
Wednesday, December 23, 2009
Saturday, November 21, 2009
नक्सली हिंसा की चुनौती
Nov 04, 11:51 pm
नक्सल समस्या एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले दिनों में सुरक्षा बलों और नक्सलियों की पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी में आमना-सामना होगा। जाहिर है कि इसमें बहुत लोग मारे जाएंगे। अफसोस इस बात का विशेष तौर से होगा कि मारे जाने वालों में अधिकांश गरीब तबके और जनजातीय लोग होंगे। सुरक्षा बलों को भी नुकसान अवश्य होगा। क्या इस दुखदायी स्थिति से बचा जा सकता था? दुखदायी इसलिए कि सुरक्षा बलों को अपने ही नागरिकों के एक वर्ग से संघर्ष करना पड़ेगा। सच तो यह है कि सरकार के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा था। प्रधानमंत्री ने हाल में ही पुलिस प्रमुखों को संबोधित करते हुए कहा कि नक्सल आंदोलन देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हो गया है। गृहमंत्री ने स्पष्ट किया कि नक्सल गुटों का प्रभाव बीस प्रदेशों के लगभग 223 जनपदों में कमोबेश फैल चुका है। उन्होंने यह भी बताया कि नक्सल हिंसा से 13 प्रदेशों के नब्बे जनपदों में चार सौ पुलिस स्टेशन क्षेत्र विशेष तौर से प्रभावित हैं। नक्सल हिंसा का तांडव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। विगत वर्ष 2008 में नक्सल हिंसा की कुल 1591 घटनाएं हुई थीं, जिनमें 721 व्यक्ति मारे गए थे। इस वर्ष अगस्त के अंत तक 1405 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 580 व्यक्ति मारे गए हैं। सुरक्षाकर्मी विशेष तौर से नक्सलियों के निशाने पर रहे। 2008 में 231 सुरक्षाकर्मी मारे गए, इस वर्ष यह संख्या 270 के ऊपर पहुंच चुकी है।
नक्सल आंदोलन के विस्तार के कारणों को भी समझना जरूरी है। हमारी योजनाएं कागज पर कितनी ही अच्छी बनी हों, इनके क्रियान्वयन में बहुत कमी रही है। योजना आयोग ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता के साठ वर्ष पश्चात भी हमारी एक चौथाई से ज्यादा आबादी आज भी गरीब है। विकास हुआ है, जीडीपी बढ़ी है, परंतु विकास का लाभ सभी वर्गो को उनकी आवश्यकतानुसार नहीं मिला है। जनजातियों के साथ विशेष तौर से सौतेला व्यवहार हुआ है। एक आकलन के अनुसार 1947 से 2004 के बीच में विभिन्न योजनाओं के कारण देश में कुल 6 करोड़ आदमी विस्थापित हुए। इसमें चालीस प्रतिशत जनजातियों के लोग थे। भूमि संबंधी सुधार जो देश में होने चाहिए थे वेआंशिक रूप से ही हुए और प्रदेश सरकारें इस दिशा में उदासीन हैं। भ्रष्टाचार इतना ज्यादा व्याप्त है कि विकास संबंधी योजनाएं कागज पर ही धरी रह जाती हैं। झारखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री और उनके कैबिनेट सहयोगियों के विरुद्घ आरोप है कि वे करीब 4000 करोड़ रुपये खा गए। इस रकम का थाइलैंड और लाइबेरिया जैसे देशों में निवेश किया गया। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने हाल में बयान दिया था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सरकार जो खर्च करती है उसमें एक रुपये का केवल 16 पैसा गरीब आदमी तक पहुंचता है। फलस्वरूप जो लाभ गरीब तबके के लोगों के पास पहुंचना चाहिए वह नहीं पहुंच पाता। देश में बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां प्रशासकीय व्यवस्था एकदम लचर है। छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जनपद में अबुजमांड चार हजार वर्ग किलोमीटर का एक ऐसा क्षेत्र है जहां सरकारी तंत्र आज भी नहीं पहुंच पाया है। उस क्षेत्र का प्रदेश सरकार के पास कोई आधिकारिक नक्शा तक नहीं है। इन हालात में नक्सलियों ने वहां अपना गढ़ बना लिया है। अन्य प्रदेशों में भी बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां मूलभूत सुविधाएं-शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, सड़क और स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। यह सब असंतोष का कारण बनता है। नक्सलवाद के पनपने और इसके देश के बड़े भौगोलिक क्षेत्र में विस्तार के लिए सरकार जिम्मेदार है, परंतु इन मुदं्दों के आधार पर कानून को हाथ में लेने का कोई औचित्य नहीं बनता। नक्सली भी दलितों और जनजातियों को केवल मोहरा बना रहे हैं। उनका मूल लक्ष्य राज्य सत्ता पर कब्जा करना है। उनकी सशस्त्र क्रांति की योजना में हिंसा है, सरकारी तंत्र पर हमला है, विध्वंस है, परंतु कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं है। माओवाद तो चीन में ही दफना दिया गया है। आज की तारीख में उसके आधार पर देश में कोई संरचना असंभव है। हमारे लोकतंत्र में खामियां हैं, विकास योजनाओं में प्राथमिकताएं सही नहीं हैं, परंतु फिर भी यह व्यवस्था जन समर्थन से बनी है और इसमें हर व्यक्ति को अपना दृष्टिकोण रखने का अधिकार है। रकार ने बार-बार यह कहा है कि नक्सली अगर हिंसा का रास्ता त्याग दें तो उनसे बातचीत हो सकती है, परंतु हम देख रहे हैं कि नक्सली हिंसाओं में वृद्घि हो रही है। अक्टूबर माह में ही झारखंड में पुलिस इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदुवार की गला काटकर हत्या की गई, गढ़चिरौली में 18 पुलिस कर्मियों को मार डाला गया। पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के सीमावर्ती जनपदों में दो दिन का बंद हुआ, जिसमें जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया गया। केंद्रीय औद्योगिक बल के चार जवान बारूदी सुरंग से उड़ा दिए गए। राजधानी एक्सप्रेस को पश्चिमी मिदनापुर में पांच घंटों तक रोका गया। इन घटनाओं से तो यह लगता है कि नक्सली वार्ता करने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं, बल्कि सरकार को बराबर चुनौती दे रहे हैं। माओवादी नेता जिस तरह के बयान देते हैं उनसे भी ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि नक्सली शांति वार्ता चाहते हैं। ऐसी परिस्थितियों में सरकार के पास सख्ती के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता। किसी भी सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह जनजीवन को सुरक्षा प्रदान करे और हिंसात्मक कार्रवाइयों पर नकेल लगाए। इसी नीति के अंतर्गत भारत सरकार ने नक्सल प्रभावित प्रदेशों में सशस्त्र कार्रवाई करने का निर्णय लिया है। एक राज्य के अंदर समानांतर हुकूमत नहीं चल सकती। एक राज्य के अंदर दो विरोधी सुरक्षा बल भी नहीं हो सकते। सरकार को नक्सलियों के राजनीतिक ढांचे को ध्वस्त करना होगा और उनकी गुरिल्ला फौज को छिन्न-भिन्न करना होगा। इस सारी कार्रवाई में यह विशेष ध्यान देना होगा कि नागरिकों को कम से कम नुकसान हो और बेकसूर आदमी न मारे जाएं। सशस्त्र कार्रवाई में कम से कम पांच-छह महीने का समय तो लग ही जाएगा। कालांतर में यह सुनिश्चित करना होगा कि जैसे-जैसे प्रभावित क्षेत्रों से नक्सली हटते जाते हैं वहां नागरिक प्रशासन स्थापित किया जाए और लोगों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। विकास का कार्य इमानदारी से सुनिश्चित कराना होगा। यह भी देखना होगा कि विकास मानवीय दृष्टिकोण से हो अर्थात वहां के निवासियों को न्यूनतम कष्ट हो और जो अनिवार्य रूप से विस्थापित होते हैं उनके पुनर्वास एवं रोजगार की व्यवस्था की जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया और सशस्त्र कार्रवाई के बाद सरकार अपने पुराने ढर्रे पर, जिसमें भ्रष्टाचार को अस्सी प्रतिशत बर्दाश्त किया जाता है, फिर से चलने लगती है तो यह मान लिया जाए कि नक्सलवाद पुन: उभर कर आएगा और उसका स्वरूप वर्तमान से भी ज्यादा भयंकर होगा।
[प्रकाश सिंह: लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं]
नक्सल समस्या एक खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले दिनों में सुरक्षा बलों और नक्सलियों की पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी में आमना-सामना होगा। जाहिर है कि इसमें बहुत लोग मारे जाएंगे। अफसोस इस बात का विशेष तौर से होगा कि मारे जाने वालों में अधिकांश गरीब तबके और जनजातीय लोग होंगे। सुरक्षा बलों को भी नुकसान अवश्य होगा। क्या इस दुखदायी स्थिति से बचा जा सकता था? दुखदायी इसलिए कि सुरक्षा बलों को अपने ही नागरिकों के एक वर्ग से संघर्ष करना पड़ेगा। सच तो यह है कि सरकार के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा था। प्रधानमंत्री ने हाल में ही पुलिस प्रमुखों को संबोधित करते हुए कहा कि नक्सल आंदोलन देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हो गया है। गृहमंत्री ने स्पष्ट किया कि नक्सल गुटों का प्रभाव बीस प्रदेशों के लगभग 223 जनपदों में कमोबेश फैल चुका है। उन्होंने यह भी बताया कि नक्सल हिंसा से 13 प्रदेशों के नब्बे जनपदों में चार सौ पुलिस स्टेशन क्षेत्र विशेष तौर से प्रभावित हैं। नक्सल हिंसा का तांडव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। विगत वर्ष 2008 में नक्सल हिंसा की कुल 1591 घटनाएं हुई थीं, जिनमें 721 व्यक्ति मारे गए थे। इस वर्ष अगस्त के अंत तक 1405 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 580 व्यक्ति मारे गए हैं। सुरक्षाकर्मी विशेष तौर से नक्सलियों के निशाने पर रहे। 2008 में 231 सुरक्षाकर्मी मारे गए, इस वर्ष यह संख्या 270 के ऊपर पहुंच चुकी है।
नक्सल आंदोलन के विस्तार के कारणों को भी समझना जरूरी है। हमारी योजनाएं कागज पर कितनी ही अच्छी बनी हों, इनके क्रियान्वयन में बहुत कमी रही है। योजना आयोग ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में स्वीकार किया है कि स्वतंत्रता के साठ वर्ष पश्चात भी हमारी एक चौथाई से ज्यादा आबादी आज भी गरीब है। विकास हुआ है, जीडीपी बढ़ी है, परंतु विकास का लाभ सभी वर्गो को उनकी आवश्यकतानुसार नहीं मिला है। जनजातियों के साथ विशेष तौर से सौतेला व्यवहार हुआ है। एक आकलन के अनुसार 1947 से 2004 के बीच में विभिन्न योजनाओं के कारण देश में कुल 6 करोड़ आदमी विस्थापित हुए। इसमें चालीस प्रतिशत जनजातियों के लोग थे। भूमि संबंधी सुधार जो देश में होने चाहिए थे वेआंशिक रूप से ही हुए और प्रदेश सरकारें इस दिशा में उदासीन हैं। भ्रष्टाचार इतना ज्यादा व्याप्त है कि विकास संबंधी योजनाएं कागज पर ही धरी रह जाती हैं। झारखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री और उनके कैबिनेट सहयोगियों के विरुद्घ आरोप है कि वे करीब 4000 करोड़ रुपये खा गए। इस रकम का थाइलैंड और लाइबेरिया जैसे देशों में निवेश किया गया। