिलाफ हथियार उठाए। पहले उन्होंने जंगलों और खनिज खदानों पर प्रभुत्व कायम किया, लेकिन अब वे समानांतर शासन कायम करते दिख रहे हैं। हाल की घटनाएं यह संकेत करती हैं कि उनकी तैयारी राज्य सत्ता के खिलाफ विद्रोह करने की है। अब ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि नक्सलियों के संबंध कुछ आतंकी संगठनों से तो हैं ही, उन्हें विदेशों से भी हथियार मिल रहे हैं। गृहमंत्रालय की मानें तो नक्सलियों ने लिंट्टे के सहयोग से खुद को इतना मजबूत बना लिया है कि सुरक्षा बलों के समक्ष मुश्किल आ सकती है। सच्चाई जो भी हो, यह तथ्य है कि नक्सली आंदोलन अपने प्रारंभिक दौर के मुकाबले अब बिलकुल अलग राह पर चल निकला है। नक्सली संगठन आतंकी संगठनों की तर्ज पर सक्रिय हैं। उनकी हरकतें बता रही हैं कि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं, लेकिन कई राजनीतिक दल ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे खतरे की कोई बात ही नहीं। यद्यपि नक्सली समय-समय पर राजनेताओं को भी निशाना बनाते रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके उन्हें अनेक राजनीतिज्ञों का समर्थन हासिल है। स्पष्ट है कि राजनेताओं का एक समूह यह समझने से इनकार कर रहा है कि नक्सली कितने खतरनाक हैं? पश्चिम बंगाल में माकपा-तृणमूल कांग्रेस जिस तरह आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं उससे केंद्र सरकार का काम और कठिन हो रहा है। चूंकि केंद्र को नक्सलवाद के प्रति ममता बनर्जी के ढुलमुल रवैये का न चाहते हुए बचाव करना पड़ रहा है इसलिए माकपा केंद्रीय सत्ता पर भी निशाना साधने में लगी हुई है। कुछ ऐसी ही कठिनाई कथित बुद्धिजीवी भी पेश कर रहे हैं। हाल में अरुंधती राय और कुछ समाजसेवी संगठन जिस तरह नक्सलियों के पक्ष में खुलकर खड़े हुए उससे तो यही लगा कि वे यह चाहते हैं कि नक्सलियों को हथियार उठाने का अधिकार मिलना चाहिए। यह सही है कि देश के एक हिस्से में विकास की रोशनी नहीं पहुंच सकी है और वहां की जनता उपेक्षा से त्रस्त है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि विकास से वंचित लोगों को हिंसा के रास्ते पर चलने की छूट दे दी जाए। एक ऐसे समय जब केंद्र सरकार के समक्ष नक्सलियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह गया है तब बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का उनके पक्ष में खड़े होना आश्चर्यजनक है। ये बुद्धिजीवी नक्सलियों के खिलाफ केंद्र सरकार की तैयारी का तो विरोध कर रहे हैं, लेकिन इसके लिए प्रयास नहीं कर रहे कि वे केंद्र से बातचीत करने के लिए आगे आएं, जबकि केंद्र सरकार सभी जंगल, जमीन, विकास योजनाओं समेत मुद्दों पर बातचीत करने की पेशकश करने के साथ यह भी कह रही है कि इस वार्ता में राज्यों को भी शामिल किया जाएगा। भले ही नक्सलवादी देश के पिछड़े क्षेत्रों में विकास कार्य न होने की बातें कर रहे हों, लेकिन सच यह है कि अब वे खुद विकास विरोधी बन गए हैं। इन स्थितियों में यह आवश्यक है कि केंद्र और राज्य वास्तव में मिलकर नक्सलियों से लड़ें। कोशिश यह होनी चाहिए कि यह लड़ाई लंबी न खिंचे और इसमें आम लोगों को कोई नुकसान न पहुंचे, अन्यथा इस लड़ाई को जीतना और कठिन हो जाएगा।
अभी नक्सलियों का खतरनाक रूप सामने आना बाकी
Wednesday, October 28, 2009
अंदरुनी मोर्चे पर लगातार सरकार को चुनौती दे रहे नक्सलवादियों के तार विदेशी संगठनों से भी जुड़े हुए हैं। लिट्टे के साथ-साथ उत्तर-पूर्व और पाकिस्तान परस्त आतंकी संगठनों से उनके संपर्को के खुलासे लगातार हो रहे हैं। खुफिया एजेंसियों व सुरक्षा बलों की मानें तो अभी नक्सलियों के आधुनिक हथियारों से सुसज्जित और खतरनाक कमांडो तो पूरी तरह से सामने आए ही नहीं हैं।खुफिया सूत्रों के मुताबिक, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन और लिट्टे से लेकर पूर्वोत्तर के उल्फा तक नक्सलियों को हथियार व गोला-बारूद की आपूर्ति करता रहा है। इनमें भी नक्सली सबसे ज्यादा प्रभावित श्रीलंका के चीतों यानी लिट्टे से रहे हैं। केरल के जंगलों में लिट्टे के लड़ाकों ने नक्सलियों को कमांडों प्रशिक्षण दिया, ऐसी सूचनाएं भी आईबी. को मिली थीं। इसीलिए, जब लिट्टे के चीतों को श्रीलंका की सेना ने आक्रामक अभियान चलाकर साफ कर दिया तो नक्सलियों ने अपने कमांडरों और काडर को सतर्क कर दिया कि लिट्टे जैसी गलती न दोहराएं। वास्तव में श्रीलंका में लिट्टे के सफाये और देश में संप्रग सरकार की वापसी के बाद सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो ने इसी साल 12 जून को बैठक की। इसमें उन्होंने अपनी आगामी रणनीति का एक लंबा चौड़ा दस्तावेज तैयार किया।इन दस्तावेजों में नक्सलियों की मोबाइल वारफेयर रणनीति और दूसरे आतंकी संगठनों के साथ संबंधों का जिक्र है। माओवादियों ने अन्य संगठनों से भी अपील की है कि वे जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर में जगह-जगह वारदातों को अंजाम दें ताकि सरकार एक जगह फोकस न कर सके। उन्होंने चेताया भी है कि अगर एक साथ मिलकर न लड़े तो एक-एक करके सरकार सबको ठिकाने लगाने का प्रयास करेगी।नक्सलियों ने दूसरे आतंकी संगठनों को चेताया था कि सरकार गुरिल्ला युद्ध में कोबरा जैसे बल बना रही है, जिसमें अभी 5 साल का समय लगेगा। उससे पहले जरूरी है कि अलग-अलग जगहों पर हम दुश्मनों के सामने इतने मोर्चे खोल दें कि उनके लिए सुरक्षा बलों को एक जगह रखना मुश्किल हो जाए। इस रणनीति के तहत नक्सलियों ने तो जगह-जगह मोर्चे खोल दिए हैं। हालांकि, अभी उन्होंने आधुनिक हथियारों से लैस अपने 6 हजार कमांडों की ताकत को बचाकर रखा है।
अंदरुनी मोर्चे पर लगातार सरकार को चुनौती दे रहे नक्सलवादियों के तार विदेशी संगठनों से भी जुड़े हुए हैं। लिट्टे के साथ-साथ उत्तर-पूर्व और पाकिस्तान परस्त आतंकी संगठनों से उनके संपर्को के खुलासे लगातार हो रहे हैं। खुफिया एजेंसियों व सुरक्षा बलों की मानें तो अभी नक्सलियों के आधुनिक हथियारों से सुसज्जित और खतरनाक कमांडो तो पूरी तरह से सामने आए ही नहीं हैं।खुफिया सूत्रों के मुताबिक, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन और लिट्टे से लेकर पूर्वोत्तर के उल्फा तक नक्सलियों को हथियार व गोला-बारूद की आपूर्ति करता रहा है। इनमें भी नक्सली सबसे ज्यादा प्रभावित श्रीलंका के चीतों यानी लिट्टे से रहे हैं। केरल के जंगलों में लिट्टे के लड़ाकों ने नक्सलियों को कमांडों प्रशिक्षण दिया, ऐसी सूचनाएं भी आईबी. को मिली थीं। इसीलिए, जब लिट्टे के चीतों को श्रीलंका की सेना ने आक्रामक अभियान चलाकर साफ कर दिया तो नक्सलियों ने अपने कमांडरों और काडर को सतर्क कर दिया कि लिट्टे जैसी गलती न दोहराएं। वास्तव में श्रीलंका में लिट्टे के सफाये और देश में संप्रग सरकार की वापसी के बाद सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो ने इसी साल 12 जून को बैठक की। इसमें उन्होंने अपनी आगामी रणनीति का एक लंबा चौड़ा दस्तावेज तैयार किया।इन दस्तावेजों में नक्सलियों की मोबाइल वारफेयर रणनीति और दूसरे आतंकी संगठनों के साथ संबंधों का जिक्र है। माओवादियों ने अन्य संगठनों से भी अपील की है कि वे जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर में जगह-जगह वारदातों को अंजाम दें ताकि सरकार एक जगह फोकस न कर सके। उन्होंने चेताया भी है कि अगर एक साथ मिलकर न लड़े तो एक-एक करके सरकार सबको ठिकाने लगाने का प्रयास करेगी।नक्सलियों ने दूसरे आतंकी संगठनों को चेताया था कि सरकार गुरिल्ला युद्ध में कोबरा जैसे बल बना रही है, जिसमें अभी 5 साल का समय लगेगा। उससे पहले जरूरी है कि अलग-अलग जगहों पर हम दुश्मनों के सामने इतने मोर्चे खोल दें कि उनके लिए सुरक्षा बलों को एक जगह रखना मुश्किल हो जाए। इस रणनीति के तहत नक्सलियों ने तो जगह-जगह मोर्चे खोल दिए हैं। हालांकि, अभी उन्होंने आधुनिक हथियारों से लैस अपने 6 हजार कमांडों की ताकत को बचाकर रखा है।
Friday, November 20, 2009
यूपीए झारखंड में क्यों असफल हुआ?
स्टेन स्वामी -
कांग्रेस गठबंधन यूपीए, देश के कई भागों में उम्मीद से ज्यादा जीत हासिल किया है। जबकि मास मीडिया में सबसे ज्यादा अनुमान २२५ सीट किया गया था। लेकिनं यूपीए गठबंधन २६२ सीट पर कबिज हुआ। इस जीत में विशेषता यह है कि जहां-जहां भाजपा से संबंधित पार्टियां थीं, वहीं पर यूपीए की अधिक जीत हुई है। इतना कि यूपीए गठबंधन नई सरकार बनाने में और कोई धर्म निरपेक्ष पार्टियों की खोज भी नहीं कर रहा है। जब देश के स्तर पर यूपीए की सफलता इतना सुस्पष्ट है, झारखंड में उसकी हालत उतना ही दयनीय है। २००४ के संसद चुनाव में यूपीए झारखंड के १४ सीटों में से १३ सीटों पर कब्जा किया था। अभी १३ सीट में से सिर्फ तीन सीट ही उनके हाथ में है। इस परिस्थिति को हमें कुछ जांचना चाहिए कि क्यों और कैसे ऐसा हुआ?
कुछ कारण :-
१. सुशासन का अभाव :
गत पांच साल के दौरान झारखंड में तीन सरकारें शासन चलायीं। लेकिन शासन कभी सुशासन नहीं रहा। सुशासन माने यह है कि जो भी पार्टी सरकार बनती है, उसका लक्ष्य यह होना है कि जनता का विकास एवं कल्याण सही रूप में हो। यह सामान्य जानकारी है कि झारखंड सरकार के पास पैसे की कमी तो नहीं है। जहां २७ प्रतिशत आदिवासी एवं १० प्रतिशत दलित वर्ग है, उनके लिए राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार की ओर से काफी राशि उपलब्ध करायी जाती है। सिर्फ उसका सही प्रयोग कर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निबाहना कोई भी सरकार का जिम्मा बनता है।दुर्भाग्यवश झारखंड के यूपीए सरकार इस राशि का सही उपयोग नहीं की। इससे जनता भी परेशान है। इसलिए जब चुनाव का समय पहुंचा जनता यूपीए को अपनी मत देने से रूक गई।
२. प्रशासन के हर स्तर पर गहरी भ्रष्टाचार :
झारखंड के समाचार पत्र एवं पत्रिकाएं इस भ्रष्टाचार का विश्लेषण एवं विवरण करते आये हैं। इसके वावजूद झारखंड के यूपीए सरकार इस गंभीर समस्या पर अपना ध्यान कभी नहीं दिया है। हाल ही में झारखंड का उच्च न्यायालय सी।बी।आई। से मांग किया है कि झारखंड सरकार के मंत्रीगण, एम।एल।ए। एवं अधिकारी लोगों के पास कितना अवैध धन जमा हुआ है, उसका खुलासा करें। जब आम आदमी हर कदम पर भ्रष्टाचार का शिकार बनता है, उसका सरकार के प्रति जो भी विश्वास था वह टूट जाता है, और चुनाव के समय ऐसी सरकार को अपनी सहमति देने से हिचकता है।
३. उद्योगपतियों के साथ एवं विस्थापितों के खिलाफ :
हम सब जानते हैं कि झारखंड में भिन्न समस्याओं में से आदिवासी एवं दलित वर्ग का विस्थापन की समस्या एक गभीर मामला है। इस विषय पर यूपीए सरकार एकदम खुली रूप में जिन उद्योगपतियों ने बडे पैमाने पर जमीन अधिग्रहित करना चाहते हैं, उनका पक्ष ले रहा था।इस बात को भी समझा नहीं कि आदिवासी जनता के लिए उनकी अपनी जमीन ही जीवन का स्रोत है और अगर उनकी जमीन उनसे हडपी जाएगी तो उनका अस्तित्व खुद खतरे में आ जाता है। जब आदिवासी जनता अपनी जमीन नहीं देने का निर्णय ली है और उसके तहत कई महत्वपूर्ण विस्थापन के विरोध आंदोलन शुरू हो गए हैं। यूपीए सरकार प्रतिरोध में लगे हुए जनता से बात किए बिना, उनके खिलाफ प्रशासन एवं पुलिस को उकसाया है, जिस कारण पुलिस गोलीकांड और दूसरे प्रकार के प्रताडनाएं, अर्थात् आंदोलनों के नेत्रत्व करने वालों को गिरफतार करना और उनके विरोध झूठे मुकदमा दर्ज करना एक मामूली बात बन गयी है। इस प्रताडना में सबसे अधिक प्रभावित होते हैं युवा वर्ग। तब समझने की बात है कि क्यों आदिवासी एवं दलित जनता यूपीए को चुनाव में समर्थन नहीं दिया।
४. जनविकास एवं कल्याणकारी परियोजनाओं की अनदेखी :
यूपीए सरकार अपनी पुनर्वास नीति तैयार करने की घोषणा करते आयी है। लेकिन अब तक पुनर्वास नीति न बना है न लागू किया गया है। जो जनता अभी ही विस्थापित हो गई है उनका पुनर्वास की संभवना हट गयी है। दूसरी ओर नरेगा जैसे योजना एकदम गरीब जनता को रोजगार दिलाने के लिए केंद्र सरकार के द्वारा पहल किया गया है। एंसी योजनाओं को भी झारखंड की यूपीए सरकार अमल कराने में दिलचस्प नहीं दिखायी है। इससे भी ग्रामीण जनता यूपीए सरकार के प्रति निराश हो गई है। इसलिए जब चुनाव का समय आया। यूपीए सरकार के पक्ष में अपना मत डालने से हट गयी।
निष्कर्ष : संक्षेप में बोलने पर, झारखंड में यूपीए सरकार की चुनावी हार इसलिए हुई क्योंकि आम आदमी और उसकी आवश्यकताओं एवं आशाओं से दूर हो गयी। इसके कारण आम आदमी यूपीए को अपना समर्थन देने से इंकार कर दिया। इसके अलावे आम जनता अपनी आंखों से देख रही थी कि किस प्रकार जो एम।एल।ए। एवं मंत्री अपनी संपति को बढाते रहे। एक तरफ गरीब जनता, दूसरी तरफ करोडपति यूपीए के एम।एल।ए। एवं मंत्रीगण। आम जनता के हाथ में एक ही हथियार है, वही चुनाव के समय अपनी पसन्द प्रकट करने की। झारखंडी जनता यूपीए सरकार को नकारने में इस बात को स्पष्ट कर दी है।
कांग्रेस गठबंधन यूपीए, देश के कई भागों में उम्मीद से ज्यादा जीत हासिल किया है। जबकि मास मीडिया में सबसे ज्यादा अनुमान २२५ सीट किया गया था। लेकिनं यूपीए गठबंधन २६२ सीट पर कबिज हुआ। इस जीत में विशेषता यह है कि जहां-जहां भाजपा से संबंधित पार्टियां थीं, वहीं पर यूपीए की अधिक जीत हुई है। इतना कि यूपीए गठबंधन नई सरकार बनाने में और कोई धर्म निरपेक्ष पार्टियों की खोज भी नहीं कर रहा है। जब देश के स्तर पर यूपीए की सफलता इतना सुस्पष्ट है, झारखंड में उसकी हालत उतना ही दयनीय है। २००४ के संसद चुनाव में यूपीए झारखंड के १४ सीटों में से १३ सीटों पर कब्जा किया था। अभी १३ सीट में से सिर्फ तीन सीट ही उनके हाथ में है। इस परिस्थिति को हमें कुछ जांचना चाहिए कि क्यों और कैसे ऐसा हुआ?