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने हाल में बयान दिया था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत सरकार जो खर्च करती है उसमें एक रुपये का केवल 16 पैसा गरीब आदमी तक पहुंचता है। फलस्वरूप जो लाभ गरीब तबके के लोगों के पास पहुंचना चाहिए वह नहीं पहुंच पाता। देश में बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां प्रशासकीय व्यवस्था एकदम लचर है। छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जनपद में अबुजमांड चार हजार वर्ग किलोमीटर का एक ऐसा क्षेत्र है जहां सरकारी तंत्र आज भी नहीं पहुंच पाया है। उस क्षेत्र का प्रदेश सरकार के पास कोई आधिकारिक नक्शा तक नहीं है। इन हालात में नक्सलियों ने वहां अपना गढ़ बना लिया है। अन्य प्रदेशों में भी बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां मूलभूत सुविधाएं-शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, सड़क और स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। यह सब असंतोष का कारण बनता है। नक्सलवाद के पनपने और इसके देश के बड़े भौगोलिक क्षेत्र में विस्तार के लिए सरकार जिम्मेदार है, परंतु इन मुदं्दों के आधार पर कानून को हाथ में लेने का कोई औचित्य नहीं बनता। नक्सली भी दलितों और जनजातियों को केवल मोहरा बना रहे हैं। उनका मूल लक्ष्य राज्य सत्ता पर कब्जा करना है। उनकी सशस्त्र क्रांति की योजना में हिंसा है, सरकारी तंत्र पर हमला है, विध्वंस है, परंतु कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं है। माओवाद तो चीन में ही दफना दिया गया है। आज की तारीख में उसके आधार पर देश में कोई संरचना असंभव है। हमारे लोकतंत्र में खामियां हैं, विकास योजनाओं में प्राथमिकताएं सही नहीं हैं, परंतु फिर भी यह व्यवस्था जन समर्थन से बनी है और इसमें हर व्यक्ति को अपना दृष्टिकोण रखने का अधिकार है। रकार ने बार-बार यह कहा है कि नक्सली अगर हिंसा का रास्ता त्याग दें तो उनसे बातचीत हो सकती है, परंतु हम देख रहे हैं कि नक्सली हिंसाओं में वृद्घि हो रही है। अक्टूबर माह में ही झारखंड में पुलिस इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदुवार की गला काटकर हत्या की गई, गढ़चिरौली में 18 पुलिस कर्मियों को मार डाला गया। पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के सीमावर्ती जनपदों में दो दिन का बंद हुआ, जिसमें जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया गया। केंद्रीय औद्योगिक बल के चार जवान बारूदी सुरंग से उड़ा दिए गए। राजधानी एक्सप्रेस को पश्चिमी मिदनापुर में पांच घंटों तक रोका गया। इन घटनाओं से तो यह लगता है कि नक्सली वार्ता करने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं, बल्कि सरकार को बराबर चुनौती दे रहे हैं। माओवादी नेता जिस तरह के बयान देते हैं उनसे भी ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि नक्सली शांति वार्ता चाहते हैं। ऐसी परिस्थितियों में सरकार के पास सख्ती के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता। किसी भी सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह जनजीवन को सुरक्षा प्रदान करे और हिंसात्मक कार्रवाइयों पर नकेल लगाए। इसी नीति के अंतर्गत भारत सरकार ने नक्सल प्रभावित प्रदेशों में सशस्त्र कार्रवाई करने का निर्णय लिया है। एक राज्य के अंदर समानांतर हुकूमत नहीं चल सकती। एक राज्य के अंदर दो विरोधी सुरक्षा बल भी नहीं हो सकते। सरकार को नक्सलियों के राजनीतिक ढांचे को ध्वस्त करना होगा और उनकी गुरिल्ला फौज को छिन्न-भिन्न करना होगा। इस सारी कार्रवाई में यह विशेष ध्यान देना होगा कि नागरिकों को कम से कम नुकसान हो और बेकसूर आदमी न मारे जाएं। सशस्त्र कार्रवाई में कम से कम पांच-छह महीने का समय तो लग ही जाएगा। कालांतर में यह सुनिश्चित करना होगा कि जैसे-जैसे प्रभावित क्षेत्रों से नक्सली हटते जाते हैं वहां नागरिक प्रशासन स्थापित किया जाए और लोगों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। विकास का कार्य इमानदारी से सुनिश्चित कराना होगा। यह भी देखना होगा कि विकास मानवीय दृष्टिकोण से हो अर्थात वहां के निवासियों को न्यूनतम कष्ट हो और जो अनिवार्य रूप से विस्थापित होते हैं उनके पुनर्वास एवं रोजगार की व्यवस्था की जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया और सशस्त्र कार्रवाई के बाद सरकार अपने पुराने ढर्रे पर, जिसमें भ्रष्टाचार को अस्सी प्रतिशत बर्दाश्त किया जाता है, फिर से चलने लगती है तो यह मान लिया जाए कि नक्सलवाद पुन: उभर कर आएगा और उसका स्वरूप वर्तमान से भी ज्यादा भयंकर होगा।
[प्रकाश सिंह: लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं]
नक्सलवाद का नासूर
Oct 31, 10:34 pm
जब से केंद्र सरकार ने नक्सलवाद को नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाने की पहल शुरू की है तब से नक्सली संगठनों का उत्पात और अधिक बढ़ता जा रहा है। वे एक के बाद एक दुस्साहसिक वारदातें कर केंद्र और राज्य सरकारों को चुनौती देने में लगे हुए हैं। इन चुनौतियों के बीच केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम लगातार इसके लिए प्रयास कर रहे हैं कि नक्सली संगठनों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई के लिए आम सहमति का माहौल कायम हो। वह नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों से बातचीत कर सुरक्षा-व्यवस्था दुरुस्त करने के प्रयास भी कर रहे हैं और केंद्रीय सुरक्षा बलों को भी सुसज्जित कर रहे हैं। वह नक्सलियों को हिंसा छोड़कर बातचीत के लिए आगे आने के लिए भी निमंत्रित कर रहे हैं। ऐसी ही बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह रहे हैं, लेकिन नक्सली इसके लिए तैयार नहीं दिख रहे। वे सुरक्षाबलों और आम लोगों को निशाना बनाने में लगे हैं। हाल में उन्होंने पश्चिम बंगाल में थाने पर हमला कर दो पुलिसकर्मियों को मार डाला और एक का अपहरण कर लिया। बाद में उन्होंने अपहृत पुलिसकर्मी को मीडिया की मौजूदगी में रिहा तो कर दिया, लेकिन शर्ते मनवाने के बाद। इसके बाद उन्होंने एक सार्वजनिक उपक्रम की सुरक्षा में तैनात चार सुरक्षा जवानों को मार डाला। सबसे सनसनीखेज घटना राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाने की रही। इसके पूर्व उन्होंने रांची में एक पुलिस इंस्पेक्टर का अपहरण कर उसकी बर्बरता पूर्वक हत्या कर दी थी।
नक्सलियों से निपटने की तैयारी के बीच यह साफ दिख रहा है कि कई राजनीतिक दल नक्सलवाद को लेकर संकीर्ण राजनीति कर रहे हैं। बंगाल सरकार ने अपहृत पुलिस कर्मी की रिहाई के एवज में नक्सलियों की शर्तो के समक्ष झुकने से पहले केंद्र से इस बारे में विचार-विमर्श करना जरूरी नहीं समझा। इसी तरह राजधानी एक्सप्रेस बंधक कांड में दर्ज एफआईआर में रेलवे पुलिस ने नक्सली समर्थक उस संगठन का उल्लेख तक नहीं किया गया जिसके नेता छत्रधर महतो को रिहा करने की मांग की गई थी। मजबूरी में सीआरपीएफ के जरिये केंद्र को दूसरी एफआईआर दर्ज करानी पड़ी। रेलवे पुलिस की कार्रवाई से इसकी पुष्टि हो गई कि पश्चिम बंगाल सरकार उनके प्रति नरम है जिनके परोक्ष-प्रत्यक्ष संबंध नक्सली संगठनों से हैं। समस्या यह है कि ऐसी ही नरमी ममता बनर्जी भी दिखा रही हैं। यही कारण है कि माकपा नेता यह आरोप लगा रहे हैं कि ममता बनर्जी नक्सलवाद को समर्थन दे रही हैं। यह बात और है कि वे यह नहीं बताना चाहते कि बंगाल सरकार नक्सलियों के खिलाफ सीधी कार्रवाई करने में क्यों हिचक रही है? दरअसल इस हिचक का कारण माकपा की माओवादियों से सहानुभूति है, जिसकी ओर चिदंबरम ने यह कहकर इशारा भी किया कि अभी हाल तक तो माकपा माओवादियों को हथियारबंद काडर मानती थी। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि बंगाल सरकार माओवादियों पर पाबंदी लगाने के लिए तब तक तैयार नहीं हुई जब तक केंद्र ने इसके लिए उस पर दबाव नहीं डाला। इसमें संदेह नहीं कि वाम दल माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते रहे हैं और अभी भी वे उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं। इसी तरह यह भी साफ है कि तृणमूल कांग्रेस की हमदर्दी उन तत्वों से हैं जो नक्सलियों से मिले हुए हैं। इसका प्रमाण यह है कि ममता बनर्जी लालगढ़ से केंद्रीय सुरक्षा बलों को हटाने की मांग कर रही हैं, जबकि यह इलाका अभी भी नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है। माकपा, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य दल नक्सलवाद से निपटने के मामले में ढुलमुल रवैया तब अपनाए हुए हैं जब केंद्रीय गृह सचिव इसके लिए आगाह कर रहे हैं कि ट्रेनों को बंधक बनाने सरीखी घटनाएं और हो सकती हैं। केंद्र के समक्ष समस्या केवल नक्सलवाद की आड़ में होने वाली राजनीति ही नहीं, बल्कि मानवाधिकारवादियों के एक वर्ग की ओर से की जा रही व्यर्थ की चीख-पुकार भी है। वे यह देखने से इनकार कर रहे हैं कि नक्सली किस तरह बर्बर हिंसा पर उतर आए हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि शोषित-वंचित तबकों ने अन्याय और उपेक्षा से त्रस्त होकर नक्सली विचारधारा की शरण ली और फिर शासन तंत्र के खिलाफ हथियार उठाए। पहले उन्होंने जंगलों और खनिज खदानों पर प्रभुत्व कायम किया, लेकिन अब वे समानांतर शासन कायम करते दिख रहे हैं। हाल की घटनाएं यह संकेत करती हैं कि उनकी तैयारी राज्य सत्ता के खिलाफ विद्रोह करने की है। अब ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि नक्सलियों के संबंध कुछ आतंकी संगठनों से तो हैं ही, उन्हें विदेशों से भी हथियार मिल रहे हैं। गृहमंत्रालय की मानें तो नक्सलियों ने लिंट्टे के सहयोग से खुद को इतना मजबूत बना लिया है कि सुरक्षा बलों के समक्ष मुश्किल आ सकती है। सच्चाई जो भी हो, यह तथ्य है कि नक्सली आंदोलन अपने प्रारंभिक दौर के मुकाबले अब बिलकुल अलग राह पर चल निकला है। नक्सली संगठन आतंकी संगठनों की तर्ज पर सक्रिय हैं। उनकी हरकतें बता रही हैं कि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं, लेकिन कई राजनीतिक दल ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे खतरे की कोई बात ही नहीं। यद्यपि नक्सली समय-समय पर राजनेताओं को भी निशाना बनाते रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके उन्हें अनेक राजनीतिज्ञों का समर्थन हासिल है। स्पष्ट है कि राजनेताओं का एक समूह यह समझने से इनकार कर रहा है कि नक्सली कितने खतरनाक हैं? पश्चिम बंगाल में माकपा-तृणमूल कांग्रेस जिस तरह आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं उससे केंद्र सरकार का काम और कठिन हो रहा है। चूंकि केंद्र को नक्सलवाद के प्रति ममता बनर्जी के ढुलमुल रवैये का न चाहते हुए बचाव करना पड़ रहा है इसलिए माकपा केंद्रीय सत्ता पर भी निशाना साधने में लगी हुई है। कुछ ऐसी ही कठिनाई कथित बुद्धिजीवी भी पेश कर रहे हैं। हाल में अरुंधती राय और कुछ समाजसेवी संगठन जिस तरह नक्सलियों के पक्ष में खुलकर खड़े हुए उससे तो यही लगा कि वे यह चाहते हैं कि नक्सलियों को हथियार उठाने का अधिकार मिलना चाहिए। यह सही है कि देश के एक हिस्से में विकास की रोशनी नहीं पहुंच सकी है और वहां की जनता उपेक्षा से त्रस्त है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि विकास से वंचित लोगों को हिंसा के रास्ते पर चलने की छूट दे दी जाए। एक ऐसे समय जब केंद्र सरकार के समक्ष नक्सलियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह गया है तब बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का उनके पक्ष में खड़े होना आश्चर्यजनक है। ये बुद्धिजीवी नक्सलियों के खिलाफ केंद्र सरकार की तैयारी का तो विरोध कर रहे हैं, लेकिन इसके लिए प्रयास नहीं कर रहे कि वे केंद्र से बातचीत करने के लिए आगे आएं, जबकि केंद्र सरकार सभी जंगल, जमीन, विकास योजनाओं समेत मुद्दों पर बातचीत करने की पेशकश करने के साथ यह भी कह रही है कि इस वार्ता में राज्यों को भी शामिल किया जाएगा। भले ही नक्सलवादी देश के पिछड़े क्षेत्रों में विकास कार्य न होने की बातें कर रहे हों, लेकिन सच यह है कि अब वे खुद विकास विरोधी बन गए हैं। इन स्थितियों में यह आवश्यक है कि केंद्र और राज्य वास्तव में मिलकर नक्सलियों से लड़ें। कोशिश यह होनी चाहिए कि यह लड़ाई लंबी न खिंचे और इसमें आम लोगों को कोई नुकसान न पहुंचे, अन्यथा इस लड़ाई को जीतना और कठिन हो जाएगा।
जब से केंद्र सरकार ने नक्सलवाद को नियंत्रित करने के लिए कड़े कदम उठाने की पहल शुरू की है तब से नक्सली संगठनों का उत्पात और अधिक बढ़ता जा रहा है। वे एक के बाद एक दुस्साहसिक वारदातें कर केंद्र और राज्य सरकारों को चुनौती देने में लगे हुए हैं। इन चुनौतियों के बीच केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम लगातार इसके लिए प्रयास कर रहे हैं कि नक्सली संगठनों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई के लिए आम सहमति का माहौल कायम हो। वह नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों से बातचीत कर सुरक्षा-व्यवस्था दुरुस्त करने के प्रयास भी कर रहे हैं और केंद्रीय सुरक्षा बलों को भी सुसज्जित कर रहे हैं। वह नक्सलियों को हिंसा छोड़कर बातचीत के लिए आगे आने के लिए भी निमंत्रित कर रहे हैं। ऐसी ही बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह रहे हैं, लेकिन नक्सली इसके लिए तैयार नहीं दिख रहे। वे सुरक्षाबलों और आम लोगों को निशाना बनाने में लगे हैं। हाल में उन्होंने पश्चिम बंगाल में थाने पर हमला कर दो पुलिसकर्मियों को मार डाला और एक का अपहरण कर लिया। बाद में उन्होंने अपहृत पुलिसकर्मी को मीडिया की मौजूदगी में रिहा तो कर दिया, लेकिन शर्ते मनवाने के बाद। इसके बाद उन्होंने एक सार्वजनिक उपक्रम की सुरक्षा में तैनात चार सुरक्षा जवानों को मार डाला। सबसे सनसनीखेज घटना राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बनाने की रही। इसके पूर्व उन्होंने रांची में एक पुलिस इंस्पेक्टर का अपहरण कर उसकी बर्बरता पूर्वक हत्या कर दी थी।
नक्सलियों से निपटने की तैयारी के बीच यह साफ दिख रहा है कि कई राजनीतिक दल नक्सलवाद को लेकर संकीर्ण राजनीति कर रहे हैं। बंगाल सरकार ने अपहृत पुलिस कर्मी की रिहाई के एवज में नक्सलियों की शर्तो के समक्ष झुकने से पहले केंद्र से इस बारे में विचार-विमर्श करना जरूरी नहीं समझा। इसी तरह राजधानी एक्सप्रेस बंधक कांड में दर्ज एफआईआर में रेलवे पुलिस ने नक्सली समर्थक उस संगठन का उल्लेख तक नहीं किया गया जिसके नेता छत्रधर महतो को रिहा करने की मांग की गई थी। मजबूरी में सीआरपीएफ के जरिये केंद्र को दूसरी एफआईआर दर्ज करानी पड़ी। रेलवे पुलिस की कार्रवाई से इसकी पुष्टि हो गई कि पश्चिम बंगाल सरकार उनके प्रति नरम है जिनके परोक्ष-प्रत्यक्ष संबंध नक्सली संगठनों से हैं। समस्या यह है कि ऐसी ही नरमी ममता बनर्जी भी दिखा रही हैं। यही कारण है कि माकपा नेता यह आरोप लगा रहे हैं कि ममता बनर्जी नक्सलवाद को समर्थन दे रही हैं। यह बात और है कि वे यह नहीं बताना चाहते कि बंगाल सरकार नक्सलियों के खिलाफ सीधी कार्रवाई करने में क्यों हिचक रही है? दरअसल इस हिचक का कारण माकपा की माओवादियों से सहानुभूति है, जिसकी ओर चिदंबरम ने यह कहकर इशारा भी किया कि अभी हाल तक तो माकपा माओवादियों को हथियारबंद काडर मानती थी। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं कि बंगाल सरकार माओवादियों पर पाबंदी लगाने के लिए तब तक तैयार नहीं हुई जब तक केंद्र ने इसके लिए उस पर दबाव नहीं डाला। इसमें संदेह नहीं कि वाम दल माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते रहे हैं और अभी भी वे उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं। इसी तरह यह भी साफ है कि तृणमूल कांग्रेस की हमदर्दी उन तत्वों से हैं जो नक्सलियों से मिले हुए हैं। इसका प्रमाण यह है कि ममता बनर्जी लालगढ़ से केंद्रीय सुरक्षा बलों को हटाने की मांग कर रही हैं, जबकि यह इलाका अभी भी नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है। माकपा, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य दल नक्सलवाद से निपटने के मामले में ढुलमुल रवैया तब अपनाए हुए हैं जब केंद्रीय गृह सचिव इसके लिए आगाह कर रहे हैं कि ट्रेनों को बंधक बनाने सरीखी घटनाएं और हो सकती हैं। केंद्र के समक्ष समस्या केवल नक्सलवाद की आड़ में होने वाली राजनीति ही नहीं, बल्कि मानवाधिकारवादियों के एक वर्ग की ओर से की जा रही व्यर्थ की चीख-पुकार भी है। वे यह देखने से इनकार कर रहे हैं कि नक्सली किस तरह बर्बर हिंसा पर उतर आए हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि शोषित-वंचित तबकों ने अन्याय और उपेक्षा से त्रस्त होकर नक्सली विचारधारा की शरण ली और फिर शासन तंत्र के खिलाफ हथियार उठाए। पहले उन्होंने जंगलों और खनिज खदानों पर प्रभुत्व कायम किया, लेकिन अब वे समानांतर शासन कायम करते दिख रहे हैं। हाल की घटनाएं यह संकेत करती हैं कि उनकी तैयारी राज्य सत्ता के खिलाफ विद्रोह करने की है। अब ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि नक्सलियों के संबंध कुछ आतंकी संगठनों से तो हैं ही, उन्हें विदेशों से भी हथियार मिल रहे हैं। गृहमंत्रालय की मानें तो नक्सलियों ने लिंट्टे के सहयोग से खुद को इतना मजबूत बना लिया है कि सुरक्षा बलों के समक्ष मुश्किल आ सकती है। सच्चाई जो भी हो, यह तथ्य है कि नक्सली आंदोलन अपने प्रारंभिक दौर के मुकाबले अब बिलकुल अलग राह पर चल निकला है। नक्सली संगठन आतंकी संगठनों की तर्ज पर सक्रिय हैं। उनकी हरकतें बता रही हैं कि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं, लेकिन कई राजनीतिक दल ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे खतरे की कोई बात ही नहीं। यद्यपि नक्सली समय-समय पर राजनेताओं को भी निशाना बनाते रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके उन्हें अनेक राजनीतिज्ञों का समर्थन हासिल है। स्पष्ट है कि राजनेताओं का एक समूह यह समझने से इनकार कर रहा है कि नक्सली कितने खतरनाक हैं? पश्चिम बंगाल में माकपा-तृणमूल कांग्रेस जिस तरह आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं उससे केंद्र सरकार का काम और कठिन हो रहा है। चूंकि केंद्र को नक्सलवाद के प्रति ममता बनर्जी के ढुलमुल रवैये का न चाहते हुए बचाव करना पड़ रहा है इसलिए माकपा केंद्रीय सत्ता पर भी निशाना साधने में लगी हुई है। कुछ ऐसी ही कठिनाई कथित बुद्धिजीवी भी पेश कर रहे हैं। हाल में अरुंधती राय और कुछ समाजसेवी संगठन जिस तरह नक्सलियों के पक्ष में खुलकर खड़े हुए उससे तो यही लगा कि वे यह चाहते हैं कि नक्सलियों को हथियार उठाने का अधिकार मिलना चाहिए। यह सही है कि देश के एक हिस्से में विकास की रोशनी नहीं पहुंच सकी है और वहां की जनता उपेक्षा से त्रस्त है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि विकास से वंचित लोगों को हिंसा के रास्ते पर चलने की छूट दे दी जाए। एक ऐसे समय जब केंद्र सरकार के समक्ष नक्सलियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रह गया है तब बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का उनके पक्ष में खड़े होना आश्चर्यजनक है। ये बुद्धिजीवी नक्सलियों के खिलाफ केंद्र सरकार की तैयारी का तो विरोध कर रहे हैं, लेकिन इसके लिए प्रयास नहीं कर रहे कि वे केंद्र से बातचीत करने के लिए आगे आएं, जबकि केंद्र सरकार सभी जंगल, जमीन, विकास योजनाओं समेत मुद्दों पर बातचीत करने की पेशकश करने के साथ यह भी कह रही है कि इस वार्ता में राज्यों को भी शामिल किया जाएगा। भले ही नक्सलवादी देश के पिछड़े क्षेत्रों में विकास कार्य न होने की बातें कर रहे हों, लेकिन सच यह है कि अब वे खुद विकास विरोधी बन गए हैं। इन स्थितियों में यह आवश्यक है कि केंद्र और राज्य वास्तव में मिलकर नक्सलियों से लड़ें। कोशिश यह होनी चाहिए कि यह लड़ाई लंबी न खिंचे और इसमें आम लोगों को कोई नुकसान न पहुंचे, अन्यथा इस लड़ाई को जीतना और कठिन हो जाएगा।
अभी नक्सलियों का खतरनाक रूप सामने आना बाकी
Wednesday, October 28, 2009
अंदरुनी मोर्चे पर लगातार सरकार को चुनौती दे रहे नक्सलवादियों के तार विदेशी संगठनों से भी जुड़े हुए हैं। लिट्टे के साथ-साथ उत्तर-पूर्व और पाकिस्तान परस्त आतंकी संगठनों से उनके संपर्को के खुलासे लगातार हो रहे हैं। खुफिया एजेंसियों व सुरक्षा बलों की मानें तो अभी नक्सलियों के आधुनिक हथियारों से सुसज्जित और खतरनाक कमांडो तो पूरी तरह से सामने आए ही नहीं हैं।खुफिया सूत्रों के मुताबिक, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन और लिट्टे से लेकर पूर्वोत्तर के उल्फा तक नक्सलियों को हथियार व गोला-बारूद की आपूर्ति करता रहा है। इनमें भी नक्सली सबसे ज्यादा प्रभावित श्रीलंका के चीतों यानी लिट्टे से रहे हैं। केरल के जंगलों में लिट्टे के लड़ाकों ने नक्सलियों को कमांडों प्रशिक्षण दिया, ऐसी सूचनाएं भी आईबी. को मिली थीं। इसीलिए, जब लिट्टे के चीतों को श्रीलंका की सेना ने आक्रामक अभियान चलाकर साफ कर दिया तो नक्सलियों ने अपने कमांडरों और काडर को सतर्क कर दिया कि लिट्टे जैसी गलती न दोहराएं। वास्तव में श्रीलंका में लिट्टे के सफाये और देश में संप्रग सरकार की वापसी के बाद सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो ने इसी साल 12 जून को बैठक की। इसमें उन्होंने अपनी आगामी रणनीति का एक लंबा चौड़ा दस्तावेज तैयार किया।इन दस्तावेजों में नक्सलियों की मोबाइल वारफेयर रणनीति और दूसरे आतंकी संगठनों के साथ संबंधों का जिक्र है। माओवादियों ने अन्य संगठनों से भी अपील की है कि वे जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर में जगह-जगह वारदातों को अंजाम दें ताकि सरकार एक जगह फोकस न कर सके। उन्होंने चेताया भी है कि अगर एक साथ मिलकर न लड़े तो एक-एक करके सरकार सबको ठिकाने लगाने का प्रयास करेगी।नक्सलियों ने दूसरे आतंकी संगठनों को चेताया था कि सरकार गुरिल्ला युद्ध में कोबरा जैसे बल बना रही है, जिसमें अभी 5 साल का समय लगेगा। उससे पहले जरूरी है कि अलग-अलग जगहों पर हम दुश्मनों के सामने इतने मोर्चे खोल दें कि उनके लिए सुरक्षा बलों को एक जगह रखना मुश्किल हो जाए। इस रणनीति के तहत नक्सलियों ने तो जगह-जगह मोर्चे खोल दिए हैं। हालांकि, अभी उन्होंने आधुनिक हथियारों से लैस अपने 6 हजार कमांडों की ताकत को बचाकर रखा है।
अंदरुनी मोर्चे पर लगातार सरकार को चुनौती दे रहे नक्सलवादियों के तार विदेशी संगठनों से भी जुड़े हुए हैं। लिट्टे के साथ-साथ उत्तर-पूर्व और पाकिस्तान परस्त आतंकी संगठनों से उनके संपर्को के खुलासे लगातार हो रहे हैं। खुफिया एजेंसियों व सुरक्षा बलों की मानें तो अभी नक्सलियों के आधुनिक हथियारों से सुसज्जित और खतरनाक कमांडो तो पूरी तरह से सामने आए ही नहीं हैं।खुफिया सूत्रों के मुताबिक, लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन और लिट्टे से लेकर पूर्वोत्तर के उल्फा तक नक्सलियों को हथियार व गोला-बारूद की आपूर्ति करता रहा है। इनमें भी नक्सली सबसे ज्यादा प्रभावित श्रीलंका के चीतों यानी लिट्टे से रहे हैं। केरल के जंगलों में लिट्टे के लड़ाकों ने नक्सलियों को कमांडों प्रशिक्षण दिया, ऐसी सूचनाएं भी आईबी. को मिली थीं। इसीलिए, जब लिट्टे के चीतों को श्रीलंका की सेना ने आक्रामक अभियान चलाकर साफ कर दिया तो नक्सलियों ने अपने कमांडरों और काडर को सतर्क कर दिया कि लिट्टे जैसी गलती न दोहराएं। वास्तव में श्रीलंका में लिट्टे के सफाये और देश में संप्रग सरकार की वापसी के बाद सीपीआई (माओवादी) के पोलित ब्यूरो ने इसी साल 12 जून को बैठक की। इसमें उन्होंने अपनी आगामी रणनीति का एक लंबा चौड़ा दस्तावेज तैयार किया।इन दस्तावेजों में नक्सलियों की मोबाइल वारफेयर रणनीति और दूसरे आतंकी संगठनों के साथ संबंधों का जिक्र है। माओवादियों ने अन्य संगठनों से भी अपील की है कि वे जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर में जगह-जगह वारदातों को अंजाम दें ताकि सरकार एक जगह फोकस न कर सके। उन्होंने चेताया भी है कि अगर एक साथ मिलकर न लड़े तो एक-एक करके सरकार सबको ठिकाने लगाने का प्रयास करेगी।नक्सलियों ने दूसरे आतंकी संगठनों को चेताया था कि सरकार गुरिल्ला युद्ध में कोबरा जैसे बल बना रही है, जिसमें अभी 5 साल का समय लगेगा। उससे पहले जरूरी है कि अलग-अलग जगहों पर हम दुश्मनों के सामने इतने मोर्चे खोल दें कि उनके लिए सुरक्षा बलों को एक जगह रखना मुश्किल हो जाए। इस रणनीति के तहत नक्सलियों ने तो जगह-जगह मोर्चे खोल दिए हैं। हालांकि, अभी उन्होंने आधुनिक हथियारों से लैस अपने 6 हजार कमांडों की ताकत को बचाकर रखा है।
Friday, November 20, 2009
यूपीए झारखंड में क्यों असफल हुआ?
स्टेन स्वामी -
कांग्रेस गठबंधन यूपीए, देश के कई भागों में उम्मीद से ज्यादा जीत हासिल किया है। जबकि मास मीडिया में सबसे ज्यादा अनुमान २२५ सीट किया गया था। लेकिनं यूपीए गठबंधन २६२ सीट पर कबिज हुआ। इस जीत में विशेषता यह है कि जहां-जहां भाजपा से संबंधित पार्टियां थीं, वहीं पर यूपीए की अधिक जीत हुई है। इतना कि यूपीए गठबंधन नई सरकार बनाने में और कोई धर्म निरपेक्ष पार्टियों की खोज भी नहीं कर रहा है। जब देश के स्तर पर यूपीए की सफलता इतना सुस्पष्ट है, झारखंड में उसकी हालत उतना ही दयनीय है। २००४ के संसद चुनाव में यूपीए झारखंड के १४ सीटों में से १३ सीटों पर कब्जा किया था। अभी १३ सीट में से सिर्फ तीन सीट ही उनके हाथ में है। इस परिस्थिति को हमें कुछ जांचना चाहिए कि क्यों और कैसे ऐसा हुआ?