कुछ कारण :-
१. सुशासन का अभाव :
गत पांच साल के दौरान झारखंड में तीन सरकारें शासन चलायीं। लेकिन शासन कभी सुशासन नहीं रहा। सुशासन माने यह है कि जो भी पार्टी सरकार बनती है, उसका लक्ष्य यह होना है कि जनता का विकास एवं कल्याण सही रूप में हो। यह सामान्य जानकारी है कि झारखंड सरकार के पास पैसे की कमी तो नहीं है। जहां २७ प्रतिशत आदिवासी एवं १० प्रतिशत दलित वर्ग है, उनके लिए राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार की ओर से काफी राशि उपलब्ध करायी जाती है। सिर्फ उसका सही प्रयोग कर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निबाहना कोई भी सरकार का जिम्मा बनता है।दुर्भाग्यवश झारखंड के यूपीए सरकार इस राशि का सही उपयोग नहीं की। इससे जनता भी परेशान है। इसलिए जब चुनाव का समय पहुंचा जनता यूपीए को अपनी मत देने से रूक गई।
२. प्रशासन के हर स्तर पर गहरी भ्रष्टाचार :
झारखंड के समाचार पत्र एवं पत्रिकाएं इस भ्रष्टाचार का विश्लेषण एवं विवरण करते आये हैं। इसके वावजूद झारखंड के यूपीए सरकार इस गंभीर समस्या पर अपना ध्यान कभी नहीं दिया है। हाल ही में झारखंड का उच्च न्यायालय सी।बी।आई। से मांग किया है कि झारखंड सरकार के मंत्रीगण, एम।एल।ए। एवं अधिकारी लोगों के पास कितना अवैध धन जमा हुआ है, उसका खुलासा करें। जब आम आदमी हर कदम पर भ्रष्टाचार का शिकार बनता है, उसका सरकार के प्रति जो भी विश्वास था वह टूट जाता है, और चुनाव के समय ऐसी सरकार को अपनी सहमति देने से हिचकता है।
३. उद्योगपतियों के साथ एवं विस्थापितों के खिलाफ :
हम सब जानते हैं कि झारखंड में भिन्न समस्याओं में से आदिवासी एवं दलित वर्ग का विस्थापन की समस्या एक गभीर मामला है। इस विषय पर यूपीए सरकार एकदम खुली रूप में जिन उद्योगपतियों ने बडे पैमाने पर जमीन अधिग्रहित करना चाहते हैं, उनका पक्ष ले रहा था।इस बात को भी समझा नहीं कि आदिवासी जनता के लिए उनकी अपनी जमीन ही जीवन का स्रोत है और अगर उनकी जमीन उनसे हडपी जाएगी तो उनका अस्तित्व खुद खतरे में आ जाता है। जब आदिवासी जनता अपनी जमीन नहीं देने का निर्णय ली है और उसके तहत कई महत्वपूर्ण विस्थापन के विरोध आंदोलन शुरू हो गए हैं। यूपीए सरकार प्रतिरोध में लगे हुए जनता से बात किए बिना, उनके खिलाफ प्रशासन एवं पुलिस को उकसाया है, जिस कारण पुलिस गोलीकांड और दूसरे प्रकार के प्रताडनाएं, अर्थात् आंदोलनों के नेत्रत्व करने वालों को गिरफतार करना और उनके विरोध झूठे मुकदमा दर्ज करना एक मामूली बात बन गयी है। इस प्रताडना में सबसे अधिक प्रभावित होते हैं युवा वर्ग। तब समझने की बात है कि क्यों आदिवासी एवं दलित जनता यूपीए को चुनाव में समर्थन नहीं दिया।
४. जनविकास एवं कल्याणकारी परियोजनाओं की अनदेखी :
यूपीए सरकार अपनी पुनर्वास नीति तैयार करने की घोषणा करते आयी है। लेकिन अब तक पुनर्वास नीति न बना है न लागू किया गया है। जो जनता अभी ही विस्थापित हो गई है उनका पुनर्वास की संभवना हट गयी है। दूसरी ओर नरेगा जैसे योजना एकदम गरीब जनता को रोजगार दिलाने के लिए केंद्र सरकार के द्वारा पहल किया गया है। एंसी योजनाओं को भी झारखंड की यूपीए सरकार अमल कराने में दिलचस्प नहीं दिखायी है। इससे भी ग्रामीण जनता यूपीए सरकार के प्रति निराश हो गई है। इसलिए जब चुनाव का समय आया। यूपीए सरकार के पक्ष में अपना मत डालने से हट गयी।
निष्कर्ष : संक्षेप में बोलने पर, झारखंड में यूपीए सरकार की चुनावी हार इसलिए हुई क्योंकि आम आदमी और उसकी आवश्यकताओं एवं आशाओं से दूर हो गयी। इसके कारण आम आदमी यूपीए को अपना समर्थन देने से इंकार कर दिया। इसके अलावे आम जनता अपनी आंखों से देख रही थी कि किस प्रकार जो एम।एल।ए। एवं मंत्री अपनी संपति को बढाते रहे। एक तरफ गरीब जनता, दूसरी तरफ करोडपति यूपीए के एम।एल।ए। एवं मंत्रीगण। आम जनता के हाथ में एक ही हथियार है, वही चुनाव के समय अपनी पसन्द प्रकट करने की। झारखंडी जनता यूपीए सरकार को नकारने में इस बात को स्पष्ट कर दी है।
Wednesday, November 18, 2009
तिब्बत की आजादी का सवाल
पचास साल बाद फिर रक्तरंजित हुई तिब्ब्त की बौद्ध भूमि
प्रतिक्रियाएँ[2] Dr. Mandhata singh द्वारा 18 मार्च, 2008 1:04:26 AM IST पर पोस्टेड #
मध्य एशिया का इतिहास ही आक्रमणकारियों का इतिहास रहा है। इन हमले से बचने के लिए तो चीनी शासकों को चारो तरफ दीवार ही खड़ी करनी पड़ी। जो आज की ऐतिहासिक चीन की दीवार कही जाती है। मगर ये हूण, शक, यवन ज्यादा देर तक कहीं इस इलाके में टिक नहीं पाए। इन आक्रांताओं में चंगेज खान, कुबलई खान और बाद में मुगल शासकों के शासन तक तैमूर लंग और नादिरशाह ने जो तबाही मचाई उसे इतिहास कैसे भुला सकता है। उनकी क्रूरता के किस्से आज भी रोंगटे खड़ कर देते हैं। मगर इन्हीं आक्रांताओं ने इतिहास के कुछ ऐसे उलटफेर भी किए जो आज भी कुछ देशों की संप्रभुता के लिए समस्या बने हुए हैं। गोबी के रेगिस्तान को लांघते हुए जब इनके जाबांज काफिले गुजरते थे तो भारत के परमप्रतापी गुप्त साम्राज्य तक के परखचे उड़ा देते थे। कहते हैं कि नेपोलियन बोनापार्ट ने पूरे यूरोप के नक्शे को समेट दिया था क्यों उसके अभियानों के बाद यूरोप का नक्शा ही बदल जाता था। इसी तरह एशिया के भूगोल को इन आक्रांताओं ने भी बदल दिया। उन्हीं कुछ बदलावों से अभिशिप्त देशों में से एक तिब्बत भी है जो आज भी आजादी के लिए तरस रहा है। दुनिया की छत कहा जाने वाला यही तिब्बत बार-बार अपनी आजादी के सवाल को लेकर खड़ा होता है और कुचल दिया जाता है। अब यह चीन अधिकृत क्षेत्र है जिसे चीन ने स्वायत्त का दर्जा दे रखा है मगर तिब्बतियों को शायद यह चीन की गुलामी रास नही आती। हालांकि तिब्बत की चीन द्वारा निर्वासित की जा चुकी सरकार के राष्ट्राध्यक्ष दलाई लामा और खुद भारत सरकार राजनैतिक और कूटनीतिक कारणों से तिब्बत का चीन स्वायत्तशासी मान चुके हैं। तो फिर बार-बार आजादी का सवाल उठाकर क्यों पद्दलित होते रहते हैं तिब्बती ? क्या तिब्बत आजाद देश रहा है ? आइए मौजूदा घटनाक्रम के बहाने इतिहास के कुछ उन तथ्यों को जानने की कोशिश करते हैं जो इन तिब्बतियों को आजादी के लिए उठ खड़े होने को प्रेरित करते रहते हैं।
आजाद रहा है तिब्बत ?
चीन तिब्बत को कभी आजाद देश की श्रेणी में रखा ही नहीं। उसका कहना है कि तिब्बत हमेशा से चीन का अभिन्न अंग रहा है। इसके ठीक विपरीत तिब्बत की आजादी के समर्थक मानते हैं कि करीब १३०० सालों के इतिहास में तिब्बत चीन से अलग एक आजाद देश रहा है। इस तर्क के पक्ष में तिब्बत की आजादी के समर्थक कहते हैं कि सन् ८२१ में दो सौ सालों की लंबी लड़ाई के बाद चीन और तिब्बत के बीच एक शांति समझौता हुआ था। इसका विवरण तीन प्रस्तर स्तंभ लेखों में उपलब्ध है। इनमें से एक स्तंभ लेख तिब्बत की राजधानी ल्हासा के कैथड्रल के सामने आज भी मौजूद है। इस लेख में संधि के अनुसार दोनों की सीमाएं तय की गईं हैं और तिब्बत व चीन दोनों को एक दूसरे पर हमला न करने की बात कही गई है। यह उम्मीद भी जाहिर की गई है कि इस समझौते के बाद तिब्बत के लोग तिब्बत में और चीन के लोग चीन में खुश रहेंगे। दोनों के इस समझौते का साक्षी सूरज. चांद, ग्रह, तारे एक संत और तीन ज्वेल को रखा गया है। इस शांति समझौते का उल्लेख करने वाले तीनों प्रस्तर स्तंभ लेखों में से एक चीन के राजमहल के सामने, दूसरा दोनों देशों की सीमा पर और तीसरा ल्हासा में है।
१३वीं और १४वीं शताब्दी में तिब्बत और चीन दोनों पर मंगोलों का आधिपत्य हो गया। इसी मंगोल साम्राज्य को एक देश मानकर या इसी मंगोल प्रभुत्व को आधार मानकर चीन कहता है कि तिब्बत आजाद नहीं बल्कि चीन का अभिन्न अंग है। जबकि मंगोलों का ाधिपत्य दोनों ने मान लिया था। तिब्बत को आजाद देश मानने वालों का कहना है कि पूर्व मध्यकाल के विश्व इतिहास में महान पराक्रमी मंगोल शासक कुबलई खान और उसके उत्तराधिकारियों ने पूरे एशिया पर आधिपत्य कायम कर लिया था। तो क्या पूरा एशिया चीनियों का है? तिब्बत की आजादी के समर्थकों का यह भी कहना है कि मंगोलों और तिब्बतियों व चीनियों के संबंधों की भी पड़ताल की जानी चाहिए। उनके मुताबिक तिब्बत पर मंगोलों का आधिपत्य कुबलई खान के चीन अभियान के पहले ही हो गया था। इतना ही नहीं चीन के आजाद होने से कई दशक पहले ही तिब्बत पूरी तरह आजाद भी हो गया था।
मंगोल शासकों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया इस कारण उनमें सहअस्तित्व की पंथिक प्रणाली चो-योन का प्रदुर्भाव हुआ। इस कारण तिब्बती मंगोलों के प्रति प्रतिबद्ध रहे। इसके ठीक उलट मंगोलों के चीन पर आधिपत्य की प्रकृति अलग बताई जाती है। मंगोलों के आधिपत्य में तबतक चीन रहा जबतक १४वीं सदी के आखिर में खुद मंगोलों का पतन नहीं हो गया जबकि तिब्बत के शासक तिब्बती हा रहे।
इस के बाद १६३९ में दलाई लामा ने संबंध कायम रखने की चो-योन प्रणाली के तहत शासक मंचू से भी सबंध कायम रखा। मंचू वह शासक था जिसने १६४४ में चीन को जीती था और क्विंग वंश की स्थापना की। मंचू शासकों का १९वीं शताब्दी तक तिब्बत में प्रभाव रहा और तिब्बत भी मंचू साम्राज्य के नाम से जाना जाता था। बाद में मंचू साम्राज्य इतना क्षीण हो गया कि १८४२ और १८५६ के नेपाली गोरखा अभियान के खिलाफ तिब्बतियों की मदद के भी लायक नहीं रह गया। बिना मंचू शासकों की मदद के ही तिब्बतियों ने गोरखाओं से मुकाबला किया जो द्विपक्षीय संधि के बाद लड़ाई खत्म हो पाई। इसके बाद चो-योन संबंध और मंचू वंश दोनों का पतन १९११ में हो गया। तिब्बत इसके बाद ही १९१२ में औपचारिक तौरपर पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न राज्य बन गया और तिब्बत की आजादी १९४९ तक कायम रही। इसके बाद १९४९ में चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। १९९१ में संयुक्त राष्ट्र ने एक अधिनियम पास करके तिब्बत और इससे जुड़े चीनी आधिपत्य वाले सिचुआन, यूनान, गंशू, क्विंघाई को मिलाकर एक अधिकृत देश का दर्जा दे दिया।
भारत में ३७ फीसद लोग तिब्बत के पक्षधर
तिब्बत की आजादी को लेकर जहां दुनिया भर में प्रदर्शन हो रहे हैं, वहीं इससे निपटने के चीन के रवैये की भी आलोचना हो रही है। इस बीच चीन की तिब्बत नीति पर छह देशों के लोगों की राय दर्शाता एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे का नतीजा भी सामने आया है। सर्वे के मुताबिक जहां कई देशों में ज्यादातर लोग चीन के खिलाफ हैं, वहीं भारतीयों की राय बंटी हुई है। भारत में जहां 37 फीसदी लोग तिब्बत पर चीन की नीतियों की आलोचना कर रहे हैं, वहीं 33 फीसदी लोग चीन के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। बाकी 30 फीसदी लोग इस बारे में अपनी कोई राय ही नहीं बना पाए हैं। यह सर्वे फ्रांस, ब्रिटेन, भारत, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और अमेरिका में कराया गया है। सर्वे यूनिवर्सिटी आफ मेरीलैंड से संबद्ध 'वर्ल्डपब्लिकओपिनियन डाट आर्ग' ने करवाया है। इस आनलाइन सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक सभी छह देशों में औसतन 64 फीसदी लोग चीन के खिलाफ नजर आए, जबकि 17 फीसदी ने चीन का समर्थन किया। अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन में तो क्रमश: 74, 75 और 63 फीसदी लोग चीन के खिलाफ खड़े नजर आए। दक्षिण कोरिया में 84 फीसदी लोगों ने चीन के खिलाफ राय दी, जबकि इंडोनेशिया में यह आंकड़ा 12 फीसदी रहा। गौरतलब है कि यह सर्वे तिब्बत में फिलहाल गंभीर हुई स्थिति से पहले कराया गया थापचास साल से ज्यादा हो गए, जब तिब्बत नामक स्वतंत्र राष्ट्र पर साम्यवादी चीन ने कब्जा कर लिया। इन पांच-छह दशकों में चीनियों ने दलाई लामा को तिब्बत छोड़ने के लिए मजबूर किया, तिब्बत में हान जाति के चीनियों को बसाने की कोशिश की और अब वहां रेलवे लाइन बिछाकर उसे पूरी तरह चीन का अटूट अंग बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
साम्यवादी कूट-भाषा में उसे ‘स्वायत्त प्रदेश’ कहा जाता है। यहां स्व का अर्थ तिब्बत नहीं, चीन है। चीन के इस अधिकार को तिब्बती लोग बिलकुल नहीं मानते। तिब्बत में रहने वाले तिब्बती चीन को साम्राज्यवादी आक्रांता देश मानते हैं। तिब्बतियों और चीनियों के बीच गहरा अविश्वास है। हालांकि तिब्बती भारतीयों और भारत के प्रति बहुत उत्साही दिखाई पड़ते हैं, लेकिन चीन के बारे में या तो चुप रहते हैं या दबी जुबान में अपनी घुटन निकालने की कोशिश करते हैं। तिब्बत उनका अपना देश है, लेकिन उन्हें वहां गुलामों की तरह रहना पड़ता है। तिब्बत का आर्थिक विकास तो निश्चय ही हुआ है, लेकिन शक्ति और संपदा के असली मालिक चीनी ही हैं। उनके रहन-सहन और तौर-तरीकों ने साधारण तिब्बतियों के हृदय में गहरी ईष्र्या का स्थायीभाव उत्पन्न कर दिया है। यही ईष्र्या ल्हासा में फूट पड़ी है।
चीनी सरकार की सबसे बड़ी चिंता यह है कि तिब्बत के बाहर अन्य प्रदेशों में रहने वाले तिब्बतियों ने भी जबरदस्त प्रदर्शन किए हैं। दिल्ली, काठमांडू, न्यूयॉर्क, लंदन आदि शहरों में भी प्रदर्शन हो रहे हैं। एक तरफ ये प्रदर्शन हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ चीनी सरकार ओलिंपिक खेलों की तैयारी कर रही है। ओलिंपिक की मशाल वह एवरेस्ट पर्वत पर ले जाना चाहती है। वह तिब्बत होकर ही जाएगी। उसे चिंता है कि अगर तिब्बत को लेकर कोहराम मच गया, तो कहीं ओलिंपिक खेल ही स्थगित न हो जाएं। ओलिंपिक के बहाने उसे अपने महाशक्ति रूप को प्रचारित करने का जो मौका मिलेगा, वह तिब्बतियों के कारण हाथ से जाता रहेगा। चीन का आरोप है कि ल्हासा में हो रहे उत्पात की जड़ भारत में है। धर्मशाला में बैठी दलाई लामा की प्रवासी सरकार तिब्बतियों को हिंसा पर उतारू कर रही है। यह आरोप निराधार है, क्योंकि दलाई लामा ने हिंसा का स्पष्ट विरोध किया है। 1989 के बाद से तिब्बत में हुई ये सबसे बड़ी हिंसक घटना है. 1959 में चीनी शासन के ख़िलाफ़ हुए संघर्ष की बरसी पर सोमवार को शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरु हुए थे लेकिन शुक्रवार को हिंसा भड़क उठी.चीन के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान कम से कम 80 लोग मारे गए हैं. निर्वासित सरकार के अधिकारियों ने कहा है कि की सूत्रों से मृतकों की संख्या की पुष्टि हुई है. चीन के मुताबिक मरने वालों की संख्या 10 है.
वहीं तिब्बत के निर्वासित सरकार के प्रमुख और आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने आशंका जताई है कि यदि चीन अपनी नीति नहीं बदलता है तो तिब्बत में और मौतें हो सकती हैं. इस बीच चीन के नियंत्रण वाले तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीनी सेना ने अपना नियंत्रण बढ़ा दिया है और सूनी सड़कों पर सैनिक बख़्तरबंद गाड़ियों के साथ गश्त लगा रहे हैं. अमरीका, रूस, फ्रांस सहित दुनिया के कई देशों ने चीन से संयम बरतने की अपील की है.
चीन ने तिब्बत में विदेशियों के प्रवेश पर लगाई रोक
चीन ने तिब्बत में विदेशी नागरिकों के प्रवेश पर रोक लगा दी है और वहां रह रहे पर्यटकों से चले जाने को कहा है। तिब्बत की राजधानी में शासन के खिलाफ और स्वतंत्रता के समर्थन में पिछले 2 दशक में भड़की सबसे बड़ी हिंसा के बाद चीन ने यह कदम उठाया है। हिंसा में अब तक 10 लोगों की मौत हो चुकी है। लोकल अफसरों के मुताबिक ल्हासा में पिछले सप्ताह भड़की हिंसा के बाद तिब्बत के क्षेत्रीय प्रशासन ने सुरक्षा के मद्देनजर विदेशियों के पर्यटन संबंधी सभी आवेदन फिलहाल रद्द कर दिए हैं। विदेशी मामलों के क्षेत्रीय कार्यालय के निदेशक जु जियान्हवा का हवाला देते हुए शिन्हुवा न्यूज एजेंसी ने बताया है कि स्थानीय प्रशासन की मदद से 20 विदेशी पर्यटकों को तिब्बत से निकाला जा चुका है। ल्हासा पुलिस के मुताबिक, 3 जापानी पर्यटकों सहित 580 लोगों का बचाव किया गया है। चीनी सुरक्षा बल ल्हासा पर कड़ी नजर रखे हुए है। शुक्रवार को फैली हिंसा और लोगों के मारे जाने के बाद रविवार तक और लोगों के मारे जाने की कोई खबर नहीं थी। गौरतलब के 57 वर्ष के चीनी शासन के खिलाफ तिब्बत की आजादी के लिए चल रहे आंदोलन की 49वीं बरसी के मौके पर बौद्ध भिक्षुओं ने विरोध,प्रदर्शन शुरू किया था।
दलाई लामा पर दोष
चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है.दलाई लामा ने प्रदर्शनों को तिब्ब्तियों के असंतोष का प्रतीक बताया है .चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं.लेकिन दलाई लामा के प्रवक्ता चाइम आर छोयकयापा ने दिल्ली में इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया है.उनका कहना है कि चीन सरकार तिब्बतियों की समस्या को बंदूक से नहीं सुलझा सकती और उसे तिब्बतियों का मन पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. उधर तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.
भारत का रुख़
ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत सरकार की ओर से जारी बयान में चीन के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ भी नहीं कहा गया है.दरअसल, भारत के साथ दुविधा यह है कि मानवाधिकार और अन्य पहलुओं पर भारत तिब्बत की निर्वासित सरकार से सहमत है. यही वजह है कि पिछले कुछ दशकों से तिब्बत की निर्वासित सरकार को भारत ने अपने पास शरण दे रखी है. पर इस शर्त पर कि उनकी ओर से कोई भी राजनीतिक गतिविधि नहीं की जाएगी. ऐसे में जहाँ भारत तिब्बतियों के देश में हो रहे प्रदर्शनों को अनुमति नहीं दे रहा है वहीं चीन से सुधरते संबंधों को ध्यान में रखते हुए बहुत संभलकर बोल रहा है. तिब्बत में पिछले 20 बरसों के दौरान हिंसा की यह सबसे बड़ी घटना बताई जा रही है. चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है. चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं. लेकिन तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.
तिब्बत की बदलती तस्वीर
चीन ने पिछले साल ही बीजिंग को रेललाईन के ज़रिए तिब्बत की राजधानी ल्हासा से जोड़ दिया था. इस रेलसंपर्क ने दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया है. इस रेल संपर्क ने जहां तिब्बत को चीन की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया है तो वहीं इसकी वजह से तिब्बत में बढ़ रहे चीनी दख़ल पर कई तरह की आशंकाएं भी जताई जा रही है. इस रेल से तिब्बती लोगों के जनजीवन में काफ़ी फ़र्क आया है, साथ ही तिब्बत में नये विचार पहुँच रहे हैं. व्यापार शुरू हुआ है, किसानों को नई तकनीक और यहाँ की कला और संस्कृति को नए बाज़ार मिल रहे हैं. वो फल-फूल रहे हैं."चीन ने बौद्ध धर्म अनुयायी तिब्बती लोगों की स्वतंत्रता की कोशिशों को 1951 में कुचलने की कोशिश ज़रूर की पर अब भी यहां तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक नेता दलाई लामा की छाप मिटी नहीं है.चीनी आक्रमण के बाद तिब्बत के चौदहवें दलाईलामा शरणार्थी के रूप में भारत आ गए थे जो आज भी चीन की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं. ल्हासा स्थित दलाईलामा के आवास पोटाला महल में 13वें दलाईलामा तक की चर्चा होती है. मौज़ूदा दलाईलामा की चर्चा कोई नहीं करता. यहां चीनी सरकार की सख़्त नज़र रहती है.तिब्बतियों में भारत के प्रति एक अलग तरह का प्रेम है. काफ़ी संख्या में लोग भारत से शिक्षा ले कर लौटे हैं. वे भारत को अपना दोस्त और हिमायती मानते हैं. ल्हासा के बाखोर बाज़ार की दुकानों में हिंदी गाने सुनाई देते हैं. ब्यूटी पार्लरों में बालीवुड अभिनेत्री ऐश्वर्या रॉय समेत फ़िल्मी हस्तियों के पोस्टर नज़र आते हैं. यहां के राष्ट्रीय टेलीविज़न में हिंदी धारावाहिकों को तिब्बती भाषा में दिखाया जाता है.
प्रतिक्रियाएँ[2] Dr. Mandhata singh द्वारा 18 मार्च, 2008 1:04:26 AM IST पर पोस्टेड #
मध्य एशिया का इतिहास ही आक्रमणकारियों का इतिहास रहा है। इन हमले से बचने के लिए तो चीनी शासकों को चारो तरफ दीवार ही खड़ी करनी पड़ी। जो आज की ऐतिहासिक चीन की दीवार कही जाती है। मगर ये हूण, शक, यवन ज्यादा देर तक कहीं इस इलाके में टिक नहीं पाए। इन आक्रांताओं में चंगेज खान, कुबलई खान और बाद में मुगल शासकों के शासन तक तैमूर लंग और नादिरशाह ने जो तबाही मचाई उसे इतिहास कैसे भुला सकता है। उनकी क्रूरता के किस्से आज भी रोंगटे खड़ कर देते हैं। मगर इन्हीं आक्रांताओं ने इतिहास के कुछ ऐसे उलटफेर भी किए जो आज भी कुछ देशों की संप्रभुता के लिए समस्या बने हुए हैं। गोबी के रेगिस्तान को लांघते हुए जब इनके जाबांज काफिले गुजरते थे तो भारत के परमप्रतापी गुप्त साम्राज्य तक के परखचे उड़ा देते थे। कहते हैं कि नेपोलियन बोनापार्ट ने पूरे यूरोप के नक्शे को समेट दिया था क्यों उसके अभियानों के बाद यूरोप का नक्शा ही बदल जाता था। इसी तरह एशिया के भूगोल को इन आक्रांताओं ने भी बदल दिया। उन्हीं कुछ बदलावों से अभिशिप्त देशों में से एक तिब्बत भी है जो आज भी आजादी के लिए तरस रहा है। दुनिया की छत कहा जाने वाला यही तिब्बत बार-बार अपनी आजादी के सवाल को लेकर खड़ा होता है और कुचल दिया जाता है। अब यह चीन अधिकृत क्षेत्र है जिसे चीन ने स्वायत्त का दर्जा दे रखा है मगर तिब्बतियों को शायद यह चीन की गुलामी रास नही आती। हालांकि तिब्बत की चीन द्वारा निर्वासित की जा चुकी सरकार के राष्ट्राध्यक्ष दलाई लामा और खुद भारत सरकार राजनैतिक और कूटनीतिक कारणों से तिब्बत का चीन स्वायत्तशासी मान चुके हैं। तो फिर बार-बार आजादी का सवाल उठाकर क्यों पद्दलित होते रहते हैं तिब्बती ? क्या तिब्बत आजाद देश रहा है ? आइए मौजूदा घटनाक्रम के बहाने इतिहास के कुछ उन तथ्यों को जानने की कोशिश करते हैं जो इन तिब्बतियों को आजादी के लिए उठ खड़े होने को प्रेरित करते रहते हैं।
आजाद रहा है तिब्बत ?
चीन तिब्बत को कभी आजाद देश की श्रेणी में रखा ही नहीं। उसका कहना है कि तिब्बत हमेशा से चीन का अभिन्न अंग रहा है। इसके ठीक विपरीत तिब्बत की आजादी के समर्थक मानते हैं कि करीब १३०० सालों के इतिहास में तिब्बत चीन से अलग एक आजाद देश रहा है। इस तर्क के पक्ष में तिब्बत की आजादी के समर्थक कहते हैं कि सन् ८२१ में दो सौ सालों की लंबी लड़ाई के बाद चीन और तिब्बत के बीच एक शांति समझौता हुआ था। इसका विवरण तीन प्रस्तर स्तंभ लेखों में उपलब्ध है। इनमें से एक स्तंभ लेख तिब्बत की राजधानी ल्हासा के कैथड्रल के सामने आज भी मौजूद है। इस लेख में संधि के अनुसार दोनों की सीमाएं तय की गईं हैं और तिब्बत व चीन दोनों को एक दूसरे पर हमला न करने की बात कही गई है। यह उम्मीद भी जाहिर की गई है कि इस समझौते के बाद तिब्बत के लोग तिब्बत में और चीन के लोग चीन में खुश रहेंगे। दोनों के इस समझौते का साक्षी सूरज. चांद, ग्रह, तारे एक संत और तीन ज्वेल को रखा गया है। इस शांति समझौते का उल्लेख करने वाले तीनों प्रस्तर स्तंभ लेखों में से एक चीन के राजमहल के सामने, दूसरा दोनों देशों की सीमा पर और तीसरा ल्हासा में है।
१३वीं और १४वीं शताब्दी में तिब्बत और चीन दोनों पर मंगोलों का आधिपत्य हो गया। इसी मंगोल साम्राज्य को एक देश मानकर या इसी मंगोल प्रभुत्व को आधार मानकर चीन कहता है कि तिब्बत आजाद नहीं बल्कि चीन का अभिन्न अंग है। जबकि मंगोलों का ाधिपत्य दोनों ने मान लिया था। तिब्बत को आजाद देश मानने वालों का कहना है कि पूर्व मध्यकाल के विश्व इतिहास में महान पराक्रमी मंगोल शासक कुबलई खान और उसके उत्तराधिकारियों ने पूरे एशिया पर आधिपत्य कायम कर लिया था। तो क्या पूरा एशिया चीनियों का है? तिब्बत की आजादी के समर्थकों का यह भी कहना है कि मंगोलों और तिब्बतियों व चीनियों के संबंधों की भी पड़ताल की जानी चाहिए। उनके मुताबिक तिब्बत पर मंगोलों का आधिपत्य कुबलई खान के चीन अभियान के पहले ही हो गया था। इतना ही नहीं चीन के आजाद होने से कई दशक पहले ही तिब्बत पूरी तरह आजाद भी हो गया था।
मंगोल शासकों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया इस कारण उनमें सहअस्तित्व की पंथिक प्रणाली चो-योन का प्रदुर्भाव हुआ। इस कारण तिब्बती मंगोलों के प्रति प्रतिबद्ध रहे। इसके ठीक उलट मंगोलों के चीन पर आधिपत्य की प्रकृति अलग बताई जाती है। मंगोलों के आधिपत्य में तबतक चीन रहा जबतक १४वीं सदी के आखिर में खुद मंगोलों का पतन नहीं हो गया जबकि तिब्बत के शासक तिब्बती हा रहे।
इस के बाद १६३९ में दलाई लामा ने संबंध कायम रखने की चो-योन प्रणाली के तहत शासक मंचू से भी सबंध कायम रखा। मंचू वह शासक था जिसने १६४४ में चीन को जीती था और क्विंग वंश की स्थापना की। मंचू शासकों का १९वीं शताब्दी तक तिब्बत में प्रभाव रहा और तिब्बत भी मंचू साम्राज्य के नाम से जाना जाता था। बाद में मंचू साम्राज्य इतना क्षीण हो गया कि १८४२ और १८५६ के नेपाली गोरखा अभियान के खिलाफ तिब्बतियों की मदद के भी लायक नहीं रह गया। बिना मंचू शासकों की मदद के ही तिब्बतियों ने गोरखाओं से मुकाबला किया जो द्विपक्षीय संधि के बाद लड़ाई खत्म हो पाई। इसके बाद चो-योन संबंध और मंचू वंश दोनों का पतन १९११ में हो गया। तिब्बत इसके बाद ही १९१२ में औपचारिक तौरपर पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न राज्य बन गया और तिब्बत की आजादी १९४९ तक कायम रही। इसके बाद १९४९ में चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। १९९१ में संयुक्त राष्ट्र ने एक अधिनियम पास करके तिब्बत और इससे जुड़े चीनी आधिपत्य वाले सिचुआन, यूनान, गंशू, क्विंघाई को मिलाकर एक अधिकृत देश का दर्जा दे दिया।
भारत में ३७ फीसद लोग तिब्बत के पक्षधर
तिब्बत की आजादी को लेकर जहां दुनिया भर में प्रदर्शन हो रहे हैं, वहीं इससे निपटने के चीन के रवैये की भी आलोचना हो रही है। इस बीच चीन की तिब्बत नीति पर छह देशों के लोगों की राय दर्शाता एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे का नतीजा भी सामने आया है। सर्वे के मुताबिक जहां कई देशों में ज्यादातर लोग चीन के खिलाफ हैं, वहीं भारतीयों की राय बंटी हुई है। भारत में जहां 37 फीसदी लोग तिब्बत पर चीन की नीतियों की आलोचना कर रहे हैं, वहीं 33 फीसदी लोग चीन के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। बाकी 30 फीसदी लोग इस बारे में अपनी कोई राय ही नहीं बना पाए हैं। यह सर्वे फ्रांस, ब्रिटेन, भारत, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और अमेरिका में कराया गया है। सर्वे यूनिवर्सिटी आफ मेरीलैंड से संबद्ध 'वर्ल्डपब्लिकओपिनियन डाट आर्ग' ने करवाया है। इस आनलाइन सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक सभी छह देशों में औसतन 64 फीसदी लोग चीन के खिलाफ नजर आए, जबकि 17 फीसदी ने चीन का समर्थन किया। अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन में तो क्रमश: 74, 75 और 63 फीसदी लोग चीन के खिलाफ खड़े नजर आए। दक्षिण कोरिया में 84 फीसदी लोगों ने चीन के खिलाफ राय दी, जबकि इंडोनेशिया में यह आंकड़ा 12 फीसदी रहा। गौरतलब है कि यह सर्वे तिब्बत में फिलहाल गंभीर हुई स्थिति से पहले कराया गया थापचास साल से ज्यादा हो गए, जब तिब्बत नामक स्वतंत्र राष्ट्र पर साम्यवादी चीन ने कब्जा कर लिया। इन पांच-छह दशकों में चीनियों ने दलाई लामा को तिब्बत छोड़ने के लिए मजबूर किया, तिब्बत में हान जाति के चीनियों को बसाने की कोशिश की और अब वहां रेलवे लाइन बिछाकर उसे पूरी तरह चीन का अटूट अंग बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
साम्यवादी कूट-भाषा में उसे ‘स्वायत्त प्रदेश’ कहा जाता है। यहां स्व का अर्थ तिब्बत नहीं, चीन है। चीन के इस अधिकार को तिब्बती लोग बिलकुल नहीं मानते। तिब्बत में रहने वाले तिब्बती चीन को साम्राज्यवादी आक्रांता देश मानते हैं। तिब्बतियों और चीनियों के बीच गहरा अविश्वास है। हालांकि तिब्बती भारतीयों और भारत के प्रति बहुत उत्साही दिखाई पड़ते हैं, लेकिन चीन के बारे में या तो चुप रहते हैं या दबी जुबान में अपनी घुटन निकालने की कोशिश करते हैं। तिब्बत उनका अपना देश है, लेकिन उन्हें वहां गुलामों की तरह रहना पड़ता है। तिब्बत का आर्थिक विकास तो निश्चय ही हुआ है, लेकिन शक्ति और संपदा के असली मालिक चीनी ही हैं। उनके रहन-सहन और तौर-तरीकों ने साधारण तिब्बतियों के हृदय में गहरी ईष्र्या का स्थायीभाव उत्पन्न कर दिया है। यही ईष्र्या ल्हासा में फूट पड़ी है।
चीनी सरकार की सबसे बड़ी चिंता यह है कि तिब्बत के बाहर अन्य प्रदेशों में रहने वाले तिब्बतियों ने भी जबरदस्त प्रदर्शन किए हैं। दिल्ली, काठमांडू, न्यूयॉर्क, लंदन आदि शहरों में भी प्रदर्शन हो रहे हैं। एक तरफ ये प्रदर्शन हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ चीनी सरकार ओलिंपिक खेलों की तैयारी कर रही है। ओलिंपिक की मशाल वह एवरेस्ट पर्वत पर ले जाना चाहती है। वह तिब्बत होकर ही जाएगी। उसे चिंता है कि अगर तिब्बत को लेकर कोहराम मच गया, तो कहीं ओलिंपिक खेल ही स्थगित न हो जाएं। ओलिंपिक के बहाने उसे अपने महाशक्ति रूप को प्रचारित करने का जो मौका मिलेगा, वह तिब्बतियों के कारण हाथ से जाता रहेगा। चीन का आरोप है कि ल्हासा में हो रहे उत्पात की जड़ भारत में है। धर्मशाला में बैठी दलाई लामा की प्रवासी सरकार तिब्बतियों को हिंसा पर उतारू कर रही है। यह आरोप निराधार है, क्योंकि दलाई लामा ने हिंसा का स्पष्ट विरोध किया है। 1989 के बाद से तिब्बत में हुई ये सबसे बड़ी हिंसक घटना है. 1959 में चीनी शासन के ख़िलाफ़ हुए संघर्ष की बरसी पर सोमवार को शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरु हुए थे लेकिन शुक्रवार को हिंसा भड़क उठी.चीन के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान कम से कम 80 लोग मारे गए हैं. निर्वासित सरकार के अधिकारियों ने कहा है कि की सूत्रों से मृतकों की संख्या की पुष्टि हुई है. चीन के मुताबिक मरने वालों की संख्या 10 है.
वहीं तिब्बत के निर्वासित सरकार के प्रमुख और आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने आशंका जताई है कि यदि चीन अपनी नीति नहीं बदलता है तो तिब्बत में और मौतें हो सकती हैं. इस बीच चीन के नियंत्रण वाले तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीनी सेना ने अपना नियंत्रण बढ़ा दिया है और सूनी सड़कों पर सैनिक बख़्तरबंद गाड़ियों के साथ गश्त लगा रहे हैं. अमरीका, रूस, फ्रांस सहित दुनिया के कई देशों ने चीन से संयम बरतने की अपील की है.