कुछ कारण :-
१. सुशासन का अभाव :
गत पांच साल के दौरान झारखंड में तीन सरकारें शासन चलायीं। लेकिन शासन कभी सुशासन नहीं रहा। सुशासन माने यह है कि जो भी पार्टी सरकार बनती है, उसका लक्ष्य यह होना है कि जनता का विकास एवं कल्याण सही रूप में हो। यह सामान्य जानकारी है कि झारखंड सरकार के पास पैसे की कमी तो नहीं है। जहां २७ प्रतिशत आदिवासी एवं १० प्रतिशत दलित वर्ग है, उनके लिए राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार की ओर से काफी राशि उपलब्ध करायी जाती है। सिर्फ उसका सही प्रयोग कर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निबाहना कोई भी सरकार का जिम्मा बनता है।दुर्भाग्यवश झारखंड के यूपीए सरकार इस राशि का सही उपयोग नहीं की। इससे जनता भी परेशान है। इसलिए जब चुनाव का समय पहुंचा जनता यूपीए को अपनी मत देने से रूक गई।
२. प्रशासन के हर स्तर पर गहरी भ्रष्टाचार :
झारखंड के समाचार पत्र एवं पत्रिकाएं इस भ्रष्टाचार का विश्लेषण एवं विवरण करते आये हैं। इसके वावजूद झारखंड के यूपीए सरकार इस गंभीर समस्या पर अपना ध्यान कभी नहीं दिया है। हाल ही में झारखंड का उच्च न्यायालय सी।बी।आई। से मांग किया है कि झारखंड सरकार के मंत्रीगण, एम।एल।ए। एवं अधिकारी लोगों के पास कितना अवैध धन जमा हुआ है, उसका खुलासा करें। जब आम आदमी हर कदम पर भ्रष्टाचार का शिकार बनता है, उसका सरकार के प्रति जो भी विश्वास था वह टूट जाता है, और चुनाव के समय ऐसी सरकार को अपनी सहमति देने से हिचकता है।
३. उद्योगपतियों के साथ एवं विस्थापितों के खिलाफ :
हम सब जानते हैं कि झारखंड में भिन्न समस्याओं में से आदिवासी एवं दलित वर्ग का विस्थापन की समस्या एक गभीर मामला है। इस विषय पर यूपीए सरकार एकदम खुली रूप में जिन उद्योगपतियों ने बडे पैमाने पर जमीन अधिग्रहित करना चाहते हैं, उनका पक्ष ले रहा था।इस बात को भी समझा नहीं कि आदिवासी जनता के लिए उनकी अपनी जमीन ही जीवन का स्रोत है और अगर उनकी जमीन उनसे हडपी जाएगी तो उनका अस्तित्व खुद खतरे में आ जाता है। जब आदिवासी जनता अपनी जमीन नहीं देने का निर्णय ली है और उसके तहत कई महत्वपूर्ण विस्थापन के विरोध आंदोलन शुरू हो गए हैं। यूपीए सरकार प्रतिरोध में लगे हुए जनता से बात किए बिना, उनके खिलाफ प्रशासन एवं पुलिस को उकसाया है, जिस कारण पुलिस गोलीकांड और दूसरे प्रकार के प्रताडनाएं, अर्थात् आंदोलनों के नेत्रत्व करने वालों को गिरफतार करना और उनके विरोध झूठे मुकदमा दर्ज करना एक मामूली बात बन गयी है। इस प्रताडना में सबसे अधिक प्रभावित होते हैं युवा वर्ग। तब समझने की बात है कि क्यों आदिवासी एवं दलित जनता यूपीए को चुनाव में समर्थन नहीं दिया।
४. जनविकास एवं कल्याणकारी परियोजनाओं की अनदेखी :
यूपीए सरकार अपनी पुनर्वास नीति तैयार करने की घोषणा करते आयी है। लेकिन अब तक पुनर्वास नीति न बना है न लागू किया गया है। जो जनता अभी ही विस्थापित हो गई है उनका पुनर्वास की संभवना हट गयी है। दूसरी ओर नरेगा जैसे योजना एकदम गरीब जनता को रोजगार दिलाने के लिए केंद्र सरकार के द्वारा पहल किया गया है। एंसी योजनाओं को भी झारखंड की यूपीए सरकार अमल कराने में दिलचस्प नहीं दिखायी है। इससे भी ग्रामीण जनता यूपीए सरकार के प्रति निराश हो गई है। इसलिए जब चुनाव का समय आया। यूपीए सरकार के पक्ष में अपना मत डालने से हट गयी।
निष्कर्ष : संक्षेप में बोलने पर, झारखंड में यूपीए सरकार की चुनावी हार इसलिए हुई क्योंकि आम आदमी और उसकी आवश्यकताओं एवं आशाओं से दूर हो गयी। इसके कारण आम आदमी यूपीए को अपना समर्थन देने से इंकार कर दिया। इसके अलावे आम जनता अपनी आंखों से देख रही थी कि किस प्रकार जो एम।एल।ए। एवं मंत्री अपनी संपति को बढाते रहे। एक तरफ गरीब जनता, दूसरी तरफ करोडपति यूपीए के एम।एल।ए। एवं मंत्रीगण। आम जनता के हाथ में एक ही हथियार है, वही चुनाव के समय अपनी पसन्द प्रकट करने की। झारखंडी जनता यूपीए सरकार को नकारने में इस बात को स्पष्ट कर दी है।
कांग्रेस गठबंधन यूपीए, देश के कई भागों में उम्मीद से ज्यादा जीत हासिल किया है। जबकि मास मीडिया में सबसे ज्यादा अनुमान २२५ सीट किया गया था। लेकिनं यूपीए गठबंधन २६२ सीट पर कबिज हुआ। इस जीत में विशेषता यह है कि जहां-जहां भाजपा से संबंधित पार्टियां थीं, वहीं पर यूपीए की अधिक जीत हुई है। इतना कि यूपीए गठबंधन नई सरकार बनाने में और कोई धर्म निरपेक्ष पार्टियों की खोज भी नहीं कर रहा है। जब देश के स्तर पर यूपीए की सफलता इतना सुस्पष्ट है, झारखंड में उसकी हालत उतना ही दयनीय है। २००४ के संसद चुनाव में यूपीए झारखंड के १४ सीटों में से १३ सीटों पर कब्जा किया था। अभी १३ सीट में से सिर्फ तीन सीट ही उनके हाथ में है। इस परिस्थिति को हमें कुछ जांचना चाहिए कि क्यों और कैसे ऐसा हुआ?
कुछ कारण :-
१. सुशासन का अभाव :
गत पांच साल के दौरान झारखंड में तीन सरकारें शासन चलायीं। लेकिन शासन कभी सुशासन नहीं रहा। सुशासन माने यह है कि जो भी पार्टी सरकार बनती है, उसका लक्ष्य यह होना है कि जनता का विकास एवं कल्याण सही रूप में हो। यह सामान्य जानकारी है कि झारखंड सरकार के पास पैसे की कमी तो नहीं है। जहां २७ प्रतिशत आदिवासी एवं १० प्रतिशत दलित वर्ग है, उनके लिए राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार की ओर से काफी राशि उपलब्ध करायी जाती है। सिर्फ उसका सही प्रयोग कर जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निबाहना कोई भी सरकार का जिम्मा बनता है।दुर्भाग्यवश झारखंड के यूपीए सरकार इस राशि का सही उपयोग नहीं की। इससे जनता भी परेशान है। इसलिए जब चुनाव का समय पहुंचा जनता यूपीए को अपनी मत देने से रूक गई।
२. प्रशासन के हर स्तर पर गहरी भ्रष्टाचार :
झारखंड के समाचार पत्र एवं पत्रिकाएं इस भ्रष्टाचार का विश्लेषण एवं विवरण करते आये हैं। इसके वावजूद झारखंड के यूपीए सरकार इस गंभीर समस्या पर अपना ध्यान कभी नहीं दिया है। हाल ही में झारखंड का उच्च न्यायालय सी।बी।आई। से मांग किया है कि झारखंड सरकार के मंत्रीगण, एम।एल।ए। एवं अधिकारी लोगों के पास कितना अवैध धन जमा हुआ है, उसका खुलासा करें। जब आम आदमी हर कदम पर भ्रष्टाचार का शिकार बनता है, उसका सरकार के प्रति जो भी विश्वास था वह टूट जाता है, और चुनाव के समय ऐसी सरकार को अपनी सहमति देने से हिचकता है।
३. उद्योगपतियों के साथ एवं विस्थापितों के खिलाफ :
हम सब जानते हैं कि झारखंड में भिन्न समस्याओं में से आदिवासी एवं दलित वर्ग का विस्थापन की समस्या एक गभीर मामला है। इस विषय पर यूपीए सरकार एकदम खुली रूप में जिन उद्योगपतियों ने बडे पैमाने पर जमीन अधिग्रहित करना चाहते हैं, उनका पक्ष ले रहा था।इस बात को भी समझा नहीं कि आदिवासी जनता के लिए उनकी अपनी जमीन ही जीवन का स्रोत है और अगर उनकी जमीन उनसे हडपी जाएगी तो उनका अस्तित्व खुद खतरे में आ जाता है। जब आदिवासी जनता अपनी जमीन नहीं देने का निर्णय ली है और उसके तहत कई महत्वपूर्ण विस्थापन के विरोध आंदोलन शुरू हो गए हैं। यूपीए सरकार प्रतिरोध में लगे हुए जनता से बात किए बिना, उनके खिलाफ प्रशासन एवं पुलिस को उकसाया है, जिस कारण पुलिस गोलीकांड और दूसरे प्रकार के प्रताडनाएं, अर्थात् आंदोलनों के नेत्रत्व करने वालों को गिरफतार करना और उनके विरोध झूठे मुकदमा दर्ज करना एक मामूली बात बन गयी है। इस प्रताडना में सबसे अधिक प्रभावित होते हैं युवा वर्ग। तब समझने की बात है कि क्यों आदिवासी एवं दलित जनता यूपीए को चुनाव में समर्थन नहीं दिया।
४. जनविकास एवं कल्याणकारी परियोजनाओं की अनदेखी :
यूपीए सरकार अपनी पुनर्वास नीति तैयार करने की घोषणा करते आयी है। लेकिन अब तक पुनर्वास नीति न बना है न लागू किया गया है। जो जनता अभी ही विस्थापित हो गई है उनका पुनर्वास की संभवना हट गयी है। दूसरी ओर नरेगा जैसे योजना एकदम गरीब जनता को रोजगार दिलाने के लिए केंद्र सरकार के द्वारा पहल किया गया है। एंसी योजनाओं को भी झारखंड की यूपीए सरकार अमल कराने में दिलचस्प नहीं दिखायी है। इससे भी ग्रामीण जनता यूपीए सरकार के प्रति निराश हो गई है। इसलिए जब चुनाव का समय आया। यूपीए सरकार के पक्ष में अपना मत डालने से हट गयी।
निष्कर्ष : संक्षेप में बोलने पर, झारखंड में यूपीए सरकार की चुनावी हार इसलिए हुई क्योंकि आम आदमी और उसकी आवश्यकताओं एवं आशाओं से दूर हो गयी। इसके कारण आम आदमी यूपीए को अपना समर्थन देने से इंकार कर दिया। इसके अलावे आम जनता अपनी आंखों से देख रही थी कि किस प्रकार जो एम।एल।ए। एवं मंत्री अपनी संपति को बढाते रहे। एक तरफ गरीब जनता, दूसरी तरफ करोडपति यूपीए के एम।एल।ए। एवं मंत्रीगण। आम जनता के हाथ में एक ही हथियार है, वही चुनाव के समय अपनी पसन्द प्रकट करने की। झारखंडी जनता यूपीए सरकार को नकारने में इस बात को स्पष्ट कर दी है।
Wednesday, November 18, 2009
तिब्बत की आजादी का सवाल
पचास साल बाद फिर रक्तरंजित हुई तिब्ब्त की बौद्ध भूमि
प्रतिक्रियाएँ[2] Dr. Mandhata singh द्वारा 18 मार्च, 2008 1:04:26 AM IST पर पोस्टेड #
मध्य एशिया का इतिहास ही आक्रमणकारियों का इतिहास रहा है। इन हमले से बचने के लिए तो चीनी शासकों को चारो तरफ दीवार ही खड़ी करनी पड़ी। जो आज की ऐतिहासिक चीन की दीवार कही जाती है। मगर ये हूण, शक, यवन ज्यादा देर तक कहीं इस इलाके में टिक नहीं पाए। इन आक्रांताओं में चंगेज खान, कुबलई खान और बाद में मुगल शासकों के शासन तक तैमूर लंग और नादिरशाह ने जो तबाही मचाई उसे इतिहास कैसे भुला सकता है। उनकी क्रूरता के किस्से आज भी रोंगटे खड़ कर देते हैं। मगर इन्हीं आक्रांताओं ने इतिहास के कुछ ऐसे उलटफेर भी किए जो आज भी कुछ देशों की संप्रभुता के लिए समस्या बने हुए हैं। गोबी के रेगिस्तान को लांघते हुए जब इनके जाबांज काफिले गुजरते थे तो भारत के परमप्रतापी गुप्त साम्राज्य तक के परखचे उड़ा देते थे। कहते हैं कि नेपोलियन बोनापार्ट ने पूरे यूरोप के नक्शे को समेट दिया था क्यों उसके अभियानों के बाद यूरोप का नक्शा ही बदल जाता था। इसी तरह एशिया के भूगोल को इन आक्रांताओं ने भी बदल दिया। उन्हीं कुछ बदलावों से अभिशिप्त देशों में से एक तिब्बत भी है जो आज भी आजादी के लिए तरस रहा है। दुनिया की छत कहा जाने वाला यही तिब्बत बार-बार अपनी आजादी के सवाल को लेकर खड़ा होता है और कुचल दिया जाता है। अब यह चीन अधिकृत क्षेत्र है जिसे चीन ने स्वायत्त का दर्जा दे रखा है मगर तिब्बतियों को शायद यह चीन की गुलामी रास नही आती। हालांकि तिब्बत की चीन द्वारा निर्वासित की जा चुकी सरकार के राष्ट्राध्यक्ष दलाई लामा और खुद भारत सरकार राजनैतिक और कूटनीतिक कारणों से तिब्बत का चीन स्वायत्तशासी मान चुके हैं। तो फिर बार-बार आजादी का सवाल उठाकर क्यों पद्दलित होते रहते हैं तिब्बती ? क्या तिब्बत आजाद देश रहा है ? आइए मौजूदा घटनाक्रम के बहाने इतिहास के कुछ उन तथ्यों को जानने की कोशिश करते हैं जो इन तिब्बतियों को आजादी के लिए उठ खड़े होने को प्रेरित करते रहते हैं।
आजाद रहा है तिब्बत ?