चीन ने तिब्बत में विदेशियों के प्रवेश पर लगाई रोक
चीन ने तिब्बत में विदेशी नागरिकों के प्रवेश पर रोक लगा दी है और वहां रह रहे पर्यटकों से चले जाने को कहा है। तिब्बत की राजधानी में शासन के खिलाफ और स्वतंत्रता के समर्थन में पिछले 2 दशक में भड़की सबसे बड़ी हिंसा के बाद चीन ने यह कदम उठाया है। हिंसा में अब तक 10 लोगों की मौत हो चुकी है। लोकल अफसरों के मुताबिक ल्हासा में पिछले सप्ताह भड़की हिंसा के बाद तिब्बत के क्षेत्रीय प्रशासन ने सुरक्षा के मद्देनजर विदेशियों के पर्यटन संबंधी सभी आवेदन फिलहाल रद्द कर दिए हैं। विदेशी मामलों के क्षेत्रीय कार्यालय के निदेशक जु जियान्हवा का हवाला देते हुए शिन्हुवा न्यूज एजेंसी ने बताया है कि स्थानीय प्रशासन की मदद से 20 विदेशी पर्यटकों को तिब्बत से निकाला जा चुका है। ल्हासा पुलिस के मुताबिक, 3 जापानी पर्यटकों सहित 580 लोगों का बचाव किया गया है। चीनी सुरक्षा बल ल्हासा पर कड़ी नजर रखे हुए है। शुक्रवार को फैली हिंसा और लोगों के मारे जाने के बाद रविवार तक और लोगों के मारे जाने की कोई खबर नहीं थी। गौरतलब के 57 वर्ष के चीनी शासन के खिलाफ तिब्बत की आजादी के लिए चल रहे आंदोलन की 49वीं बरसी के मौके पर बौद्ध भिक्षुओं ने विरोध,प्रदर्शन शुरू किया था।
दलाई लामा पर दोष
चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है.दलाई लामा ने प्रदर्शनों को तिब्ब्तियों के असंतोष का प्रतीक बताया है .चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं.लेकिन दलाई लामा के प्रवक्ता चाइम आर छोयकयापा ने दिल्ली में इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया है.उनका कहना है कि चीन सरकार तिब्बतियों की समस्या को बंदूक से नहीं सुलझा सकती और उसे तिब्बतियों का मन पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. उधर तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.
भारत का रुख़
ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत सरकार की ओर से जारी बयान में चीन के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ भी नहीं कहा गया है.दरअसल, भारत के साथ दुविधा यह है कि मानवाधिकार और अन्य पहलुओं पर भारत तिब्बत की निर्वासित सरकार से सहमत है. यही वजह है कि पिछले कुछ दशकों से तिब्बत की निर्वासित सरकार को भारत ने अपने पास शरण दे रखी है. पर इस शर्त पर कि उनकी ओर से कोई भी राजनीतिक गतिविधि नहीं की जाएगी. ऐसे में जहाँ भारत तिब्बतियों के देश में हो रहे प्रदर्शनों को अनुमति नहीं दे रहा है वहीं चीन से सुधरते संबंधों को ध्यान में रखते हुए बहुत संभलकर बोल रहा है. तिब्बत में पिछले 20 बरसों के दौरान हिंसा की यह सबसे बड़ी घटना बताई जा रही है. चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है. चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं. लेकिन तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.
तिब्बत की बदलती तस्वीर
चीन ने पिछले साल ही बीजिंग को रेललाईन के ज़रिए तिब्बत की राजधानी ल्हासा से जोड़ दिया था. इस रेलसंपर्क ने दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया है. इस रेल संपर्क ने जहां तिब्बत को चीन की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया है तो वहीं इसकी वजह से तिब्बत में बढ़ रहे चीनी दख़ल पर कई तरह की आशंकाएं भी जताई जा रही है. इस रेल से तिब्बती लोगों के जनजीवन में काफ़ी फ़र्क आया है, साथ ही तिब्बत में नये विचार पहुँच रहे हैं. व्यापार शुरू हुआ है, किसानों को नई तकनीक और यहाँ की कला और संस्कृति को नए बाज़ार मिल रहे हैं. वो फल-फूल रहे हैं."चीन ने बौद्ध धर्म अनुयायी तिब्बती लोगों की स्वतंत्रता की कोशिशों को 1951 में कुचलने की कोशिश ज़रूर की पर अब भी यहां तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक नेता दलाई लामा की छाप मिटी नहीं है.चीनी आक्रमण के बाद तिब्बत के चौदहवें दलाईलामा शरणार्थी के रूप में भारत आ गए थे जो आज भी चीन की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं. ल्हासा स्थित दलाईलामा के आवास पोटाला महल में 13वें दलाईलामा तक की चर्चा होती है. मौज़ूदा दलाईलामा की चर्चा कोई नहीं करता. यहां चीनी सरकार की सख़्त नज़र रहती है.तिब्बतियों में भारत के प्रति एक अलग तरह का प्रेम है. काफ़ी संख्या में लोग भारत से शिक्षा ले कर लौटे हैं. वे भारत को अपना दोस्त और हिमायती मानते हैं. ल्हासा के बाखोर बाज़ार की दुकानों में हिंदी गाने सुनाई देते हैं. ब्यूटी पार्लरों में बालीवुड अभिनेत्री ऐश्वर्या रॉय समेत फ़िल्मी हस्तियों के पोस्टर नज़र आते हैं. यहां के राष्ट्रीय टेलीविज़न में हिंदी धारावाहिकों को तिब्बती भाषा में दिखाया जाता है.
Tuesday, November 17, 2009
व्यापार गोष्ठी : महंगाई के लिए कौन है जिम्मेदार?
जनता दरबार ने सुनाया फरमान : हाजिर हो सरकार
बीएस टीम / August 16, 2009
कमजोर मॉनसून है वजह
महंगाई की चिंता पूरे देश को सता रही है। कोई सरकार को इसके लिए दोषी ठहरा रहा है तो कोई मुद्रास्फीति को लेकिन सच बात तो यह है कि कमजोर मॉनसून ही महंगाई के लिए जिम्मेदार है। क्योंकि इस साल भारत में औसत से भी कम बारिश हुई है। इसकी वजह से खाद्य पदार्थों के उत्पादन में कमी आई और उनकी मांग में बढ़ोतरी हुई है।मांग और आपूर्ति में एक तरह का असंतुलन बन गया है और भाव बढ़ने लगे हैं। कमजोर मॉनसून के अलावा कमजोर निर्यात और उच्च राजकोषीय घाटा महंगाई के लिए जिम्मेवार है।
मुकेश रंगा
इंजीनियरिंग कॉलेज, बीकानेर, राजस्थान
गलत नीतियों का नतीजा
महंगाई के सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार की गलत नीतियां हैं। जरूरी वस्तुओं के भाव को नियंत्रित नहीं रख पाना गलत नीतियों का ही नतीजा है। अगर सही नीतियां होतीं तो जमाखोरी और कालाबाजारी पर रोक लगाकर महंगाई को काबू में किया जा सकता था।नीतियों के सही प्रयोग से महंगाई पर अभी लगाम कसा जा सकता है। महंगाई को नियंत्रित नहीं किए जाने से लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए सरकारी नीतियां ऐसी होनी चाहिए जो जनता के हित में हों और लोग चैन की सांस ले सकें।
नयन प्रकाश गांधी 'प्रदीप्त'
पीएसबीएम, पुणे
सरकार है जिम्मेदार
महंगाई के लिए केवल और केवल सरकार जिम्मेदार है। सरकार की समस्त नीतियां पूंजीवादी व विदेशी शक्तियों को संरक्षण देने की हैं और उसे अपने देश की 80 फीसदी की तादाद वाली गरीब जनता की जरा भी फिक्र नहीं है। तभी तो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्रियों में शुमार किए जाने वाले हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि महंगाई अभी और बढ़ेगी।
सरकार विमान ईंधन, कार, एसी, मोबाइल, कंप्यूटर आदि की कीमतें घटाने के उपाय कर सकती है पर खाद्यान्न क्षेत्र में दखल नहीं दे सकती। सरकार को चिंता है उद्योगपतियों की। यदि मॉनसून महंगाई का कारण है तो जिन सालों में मॉनसून बेहद अच्छा रहा उन सालों में कीमतें क्यों चढ़ी? जब सरकार अमीर वर्ग के उपभोग की तमाम वस्तुएं सस्ती कर सकती है तो वह आम गरीब जनता की रोटी भी सस्ती कर सकती है।
कपिल अग्रवाल
1915, थापर नगर, मेरठ, उत्तर प्रदेश
सभी बराबर के जिम्मेदार
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां के 60 फीसदी से ज्यादा लोग कृषि पर ही निर्भर हैं। इस बार मॉनसून की हालत गड़बड़ है और बारिश 30 से 40 फीसदी तक कम हुई है। इसका असर पैदावार पर पड़ेगा। जबकि मांग में कमी आने की संभावना नहीं है। इससे महंगाई पर असर पड़ेगा।कारोबारी भी मौके का फायदा उठाने में पीछे नहीं रहते हैं। वे जमाखोरी शुरू कर देते हैं और इससे बाजार में माल की कमी होती है और दाम बढ़ते हैं। सरकार ने कायदे-कानून बना रखे हैं लेकिन उनका कड़ाई से पालन नहीं होता है। सरकार अगर जमाखोरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे तो महंगाई पर एक हद तक काबू पाया जा सकता है।
हरनारायण जाजू
मुंबई
कारोबारी और सरकार जिम्मेदार
सिंचाई के वैकल्पिक साधन विकसित किए जाने के बावजूद उससे गरीब किसानों को बहुत लाभ नहीं मिल रहा है। वे किसानी के लिए अभी भी मॉनसून पर ही निर्भर हैं। वहीं कारोबारी का मुख्य मकसद पैसा कमाना होता है। इसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कुल मिलाकर कारोबारियों को लूटने का मौका चाहिए।जहां तक सरकार का प्रश्न है तो उसे लोकतंत्र का नाटक खेलने के लिए इन्हीं कारोबारियों पर निर्भर रहना पड़ता है। अत: सरकार इनके खिलाफ नहीं जा सकती है। सरकारी आंकड़ों में महंगाई घट रही है लेकिन वास्तविकता में यह अपने चरम पर है और लोगों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इसके बावजूद सरकर हाथ पर हाथ धरे बैठी है।
राजेश कपूर
भारतीय स्टेट बैंक, एलएचओ, लखनऊ
कालाबाजारी की मार
अषाढ़ का चूका किसान और डाल से चूका बंदर कहीं का नहीं रहता है। भारतीय अर्थव्यवस्था मॉनसून का जुआ है। बारिश में कमी की वजह से कृषि पर निर्भर देश की 60 फीसदी आबादी को कई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। महंगाई इन्हीं में से एक है।जाहिर है कि पैदावार कम होने से बाजार में आपूर्ति घटेगी और दाम चढ़ेंगे। एक तरफ मॉनसून की मार तो है ही साथ ही साथ दूसरी तरफ कारोबारी वर्ग ने माल को गोदामों में रोककर और कालाबाजारी करके महंगाई को और ज्यादा बढ़ाने का कार्य किया है।
अनुराधा कंवर
रामपुरा हाऊस, सिविल लाइंस, बीकानेर, राजस्थान
सरकार और उपभोक्ता जिम्मेदार
मांग और पूर्ति के नियम का अनुसरण करके उपभोक्ताओं को उन वस्तुओं का उपभोग कम कर देना चाहिए जिनकी कीमतें ऊंची हैं और उनकी क्रय शक्ति से बाहर हैं। ऐसे वस्तुओं की मांग जब घटेगी तो स्वाभाविक तौर पर इनके भाव में भी कमी आएगी। सरकार की ओर से मूल्य नियंत्रण जरूरी है।सरकार मूक दर्शक की तरह बढ़ती हुई महंगाई को देखती नहीं रह सकती हैं। जनहित में सीधा हस्तक्षेप जरूरी है और आवश्यकता के मुताबिक सरकारी दुकानों पर कम भाव पर अनिवार्य वस्तुओं की बिक्री की व्यवस्था की जानी चाहिए। महंगाई को रोकने के लिए सरकार को जिस तरह के ठोस कदम उठाने चाहिए थे, वे उसने नहीं उठाए।
केडी सोमानी
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन, मध्य प्रदेश
सरकारी नीतियां सर्वाधिक जिम्मेदार
कारोबारी वर्ग नैतिकता भुला कर मुर्दे का कफन बेचकर मुनाफा कमाने वाला बेरहम वर्ग हो गया है। यह वर्ग जमाखोरी, कालाबाजारी और भ्रष्टाचार फैलाकर उपलब्धता घटा हुआ दिखाकर गरीबों के पेट पर लात मारकर भी मंहगाई बढ़ाता है ताकि मुनाफा खींच सके। सरकार का कर्तव्य है कि वह मानूसन, कारोबारी, शांति-अशांति का ध्यान रखते हुए ऐसी व्यवस्था करे जिससे जनता का मंहगाई के नाम पर शोषण न हो।दुर्भाग्य से हमारी सरकार की मंदी की ओट में बढ़ाई गई नकदीय तरलता की नीति, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा, जलवायु परिवर्तन के समझौते और खुले बाजार की नीति ने मंहगाई को बेतहाशा उछाल दिया है। महंगाई के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार है और यदि वह यथार्थवादी नीतियां अपनाए तो मंहगाई के घोड़े पर काबू पाया जा सकता है।
ठाकुर सोहन सिंह भदौरिया
भदौरिया भवन, मुख्य डाकघर के पीछे, बीकानेर, राजस्थान
जमाखोरी ने बढ़ा दी महंगाई
महंगाई को बढ़ाने में सरकार, कारोबारी और मॉनसून तीनों दोषी हैं। सरकारी महकमे के मौसम विभाग का हालिया आंकड़ा कहता है कि पिछल साल की तुलना में बारिश 13 फीसदी अब तक कम हुआ है। मौसम विभाग तथा सरकार सरकार के अन्य विभाग और सरकारी आंकड़ें आम जनता को उलझाए हुए हैं।सरकारी आंकड़ों के मुताबिक महंगाई दर नकारात्मक रही है। जबकि आम आदमी को दो जून की रोटी के जुगाड़ में खून-पसीना एक करना पड़ रहा है। वहीं दूसरी तरफ कारोबारियों ने जमाखोरी करके भारी मुनाफा कमाना शुरू कर दिया है। हाल ही में गुजरात में एनजीओ के गोदामों में हजारों टन चीनी पकड़ी गई थी। यह जमाखोरी का ही नतीजा है।
संतोष कुमार
मैकरॉबर्टगंज, कानपुर, उत्तर प्रदेश
सरकारी नीतियों ने बढ़ाई महंगाई
दिनोंदिन बढ़ रही महंगाई के लिए केंद्र सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। सरकार ने समय रहते ही सटोरिये और स्टॉकिस्टों पर कार्रवाई नहीं की। अब जब छापेमारी की कार्रवाई की जा रही है तो भारी पैमाने पर स्टॉकिस्टों के गोदामों से अनाज बाहर निकल रहा है।साथ ही वायदा कारोबार को तरजीह दिए जाने की नीतियों ने भी महंगाई को बढ़ावा दिया है। जिस प्रकार वायदा बाजारों में खुलेआम कृषि आधारित उत्पादों की बोलियां लगाई जा रही हैं वह तो एक प्रकार से देखा जाय तो सट्टेबाजी का ही हिस्सा है।
इसके अलावा कमोडिटी ट्रांजेक्शन टैक्स को खत्म करके सरकार ने वायदा बाजार को और भी ज्यादा आजादी दे दी है। लिहाजा महंगाई आसमान पर है और सरकार केवल तमाशा देख रही है।
निखिल बोबले
बैंक ऑफ अमेरिका क्वाटेंनियम, मालाड़, मुंबई - 64
सरकारी उपेक्षा से बढ़ी महंगाई
महंगाई रोकने का जिम्मा जिन लोगों पर है वे असहाय नजर आ रहे हैं। जब लोकसभा चुनाव हो रहे थे तो जनता को नेताओं ने सिर माथे पर रखा था लेकिन आज लोगों की चिंता करती हुई कोई भी राजनीतिक दल नहीं दिख रही है। नेता जीत का जश्न मनाने और सत्ता सुख भोगने में मशगूल हैं और जनता दाने-दाने का तरस रही है।बढ़ती महंगाई के लिए मॉनसून और कारोबारियों से कहीं ज्यादा जिम्मेदार सरकार है। क्योंकि अगर सरकार ने ठोस और परिणामदायी योजना बनाई होती तो महंगाई के कारण आज जैसे बदतर हालत पैदा ही नहीं होती। इसके बाद भी प्रधानमंत्री का यह कहना कि महंगाई और बढ़ेगी, बेहद गैरजिम्मेदाराना है।
रमेश चंद्र दूबे
मालवीय रोड, गांधी नगर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
आंकड़ों के खेल में खा गए गच्चा
वैश्विक अर्थव्यवस्था जब मंदी की चपेट में थी तो भारत की मुद्रास्फीति दर लगातार घटती जा रही थी। पहले तो लोगों को इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि मुद्रास्फीति सूचकांक में जीवनावश्यक वस्तुओं की हिस्सेदारी न के बराबर है। जब मुद्रास्फीति ऋणात्मक हुई तो लोगों की आंखें खुलीं और असल जीवन में महंगाई का लोग अहसास करने लगे। दरअसल, सरकार को भी मुद्रास्फीति के इन आंकड़ों के खेल को आम लोगों के समक्ष स्पष्ट करना जरुरी था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। हालांकि, सरकार ने ऐसा करना उचित नहीं समझा और घटती हुई महंगाई दरों की आंखमिचौली में सरकार भी जनता के साथ शामिल हो गई। इसका खामियाजा महंगाई के तौर पर देश के आम लोगों को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ रहा है।
शर्मिला भरणे
गृहिणी, विरार, ठाणे
नीति निर्माता हैं कसूरवार
जब प्रधानमंत्री ही यह बोलें कि महंगाई अभी और बढ़ सकती है तो फिर महंगाई तो बढ़ेगी ही। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि जिन्हें महंगाई और मूल्य नियंत्रण के लिए प्रयास करना चाहिए वही प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर महंगाई बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे हैं।मॉनसून के सामान्य न रहने की दशा में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग और आपूर्ति का संतुलन अवश्य गड़बड़ाता है। पर महंगाई बढ़ने के लिए इससे भी अधिक जिम्मेदार है सरकार का ढुलमुल रवैया। हर कोई जानता है कि चुनावी फंड कहां से आता है। जिन उद्योगपतियों और व्यवसायियों से चुनावी फंड में सहयोग लिया जाता है, उन्हें और उनसे जुड़े कारोबारियों को छूट देने पर महंगाई बढ़ जाती है।
रमेशचंद्र कर्नावट
महानंदानगर, उज्जैन, मध्य प्रदेश
सरकारी नाकामी से बढ़ी महंगाई
बेलगाम महंगाई सरकार की नाकामी को ही साबित करती है। आवश्यक वस्तुओं के दाम नियंत्रित करने की सरकारी मशीनरी आज कहीं नजर नहीं आ रही है। वैसे जरूरत के वक्त में सरकारी मशीनरी का सो जाना नई बात नहीं है। महंगाई के लिए मॉनसून को जिम्मेदार ठहराना सही नहं है।मॉनसून में थोड़ी कमी हो जाना तो एक बहाना भर है। मॉनसून इतना नहीं गड़बड़ाया है जितना की महंगाई के कारण आम आदमी का चूल्हा-चौका गड़बड़ हो गया है। हालात ऐसे ही रहे तो देश में जल्द ही भूख से परिवारों के सामूहिक भुखमरी के समाचार आने शुरू हो जाएंगे। तब सरकार अपनी फजीहत से बचने के लिए वह सब कुछ करेगी जो यदि आज कर दे तो सबका भला हो जाए।
सत्येंद्र नाथ गतवाला
बभनगावां, गांधी नगर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
पुरस्कृत पत्र
तालमेल का अभाव है दोषी
डॉ. एमएस सिद्दीकी
नई बस्ती,असगर रोड, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश
कमजोर आपूर्ति प्रबंधन, जमाखोरी, कालाबाजारी, उत्पादन में गिरावट, केंद्र और राज्य सरकारों में तालमेल का अभाव जैसे कारण महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं। किसी एक कारण को पूरी तरह से महंगाई के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। महंगाई अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों का परिणाम है।मॉनसून की बेरुखी आग में घी का काम कर रही है और दिनोंदिन महंगाई बढ़ती ही जा रही है। जरूरत इस बात की है कि महंगाई के कारणों की तह में जाकर इसके लिए जिम्मेवार बुनियादी कारणों को दूर करने का बंदोबस्त किया जाए। प्रधानमंत्री ने भविष्य में महंगाई बढ़ने की आशंका व्यक्त की है और राज्यों से महंगाई रोकने के लिए कठोर उपाय करने का आग्रह किया है। महंगाई पर काबू पाने के लिए इस पर अमल किया जाना चाहिए।
अन्य सर्वश्रेष्ठ पत्र
कारोबारी और सरकार जिम्मेदार
समरबहादुर यादव
शांति नगर, ठाणे - महाराष्ट्र
महंगाई के लिए मॉनसून को जिम्मेदार नहीं मान सकते हैं। महंगाई के लिए सरकार और कारोबारी दोनों जिम्मेदार हैं। चंद दिनों पहले संप्रग सरकार ने दूसरी बार सत्ता की कमान संभाली है।जगजाहिर है कि चुनावी तैयारियों के लिए नेता कारोबारियों से पैसे ऐंठते हैं। अब वही कारोबारी नेताओं को दिए गए पैसों की वसूली के लिए ग्राहकों से मनमाने ढंग से उत्पादों की कीमतें वसूल रहे हैं। इससे साफ है कि सरकार और कारोबारियों ने मिलकर आम आदमी के लिए महंगाई का तोहफा देकर जीना मुहाल कर दिया है।
बयानबाजी से बढ़ी महंगाई
योगेश जैन
पैंटालूंस ट्रेजर आईलैंड, एमजी रोड, इंदौर, मध्य प्रदेश
तेजी से बढ़ती महंगाई के लिए सही मायने में हमारे प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री के गैरजिम्मेदराना बयान ही अधिक जिम्मेदार हैं। 'महंगाई तो अभी और बढ़ सकती है' जैसे बयानों से जमाखोरों, कालाबाजारियों और सट्टेबाजों को प्रोत्साहन मिलता है।
मॉनसून के सामान्य नहीं रहने की अवस्था में भी उपभोक्ता वस्तुओं में न तो अचानक कोई कमी होती है और न ही महंगाई बढ़ती है। सरकार ही यदि शिथिल हो जाए तो फिर महंगाई बढ़ने के लिए मॉनसून और कारोबारियों को जिम्मेदार मानना कहां तक उचित है?