चीन तिब्बत को कभी आजाद देश की श्रेणी में रखा ही नहीं। उसका कहना है कि तिब्बत हमेशा से चीन का अभिन्न अंग रहा है। इसके ठीक विपरीत तिब्बत की आजादी के समर्थक मानते हैं कि करीब १३०० सालों के इतिहास में तिब्बत चीन से अलग एक आजाद देश रहा है। इस तर्क के पक्ष में तिब्बत की आजादी के समर्थक कहते हैं कि सन् ८२१ में दो सौ सालों की लंबी लड़ाई के बाद चीन और तिब्बत के बीच एक शांति समझौता हुआ था। इसका विवरण तीन प्रस्तर स्तंभ लेखों में उपलब्ध है। इनमें से एक स्तंभ लेख तिब्बत की राजधानी ल्हासा के कैथड्रल के सामने आज भी मौजूद है। इस लेख में संधि के अनुसार दोनों की सीमाएं तय की गईं हैं और तिब्बत व चीन दोनों को एक दूसरे पर हमला न करने की बात कही गई है। यह उम्मीद भी जाहिर की गई है कि इस समझौते के बाद तिब्बत के लोग तिब्बत में और चीन के लोग चीन में खुश रहेंगे। दोनों के इस समझौते का साक्षी सूरज. चांद, ग्रह, तारे एक संत और तीन ज्वेल को रखा गया है। इस शांति समझौते का उल्लेख करने वाले तीनों प्रस्तर स्तंभ लेखों में से एक चीन के राजमहल के सामने, दूसरा दोनों देशों की सीमा पर और तीसरा ल्हासा में है।
१३वीं और १४वीं शताब्दी में तिब्बत और चीन दोनों पर मंगोलों का आधिपत्य हो गया। इसी मंगोल साम्राज्य को एक देश मानकर या इसी मंगोल प्रभुत्व को आधार मानकर चीन कहता है कि तिब्बत आजाद नहीं बल्कि चीन का अभिन्न अंग है। जबकि मंगोलों का ाधिपत्य दोनों ने मान लिया था। तिब्बत को आजाद देश मानने वालों का कहना है कि पूर्व मध्यकाल के विश्व इतिहास में महान पराक्रमी मंगोल शासक कुबलई खान और उसके उत्तराधिकारियों ने पूरे एशिया पर आधिपत्य कायम कर लिया था। तो क्या पूरा एशिया चीनियों का है? तिब्बत की आजादी के समर्थकों का यह भी कहना है कि मंगोलों और तिब्बतियों व चीनियों के संबंधों की भी पड़ताल की जानी चाहिए। उनके मुताबिक तिब्बत पर मंगोलों का आधिपत्य कुबलई खान के चीन अभियान के पहले ही हो गया था। इतना ही नहीं चीन के आजाद होने से कई दशक पहले ही तिब्बत पूरी तरह आजाद भी हो गया था।
मंगोल शासकों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया इस कारण उनमें सहअस्तित्व की पंथिक प्रणाली चो-योन का प्रदुर्भाव हुआ। इस कारण तिब्बती मंगोलों के प्रति प्रतिबद्ध रहे। इसके ठीक उलट मंगोलों के चीन पर आधिपत्य की प्रकृति अलग बताई जाती है। मंगोलों के आधिपत्य में तबतक चीन रहा जबतक १४वीं सदी के आखिर में खुद मंगोलों का पतन नहीं हो गया जबकि तिब्बत के शासक तिब्बती हा रहे।
इस के बाद १६३९ में दलाई लामा ने संबंध कायम रखने की चो-योन प्रणाली के तहत शासक मंचू से भी सबंध कायम रखा। मंचू वह शासक था जिसने १६४४ में चीन को जीती था और क्विंग वंश की स्थापना की। मंचू शासकों का १९वीं शताब्दी तक तिब्बत में प्रभाव रहा और तिब्बत भी मंचू साम्राज्य के नाम से जाना जाता था। बाद में मंचू साम्राज्य इतना क्षीण हो गया कि १८४२ और १८५६ के नेपाली गोरखा अभियान के खिलाफ तिब्बतियों की मदद के भी लायक नहीं रह गया। बिना मंचू शासकों की मदद के ही तिब्बतियों ने गोरखाओं से मुकाबला किया जो द्विपक्षीय संधि के बाद लड़ाई खत्म हो पाई। इसके बाद चो-योन संबंध और मंचू वंश दोनों का पतन १९११ में हो गया। तिब्बत इसके बाद ही १९१२ में औपचारिक तौरपर पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न राज्य बन गया और तिब्बत की आजादी १९४९ तक कायम रही। इसके बाद १९४९ में चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। १९९१ में संयुक्त राष्ट्र ने एक अधिनियम पास करके तिब्बत और इससे जुड़े चीनी आधिपत्य वाले सिचुआन, यूनान, गंशू, क्विंघाई को मिलाकर एक अधिकृत देश का दर्जा दे दिया।
भारत में ३७ फीसद लोग तिब्बत के पक्षधर
तिब्बत की आजादी को लेकर जहां दुनिया भर में प्रदर्शन हो रहे हैं, वहीं इससे निपटने के चीन के रवैये की भी आलोचना हो रही है। इस बीच चीन की तिब्बत नीति पर छह देशों के लोगों की राय दर्शाता एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे का नतीजा भी सामने आया है। सर्वे के मुताबिक जहां कई देशों में ज्यादातर लोग चीन के खिलाफ हैं, वहीं भारतीयों की राय बंटी हुई है। भारत में जहां 37 फीसदी लोग तिब्बत पर चीन की नीतियों की आलोचना कर रहे हैं, वहीं 33 फीसदी लोग चीन के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। बाकी 30 फीसदी लोग इस बारे में अपनी कोई राय ही नहीं बना पाए हैं। यह सर्वे फ्रांस, ब्रिटेन, भारत, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और अमेरिका में कराया गया है। सर्वे यूनिवर्सिटी आफ मेरीलैंड से संबद्ध 'वर्ल्डपब्लिकओपिनियन डाट आर्ग' ने करवाया है। इस आनलाइन सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक सभी छह देशों में औसतन 64 फीसदी लोग चीन के खिलाफ नजर आए, जबकि 17 फीसदी ने चीन का समर्थन किया। अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन में तो क्रमश: 74, 75 और 63 फीसदी लोग चीन के खिलाफ खड़े नजर आए। दक्षिण कोरिया में 84 फीसदी लोगों ने चीन के खिलाफ राय दी, जबकि इंडोनेशिया में यह आंकड़ा 12 फीसदी रहा। गौरतलब है कि यह सर्वे तिब्बत में फिलहाल गंभीर हुई स्थिति से पहले कराया गया थापचास साल से ज्यादा हो गए, जब तिब्बत नामक स्वतंत्र राष्ट्र पर साम्यवादी चीन ने कब्जा कर लिया। इन पांच-छह दशकों में चीनियों ने दलाई लामा को तिब्बत छोड़ने के लिए मजबूर किया, तिब्बत में हान जाति के चीनियों को बसाने की कोशिश की और अब वहां रेलवे लाइन बिछाकर उसे पूरी तरह चीन का अटूट अंग बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
साम्यवादी कूट-भाषा में उसे ‘स्वायत्त प्रदेश’ कहा जाता है। यहां स्व का अर्थ तिब्बत नहीं, चीन है। चीन के इस अधिकार को तिब्बती लोग बिलकुल नहीं मानते। तिब्बत में रहने वाले तिब्बती चीन को साम्राज्यवादी आक्रांता देश मानते हैं। तिब्बतियों और चीनियों के बीच गहरा अविश्वास है। हालांकि तिब्बती भारतीयों और भारत के प्रति बहुत उत्साही दिखाई पड़ते हैं, लेकिन चीन के बारे में या तो चुप रहते हैं या दबी जुबान में अपनी घुटन निकालने की कोशिश करते हैं। तिब्बत उनका अपना देश है, लेकिन उन्हें वहां गुलामों की तरह रहना पड़ता है। तिब्बत का आर्थिक विकास तो निश्चय ही हुआ है, लेकिन शक्ति और संपदा के असली मालिक चीनी ही हैं। उनके रहन-सहन और तौर-तरीकों ने साधारण तिब्बतियों के हृदय में गहरी ईष्र्या का स्थायीभाव उत्पन्न कर दिया है। यही ईष्र्या ल्हासा में फूट पड़ी है।
चीनी सरकार की सबसे बड़ी चिंता यह है कि तिब्बत के बाहर अन्य प्रदेशों में रहने वाले तिब्बतियों ने भी जबरदस्त प्रदर्शन किए हैं। दिल्ली, काठमांडू, न्यूयॉर्क, लंदन आदि शहरों में भी प्रदर्शन हो रहे हैं। एक तरफ ये प्रदर्शन हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ चीनी सरकार ओलिंपिक खेलों की तैयारी कर रही है। ओलिंपिक की मशाल वह एवरेस्ट पर्वत पर ले जाना चाहती है। वह तिब्बत होकर ही जाएगी। उसे चिंता है कि अगर तिब्बत को लेकर कोहराम मच गया, तो कहीं ओलिंपिक खेल ही स्थगित न हो जाएं। ओलिंपिक के बहाने उसे अपने महाशक्ति रूप को प्रचारित करने का जो मौका मिलेगा, वह तिब्बतियों के कारण हाथ से जाता रहेगा। चीन का आरोप है कि ल्हासा में हो रहे उत्पात की जड़ भारत में है। धर्मशाला में बैठी दलाई लामा की प्रवासी सरकार तिब्बतियों को हिंसा पर उतारू कर रही है। यह आरोप निराधार है, क्योंकि दलाई लामा ने हिंसा का स्पष्ट विरोध किया है। 1989 के बाद से तिब्बत में हुई ये सबसे बड़ी हिंसक घटना है. 1959 में चीनी शासन के ख़िलाफ़ हुए संघर्ष की बरसी पर सोमवार को शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरु हुए थे लेकिन शुक्रवार को हिंसा भड़क उठी.चीन के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान कम से कम 80 लोग मारे गए हैं. निर्वासित सरकार के अधिकारियों ने कहा है कि की सूत्रों से मृतकों की संख्या की पुष्टि हुई है. चीन के मुताबिक मरने वालों की संख्या 10 है.
वहीं तिब्बत के निर्वासित सरकार के प्रमुख और आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने आशंका जताई है कि यदि चीन अपनी नीति नहीं बदलता है तो तिब्बत में और मौतें हो सकती हैं. इस बीच चीन के नियंत्रण वाले तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीनी सेना ने अपना नियंत्रण बढ़ा दिया है और सूनी सड़कों पर सैनिक बख़्तरबंद गाड़ियों के साथ गश्त लगा रहे हैं. अमरीका, रूस, फ्रांस सहित दुनिया के कई देशों ने चीन से संयम बरतने की अपील की है.
चीन ने तिब्बत में विदेशियों के प्रवेश पर लगाई रोक
चीन ने तिब्बत में विदेशी नागरिकों के प्रवेश पर रोक लगा दी है और वहां रह रहे पर्यटकों से चले जाने को कहा है। तिब्बत की राजधानी में शासन के खिलाफ और स्वतंत्रता के समर्थन में पिछले 2 दशक में भड़की सबसे बड़ी हिंसा के बाद चीन ने यह कदम उठाया है। हिंसा में अब तक 10 लोगों की मौत हो चुकी है। लोकल अफसरों के मुताबिक ल्हासा में पिछले सप्ताह भड़की हिंसा के बाद तिब्बत के क्षेत्रीय प्रशासन ने सुरक्षा के मद्देनजर विदेशियों के पर्यटन संबंधी सभी आवेदन फिलहाल रद्द कर दिए हैं। विदेशी मामलों के क्षेत्रीय कार्यालय के निदेशक जु जियान्हवा का हवाला देते हुए शिन्हुवा न्यूज एजेंसी ने बताया है कि स्थानीय प्रशासन की मदद से 20 विदेशी पर्यटकों को तिब्बत से निकाला जा चुका है। ल्हासा पुलिस के मुताबिक, 3 जापानी पर्यटकों सहित 580 लोगों का बचाव किया गया है। चीनी सुरक्षा बल ल्हासा पर कड़ी नजर रखे हुए है। शुक्रवार को फैली हिंसा और लोगों के मारे जाने के बाद रविवार तक और लोगों के मारे जाने की कोई खबर नहीं थी। गौरतलब के 57 वर्ष के चीनी शासन के खिलाफ तिब्बत की आजादी के लिए चल रहे आंदोलन की 49वीं बरसी के मौके पर बौद्ध भिक्षुओं ने विरोध,प्रदर्शन शुरू किया था।
दलाई लामा पर दोष
चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है.दलाई लामा ने प्रदर्शनों को तिब्ब्तियों के असंतोष का प्रतीक बताया है .चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं.लेकिन दलाई लामा के प्रवक्ता चाइम आर छोयकयापा ने दिल्ली में इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया है.उनका कहना है कि चीन सरकार तिब्बतियों की समस्या को बंदूक से नहीं सुलझा सकती और उसे तिब्बतियों का मन पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. उधर तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.
भारत का रुख़
ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत सरकार की ओर से जारी बयान में चीन के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ भी नहीं कहा गया है.दरअसल, भारत के साथ दुविधा यह है कि मानवाधिकार और अन्य पहलुओं पर भारत तिब्बत की निर्वासित सरकार से सहमत है. यही वजह है कि पिछले कुछ दशकों से तिब्बत की निर्वासित सरकार को भारत ने अपने पास शरण दे रखी है. पर इस शर्त पर कि उनकी ओर से कोई भी राजनीतिक गतिविधि नहीं की जाएगी. ऐसे में जहाँ भारत तिब्बतियों के देश में हो रहे प्रदर्शनों को अनुमति नहीं दे रहा है वहीं चीन से सुधरते संबंधों को ध्यान में रखते हुए बहुत संभलकर बोल रहा है. तिब्बत में पिछले 20 बरसों के दौरान हिंसा की यह सबसे बड़ी घटना बताई जा रही है. चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है. चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं. लेकिन तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.
तिब्बत की बदलती तस्वीर
चीन ने पिछले साल ही बीजिंग को रेललाईन के ज़रिए तिब्बत की राजधानी ल्हासा से जोड़ दिया था. इस रेलसंपर्क ने दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया है. इस रेल संपर्क ने जहां तिब्बत को चीन की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया है तो वहीं इसकी वजह से तिब्बत में बढ़ रहे चीनी दख़ल पर कई तरह की आशंकाएं भी जताई जा रही है. इस रेल से तिब्बती लोगों के जनजीवन में काफ़ी फ़र्क आया है, साथ ही तिब्बत में नये विचार पहुँच रहे हैं. व्यापार शुरू हुआ है, किसानों को नई तकनीक और यहाँ की कला और संस्कृति को नए बाज़ार मिल रहे हैं. वो फल-फूल रहे हैं."चीन ने बौद्ध धर्म अनुयायी तिब्बती लोगों की स्वतंत्रता की कोशिशों को 1951 में कुचलने की कोशिश ज़रूर की पर अब भी यहां तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक नेता दलाई लामा की छाप मिटी नहीं है.चीनी आक्रमण के बाद तिब्बत के चौदहवें दलाईलामा शरणार्थी के रूप में भारत आ गए थे जो आज भी चीन की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं. ल्हासा स्थित दलाईलामा के आवास पोटाला महल में 13वें दलाईलामा तक की चर्चा होती है. मौज़ूदा दलाईलामा की चर्चा कोई नहीं करता. यहां चीनी सरकार की सख़्त नज़र रहती है.तिब्बतियों में भारत के प्रति एक अलग तरह का प्रेम है. काफ़ी संख्या में लोग भारत से शिक्षा ले कर लौटे हैं. वे भारत को अपना दोस्त और हिमायती मानते हैं. ल्हासा के बाखोर बाज़ार की दुकानों में हिंदी गाने सुनाई देते हैं. ब्यूटी पार्लरों में बालीवुड अभिनेत्री ऐश्वर्या रॉय समेत फ़िल्मी हस्तियों के पोस्टर नज़र आते हैं. यहां के राष्ट्रीय टेलीविज़न में हिंदी धारावाहिकों को तिब्बती भाषा में दिखाया जाता है.
प्रतिक्रियाएँ[2] Dr. Mandhata singh द्वारा 18 मार्च, 2008 1:04:26 AM IST पर पोस्टेड #
मध्य एशिया का इतिहास ही आक्रमणकारियों का इतिहास रहा है। इन हमले से बचने के लिए तो चीनी शासकों को चारो तरफ दीवार ही खड़ी करनी पड़ी। जो आज की ऐतिहासिक चीन की दीवार कही जाती है। मगर ये हूण, शक, यवन ज्यादा देर तक कहीं इस इलाके में टिक नहीं पाए। इन आक्रांताओं में चंगेज खान, कुबलई खान और बाद में मुगल शासकों के शासन तक तैमूर लंग और नादिरशाह ने जो तबाही मचाई उसे इतिहास कैसे भुला सकता है। उनकी क्रूरता के किस्से आज भी रोंगटे खड़ कर देते हैं। मगर इन्हीं आक्रांताओं ने इतिहास के कुछ ऐसे उलटफेर भी किए जो आज भी कुछ देशों की संप्रभुता के लिए समस्या बने हुए हैं। गोबी के रेगिस्तान को लांघते हुए जब इनके जाबांज काफिले गुजरते थे तो भारत के परमप्रतापी गुप्त साम्राज्य तक के परखचे उड़ा देते थे। कहते हैं कि नेपोलियन बोनापार्ट ने पूरे यूरोप के नक्शे को समेट दिया था क्यों उसके अभियानों के बाद यूरोप का नक्शा ही बदल जाता था। इसी तरह एशिया के भूगोल को इन आक्रांताओं ने भी बदल दिया। उन्हीं कुछ बदलावों से अभिशिप्त देशों में से एक तिब्बत भी है जो आज भी आजादी के लिए तरस रहा है। दुनिया की छत कहा जाने वाला यही तिब्बत बार-बार अपनी आजादी के सवाल को लेकर खड़ा होता है और कुचल दिया जाता है। अब यह चीन अधिकृत क्षेत्र है जिसे चीन ने स्वायत्त का दर्जा दे रखा है मगर तिब्बतियों को शायद यह चीन की गुलामी रास नही आती। हालांकि तिब्बत की चीन द्वारा निर्वासित की जा चुकी सरकार के राष्ट्राध्यक्ष दलाई लामा और खुद भारत सरकार राजनैतिक और कूटनीतिक कारणों से तिब्बत का चीन स्वायत्तशासी मान चुके हैं। तो फिर बार-बार आजादी का सवाल उठाकर क्यों पद्दलित होते रहते हैं तिब्बती ? क्या तिब्बत आजाद देश रहा है ? आइए मौजूदा घटनाक्रम के बहाने इतिहास के कुछ उन तथ्यों को जानने की कोशिश करते हैं जो इन तिब्बतियों को आजादी के लिए उठ खड़े होने को प्रेरित करते रहते हैं।
आजाद रहा है तिब्बत ?
चीन तिब्बत को कभी आजाद देश की श्रेणी में रखा ही नहीं। उसका कहना है कि तिब्बत हमेशा से चीन का अभिन्न अंग रहा है। इसके ठीक विपरीत तिब्बत की आजादी के समर्थक मानते हैं कि करीब १३०० सालों के इतिहास में तिब्बत चीन से अलग एक आजाद देश रहा है। इस तर्क के पक्ष में तिब्बत की आजादी के समर्थक कहते हैं कि सन् ८२१ में दो सौ सालों की लंबी लड़ाई के बाद चीन और तिब्बत के बीच एक शांति समझौता हुआ था। इसका विवरण तीन प्रस्तर स्तंभ लेखों में उपलब्ध है। इनमें से एक स्तंभ लेख तिब्बत की राजधानी ल्हासा के कैथड्रल के सामने आज भी मौजूद है। इस लेख में संधि के अनुसार दोनों की सीमाएं तय की गईं हैं और तिब्बत व चीन दोनों को एक दूसरे पर हमला न करने की बात कही गई है। यह उम्मीद भी जाहिर की गई है कि इस समझौते के बाद तिब्बत के लोग तिब्बत में और चीन के लोग चीन में खुश रहेंगे। दोनों के इस समझौते का साक्षी सूरज. चांद, ग्रह, तारे एक संत और तीन ज्वेल को रखा गया है। इस शांति समझौते का उल्लेख करने वाले तीनों प्रस्तर स्तंभ लेखों में से एक चीन के राजमहल के सामने, दूसरा दोनों देशों की सीमा पर और तीसरा ल्हासा में है।
१३वीं और १४वीं शताब्दी में तिब्बत और चीन दोनों पर मंगोलों का आधिपत्य हो गया। इसी मंगोल साम्राज्य को एक देश मानकर या इसी मंगोल प्रभुत्व को आधार मानकर चीन कहता है कि तिब्बत आजाद नहीं बल्कि चीन का अभिन्न अंग है। जबकि मंगोलों का ाधिपत्य दोनों ने मान लिया था। तिब्बत को आजाद देश मानने वालों का कहना है कि पूर्व मध्यकाल के विश्व इतिहास में महान पराक्रमी मंगोल शासक कुबलई खान और उसके उत्तराधिकारियों ने पूरे एशिया पर आधिपत्य कायम कर लिया था। तो क्या पूरा एशिया चीनियों का है? तिब्बत की आजादी के समर्थकों का यह भी कहना है कि मंगोलों और तिब्बतियों व चीनियों के संबंधों की भी पड़ताल की जानी चाहिए। उनके मुताबिक तिब्बत पर मंगोलों का आधिपत्य कुबलई खान के चीन अभियान के पहले ही हो गया था। इतना ही नहीं चीन के आजाद होने से कई दशक पहले ही तिब्बत पूरी तरह आजाद भी हो गया था।
मंगोल शासकों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया इस कारण उनमें सहअस्तित्व की पंथिक प्रणाली चो-योन का प्रदुर्भाव हुआ। इस कारण तिब्बती मंगोलों के प्रति प्रतिबद्ध रहे। इसके ठीक उलट मंगोलों के चीन पर आधिपत्य की प्रकृति अलग बताई जाती है। मंगोलों के आधिपत्य में तबतक चीन रहा जबतक १४वीं सदी के आखिर में खुद मंगोलों का पतन नहीं हो गया जबकि तिब्बत के शासक तिब्बती हा रहे।
इस के बाद १६३९ में दलाई लामा ने संबंध कायम रखने की चो-योन प्रणाली के तहत शासक मंचू से भी सबंध कायम रखा। मंचू वह शासक था जिसने १६४४ में चीन को जीती था और क्विंग वंश की स्थापना की। मंचू शासकों का १९वीं शताब्दी तक तिब्बत में प्रभाव रहा और तिब्बत भी मंचू साम्राज्य के नाम से जाना जाता था। बाद में मंचू साम्राज्य इतना क्षीण हो गया कि १८४२ और १८५६ के नेपाली गोरखा अभियान के खिलाफ तिब्बतियों की मदद के भी लायक नहीं रह गया। बिना मंचू शासकों की मदद के ही तिब्बतियों ने गोरखाओं से मुकाबला किया जो द्विपक्षीय संधि के बाद लड़ाई खत्म हो पाई। इसके बाद चो-योन संबंध और मंचू वंश दोनों का पतन १९११ में हो गया। तिब्बत इसके बाद ही १९१२ में औपचारिक तौरपर पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न राज्य बन गया और तिब्बत की आजादी १९४९ तक कायम रही। इसके बाद १९४९ में चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। १९९१ में संयुक्त राष्ट्र ने एक अधिनियम पास करके तिब्बत और इससे जुड़े चीनी आधिपत्य वाले सिचुआन, यूनान, गंशू, क्विंघाई को मिलाकर एक अधिकृत देश का दर्जा दे दिया।
भारत में ३७ फीसद लोग तिब्बत के पक्षधर
तिब्बत की आजादी को लेकर जहां दुनिया भर में प्रदर्शन हो रहे हैं, वहीं इससे निपटने के चीन के रवैये की भी आलोचना हो रही है। इस बीच चीन की तिब्बत नीति पर छह देशों के लोगों की राय दर्शाता एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे का नतीजा भी सामने आया है। सर्वे के मुताबिक जहां कई देशों में ज्यादातर लोग चीन के खिलाफ हैं, वहीं भारतीयों की राय बंटी हुई है। भारत में जहां 37 फीसदी लोग तिब्बत पर चीन की नीतियों की आलोचना कर रहे हैं, वहीं 33 फीसदी लोग चीन के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। बाकी 30 फीसदी लोग इस बारे में अपनी कोई राय ही नहीं बना पाए हैं। यह सर्वे फ्रांस, ब्रिटेन, भारत, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और अमेरिका में कराया गया है। सर्वे यूनिवर्सिटी आफ मेरीलैंड से संबद्ध 'वर्ल्डपब्लिकओपिनियन डाट आर्ग' ने करवाया है। इस आनलाइन सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक सभी छह देशों में औसतन 64 फीसदी लोग चीन के खिलाफ नजर आए, जबकि 17 फीसदी ने चीन का समर्थन किया। अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन में तो क्रमश: 74, 75 और 63 फीसदी लोग चीन के खिलाफ खड़े नजर आए। दक्षिण कोरिया में 84 फीसदी लोगों ने चीन के खिलाफ राय दी, जबकि इंडोनेशिया में यह आंकड़ा 12 फीसदी रहा। गौरतलब है कि यह सर्वे तिब्बत में फिलहाल गंभीर हुई स्थिति से पहले कराया गया थापचास साल से ज्यादा हो गए, जब तिब्बत नामक स्वतंत्र राष्ट्र पर साम्यवादी चीन ने कब्जा कर लिया। इन पांच-छह दशकों में चीनियों ने दलाई लामा को तिब्बत छोड़ने के लिए मजबूर किया, तिब्बत में हान जाति के चीनियों को बसाने की कोशिश की और अब वहां रेलवे लाइन बिछाकर उसे पूरी तरह चीन का अटूट अंग बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
साम्यवादी कूट-भाषा में उसे ‘स्वायत्त प्रदेश’ कहा जाता है। यहां स्व का अर्थ तिब्बत नहीं, चीन है। चीन के इस अधिकार को तिब्बती लोग बिलकुल नहीं मानते। तिब्बत में रहने वाले तिब्बती चीन को साम्राज्यवादी आक्रांता देश मानते हैं। तिब्बतियों और चीनियों के बीच गहरा अविश्वास है। हालांकि तिब्बती भारतीयों और भारत के प्रति बहुत उत्साही दिखाई पड़ते हैं, लेकिन चीन के बारे में या तो चुप रहते हैं या दबी जुबान में अपनी घुटन निकालने की कोशिश करते हैं। तिब्बत उनका अपना देश है, लेकिन उन्हें वहां गुलामों की तरह रहना पड़ता है। तिब्बत का आर्थिक विकास तो निश्चय ही हुआ है, लेकिन शक्ति और संपदा के असली मालिक चीनी ही हैं। उनके रहन-सहन और तौर-तरीकों ने साधारण तिब्बतियों के हृदय में गहरी ईष्र्या का स्थायीभाव उत्पन्न कर दिया है। यही ईष्र्या ल्हासा में फूट पड़ी है।
चीनी सरकार की सबसे बड़ी चिंता यह है कि तिब्बत के बाहर अन्य प्रदेशों में रहने वाले तिब्बतियों ने भी जबरदस्त प्रदर्शन किए हैं। दिल्ली, काठमांडू, न्यूयॉर्क, लंदन आदि शहरों में भी प्रदर्शन हो रहे हैं। एक तरफ ये प्रदर्शन हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ चीनी सरकार ओलिंपिक खेलों की तैयारी कर रही है। ओलिंपिक की मशाल वह एवरेस्ट पर्वत पर ले जाना चाहती है। वह तिब्बत होकर ही जाएगी। उसे चिंता है कि अगर तिब्बत को लेकर कोहराम मच गया, तो कहीं ओलिंपिक खेल ही स्थगित न हो जाएं। ओलिंपिक के बहाने उसे अपने महाशक्ति रूप को प्रचारित करने का जो मौका मिलेगा, वह तिब्बतियों के कारण हाथ से जाता रहेगा। चीन का आरोप है कि ल्हासा में हो रहे उत्पात की जड़ भारत में है। धर्मशाला में बैठी दलाई लामा की प्रवासी सरकार तिब्बतियों को हिंसा पर उतारू कर रही है। यह आरोप निराधार है, क्योंकि दलाई लामा ने हिंसा का स्पष्ट विरोध किया है। 1989 के बाद से तिब्बत में हुई ये सबसे बड़ी हिंसक घटना है. 1959 में चीनी शासन के ख़िलाफ़ हुए संघर्ष की बरसी पर सोमवार को शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरु हुए थे लेकिन शुक्रवार को हिंसा भड़क उठी.चीन के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान कम से कम 80 लोग मारे गए हैं. निर्वासित सरकार के अधिकारियों ने कहा है कि की सूत्रों से मृतकों की संख्या की पुष्टि हुई है. चीन के मुताबिक मरने वालों की संख्या 10 है.