प्राकृतिक मार ने पैदा किया संकट
अनंत पाटिल
समाजसेवक, वरली गांव, मुंबई - 30
महंगाई रोकने को लेकर सरकार आए दिन प्रयासरत देखी जा रही है। लेकिन कुदरत के आगे सब बेबस हैं। जिस प्रकार मॉनसून की अपेक्षा की गई उससे भी कम बरसात ने अब तक दस्तक दी है।इस वजह से पैदा होने वाली स्थिति को देखते हुए महंगाई आसमान छू रही है। सरकार ने चीनी, दाल जैसी जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतें कम कर उन्हें बाजार में उतारा लेकिन मॉनसून की आंखमिचौली ने आम लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है। ऐसे में बेहतर मॉनसून के बाद ही सरकार से महंगाई रोकने की उम्मीद की जा सकती है।
कई कारण हैं महंगाई के
विजय कुमार लुणावत
पूनम जूस सेंटर, मुक्ति धाम के सामने, नासिक रोड, महाराष्ट्र
भारत में महंगाई कुछ अधिक तीव्रता से बढ़ रही है। देश का मध्यम और निम् वर्ग घोर आर्थिक संकट में जीवन व्यतीत कर रहा है। मॉनसून के सामान्य नहीं रहने की दशा में आवश्यक खाद्यान्न का उत्पादन प्रभावित होता है। इस वजह से उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ने की संभावना बनी रहती है।इस परिस्थिति का लाभ लेकर जमाखोर और सटोरिये आवश्यक वस्तुओं का कृत्रिम अभाव बनाकर महंगाई को बढ़ाते हैं। ऐसा हो रहा है लेकिन सरकार सो रही है। सही मायने में कहा जाए तो महंगाई बढ़ने के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं।
बकौल विश्लेषक
जमाखोरी और कालाबाजारी ने किया है दाल में काला
देविंदर शर्मा
कृषि विशेषज्ञ
भावना और अनुमान के आधार पर इस महंगाई को पैदा किया गया है। महंगाई की कोई ठोस वजह है ही नहीं। कहीं भी आपूर्ति और मांग का कोई संकट नहीं है। दाल के उत्पादन के मामले में पिछले साल और इस साल में कोई फर्क नहीं है।फिर भी दाल के भाव आसमान छू रहे हैं। सब्जियों के भाव भी बढ़ते ही जा रहे हैं। जबकि उत्पादन में गिरावट नहीं आई है। देश में गेहूं और चावल का 5.4 करोड़ टन अतिरिक्त भंडार है। तेजी से बढ़ती महंगाई के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार जमाखोरी और कालाबाजारी है।वायदा कारोबार भी महंगाई बढ़ाने के लिए काफी हद तक कसूरवार है। महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार भी सजग नहीं है। सरकार इसलिए भी सुस्त है कि महंगाई बढ़ने की वजह से जीडीपी के आंकड़ों में सुधार होता है। इससे सरकार को आर्थिक मोर्चे पर अपनी साख बचाने का अवसर मिलता है।सरकार यह कह रही है कि मंदी के बावजूद हमारी नीतियों की वजह से जीडीपी बेहतर रही। अब तो प्रधानमंत्री ने भी यह कह दिया है कि महंगाई के लिए लोगों को तैयार रहना चाहिए। इससे जमाखोरों का मनोबल और बढ़ेगा और साथ ही महंगाई भी। साफ है कि सरकार कुछ करने वाली नहीं है।महंगाई को काबू में करने के लिए चावल, दाल और गेहूं पर भंडार की सीमा तय होनी चाहिए। जो भी इसका उल्लंघन करे उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाया जाए और उसे जेल भेजा जाए। वायदा कारोबार से कृषि उत्पादों को बाहर करना चाहिए। इन दो कदमों से जमाखोरी और कालाबाजारी रुकेगी और महंगाई पर लगाम लगाई जा सकेगी।
बातचीत: हिमांशु शेखर
कारोबारी नहीं सरकार है इस खेल की सूत्रधार
बनवारी लाल कंछल
राष्ट्रीय अध्यक्ष, उद्योग व्यापार प्रतिनिधि मंडल, पूर्व राज्यसभा सदस्य
महंगाई के लिए मेरी नजर में केवल और केवल केंद्र सरकार ही दोषी है। व्यापारियों का इसमें कोई दोष नही है। मॉनसून को भी दोष देना ठीक नही है। वैसे भी मॉनसून तो चल रहा है और इस बार के सूखे का असर अभी तो देखने में आएगा नहीं।उसके लिए तो छह महीने लगेंगे जब फसल कट कर बाजारों में आएगी। सूखा पहले भी पड़ा पर इस कदर मंहगाई कभी नही बढ़ी है। यहां तो महंगाई मुंह बाये खड़ी है और लोगों का जीना हराम कर रही है। उधर सरकार कह रही है कि सूखे के चलते आने वाले दिनों में चीजों के दाम बढ़ेंगे।अगर आने वाले दिनों में चीजों के दाम बढ़ेंगे तो अभी क्या हो रहा है। आपने देखा कैसे सफाई से आम चुनाव के ठीक पहले डीजल-पेट्रोल के दाम भी गिरा दिए गए और चीजों के दाम भी काबू में थे। रही बात कारोबारी को दोष देने की तो ये तो सबसे आसान है कि उसे दोष दो जो सामान बेचता हो, मुनाफाखोर ठहरा दो उसे। पर सच ये नहीं है।असलियत तो ये है कि व्यापारी कभी महंगाई बढ़ाने की बात सोचता भी नही है। आज कुछ लोग जमाखोरी का आरोप आसानी से व्यापारी पर लगा देते हैं पर वो ये नहीं सोचते कि बड़े रिटेल स्टोर वाले क्या कर रहे हैं।असली जमाखोर तो रिटेल वाले लोग ही हैं जो कि थोक खरीदारी करके दाम बढ़ाते हैं और फिर अपना मुनाफा कमा उसे इन्हीं दिनों में स्कीम का लालच दे कर बेचते हैं। मेरी राय में महंगाई को रोकना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है और वह इससे मुंह नही मोड़ सकती है। सरकार अगर ऐसा करती है तो इसे जनता के साथ धोखा ही कहा जा सकता है।
बातचीत: सिध्दार्थ कलहंस
...और यह है अगला मुद्दा
सप्ताह के ज्वलंत विषय, जो कारोबारी और कारोबार पर गहरा असर डालते हैं। ऐसे ही विषयों पर हर सोमवार को हम प्रकाशित करते हैं व्यापार गोष्ठी नाम का विशेष पृष्ठ। इसमें आपके विचारों को आपके चित्र के साथ प्रकाशित किया जाता है। साथ ही, होती है दो विशेषज्ञों की राय।
इस बार का विषय है - नई प्रत्यक्ष कर संहिता : मुकम्मल या चाहिए और संशोधन? अपनी राय और अपना पासपोर्ट साइज चित्र हमें इस पते पर भेजें:बिजनेस स्टैंडर्ड (हिंदी), नेहरू हाउस, 4 बहादुरशाह ज़फर मार्ग, नई दिल्ली-110002 या फैक्स नंबर- 011-23720201 या फिर ई-मेल करें
goshthi@bsmail.in
आशा है, हमारी इस कोशिश को देशभर के हमारे पाठकों का अतुल्य स्नेह मिलेगा।
बीएस टीम / August 16, 2009
कमजोर मॉनसून है वजह
महंगाई की चिंता पूरे देश को सता रही है। कोई सरकार को इसके लिए दोषी ठहरा रहा है तो कोई मुद्रास्फीति को लेकिन सच बात तो यह है कि कमजोर मॉनसून ही महंगाई के लिए जिम्मेदार है। क्योंकि इस साल भारत में औसत से भी कम बारिश हुई है। इसकी वजह से खाद्य पदार्थों के उत्पादन में कमी आई और उनकी मांग में बढ़ोतरी हुई है।मांग और आपूर्ति में एक तरह का असंतुलन बन गया है और भाव बढ़ने लगे हैं। कमजोर मॉनसून के अलावा कमजोर निर्यात और उच्च राजकोषीय घाटा महंगाई के लिए जिम्मेवार है।
मुकेश रंगा
इंजीनियरिंग कॉलेज, बीकानेर, राजस्थान
गलत नीतियों का नतीजा
महंगाई के सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार की गलत नीतियां हैं। जरूरी वस्तुओं के भाव को नियंत्रित नहीं रख पाना गलत नीतियों का ही नतीजा है। अगर सही नीतियां होतीं तो जमाखोरी और कालाबाजारी पर रोक लगाकर महंगाई को काबू में किया जा सकता था।नीतियों के सही प्रयोग से महंगाई पर अभी लगाम कसा जा सकता है। महंगाई को नियंत्रित नहीं किए जाने से लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए सरकारी नीतियां ऐसी होनी चाहिए जो जनता के हित में हों और लोग चैन की सांस ले सकें।
नयन प्रकाश गांधी 'प्रदीप्त'
पीएसबीएम, पुणे
सरकार है जिम्मेदार
महंगाई के लिए केवल और केवल सरकार जिम्मेदार है। सरकार की समस्त नीतियां पूंजीवादी व विदेशी शक्तियों को संरक्षण देने की हैं और उसे अपने देश की 80 फीसदी की तादाद वाली गरीब जनता की जरा भी फिक्र नहीं है। तभी तो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्रियों में शुमार किए जाने वाले हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि महंगाई अभी और बढ़ेगी।
सरकार विमान ईंधन, कार, एसी, मोबाइल, कंप्यूटर आदि की कीमतें घटाने के उपाय कर सकती है पर खाद्यान्न क्षेत्र में दखल नहीं दे सकती। सरकार को चिंता है उद्योगपतियों की। यदि मॉनसून महंगाई का कारण है तो जिन सालों में मॉनसून बेहद अच्छा रहा उन सालों में कीमतें क्यों चढ़ी? जब सरकार अमीर वर्ग के उपभोग की तमाम वस्तुएं सस्ती कर सकती है तो वह आम गरीब जनता की रोटी भी सस्ती कर सकती है।
कपिल अग्रवाल
1915, थापर नगर, मेरठ, उत्तर प्रदेश
सभी बराबर के जिम्मेदार
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां के 60 फीसदी से ज्यादा लोग कृषि पर ही निर्भर हैं। इस बार मॉनसून की हालत गड़बड़ है और बारिश 30 से 40 फीसदी तक कम हुई है। इसका असर पैदावार पर पड़ेगा। जबकि मांग में कमी आने की संभावना नहीं है। इससे महंगाई पर असर पड़ेगा।कारोबारी भी मौके का फायदा उठाने में पीछे नहीं रहते हैं। वे जमाखोरी शुरू कर देते हैं और इससे बाजार में माल की कमी होती है और दाम बढ़ते हैं। सरकार ने कायदे-कानून बना रखे हैं लेकिन उनका कड़ाई से पालन नहीं होता है। सरकार अगर जमाखोरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे तो महंगाई पर एक हद तक काबू पाया जा सकता है।
हरनारायण जाजू
मुंबई
कारोबारी और सरकार जिम्मेदार
सिंचाई के वैकल्पिक साधन विकसित किए जाने के बावजूद उससे गरीब किसानों को बहुत लाभ नहीं मिल रहा है। वे किसानी के लिए अभी भी मॉनसून पर ही निर्भर हैं। वहीं कारोबारी का मुख्य मकसद पैसा कमाना होता है। इसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कुल मिलाकर कारोबारियों को लूटने का मौका चाहिए।जहां तक सरकार का प्रश्न है तो उसे लोकतंत्र का नाटक खेलने के लिए इन्हीं कारोबारियों पर निर्भर रहना पड़ता है। अत: सरकार इनके खिलाफ नहीं जा सकती है। सरकारी आंकड़ों में महंगाई घट रही है लेकिन वास्तविकता में यह अपने चरम पर है और लोगों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इसके बावजूद सरकर हाथ पर हाथ धरे बैठी है।
राजेश कपूर
भारतीय स्टेट बैंक, एलएचओ, लखनऊ
कालाबाजारी की मार
अषाढ़ का चूका किसान और डाल से चूका बंदर कहीं का नहीं रहता है। भारतीय अर्थव्यवस्था मॉनसून का जुआ है। बारिश में कमी की वजह से कृषि पर निर्भर देश की 60 फीसदी आबादी को कई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। महंगाई इन्हीं में से एक है।जाहिर है कि पैदावार कम होने से बाजार में आपूर्ति घटेगी और दाम चढ़ेंगे। एक तरफ मॉनसून की मार तो है ही साथ ही साथ दूसरी तरफ कारोबारी वर्ग ने माल को गोदामों में रोककर और कालाबाजारी करके महंगाई को और ज्यादा बढ़ाने का कार्य किया है।
अनुराधा कंवर
रामपुरा हाऊस, सिविल लाइंस, बीकानेर, राजस्थान
सरकार और उपभोक्ता जिम्मेदार
मांग और पूर्ति के नियम का अनुसरण करके उपभोक्ताओं को उन वस्तुओं का उपभोग कम कर देना चाहिए जिनकी कीमतें ऊंची हैं और उनकी क्रय शक्ति से बाहर हैं। ऐसे वस्तुओं की मांग जब घटेगी तो स्वाभाविक तौर पर इनके भाव में भी कमी आएगी। सरकार की ओर से मूल्य नियंत्रण जरूरी है।सरकार मूक दर्शक की तरह बढ़ती हुई महंगाई को देखती नहीं रह सकती हैं। जनहित में सीधा हस्तक्षेप जरूरी है और आवश्यकता के मुताबिक सरकारी दुकानों पर कम भाव पर अनिवार्य वस्तुओं की बिक्री की व्यवस्था की जानी चाहिए। महंगाई को रोकने के लिए सरकार को जिस तरह के ठोस कदम उठाने चाहिए थे, वे उसने नहीं उठाए।
केडी सोमानी
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन, मध्य प्रदेश
सरकारी नीतियां सर्वाधिक जिम्मेदार
कारोबारी वर्ग नैतिकता भुला कर मुर्दे का कफन बेचकर मुनाफा कमाने वाला बेरहम वर्ग हो गया है। यह वर्ग जमाखोरी, कालाबाजारी और भ्रष्टाचार फैलाकर उपलब्धता घटा हुआ दिखाकर गरीबों के पेट पर लात मारकर भी मंहगाई बढ़ाता है ताकि मुनाफा खींच सके। सरकार का कर्तव्य है कि वह मानूसन, कारोबारी, शांति-अशांति का ध्यान रखते हुए ऐसी व्यवस्था करे जिससे जनता का मंहगाई के नाम पर शोषण न हो।दुर्भाग्य से हमारी सरकार की मंदी की ओट में बढ़ाई गई नकदीय तरलता की नीति, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा, जलवायु परिवर्तन के समझौते और खुले बाजार की नीति ने मंहगाई को बेतहाशा उछाल दिया है। महंगाई के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार है और यदि वह यथार्थवादी नीतियां अपनाए तो मंहगाई के घोड़े पर काबू पाया जा सकता है।
ठाकुर सोहन सिंह भदौरिया
भदौरिया भवन, मुख्य डाकघर के पीछे, बीकानेर, राजस्थान
जमाखोरी ने बढ़ा दी महंगाई
महंगाई को बढ़ाने में सरकार, कारोबारी और मॉनसून तीनों दोषी हैं। सरकारी महकमे के मौसम विभाग का हालिया आंकड़ा कहता है कि पिछल साल की तुलना में बारिश 13 फीसदी अब तक कम हुआ है। मौसम विभाग तथा सरकार सरकार के अन्य विभाग और सरकारी आंकड़ें आम जनता को उलझाए हुए हैं।सरकारी आंकड़ों के मुताबिक महंगाई दर नकारात्मक रही है। जबकि आम आदमी को दो जून की रोटी के जुगाड़ में खून-पसीना एक करना पड़ रहा है। वहीं दूसरी तरफ कारोबारियों ने जमाखोरी करके भारी मुनाफा कमाना शुरू कर दिया है। हाल ही में गुजरात में एनजीओ के गोदामों में हजारों टन चीनी पकड़ी गई थी। यह जमाखोरी का ही नतीजा है।