वहीं तिब्बत के निर्वासित सरकार के प्रमुख और आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने आशंका जताई है कि यदि चीन अपनी नीति नहीं बदलता है तो तिब्बत में और मौतें हो सकती हैं. इस बीच चीन के नियंत्रण वाले तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीनी सेना ने अपना नियंत्रण बढ़ा दिया है और सूनी सड़कों पर सैनिक बख़्तरबंद गाड़ियों के साथ गश्त लगा रहे हैं. अमरीका, रूस, फ्रांस सहित दुनिया के कई देशों ने चीन से संयम बरतने की अपील की है.
चीन ने तिब्बत में विदेशियों के प्रवेश पर लगाई रोक
चीन ने तिब्बत में विदेशी नागरिकों के प्रवेश पर रोक लगा दी है और वहां रह रहे पर्यटकों से चले जाने को कहा है। तिब्बत की राजधानी में शासन के खिलाफ और स्वतंत्रता के समर्थन में पिछले 2 दशक में भड़की सबसे बड़ी हिंसा के बाद चीन ने यह कदम उठाया है। हिंसा में अब तक 10 लोगों की मौत हो चुकी है। लोकल अफसरों के मुताबिक ल्हासा में पिछले सप्ताह भड़की हिंसा के बाद तिब्बत के क्षेत्रीय प्रशासन ने सुरक्षा के मद्देनजर विदेशियों के पर्यटन संबंधी सभी आवेदन फिलहाल रद्द कर दिए हैं। विदेशी मामलों के क्षेत्रीय कार्यालय के निदेशक जु जियान्हवा का हवाला देते हुए शिन्हुवा न्यूज एजेंसी ने बताया है कि स्थानीय प्रशासन की मदद से 20 विदेशी पर्यटकों को तिब्बत से निकाला जा चुका है। ल्हासा पुलिस के मुताबिक, 3 जापानी पर्यटकों सहित 580 लोगों का बचाव किया गया है। चीनी सुरक्षा बल ल्हासा पर कड़ी नजर रखे हुए है। शुक्रवार को फैली हिंसा और लोगों के मारे जाने के बाद रविवार तक और लोगों के मारे जाने की कोई खबर नहीं थी। गौरतलब के 57 वर्ष के चीनी शासन के खिलाफ तिब्बत की आजादी के लिए चल रहे आंदोलन की 49वीं बरसी के मौके पर बौद्ध भिक्षुओं ने विरोध,प्रदर्शन शुरू किया था।
दलाई लामा पर दोष
चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है.दलाई लामा ने प्रदर्शनों को तिब्ब्तियों के असंतोष का प्रतीक बताया है .चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं.लेकिन दलाई लामा के प्रवक्ता चाइम आर छोयकयापा ने दिल्ली में इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया है.उनका कहना है कि चीन सरकार तिब्बतियों की समस्या को बंदूक से नहीं सुलझा सकती और उसे तिब्बतियों का मन पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. उधर तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.
भारत का रुख़
ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत सरकार की ओर से जारी बयान में चीन के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ भी नहीं कहा गया है.दरअसल, भारत के साथ दुविधा यह है कि मानवाधिकार और अन्य पहलुओं पर भारत तिब्बत की निर्वासित सरकार से सहमत है. यही वजह है कि पिछले कुछ दशकों से तिब्बत की निर्वासित सरकार को भारत ने अपने पास शरण दे रखी है. पर इस शर्त पर कि उनकी ओर से कोई भी राजनीतिक गतिविधि नहीं की जाएगी. ऐसे में जहाँ भारत तिब्बतियों के देश में हो रहे प्रदर्शनों को अनुमति नहीं दे रहा है वहीं चीन से सुधरते संबंधों को ध्यान में रखते हुए बहुत संभलकर बोल रहा है. तिब्बत में पिछले 20 बरसों के दौरान हिंसा की यह सबसे बड़ी घटना बताई जा रही है. चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है. चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं. लेकिन तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.
तिब्बत की बदलती तस्वीर
चीन ने पिछले साल ही बीजिंग को रेललाईन के ज़रिए तिब्बत की राजधानी ल्हासा से जोड़ दिया था. इस रेलसंपर्क ने दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया है. इस रेल संपर्क ने जहां तिब्बत को चीन की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया है तो वहीं इसकी वजह से तिब्बत में बढ़ रहे चीनी दख़ल पर कई तरह की आशंकाएं भी जताई जा रही है. इस रेल से तिब्बती लोगों के जनजीवन में काफ़ी फ़र्क आया है, साथ ही तिब्बत में नये विचार पहुँच रहे हैं. व्यापार शुरू हुआ है, किसानों को नई तकनीक और यहाँ की कला और संस्कृति को नए बाज़ार मिल रहे हैं. वो फल-फूल रहे हैं."चीन ने बौद्ध धर्म अनुयायी तिब्बती लोगों की स्वतंत्रता की कोशिशों को 1951 में कुचलने की कोशिश ज़रूर की पर अब भी यहां तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक नेता दलाई लामा की छाप मिटी नहीं है.चीनी आक्रमण के बाद तिब्बत के चौदहवें दलाईलामा शरणार्थी के रूप में भारत आ गए थे जो आज भी चीन की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं. ल्हासा स्थित दलाईलामा के आवास पोटाला महल में 13वें दलाईलामा तक की चर्चा होती है. मौज़ूदा दलाईलामा की चर्चा कोई नहीं करता. यहां चीनी सरकार की सख़्त नज़र रहती है.तिब्बतियों में भारत के प्रति एक अलग तरह का प्रेम है. काफ़ी संख्या में लोग भारत से शिक्षा ले कर लौटे हैं. वे भारत को अपना दोस्त और हिमायती मानते हैं. ल्हासा के बाखोर बाज़ार की दुकानों में हिंदी गाने सुनाई देते हैं. ब्यूटी पार्लरों में बालीवुड अभिनेत्री ऐश्वर्या रॉय समेत फ़िल्मी हस्तियों के पोस्टर नज़र आते हैं. यहां के राष्ट्रीय टेलीविज़न में हिंदी धारावाहिकों को तिब्बती भाषा में दिखाया जाता है.
Tuesday, November 17, 2009
व्यापार गोष्ठी : महंगाई के लिए कौन है जिम्मेदार?
जनता दरबार ने सुनाया फरमान : हाजिर हो सरकार
बीएस टीम / August 16, 2009
कमजोर मॉनसून है वजह
महंगाई की चिंता पूरे देश को सता रही है। कोई सरकार को इसके लिए दोषी ठहरा रहा है तो कोई मुद्रास्फीति को लेकिन सच बात तो यह है कि कमजोर मॉनसून ही महंगाई के लिए जिम्मेदार है। क्योंकि इस साल भारत में औसत से भी कम बारिश हुई है। इसकी वजह से खाद्य पदार्थों के उत्पादन में कमी आई और उनकी मांग में बढ़ोतरी हुई है।मांग और आपूर्ति में एक तरह का असंतुलन बन गया है और भाव बढ़ने लगे हैं। कमजोर मॉनसून के अलावा कमजोर निर्यात और उच्च राजकोषीय घाटा महंगाई के लिए जिम्मेवार है।
मुकेश रंगा
इंजीनियरिंग कॉलेज, बीकानेर, राजस्थान
गलत नीतियों का नतीजा
महंगाई के सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार की गलत नीतियां हैं। जरूरी वस्तुओं के भाव को नियंत्रित नहीं रख पाना गलत नीतियों का ही नतीजा है। अगर सही नीतियां होतीं तो जमाखोरी और कालाबाजारी पर रोक लगाकर महंगाई को काबू में किया जा सकता था।नीतियों के सही प्रयोग से महंगाई पर अभी लगाम कसा जा सकता है। महंगाई को नियंत्रित नहीं किए जाने से लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए सरकारी नीतियां ऐसी होनी चाहिए जो जनता के हित में हों और लोग चैन की सांस ले सकें।
नयन प्रकाश गांधी 'प्रदीप्त'
पीएसबीएम, पुणे
सरकार है जिम्मेदार
महंगाई के लिए केवल और केवल सरकार जिम्मेदार है। सरकार की समस्त नीतियां पूंजीवादी व विदेशी शक्तियों को संरक्षण देने की हैं और उसे अपने देश की 80 फीसदी की तादाद वाली गरीब जनता की जरा भी फिक्र नहीं है। तभी तो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्रियों में शुमार किए जाने वाले हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि महंगाई अभी और बढ़ेगी।
सरकार विमान ईंधन, कार, एसी, मोबाइल, कंप्यूटर आदि की कीमतें घटाने के उपाय कर सकती है पर खाद्यान्न क्षेत्र में दखल नहीं दे सकती। सरकार को चिंता है उद्योगपतियों की। यदि मॉनसून महंगाई का कारण है तो जिन सालों में मॉनसून बेहद अच्छा रहा उन सालों में कीमतें क्यों चढ़ी? जब सरकार अमीर वर्ग के उपभोग की तमाम वस्तुएं सस्ती कर सकती है तो वह आम गरीब जनता की रोटी भी सस्ती कर सकती है।
कपिल अग्रवाल
1915, थापर नगर, मेरठ, उत्तर प्रदेश
सभी बराबर के जिम्मेदार
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां के 60 फीसदी से ज्यादा लोग कृषि पर ही निर्भर हैं। इस बार मॉनसून की हालत गड़बड़ है और बारिश 30 से 40 फीसदी तक कम हुई है। इसका असर पैदावार पर पड़ेगा। जबकि मांग में कमी आने की संभावना नहीं है। इससे महंगाई पर असर पड़ेगा।कारोबारी भी मौके का फायदा उठाने में पीछे नहीं रहते हैं। वे जमाखोरी शुरू कर देते हैं और इससे बाजार में माल की कमी होती है और दाम बढ़ते हैं। सरकार ने कायदे-कानून बना रखे हैं लेकिन उनका कड़ाई से पालन नहीं होता है। सरकार अगर जमाखोरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे तो महंगाई पर एक हद तक काबू पाया जा सकता है।
हरनारायण जाजू
मुंबई
कारोबारी और सरकार जिम्मेदार
सिंचाई के वैकल्पिक साधन विकसित किए जाने के बावजूद उससे गरीब किसानों को बहुत लाभ नहीं मिल रहा है। वे किसानी के लिए अभी भी मॉनसून पर ही निर्भर हैं। वहीं कारोबारी का मुख्य मकसद पैसा कमाना होता है। इसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कुल मिलाकर कारोबारियों को लूटने का मौका चाहिए।जहां तक सरकार का प्रश्न है तो उसे लोकतंत्र का नाटक खेलने के लिए इन्हीं कारोबारियों पर निर्भर रहना पड़ता है। अत: सरकार इनके खिलाफ नहीं जा सकती है। सरकारी आंकड़ों में महंगाई घट रही है लेकिन वास्तविकता में यह अपने चरम पर है और लोगों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इसके बावजूद सरकर हाथ पर हाथ धरे बैठी है।
राजेश कपूर
भारतीय स्टेट बैंक, एलएचओ, लखनऊ
कालाबाजारी की मार
अषाढ़ का चूका किसान और डाल से चूका बंदर कहीं का नहीं रहता है। भारतीय अर्थव्यवस्था मॉनसून का जुआ है। बारिश में कमी की वजह से कृषि पर निर्भर देश की 60 फीसदी आबादी को कई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। महंगाई इन्हीं में से एक है।जाहिर है कि पैदावार कम होने से बाजार में आपूर्ति घटेगी और दाम चढ़ेंगे। एक तरफ मॉनसून की मार तो है ही साथ ही साथ दूसरी तरफ कारोबारी वर्ग ने माल को गोदामों में रोककर और कालाबाजारी करके महंगाई को और ज्यादा बढ़ाने का कार्य किया है।
अनुराधा कंवर
रामपुरा हाऊस, सिविल लाइंस, बीकानेर, राजस्थान
सरकार और उपभोक्ता जिम्मेदार
मांग और पूर्ति के नियम का अनुसरण करके उपभोक्ताओं को उन वस्तुओं का उपभोग कम कर देना चाहिए जिनकी कीमतें ऊंची हैं और उनकी क्रय शक्ति से बाहर हैं। ऐसे वस्तुओं की मांग जब घटेगी तो स्वाभाविक तौर पर इनके भाव में भी कमी आएगी। सरकार की ओर से मूल्य नियंत्रण जरूरी है।सरकार मूक दर्शक की तरह बढ़ती हुई महंगाई को देखती नहीं रह सकती हैं। जनहित में सीधा हस्तक्षेप जरूरी है और आवश्यकता के मुताबिक सरकारी दुकानों पर कम भाव पर अनिवार्य वस्तुओं की बिक्री की व्यवस्था की जानी चाहिए। महंगाई को रोकने के लिए सरकार को जिस तरह के ठोस कदम उठाने चाहिए थे, वे उसने नहीं उठाए।