संतोष कुमार
मैकरॉबर्टगंज, कानपुर, उत्तर प्रदेश
सरकारी नीतियों ने बढ़ाई महंगाई
दिनोंदिन बढ़ रही महंगाई के लिए केंद्र सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। सरकार ने समय रहते ही सटोरिये और स्टॉकिस्टों पर कार्रवाई नहीं की। अब जब छापेमारी की कार्रवाई की जा रही है तो भारी पैमाने पर स्टॉकिस्टों के गोदामों से अनाज बाहर निकल रहा है।साथ ही वायदा कारोबार को तरजीह दिए जाने की नीतियों ने भी महंगाई को बढ़ावा दिया है। जिस प्रकार वायदा बाजारों में खुलेआम कृषि आधारित उत्पादों की बोलियां लगाई जा रही हैं वह तो एक प्रकार से देखा जाय तो सट्टेबाजी का ही हिस्सा है।
इसके अलावा कमोडिटी ट्रांजेक्शन टैक्स को खत्म करके सरकार ने वायदा बाजार को और भी ज्यादा आजादी दे दी है। लिहाजा महंगाई आसमान पर है और सरकार केवल तमाशा देख रही है।
निखिल बोबले
बैंक ऑफ अमेरिका क्वाटेंनियम, मालाड़, मुंबई - 64
सरकारी उपेक्षा से बढ़ी महंगाई
महंगाई रोकने का जिम्मा जिन लोगों पर है वे असहाय नजर आ रहे हैं। जब लोकसभा चुनाव हो रहे थे तो जनता को नेताओं ने सिर माथे पर रखा था लेकिन आज लोगों की चिंता करती हुई कोई भी राजनीतिक दल नहीं दिख रही है। नेता जीत का जश्न मनाने और सत्ता सुख भोगने में मशगूल हैं और जनता दाने-दाने का तरस रही है।बढ़ती महंगाई के लिए मॉनसून और कारोबारियों से कहीं ज्यादा जिम्मेदार सरकार है। क्योंकि अगर सरकार ने ठोस और परिणामदायी योजना बनाई होती तो महंगाई के कारण आज जैसे बदतर हालत पैदा ही नहीं होती। इसके बाद भी प्रधानमंत्री का यह कहना कि महंगाई और बढ़ेगी, बेहद गैरजिम्मेदाराना है।
रमेश चंद्र दूबे
मालवीय रोड, गांधी नगर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
आंकड़ों के खेल में खा गए गच्चा
वैश्विक अर्थव्यवस्था जब मंदी की चपेट में थी तो भारत की मुद्रास्फीति दर लगातार घटती जा रही थी। पहले तो लोगों को इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि मुद्रास्फीति सूचकांक में जीवनावश्यक वस्तुओं की हिस्सेदारी न के बराबर है। जब मुद्रास्फीति ऋणात्मक हुई तो लोगों की आंखें खुलीं और असल जीवन में महंगाई का लोग अहसास करने लगे। दरअसल, सरकार को भी मुद्रास्फीति के इन आंकड़ों के खेल को आम लोगों के समक्ष स्पष्ट करना जरुरी था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। हालांकि, सरकार ने ऐसा करना उचित नहीं समझा और घटती हुई महंगाई दरों की आंखमिचौली में सरकार भी जनता के साथ शामिल हो गई। इसका खामियाजा महंगाई के तौर पर देश के आम लोगों को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ रहा है।
शर्मिला भरणे
गृहिणी, विरार, ठाणे
नीति निर्माता हैं कसूरवार
जब प्रधानमंत्री ही यह बोलें कि महंगाई अभी और बढ़ सकती है तो फिर महंगाई तो बढ़ेगी ही। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि जिन्हें महंगाई और मूल्य नियंत्रण के लिए प्रयास करना चाहिए वही प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर महंगाई बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे हैं।मॉनसून के सामान्य न रहने की दशा में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग और आपूर्ति का संतुलन अवश्य गड़बड़ाता है। पर महंगाई बढ़ने के लिए इससे भी अधिक जिम्मेदार है सरकार का ढुलमुल रवैया। हर कोई जानता है कि चुनावी फंड कहां से आता है। जिन उद्योगपतियों और व्यवसायियों से चुनावी फंड में सहयोग लिया जाता है, उन्हें और उनसे जुड़े कारोबारियों को छूट देने पर महंगाई बढ़ जाती है।
रमेशचंद्र कर्नावट
महानंदानगर, उज्जैन, मध्य प्रदेश
सरकारी नाकामी से बढ़ी महंगाई
बेलगाम महंगाई सरकार की नाकामी को ही साबित करती है। आवश्यक वस्तुओं के दाम नियंत्रित करने की सरकारी मशीनरी आज कहीं नजर नहीं आ रही है। वैसे जरूरत के वक्त में सरकारी मशीनरी का सो जाना नई बात नहीं है। महंगाई के लिए मॉनसून को जिम्मेदार ठहराना सही नहं है।मॉनसून में थोड़ी कमी हो जाना तो एक बहाना भर है। मॉनसून इतना नहीं गड़बड़ाया है जितना की महंगाई के कारण आम आदमी का चूल्हा-चौका गड़बड़ हो गया है। हालात ऐसे ही रहे तो देश में जल्द ही भूख से परिवारों के सामूहिक भुखमरी के समाचार आने शुरू हो जाएंगे। तब सरकार अपनी फजीहत से बचने के लिए वह सब कुछ करेगी जो यदि आज कर दे तो सबका भला हो जाए।
सत्येंद्र नाथ गतवाला
बभनगावां, गांधी नगर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
पुरस्कृत पत्र
तालमेल का अभाव है दोषी
डॉ. एमएस सिद्दीकी
नई बस्ती,असगर रोड, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश
कमजोर आपूर्ति प्रबंधन, जमाखोरी, कालाबाजारी, उत्पादन में गिरावट, केंद्र और राज्य सरकारों में तालमेल का अभाव जैसे कारण महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं। किसी एक कारण को पूरी तरह से महंगाई के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। महंगाई अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों का परिणाम है।मॉनसून की बेरुखी आग में घी का काम कर रही है और दिनोंदिन महंगाई बढ़ती ही जा रही है। जरूरत इस बात की है कि महंगाई के कारणों की तह में जाकर इसके लिए जिम्मेवार बुनियादी कारणों को दूर करने का बंदोबस्त किया जाए। प्रधानमंत्री ने भविष्य में महंगाई बढ़ने की आशंका व्यक्त की है और राज्यों से महंगाई रोकने के लिए कठोर उपाय करने का आग्रह किया है। महंगाई पर काबू पाने के लिए इस पर अमल किया जाना चाहिए।
अन्य सर्वश्रेष्ठ पत्र
कारोबारी और सरकार जिम्मेदार
समरबहादुर यादव
शांति नगर, ठाणे - महाराष्ट्र
महंगाई के लिए मॉनसून को जिम्मेदार नहीं मान सकते हैं। महंगाई के लिए सरकार और कारोबारी दोनों जिम्मेदार हैं। चंद दिनों पहले संप्रग सरकार ने दूसरी बार सत्ता की कमान संभाली है।जगजाहिर है कि चुनावी तैयारियों के लिए नेता कारोबारियों से पैसे ऐंठते हैं। अब वही कारोबारी नेताओं को दिए गए पैसों की वसूली के लिए ग्राहकों से मनमाने ढंग से उत्पादों की कीमतें वसूल रहे हैं। इससे साफ है कि सरकार और कारोबारियों ने मिलकर आम आदमी के लिए महंगाई का तोहफा देकर जीना मुहाल कर दिया है।
बयानबाजी से बढ़ी महंगाई
योगेश जैन
पैंटालूंस ट्रेजर आईलैंड, एमजी रोड, इंदौर, मध्य प्रदेश
तेजी से बढ़ती महंगाई के लिए सही मायने में हमारे प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री के गैरजिम्मेदराना बयान ही अधिक जिम्मेदार हैं। 'महंगाई तो अभी और बढ़ सकती है' जैसे बयानों से जमाखोरों, कालाबाजारियों और सट्टेबाजों को प्रोत्साहन मिलता है।
मॉनसून के सामान्य नहीं रहने की अवस्था में भी उपभोक्ता वस्तुओं में न तो अचानक कोई कमी होती है और न ही महंगाई बढ़ती है। सरकार ही यदि शिथिल हो जाए तो फिर महंगाई बढ़ने के लिए मॉनसून और कारोबारियों को जिम्मेदार मानना कहां तक उचित है?
प्राकृतिक मार ने पैदा किया संकट
अनंत पाटिल
समाजसेवक, वरली गांव, मुंबई - 30
महंगाई रोकने को लेकर सरकार आए दिन प्रयासरत देखी जा रही है। लेकिन कुदरत के आगे सब बेबस हैं। जिस प्रकार मॉनसून की अपेक्षा की गई उससे भी कम बरसात ने अब तक दस्तक दी है।इस वजह से पैदा होने वाली स्थिति को देखते हुए महंगाई आसमान छू रही है। सरकार ने चीनी, दाल जैसी जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतें कम कर उन्हें बाजार में उतारा लेकिन मॉनसून की आंखमिचौली ने आम लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है। ऐसे में बेहतर मॉनसून के बाद ही सरकार से महंगाई रोकने की उम्मीद की जा सकती है।
कई कारण हैं महंगाई के
विजय कुमार लुणावत
पूनम जूस सेंटर, मुक्ति धाम के सामने, नासिक रोड, महाराष्ट्र
भारत में महंगाई कुछ अधिक तीव्रता से बढ़ रही है। देश का मध्यम और निम् वर्ग घोर आर्थिक संकट में जीवन व्यतीत कर रहा है। मॉनसून के सामान्य नहीं रहने की दशा में आवश्यक खाद्यान्न का उत्पादन प्रभावित होता है। इस वजह से उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ने की संभावना बनी रहती है।इस परिस्थिति का लाभ लेकर जमाखोर और सटोरिये आवश्यक वस्तुओं का कृत्रिम अभाव बनाकर महंगाई को बढ़ाते हैं। ऐसा हो रहा है लेकिन सरकार सो रही है। सही मायने में कहा जाए तो महंगाई बढ़ने के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं।
बकौल विश्लेषक
जमाखोरी और कालाबाजारी ने किया है दाल में काला
देविंदर शर्मा
कृषि विशेषज्ञ
भावना और अनुमान के आधार पर इस महंगाई को पैदा किया गया है। महंगाई की कोई ठोस वजह है ही नहीं। कहीं भी आपूर्ति और मांग का कोई संकट नहीं है। दाल के उत्पादन के मामले में पिछले साल और इस साल में कोई फर्क नहीं है।फिर भी दाल के भाव आसमान छू रहे हैं। सब्जियों के भाव भी बढ़ते ही जा रहे हैं। जबकि उत्पादन में गिरावट नहीं आई है। देश में गेहूं और चावल का 5.4 करोड़ टन अतिरिक्त भंडार है। तेजी से बढ़ती महंगाई के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार जमाखोरी और कालाबाजारी है।वायदा कारोबार भी महंगाई बढ़ाने के लिए काफी हद तक कसूरवार है। महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार भी सजग नहीं है। सरकार इसलिए भी सुस्त है कि महंगाई बढ़ने की वजह से जीडीपी के आंकड़ों में सुधार होता है। इससे सरकार को आर्थिक मोर्चे पर अपनी साख बचाने का अवसर मिलता है।सरकार यह कह रही है कि मंदी के बावजूद हमारी नीतियों की वजह से जीडीपी बेहतर रही। अब तो प्रधानमंत्री ने भी यह कह दिया है कि महंगाई के लिए लोगों को तैयार रहना चाहिए। इससे जमाखोरों का मनोबल और बढ़ेगा और साथ ही महंगाई भी। साफ है कि सरकार कुछ करने वाली नहीं है।महंगाई को काबू में करने के लिए चावल, दाल और गेहूं पर भंडार की सीमा तय होनी चाहिए। जो भी इसका उल्लंघन करे उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाया जाए और उसे जेल भेजा जाए। वायदा कारोबार से कृषि उत्पादों को बाहर करना चाहिए। इन दो कदमों से जमाखोरी और कालाबाजारी रुकेगी और महंगाई पर लगाम लगाई जा सकेगी।
बातचीत: हिमांशु शेखर
कारोबारी नहीं सरकार है इस खेल की सूत्रधार
बनवारी लाल कंछल
राष्ट्रीय अध्यक्ष, उद्योग व्यापार प्रतिनिधि मंडल, पूर्व राज्यसभा सदस्य
महंगाई के लिए मेरी नजर में केवल और केवल केंद्र सरकार ही दोषी है। व्यापारियों का इसमें कोई दोष नही है। मॉनसून को भी दोष देना ठीक नही है। वैसे भी मॉनसून तो चल रहा है और इस बार के सूखे का असर अभी तो देखने में आएगा नहीं।उसके लिए तो छह महीने लगेंगे जब फसल कट कर बाजारों में आएगी। सूखा पहले भी पड़ा पर इस कदर मंहगाई कभी नही बढ़ी है। यहां तो महंगाई मुंह बाये खड़ी है और लोगों का जीना हराम कर रही है। उधर सरकार कह रही है कि सूखे के चलते आने वाले दिनों में चीजों के दाम बढ़ेंगे।अगर आने वाले दिनों में चीजों के दाम बढ़ेंगे तो अभी क्या हो रहा है। आपने देखा कैसे सफाई से आम चुनाव के ठीक पहले डीजल-पेट्रोल के दाम भी गिरा दिए गए और चीजों के दाम भी काबू में थे। रही बात कारोबारी को दोष देने की तो ये तो सबसे आसान है कि उसे दोष दो जो सामान बेचता हो, मुनाफाखोर ठहरा दो उसे। पर सच ये नहीं है।असलियत तो ये है कि व्यापारी कभी महंगाई बढ़ाने की बात सोचता भी नही है। आज कुछ लोग जमाखोरी का आरोप आसानी से व्यापारी पर लगा देते हैं पर वो ये नहीं सोचते कि बड़े रिटेल स्टोर वाले क्या कर रहे हैं।असली जमाखोर तो रिटेल वाले लोग ही हैं जो कि थोक खरीदारी करके दाम बढ़ाते हैं और फिर अपना मुनाफा कमा उसे इन्हीं दिनों में स्कीम का लालच दे कर बेचते हैं। मेरी राय में महंगाई को रोकना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है और वह इससे मुंह नही मोड़ सकती है। सरकार अगर ऐसा करती है तो इसे जनता के साथ धोखा ही कहा जा सकता है।
बातचीत: सिध्दार्थ कलहंस
...और यह है अगला मुद्दा
सप्ताह के ज्वलंत विषय, जो कारोबारी और कारोबार पर गहरा असर डालते हैं। ऐसे ही विषयों पर हर सोमवार को हम प्रकाशित करते हैं व्यापार गोष्ठी नाम का विशेष पृष्ठ। इसमें आपके विचारों को आपके चित्र के साथ प्रकाशित किया जाता है। साथ ही, होती है दो विशेषज्ञों की राय।
इस बार का विषय है - नई प्रत्यक्ष कर संहिता : मुकम्मल या चाहिए और संशोधन? अपनी राय और अपना पासपोर्ट साइज चित्र हमें इस पते पर भेजें:बिजनेस स्टैंडर्ड (हिंदी), नेहरू हाउस, 4 बहादुरशाह ज़फर मार्ग, नई दिल्ली-110002 या फैक्स नंबर- 011-23720201 या फिर ई-मेल करें
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आशा है, हमारी इस कोशिश को देशभर के हमारे पाठकों का अतुल्य स्नेह मिलेगा।
मामूली आदमी और महंगाई
बढ़ती महंगाई जिम्मेदार कौन ?
अनुज खरे
लगातार खबरें आ रही हैं कि सरकार बढ़ती महंगाई पर काबू पाने में खुद को लाचार मान रही है। सरकार के बड़े मंत्री प्रणव मुखर्जी, शरद पवार और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहुलूवालिया तक साफ तौर पर कह चुके हैं कि अगले कुछ महीनों तक आम लोगों को महंगाई से जूझना ही होगा। कृषि मंत्री पवार का कहना है कि नई फसल आने तक लोगों को इस महंगाई से बचाने में सरकार बेबस है। इसी तरह वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का भी कहना है कि महंगाई तभी कम होगी जब राज्य अपनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार कर लेंगे, वहीं मोंटेक सिंह का कहना है कि सरकार के पास कोई समाधान नहीं है। बढ़ती महंगाई से बेहाल लोग जैसे तैसे करके अपने बजट में घर चला रहे हैं। तो यहां प्रश्न है कि ऐसी स्थिती में जनता समाधान के लिए किसकी तरफ देखे।- यदि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग इतने महत्वपूर्ण मसले पर साफ तौर पर हाथ खड़े कर देते हैं तो आखिर वे किस हक से जनता की की नुमाइंदगी करने का दावा करते हैं।- यदि मामला केंद्र और राज्य सरकार के बीच में है तो इसे सुलझाने की जिम्मेदारी किसकी है ? जनता क्यों बलि का बकरा बन रही है।- सरकार ने हाल ही में महंगाई नापने का नया तरीका अपनाने का फैसला किया था जिसके बाद महंगाई की दर 13.39 फीसदी पाई गई जो वास्तविकता के काफी करीब है, क्योंकि इसके पहले पुराने तरीके से किए गए सूचकांक ने महंगाई दर 1.51 फीसदी ही दिखाई गई थी। इस प्रक्रिया से कम से कम सरकार को इस बात का अहसास तो हुआ था कि लोग महंगाई से किस कदर त्रस्त हैं। अन्यथा को कुछ ही महीने पहले महंगाई दर में जबर्दस्त गिरावट दर्ज की गई थी, जिसे सरकार अपनी उपलब्धियों के तौर पर दिखा रही थी। जबकि विशेषज्ञ तब भी कह रहे थे कि यह सूचकांक सही स्थिति नहीं दर्शा रहा है। तब भी कीमतों में कमी नहीं आना उनकी बात को सही भी साबित कर रहा था। विचारणीय प्रश्न है कि इस अवधि में ऐसा क्या हुआ कि सरकार को सूचकांक की खामी समझ मे आ गई । इस पर तुर्रा ये कि जब सही महंगाई दर सामने आई तो सरकार ने उसकी जिम्मेदारी लेकर लोगों को निजात दिलाने के बजाए अपने ही हाथ खड़े कर दिए।
अनुज खरे
लगातार खबरें आ रही हैं कि सरकार बढ़ती महंगाई पर काबू पाने में खुद को लाचार मान रही है। सरकार के बड़े मंत्री प्रणव मुखर्जी, शरद पवार और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहुलूवालिया तक साफ तौर पर कह चुके हैं कि अगले कुछ महीनों तक आम लोगों को महंगाई से जूझना ही होगा। कृषि मंत्री पवार का कहना है कि नई फसल आने तक लोगों को इस महंगाई से बचाने में सरकार बेबस है। इसी तरह वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का भी कहना है कि महंगाई तभी कम होगी जब राज्य अपनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार कर लेंगे, वहीं मोंटेक सिंह का कहना है कि सरकार के पास कोई समाधान नहीं है। बढ़ती महंगाई से बेहाल लोग जैसे तैसे करके अपने बजट में घर चला रहे हैं। तो यहां प्रश्न है कि ऐसी स्थिती में जनता समाधान के लिए किसकी तरफ देखे।- यदि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग इतने महत्वपूर्ण मसले पर साफ तौर पर हाथ खड़े कर देते हैं तो आखिर वे किस हक से जनता की की नुमाइंदगी करने का दावा करते हैं।- यदि मामला केंद्र और राज्य सरकार के बीच में है तो इसे सुलझाने की जिम्मेदारी किसकी है ? जनता क्यों बलि का बकरा बन रही है।- सरकार ने हाल ही में महंगाई नापने का नया तरीका अपनाने का फैसला किया था जिसके बाद महंगाई की दर 13.39 फीसदी पाई गई जो वास्तविकता के काफी करीब है, क्योंकि इसके पहले पुराने तरीके से किए गए सूचकांक ने महंगाई दर 1.51 फीसदी ही दिखाई गई थी। इस प्रक्रिया से कम से कम सरकार को इस बात का अहसास तो हुआ था कि लोग महंगाई से किस कदर त्रस्त हैं। अन्यथा को कुछ ही महीने पहले महंगाई दर में जबर्दस्त गिरावट दर्ज की गई थी, जिसे सरकार अपनी उपलब्धियों के तौर पर दिखा रही थी। जबकि विशेषज्ञ तब भी कह रहे थे कि यह सूचकांक सही स्थिति नहीं दर्शा रहा है। तब भी कीमतों में कमी नहीं आना उनकी बात को सही भी साबित कर रहा था। विचारणीय प्रश्न है कि इस अवधि में ऐसा क्या हुआ कि सरकार को सूचकांक की खामी समझ मे आ गई । इस पर तुर्रा ये कि जब सही महंगाई दर सामने आई तो सरकार ने उसकी जिम्मेदारी लेकर लोगों को निजात दिलाने के बजाए अपने ही हाथ खड़े कर दिए।
Sunday, November 15, 2009
सियासत में जुर्म और ताकत का पर्योग
मीम जाद फजली
राजनीति में धनबल जरूरत से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों होता जा रहा है पिछले सप्ताह के राजनीतिक घटनाक्रमों में साफ दिखा कि क्षेत्रीय पार्टियों में ही नहीं, कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों तक में धनबल कितना प्रभावी हो गया है। कर्नाटक में जो कुछ हुआ या जो कुछ चल रहा है, उसमें भी धनबल का बोलबाला साफ नजर आता है। कर्नाटक की येडि्डयुरप्पा सरकार में रेड्डी बंधु मंत्री हैं। वाकई धनबल की बदौलत ही भाजपा संगठन और सरकार में उनका वर्चस्व है। हवाई दुर्घटना में मारे गए आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी से भी रेड्डी बंधुओं के कारोबारी रिश्ते बताए जाते हैं। आरोप लगाया जाता है कि कांग्रेस दक्षिण भारत की पहली भाजपा सरकार को अस्थिर करने की कोशिश में थी। बेल्लारी के इन दोनों खान मालिकों अर्थात रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक की राजनीति में अच्छी खासी पैठ का फायदा उठाकर संकट खडा किया और अपनी कई मांगों को मनवा लिया, जिसमें कुछ मंत्रियों को सरकार से हटाने, कुछ अफसरों को उनके मौजूदा पदों से हटाने, विधानसभा अध्यक्ष शेट्टर को मंत्रिमंडल में शामिल कराने और जिन आदेशों के कारण उन्हें व्यवसाय में नुकसान हो रहा था, उन्हें रद्द कराना शामिल है। अनिच्छुक येडि्डयुरप्पा को उक्त मांगें माननी पडीं। वे तो कैमरे के सामने रो भी पडे। यह सब कर्नाटक में धनबल के राजनीति पर दबदबे के कारण ही हुआ।धन के जोर का दूसरा उदाहरण आंध्र प्रदेश में सामने आया। डॉ. वाई.एस. राजशेखर रेड्डी की अचानक हुई मौत के बाद प्रदेश में राजनीतिक संकट पैदा हो गया, क्योंकि पहली बार सांसद बने नौसिखिया राजनीतिज्ञ और डॉ. रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी मुख्यमंत्री पद के तगडे दावेदार के रू प में उभरे। डॉ. रेड्डी के शव को दफनाए जाने से पहले ही राजनीतिक ड्रामा शुरू हो गया, जब जगन के समर्थकों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की मांग शुरू कर दी। उनमें से कुछ ने तो हेलीकॉप्टर दुर्घटना के बाद मुख्यमंत्री बने के. रोसैया से असहयोग तक शुरू कर दिया। कांग्रेस हाईकमान ने जगन पर लगाम लगाने की कोशिश की, लेकिन जगन समर्थकों ने काग्रेस नेताओं के पुतले फूं कना शुरू कर उसे मुश्किल में डाल दिया था। हाईकमान कुछ हफ्ते बीतने के बाद ही जगन समर्थकों को यह संकेत दे पाया कि रोसैया मुख्यमंत्री बने रहेंगे। खुद सोनिया गांधी ने पिछले सप्ताह जगन से साफ शब्दों में कह दिया कि उन्हें रोसैया को सहयोग देना होगा। हाईकमान को आंख दिखाने का साहस जगन में कैसे आया यह धनबल ही था, जिसकी बदौलत विधायक जगन मोहन का समर्थन कर रहे थे। जगन के पिता डॉ. रेड्डी ने इन विधायकों को कांग्रेस का टिकट दिलाया था और चुनाव लडने के लिए पैसों का बंदोबस्त भी किया था। इसलिए वे कांग्रेस से ज्यादा उनके प्रति व्यक्तिगत वफादारी दिखा रहे थे। कांग्रेस को आंध्र प्रदेश के अनुभव से सबक लेना चाहिए।तीसरा उदाहरण, जब झारखंड बना था, प्रदेश के लोगों को आस बंधी थी कि इलाके का बहुप्रतीक्षित विकास होगा। लेकिन मधु कोडा प्रकरण से साफ है कि कोडा जैसे राजनेताओं ने खनिजों से समृद्ध इस प्रदेश को जमकर लूटा। कोडा फरवरी 2005 से सितम्बर 2006 तक प्रदेश के खनिज और सहकारिता मंत्री रहे थे। उन्होंने वर्ष 2006 में झारखंड का मुख्यमंत्री बनकर किसी निर्दलीय के पहली बार इस पद पर पहुंचने का रिकार्ड बनाया था। उन्हें कांग्रेस और राजद का समर्थन प्राप्त था। वे 23 अगस्त 2008 तक मुख्यमंत्री रहे।देश यह जानकर हतप्रभ रह गया कि मधु कोडा ने अपने संक्षिप्त राजनीतिक जीवन में दो हजार करोड रूपए से ज्यादा की सम्पत्ति बना ली। आरोप है कि मधु कोडा और उनके साथियों ने थाईलैंड, इंडोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और सिंगापुर समेत कई देशों में खनन, इस्पात और ऊर्जा उद्योगों में निवेश किया है।ऎसा नहीं है कि राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को राजनीति में धनबल के बढते उपयोग का पता नहीं हो। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, तब मुंबई में 1985 में हुए कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन में उन्होंने सत्ता के दलालों का उल्लेख कर खूब तालियां बटोरी थीं। लेकिन वे सत्ता के दलालों से पीछा नहीं छुडा पाए। अब उनके बेटे और कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी धनबल के बारे में बोल रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे राजनीति में धनबल का दबदबा खत्म कर पाएंगेसभी राजनीतिक पार्टियां इस पर चिंता जताती हैं, लेकिन धनबलियों या बाहुबलियों को टिकट देने में भी नहीं हिचकिचाती हैं। उदाहरण के लिए, बिल्डरों की लॉबी ने हाल ही में हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में अच्छी-खासी सीटें प्राप्त की हैं। प्रदेश की लगभग आधी सीटों पर ऎसे प्रत्याशी जीते हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं।एक समय था, जब राजनीतिज्ञ गुंडों के बाहुबल का उपयोग चुनाव जीतने के लिए करते थे। उसके बाद बाहुबली खुद राजनीति में आ गए और चुनाव जीतने लगे। इसके बाद नेता बडे उद्योगपतियों से चुनावों के लिए मोटी रकम चंदे में लेने लगे। कुछ अर्से बाद उद्योगपतियों ने सोचा कि वह दूसरों को पैसा देकर उन्हें चुनाव जीतने में मदद देने के बजाय खुद ही क्यों न लडकर चुनाव जीतें राजनीतिक पार्टियों को धनबल और बाहुबल से राजनीति को पैदा हुए खतरे को समझना चाहिए। यदि इन पर अंकुश नहीं लगा, तो बाद में उन्हें पछताना होगा। सुधार की शुरूआत टिकट बांटते समय ही होनी चाहिए। अमीर लोग राजनीति में आएं और सांसद या विधायक बनें, इस पर तो किसी को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं और आंध्रप्रदेश में जगन मोहन रेड्डी का जो रवैया रहा है, उसे तो कोई उचित नहीं ठहरा सकता।
राजनीति में धनबल जरूरत से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों होता जा रहा है पिछले सप्ताह के राजनीतिक घटनाक्रमों में साफ दिखा कि क्षेत्रीय पार्टियों में ही नहीं, कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों तक में धनबल कितना प्रभावी हो गया है। कर्नाटक में जो कुछ हुआ या जो कुछ चल रहा है, उसमें भी धनबल का बोलबाला साफ नजर आता है। कर्नाटक की येडि्डयुरप्पा सरकार में रेड्डी बंधु मंत्री हैं। वाकई धनबल की बदौलत ही भाजपा संगठन और सरकार में उनका वर्चस्व है। हवाई दुर्घटना में मारे गए आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी से भी रेड्डी बंधुओं के कारोबारी रिश्ते बताए जाते हैं। आरोप लगाया जाता है कि कांग्रेस दक्षिण भारत की पहली भाजपा सरकार को अस्थिर करने की कोशिश में थी। बेल्लारी के इन दोनों खान मालिकों अर्थात रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक की राजनीति में अच्छी खासी पैठ का फायदा उठाकर संकट खडा किया और अपनी कई मांगों को मनवा लिया, जिसमें कुछ मंत्रियों को सरकार से हटाने, कुछ अफसरों को उनके मौजूदा पदों से हटाने, विधानसभा अध्यक्ष शेट्टर को मंत्रिमंडल में शामिल कराने और जिन आदेशों के कारण उन्हें व्यवसाय में नुकसान हो रहा था, उन्हें रद्द कराना शामिल है। अनिच्छुक येडि्डयुरप्पा को उक्त मांगें माननी पडीं। वे तो कैमरे के सामने रो भी पडे। यह सब कर्नाटक में धनबल के राजनीति पर दबदबे के कारण ही हुआ।धन के जोर का दूसरा उदाहरण आंध्र प्रदेश में सामने आया। डॉ. वाई.एस. राजशेखर रेड्डी की अचानक हुई मौत के बाद प्रदेश में राजनीतिक संकट पैदा हो गया, क्योंकि पहली बार सांसद बने नौसिखिया राजनीतिज्ञ और डॉ. रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी मुख्यमंत्री पद के तगडे दावेदार के रू प में उभरे। डॉ. रेड्डी के शव को दफनाए जाने से पहले ही राजनीतिक ड्रामा शुरू हो गया, जब जगन के समर्थकों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की मांग शुरू कर दी। उनमें से कुछ ने तो हेलीकॉप्टर दुर्घटना के बाद मुख्यमंत्री बने के. रोसैया से असहयोग तक शुरू कर दिया। कांग्रेस हाईकमान ने जगन पर लगाम लगाने की कोशिश की, लेकिन जगन समर्थकों ने काग्रेस नेताओं के पुतले फूं कना शुरू कर उसे मुश्किल में डाल दिया था। हाईकमान कुछ हफ्ते बीतने के बाद ही जगन समर्थकों को यह संकेत दे पाया कि रोसैया मुख्यमंत्री बने रहेंगे। खुद सोनिया गांधी ने पिछले सप्ताह जगन से साफ शब्दों में कह दिया कि उन्हें रोसैया को सहयोग देना होगा। हाईकमान को आंख दिखाने का साहस जगन में कैसे आया यह धनबल ही था, जिसकी बदौलत विधायक जगन मोहन का समर्थन कर रहे थे। जगन के पिता डॉ. रेड्डी ने इन विधायकों को कांग्रेस का टिकट दिलाया था और चुनाव लडने के लिए पैसों का बंदोबस्त भी किया था। इसलिए वे कांग्रेस से ज्यादा उनके प्रति व्यक्तिगत वफादारी दिखा रहे थे। कांग्रेस को आंध्र प्रदेश के अनुभव से सबक लेना चाहिए।तीसरा उदाहरण, जब झारखंड बना था, प्रदेश के लोगों को आस बंधी थी कि इलाके का बहुप्रतीक्षित विकास होगा। लेकिन मधु कोडा प्रकरण से साफ है कि कोडा जैसे राजनेताओं ने खनिजों से समृद्ध इस प्रदेश को जमकर लूटा। कोडा फरवरी 2005 से सितम्बर 2006 तक प्रदेश के खनिज और सहकारिता मंत्री रहे थे। उन्होंने वर्ष 2006 में झारखंड का मुख्यमंत्री बनकर किसी निर्दलीय के पहली बार इस पद पर पहुंचने का रिकार्ड बनाया था। उन्हें कांग्रेस और राजद का समर्थन प्राप्त था। वे 23 अगस्त 2008 तक मुख्यमंत्री रहे।देश यह जानकर हतप्रभ रह गया कि मधु कोडा ने अपने संक्षिप्त राजनीतिक जीवन में दो हजार करोड रूपए से ज्यादा की सम्पत्ति बना ली। आरोप है कि मधु कोडा और उनके साथियों ने थाईलैंड, इंडोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और सिंगापुर समेत कई देशों में खनन, इस्पात और ऊर्जा उद्योगों में निवेश किया है।ऎसा नहीं है कि राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को राजनीति में धनबल के बढते उपयोग का पता नहीं हो। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, तब मुंबई में 1985 में हुए कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन में उन्होंने सत्ता के दलालों का उल्लेख कर खूब तालियां बटोरी थीं। लेकिन वे सत्ता के दलालों से पीछा नहीं छुडा पाए। अब उनके बेटे और कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी धनबल के बारे में बोल रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे राजनीति में धनबल का दबदबा खत्म कर पाएंगेसभी राजनीतिक पार्टियां इस पर चिंता जताती हैं, लेकिन धनबलियों या बाहुबलियों को टिकट देने में भी नहीं हिचकिचाती हैं। उदाहरण के लिए, बिल्डरों की लॉबी ने हाल ही में हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में अच्छी-खासी सीटें प्राप्त की हैं। प्रदेश की लगभग आधी सीटों पर ऎसे प्रत्याशी जीते हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं।एक समय था, जब राजनीतिज्ञ गुंडों के बाहुबल का उपयोग चुनाव जीतने के लिए करते थे। उसके बाद बाहुबली खुद राजनीति में आ गए और चुनाव जीतने लगे। इसके बाद नेता बडे उद्योगपतियों से चुनावों के लिए मोटी रकम चंदे में लेने लगे। कुछ अर्से बाद उद्योगपतियों ने सोचा कि वह दूसरों को पैसा देकर उन्हें चुनाव जीतने में मदद देने के बजाय खुद ही क्यों न लडकर चुनाव जीतें राजनीतिक पार्टियों को धनबल और बाहुबल से राजनीति को पैदा हुए खतरे को समझना चाहिए। यदि इन पर अंकुश नहीं लगा, तो बाद में उन्हें पछताना होगा। सुधार की शुरूआत टिकट बांटते समय ही होनी चाहिए। अमीर लोग राजनीति में आएं और सांसद या विधायक बनें, इस पर तो किसी को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं और आंध्रप्रदेश में जगन मोहन रेड्डी का जो रवैया रहा है, उसे तो कोई उचित नहीं ठहरा सकता।
Saturday, November 14, 2009
3 रुपये का कमाल, 'मिरोध' बेमिसाल
14 Nov 2009, 1330 hrs IST,नवभारतटाइम्स.कॉम विजय दीक्षित ।। लखनऊ
सिर्फ 3 रुपये में नसबंदी। सुनकर कुछ अटपटा लगता है ना। मगर यह सौ फीसदी सच
है। कॉन्डम और कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स का जमाना अब पुराना हो चुका है। अब गर्भ निरोधक 'निरोध' को बाय-बाय कीजिए और मिरोध (बर्थ कंट्रोल इंजेक्शन) से हाय-हैलो कीजिए। कॉन्डम का इस्तेमाल तो इंसान को कई बार करना पड़ता है, पर मिरोध का केवल एक बार प्रयोग करने से पुरुष जिंदगीभर निरोध पर आने वाले खर्च की बचत कर सकता है। इस इंजेक्शन का प्रयोग एक बार करने वाला व्यक्ति अपने पूरे जीवन में पिता नहीं बन सकता। 3 रुपये खर्च करके इंजेक्शन लगाने में केवल तीन सेकंड लगते हैं, जिसके तुरंत बाद पुरुष काम पर जा सकता है। लखनऊ स्थित किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज ने भारत समेत दुनिया भर की पॉप्युलेशन प्रॉब्लम पर इमरजंसी ब्रेक लगाने की फूलप्रूफ व्यवस्था करने का दावा किया है। मिरोध नामक गर्भ निरोधक इंजेक्शन को डिवेलप करने वाले रिसर्च टीम के लीडर डॉ. एन. एस. डसीला ने बताया कि रिसर्च के अपेक्षित परिणाम आने के बाद सरकार को सूचना भेज दी गई है। हेल्थ डिपार्टमेंट के प्रिंसिपल सेक्रेटरी प्रदीप शुक्ला ने इस तकनीक को पेटेंट कराने के लिए वित्त विभाग से 10 लाख रुपये की राशि मांगी है, जो मंजूर हो गई है। यूपी सरकार को इस इंजेक्शन का इंटरनैशनल लेवल पर पेटेंट कराने के लिए अपने स्तर पर कार्रवाई करनी होगी। डसीला ने दावा किया कि इस नए अनुसंधान की सफलता से गर्भ निरोधक कंपनियों में खलबली मच जाएगी। कॉन्डम, माला डी और इस तरह के अन्य उत्पादों का सालाना कारोबार पूरी दुनिया में खरबों डॉलर का है। और तो और, डसीला ने पूरे आत्मविश्वास से कहा कि कि नए प्रयोग से पुरुषों और महिलाओं के प्लेजर में कमी नहीं आएगी देखी गई, बल्कि बढ़ोतरी ही होगी। इससे बर्थ कंट्रोल का टारगेट आसानी से पूरा किया जा सकता है। विश्व स्तर पर इसका प्रयोग होने में डेढ़-दो साल लग सकते हैं।
रिसर्च टीम के लीडर का दावा था कि इस चमत्कारिक खोज के साइड इफेक्ट अब तक सामने नहीं आए हैं और न ही आने की कोई संभावना है। उन्होंने बताया कि बर्थ कंट्रोल के इस नए फॉर्म्युले को पेटेंट कराने की कार्रवाई अंतिम चरण में है। इंजेक्शन में हाफ एमएल के केमिकल्स की कीमत 50 पैसे तक होगी। इंजेक्शन टेस्टिकल के पास नस में केवल तीन सेकंड में इंजेक्ट होगा। इसको लगाते ही पुरुषों में स्पर्म बनना बंद हो जाते हैं। इससे पुरुष जीवन भर नई संतान को जन्म नहीं दे पाएगा।
सिर्फ 3 रुपये में नसबंदी। सुनकर कुछ अटपटा लगता है ना। मगर यह सौ फीसदी सच
है। कॉन्डम और कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स का जमाना अब पुराना हो चुका है। अब गर्भ निरोधक 'निरोध' को बाय-बाय कीजिए और मिरोध (बर्थ कंट्रोल इंजेक्शन) से हाय-हैलो कीजिए। कॉन्डम का इस्तेमाल तो इंसान को कई बार करना पड़ता है, पर मिरोध का केवल एक बार प्रयोग करने से पुरुष जिंदगीभर निरोध पर आने वाले खर्च की बचत कर सकता है। इस इंजेक्शन का प्रयोग एक बार करने वाला व्यक्ति अपने पूरे जीवन में पिता नहीं बन सकता। 3 रुपये खर्च करके इंजेक्शन लगाने में केवल तीन सेकंड लगते हैं, जिसके तुरंत बाद पुरुष काम पर जा सकता है। लखनऊ स्थित किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज ने भारत समेत दुनिया भर की पॉप्युलेशन प्रॉब्लम पर इमरजंसी ब्रेक लगाने की फूलप्रूफ व्यवस्था करने का दावा किया है। मिरोध नामक गर्भ निरोधक इंजेक्शन को डिवेलप करने वाले रिसर्च टीम के लीडर डॉ. एन. एस. डसीला ने बताया कि रिसर्च के अपेक्षित परिणाम आने के बाद सरकार को सूचना भेज दी गई है। हेल्थ डिपार्टमेंट के प्रिंसिपल सेक्रेटरी प्रदीप शुक्ला ने इस तकनीक को पेटेंट कराने के लिए वित्त विभाग से 10 लाख रुपये की राशि मांगी है, जो मंजूर हो गई है। यूपी सरकार को इस इंजेक्शन का इंटरनैशनल लेवल पर पेटेंट कराने के लिए अपने स्तर पर कार्रवाई करनी होगी। डसीला ने दावा किया कि इस नए अनुसंधान की सफलता से गर्भ निरोधक कंपनियों में खलबली मच जाएगी। कॉन्डम, माला डी और इस तरह के अन्य उत्पादों का सालाना कारोबार पूरी दुनिया में खरबों डॉलर का है। और तो और, डसीला ने पूरे आत्मविश्वास से कहा कि कि नए प्रयोग से पुरुषों और महिलाओं के प्लेजर में कमी नहीं आएगी देखी गई, बल्कि बढ़ोतरी ही होगी। इससे बर्थ कंट्रोल का टारगेट आसानी से पूरा किया जा सकता है। विश्व स्तर पर इसका प्रयोग होने में डेढ़-दो साल लग सकते हैं।
रिसर्च टीम के लीडर का दावा था कि इस चमत्कारिक खोज के साइड इफेक्ट अब तक सामने नहीं आए हैं और न ही आने की कोई संभावना है। उन्होंने बताया कि बर्थ कंट्रोल के इस नए फॉर्म्युले को पेटेंट कराने की कार्रवाई अंतिम चरण में है। इंजेक्शन में हाफ एमएल के केमिकल्स की कीमत 50 पैसे तक होगी। इंजेक्शन टेस्टिकल के पास नस में केवल तीन सेकंड में इंजेक्ट होगा। इसको लगाते ही पुरुषों में स्पर्म बनना बंद हो जाते हैं। इससे पुरुष जीवन भर नई संतान को जन्म नहीं दे पाएगा।
Tuesday, November 10, 2009
धांगड़ टोला मतलब अभाव+कुपोषण+बीमारी
Nov 10, 11:36 am
मधुबनी [श्यामानंद मिश्र]। पिछड़ेपन का सटीक नमूना है पंडौल प्रखंड की बेलाही पंचायत का यह कमलाबाड़ी धांगड़ टोला। यहां है अभाव, कुपोषण और बीमारियों का बोलबाला। इस गरीब बस्ती में पिछले दो वर्षो के भीतर दर्जनों लोग बीमारियों की चपेट में असामयिक काल-कवलित हो चुके हैं तो कई दर्जन काल के गाल में समाने का दिन गिन रहे हैं। यहां के लगभग सभी बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। सरकार के हर दावे को इस टोले की आर्थिक विपन्नता खोखला साबित कर रही है। तकरीबन साल भर पहले दैनिक जागरण में बस्ती की दयनीय दशा उजागर करती विस्तृत रपट प्रकाशित हुई थी, जिसके बाद कुछ दिनों के लिए प्रशासनिक महकमे में सुधार की सुगबुगाहट तो हुई, मगर फिर सब कुछ जैसे का तैसा हो गया। करीबन 100 वर्ष पूर्व दरभंगा महाराज के आग्रह पर धांगड़ जाति के लोग दक्षिण बिहार से यहां आकर बसे थे। आदिवासी मूल के इन लोगों का तब मूल काम शिकारमाही था। दरभंगा राज के समय में तो इन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई, लेकिन बाद के दशकों में इनके ऊपर एक के बाद एक संकट मंडराने लगा। अभी हाल यह है कि तकरीबन 150 घरों की बस्ती में किसी के पास टूटी-फूटी झोपड़ी के सिवाय कुछ नहीं है। गांव के लोग बताते हैं कि एक दशक पूर्व इंदिरा आवास योजना के तहत इन्हें घर मुहैया कराए गए थे, जो अब जर्जर हो चुके हैं। गांव में एक सरकारी दालान तो जरूर है, लेकिन हजारों की आबादी के बावजूद यहां एक भी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। आर्थिक विपन्नता के कारण बस्ती के 80 प्रतिशत स्त्री-पुरुष व बच्चे विभिन्न रोगों से ग्रसित हैं। धांगड़ मांझी टोला में प्रवेश करते ही कुछ अलग सत्य के ही दर्शन होते हैं। बस्ती के लोग स्थानीय मुखिया व जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ आला अधिकारियों से नाराज दिखते हैं। पिछले दो वर्ष के भीतर विभिन्न बीमारियों से मरने वालों में मंगली देवी, अमृत देवी, भोली मांझी, रामकिशुन मांझी, मंगला मांझी, खुशबू, मरछिया देवी आदि नाम शामिल हैं। फिलहाल तीन बच्चों की मां व गर्भवती बासो देवी बीमार है और मौत के दिन गिन रही है। योगेन्द्र माझी और उनके जैसे दर्जनों अन्य के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। बुधन मांझी व उनकी पत्नी मंजू के मर जाने के बाद उनका अनाथ बच्चा भगवान भरोसे है। रधिया, आरती, कालो, मरनी, भुनेश्वर, वीणा, शांति विभिन्न बीमारियों से जूझ रहे हैं। सरकारी योजनाओं से उनका विश्वास उठ चुका है।
मधुबनी [श्यामानंद मिश्र]। पिछड़ेपन का सटीक नमूना है पंडौल प्रखंड की बेलाही पंचायत का यह कमलाबाड़ी धांगड़ टोला। यहां है अभाव, कुपोषण और बीमारियों का बोलबाला। इस गरीब बस्ती में पिछले दो वर्षो के भीतर दर्जनों लोग बीमारियों की चपेट में असामयिक काल-कवलित हो चुके हैं तो कई दर्जन काल के गाल में समाने का दिन गिन रहे हैं। यहां के लगभग सभी बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। सरकार के हर दावे को इस टोले की आर्थिक विपन्नता खोखला साबित कर रही है। तकरीबन साल भर पहले दैनिक जागरण में बस्ती की दयनीय दशा उजागर करती विस्तृत रपट प्रकाशित हुई थी, जिसके बाद कुछ दिनों के लिए प्रशासनिक महकमे में सुधार की सुगबुगाहट तो हुई, मगर फिर सब कुछ जैसे का तैसा हो गया। करीबन 100 वर्ष पूर्व दरभंगा महाराज के आग्रह पर धांगड़ जाति के लोग दक्षिण बिहार से यहां आकर बसे थे। आदिवासी मूल के इन लोगों का तब मूल काम शिकारमाही था। दरभंगा राज के समय में तो इन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई, लेकिन बाद के दशकों में इनके ऊपर एक के बाद एक संकट मंडराने लगा। अभी हाल यह है कि तकरीबन 150 घरों की बस्ती में किसी के पास टूटी-फूटी झोपड़ी के सिवाय कुछ नहीं है। गांव के लोग बताते हैं कि एक दशक पूर्व इंदिरा आवास योजना के तहत इन्हें घर मुहैया कराए गए थे, जो अब जर्जर हो चुके हैं। गांव में एक सरकारी दालान तो जरूर है, लेकिन हजारों की आबादी के बावजूद यहां एक भी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। आर्थिक विपन्नता के कारण बस्ती के 80 प्रतिशत स्त्री-पुरुष व बच्चे विभिन्न रोगों से ग्रसित हैं। धांगड़ मांझी टोला में प्रवेश करते ही कुछ अलग सत्य के ही दर्शन होते हैं। बस्ती के लोग स्थानीय मुखिया व जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ आला अधिकारियों से नाराज दिखते हैं। पिछले दो वर्ष के भीतर विभिन्न बीमारियों से मरने वालों में मंगली देवी, अमृत देवी, भोली मांझी, रामकिशुन मांझी, मंगला मांझी, खुशबू, मरछिया देवी आदि नाम शामिल हैं। फिलहाल तीन बच्चों की मां व गर्भवती बासो देवी बीमार है और मौत के दिन गिन रही है। योगेन्द्र माझी और उनके जैसे दर्जनों अन्य के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। बुधन मांझी व उनकी पत्नी मंजू के मर जाने के बाद उनका अनाथ बच्चा भगवान भरोसे है। रधिया, आरती, कालो, मरनी, भुनेश्वर, वीणा, शांति विभिन्न बीमारियों से जूझ रहे हैं। सरकारी योजनाओं से उनका विश्वास उठ चुका है।
Monday, November 9, 2009
Saturday, November 7, 2009
Wednesday, November 4, 2009
बेबस दिल्ली में महंगा सफर
4 Nov 2009, 0024 hrs IST,नवभारत टाइम्स नई दिल्ली।। भारी विरोध के बावजूद दिल्ली सरकार ने डीटीसी, ब्लूलाइन और मेट्रो की फीडर बसों में बढ़े हुए किराए बुधवार से लागू करने का ऐलान कर दिया है। दिल्ली सरकार के ट्रांसपोर्ट विभाग ने मंगलवार को नोटिफिकेशन जारी कर दिया। इस नोटिफिकेशन के बाद बुधवार सुबह से नए किराए लागू हो जाएंगे और अब पैसिंजरों को उसी के अनुरूप किराया देना होगा। बढ़ा हुआ किराया डेली पास, मासिक पास के अलावा स्कूलों को दी जाने वाली डीटीसी बसों पर भी लागू होगा यानी जिन स्कूलों में डीटीसी की बसें हैं, वहां के स्टूडेंट्स को भी अब ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे। स्कूल-कॉलिज के छात्रों को भी अब पास के लिए ज्यादा पैसे देने होंगे। नए किराए लागू होने से कई जगह पब्लिक ट्रांसपोर्ट, प्राइवेट वाहनों के मुकाबले ज्यादा महंगा हो जाएगा यानी बस की बजाय अपने दुपहिया वाहन में सफर करना सस्ता होगा। दिल्ली के ट्रांसपोर्ट कमिश्नर आर. के. वर्मा ने मंगलवार को यह नोटिफिकेशन जारी करते हुए इसे लागू करने की घोषणा की। इस नोटिफिकेशन के मुताबिक अब पैसिंजर डीटीसी या ब्लूलाइन बस में 3 किमी के सफर के लिए 5 रुपये देने होंगे। अब तक पैसिंजर 3 रुपये में 4 किमी का सफर तय करते थे। सबसे ज्यादा मार ऐसे पैसिंजरों पर ही पड़ी है। इनके लिए दिल्ली सरकार ने एक ही झटके में किराए में 300 फीसदी से भी ज्यादा की बढ़ोतरी की है। यानी अब पैसिंजर को 4 किमी का सफर करने के लिए 3 रुपये की बजाय 10 रुपये खर्च करने होंगे। नोटिफिकेशन के मुताबिक 3 से 10 किमी का सफर करने वालों को 10 रुपये और उससे ज्यादा का सफर करने वालों को 15 रुपये खर्च करने होंगे। इसी तरह एयरकंडीशन बसों का भाड़ा तो नहीं बढ़ाया गया लेकिन उनके किमी कम कर दिए गए हैं यानी अब तक 8 किमी के लिए 10 रुपये देने होते थे लेकिन अब डीटीसी की एसी बसों में 10 रुपये में 4 किमी का सफर होगा। इसी तरह 4 से 8 किमी के लिए 15 रुपये, 8 से 12 किमी के लिए 20 और उससे ज्यादा के लिए 25 रुपये देने होंगे। यही नहीं, नाइट सर्विस और लिमिटेड बस सर्विस के लिए भी 25 रुपये किराया देना होगा। ऐसी बसों में अब तक 10 रुपये का टिकट था। इस तरह से इन बसों के पैसिंजरों पर भी एक ही झटके में 150 फीसदी किराया बढ़ा दिया गया है। मेट्रो की फीडर बसों में सफर करने वालों को भी दिल्ली सरकार ने नहीं बख्शा। अब 8 किमी तक का सफर करने वाले पैसिंजरों को 5 रुपये की बजाय 7 रुपये देने होंगे और 8 किमी से ज्यादा के सफर के लिए 8 रुपये की बजाय 10 रुपये किराया देना होगा। अब डीटीसी बसों के मासिक पास की राशि 450 रुपये से बढ़ाकर 800 रुपये हो जाएगी। इसी तरह डेली पास भी 25 रुपये से बढ़ाकर 40 रुपये हो गया है। सरकार ने बेटिकट सफर करने वालों के लिए जुर्माना भी 100 रुपये से बढ़ाकर 200 रुपये कर दिया गया है। बस भाड़े की मार उन पैसिंजरों पर ज्यादा पड़ेगी, जिनके गंतव्य स्थानों के लिए सीधी बस सेवा नहीं है यानी उन्हें 4-6 किमी पर बस बदलनी पड़ती है। ऐसे पैसिंजरों को हर बार 10 रुपये का टिकट लेना होगा। दिलचस्प यह है कि सरकार ने यह किराया तब बढ़ाया है, जबकि सरकार खुद अपील कर रही है कि सड़कों पर भीड़भाड़ कम करने के लिए लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करें लेकिन नए किराए इस तरह से बनाए गए हैं कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट महंगा हो गया है और प्राइवेट वाहन चलाना सस्ता। लेकिन इसके बावजूद सरकार ने नए किराए लागू करके पैसिंजरों की जेब पर एक और भार डाल दिया है।
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