केडी सोमानी
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन, मध्य प्रदेश
सरकारी नीतियां सर्वाधिक जिम्मेदार
कारोबारी वर्ग नैतिकता भुला कर मुर्दे का कफन बेचकर मुनाफा कमाने वाला बेरहम वर्ग हो गया है। यह वर्ग जमाखोरी, कालाबाजारी और भ्रष्टाचार फैलाकर उपलब्धता घटा हुआ दिखाकर गरीबों के पेट पर लात मारकर भी मंहगाई बढ़ाता है ताकि मुनाफा खींच सके। सरकार का कर्तव्य है कि वह मानूसन, कारोबारी, शांति-अशांति का ध्यान रखते हुए ऐसी व्यवस्था करे जिससे जनता का मंहगाई के नाम पर शोषण न हो।दुर्भाग्य से हमारी सरकार की मंदी की ओट में बढ़ाई गई नकदीय तरलता की नीति, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा, जलवायु परिवर्तन के समझौते और खुले बाजार की नीति ने मंहगाई को बेतहाशा उछाल दिया है। महंगाई के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार है और यदि वह यथार्थवादी नीतियां अपनाए तो मंहगाई के घोड़े पर काबू पाया जा सकता है।
ठाकुर सोहन सिंह भदौरिया
भदौरिया भवन, मुख्य डाकघर के पीछे, बीकानेर, राजस्थान
जमाखोरी ने बढ़ा दी महंगाई
महंगाई को बढ़ाने में सरकार, कारोबारी और मॉनसून तीनों दोषी हैं। सरकारी महकमे के मौसम विभाग का हालिया आंकड़ा कहता है कि पिछल साल की तुलना में बारिश 13 फीसदी अब तक कम हुआ है। मौसम विभाग तथा सरकार सरकार के अन्य विभाग और सरकारी आंकड़ें आम जनता को उलझाए हुए हैं।सरकारी आंकड़ों के मुताबिक महंगाई दर नकारात्मक रही है। जबकि आम आदमी को दो जून की रोटी के जुगाड़ में खून-पसीना एक करना पड़ रहा है। वहीं दूसरी तरफ कारोबारियों ने जमाखोरी करके भारी मुनाफा कमाना शुरू कर दिया है। हाल ही में गुजरात में एनजीओ के गोदामों में हजारों टन चीनी पकड़ी गई थी। यह जमाखोरी का ही नतीजा है।
संतोष कुमार
मैकरॉबर्टगंज, कानपुर, उत्तर प्रदेश
सरकारी नीतियों ने बढ़ाई महंगाई
दिनोंदिन बढ़ रही महंगाई के लिए केंद्र सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। सरकार ने समय रहते ही सटोरिये और स्टॉकिस्टों पर कार्रवाई नहीं की। अब जब छापेमारी की कार्रवाई की जा रही है तो भारी पैमाने पर स्टॉकिस्टों के गोदामों से अनाज बाहर निकल रहा है।साथ ही वायदा कारोबार को तरजीह दिए जाने की नीतियों ने भी महंगाई को बढ़ावा दिया है। जिस प्रकार वायदा बाजारों में खुलेआम कृषि आधारित उत्पादों की बोलियां लगाई जा रही हैं वह तो एक प्रकार से देखा जाय तो सट्टेबाजी का ही हिस्सा है।
इसके अलावा कमोडिटी ट्रांजेक्शन टैक्स को खत्म करके सरकार ने वायदा बाजार को और भी ज्यादा आजादी दे दी है। लिहाजा महंगाई आसमान पर है और सरकार केवल तमाशा देख रही है।
निखिल बोबले
बैंक ऑफ अमेरिका क्वाटेंनियम, मालाड़, मुंबई - 64
सरकारी उपेक्षा से बढ़ी महंगाई
महंगाई रोकने का जिम्मा जिन लोगों पर है वे असहाय नजर आ रहे हैं। जब लोकसभा चुनाव हो रहे थे तो जनता को नेताओं ने सिर माथे पर रखा था लेकिन आज लोगों की चिंता करती हुई कोई भी राजनीतिक दल नहीं दिख रही है। नेता जीत का जश्न मनाने और सत्ता सुख भोगने में मशगूल हैं और जनता दाने-दाने का तरस रही है।बढ़ती महंगाई के लिए मॉनसून और कारोबारियों से कहीं ज्यादा जिम्मेदार सरकार है। क्योंकि अगर सरकार ने ठोस और परिणामदायी योजना बनाई होती तो महंगाई के कारण आज जैसे बदतर हालत पैदा ही नहीं होती। इसके बाद भी प्रधानमंत्री का यह कहना कि महंगाई और बढ़ेगी, बेहद गैरजिम्मेदाराना है।
रमेश चंद्र दूबे
मालवीय रोड, गांधी नगर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
आंकड़ों के खेल में खा गए गच्चा
वैश्विक अर्थव्यवस्था जब मंदी की चपेट में थी तो भारत की मुद्रास्फीति दर लगातार घटती जा रही थी। पहले तो लोगों को इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि मुद्रास्फीति सूचकांक में जीवनावश्यक वस्तुओं की हिस्सेदारी न के बराबर है। जब मुद्रास्फीति ऋणात्मक हुई तो लोगों की आंखें खुलीं और असल जीवन में महंगाई का लोग अहसास करने लगे। दरअसल, सरकार को भी मुद्रास्फीति के इन आंकड़ों के खेल को आम लोगों के समक्ष स्पष्ट करना जरुरी था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। हालांकि, सरकार ने ऐसा करना उचित नहीं समझा और घटती हुई महंगाई दरों की आंखमिचौली में सरकार भी जनता के साथ शामिल हो गई। इसका खामियाजा महंगाई के तौर पर देश के आम लोगों को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ रहा है।
शर्मिला भरणे
गृहिणी, विरार, ठाणे
नीति निर्माता हैं कसूरवार
जब प्रधानमंत्री ही यह बोलें कि महंगाई अभी और बढ़ सकती है तो फिर महंगाई तो बढ़ेगी ही। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि जिन्हें महंगाई और मूल्य नियंत्रण के लिए प्रयास करना चाहिए वही प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर महंगाई बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे हैं।मॉनसून के सामान्य न रहने की दशा में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग और आपूर्ति का संतुलन अवश्य गड़बड़ाता है। पर महंगाई बढ़ने के लिए इससे भी अधिक जिम्मेदार है सरकार का ढुलमुल रवैया। हर कोई जानता है कि चुनावी फंड कहां से आता है। जिन उद्योगपतियों और व्यवसायियों से चुनावी फंड में सहयोग लिया जाता है, उन्हें और उनसे जुड़े कारोबारियों को छूट देने पर महंगाई बढ़ जाती है।
रमेशचंद्र कर्नावट
महानंदानगर, उज्जैन, मध्य प्रदेश
सरकारी नाकामी से बढ़ी महंगाई
बेलगाम महंगाई सरकार की नाकामी को ही साबित करती है। आवश्यक वस्तुओं के दाम नियंत्रित करने की सरकारी मशीनरी आज कहीं नजर नहीं आ रही है। वैसे जरूरत के वक्त में सरकारी मशीनरी का सो जाना नई बात नहीं है। महंगाई के लिए मॉनसून को जिम्मेदार ठहराना सही नहं है।मॉनसून में थोड़ी कमी हो जाना तो एक बहाना भर है। मॉनसून इतना नहीं गड़बड़ाया है जितना की महंगाई के कारण आम आदमी का चूल्हा-चौका गड़बड़ हो गया है। हालात ऐसे ही रहे तो देश में जल्द ही भूख से परिवारों के सामूहिक भुखमरी के समाचार आने शुरू हो जाएंगे। तब सरकार अपनी फजीहत से बचने के लिए वह सब कुछ करेगी जो यदि आज कर दे तो सबका भला हो जाए।
सत्येंद्र नाथ गतवाला
बभनगावां, गांधी नगर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
पुरस्कृत पत्र
तालमेल का अभाव है दोषी
डॉ. एमएस सिद्दीकी
नई बस्ती,असगर रोड, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश
कमजोर आपूर्ति प्रबंधन, जमाखोरी, कालाबाजारी, उत्पादन में गिरावट, केंद्र और राज्य सरकारों में तालमेल का अभाव जैसे कारण महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं। किसी एक कारण को पूरी तरह से महंगाई के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। महंगाई अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों का परिणाम है।मॉनसून की बेरुखी आग में घी का काम कर रही है और दिनोंदिन महंगाई बढ़ती ही जा रही है। जरूरत इस बात की है कि महंगाई के कारणों की तह में जाकर इसके लिए जिम्मेवार बुनियादी कारणों को दूर करने का बंदोबस्त किया जाए। प्रधानमंत्री ने भविष्य में महंगाई बढ़ने की आशंका व्यक्त की है और राज्यों से महंगाई रोकने के लिए कठोर उपाय करने का आग्रह किया है। महंगाई पर काबू पाने के लिए इस पर अमल किया जाना चाहिए।
अन्य सर्वश्रेष्ठ पत्र
कारोबारी और सरकार जिम्मेदार
समरबहादुर यादव
शांति नगर, ठाणे - महाराष्ट्र
महंगाई के लिए मॉनसून को जिम्मेदार नहीं मान सकते हैं। महंगाई के लिए सरकार और कारोबारी दोनों जिम्मेदार हैं। चंद दिनों पहले संप्रग सरकार ने दूसरी बार सत्ता की कमान संभाली है।जगजाहिर है कि चुनावी तैयारियों के लिए नेता कारोबारियों से पैसे ऐंठते हैं। अब वही कारोबारी नेताओं को दिए गए पैसों की वसूली के लिए ग्राहकों से मनमाने ढंग से उत्पादों की कीमतें वसूल रहे हैं। इससे साफ है कि सरकार और कारोबारियों ने मिलकर आम आदमी के लिए महंगाई का तोहफा देकर जीना मुहाल कर दिया है।
बयानबाजी से बढ़ी महंगाई
योगेश जैन
पैंटालूंस ट्रेजर आईलैंड, एमजी रोड, इंदौर, मध्य प्रदेश
तेजी से बढ़ती महंगाई के लिए सही मायने में हमारे प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री के गैरजिम्मेदराना बयान ही अधिक जिम्मेदार हैं। 'महंगाई तो अभी और बढ़ सकती है' जैसे बयानों से जमाखोरों, कालाबाजारियों और सट्टेबाजों को प्रोत्साहन मिलता है।
मॉनसून के सामान्य नहीं रहने की अवस्था में भी उपभोक्ता वस्तुओं में न तो अचानक कोई कमी होती है और न ही महंगाई बढ़ती है। सरकार ही यदि शिथिल हो जाए तो फिर महंगाई बढ़ने के लिए मॉनसून और कारोबारियों को जिम्मेदार मानना कहां तक उचित है?
प्राकृतिक मार ने पैदा किया संकट
अनंत पाटिल
समाजसेवक, वरली गांव, मुंबई - 30
महंगाई रोकने को लेकर सरकार आए दिन प्रयासरत देखी जा रही है। लेकिन कुदरत के आगे सब बेबस हैं। जिस प्रकार मॉनसून की अपेक्षा की गई उससे भी कम बरसात ने अब तक दस्तक दी है।इस वजह से पैदा होने वाली स्थिति को देखते हुए महंगाई आसमान छू रही है। सरकार ने चीनी, दाल जैसी जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतें कम कर उन्हें बाजार में उतारा लेकिन मॉनसून की आंखमिचौली ने आम लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है। ऐसे में बेहतर मॉनसून के बाद ही सरकार से महंगाई रोकने की उम्मीद की जा सकती है।
कई कारण हैं महंगाई के
विजय कुमार लुणावत
पूनम जूस सेंटर, मुक्ति धाम के सामने, नासिक रोड, महाराष्ट्र
भारत में महंगाई कुछ अधिक तीव्रता से बढ़ रही है। देश का मध्यम और निम् वर्ग घोर आर्थिक संकट में जीवन व्यतीत कर रहा है। मॉनसून के सामान्य नहीं रहने की दशा में आवश्यक खाद्यान्न का उत्पादन प्रभावित होता है। इस वजह से उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ने की संभावना बनी रहती है।इस परिस्थिति का लाभ लेकर जमाखोर और सटोरिये आवश्यक वस्तुओं का कृत्रिम अभाव बनाकर महंगाई को बढ़ाते हैं। ऐसा हो रहा है लेकिन सरकार सो रही है। सही मायने में कहा जाए तो महंगाई बढ़ने के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं।
बकौल विश्लेषक
जमाखोरी और कालाबाजारी ने किया है दाल में काला
देविंदर शर्मा
कृषि विशेषज्ञ
भावना और अनुमान के आधार पर इस महंगाई को पैदा किया गया है। महंगाई की कोई ठोस वजह है ही नहीं। कहीं भी आपूर्ति और मांग का कोई संकट नहीं है। दाल के उत्पादन के मामले में पिछले साल और इस साल में कोई फर्क नहीं है।फिर भी दाल के भाव आसमान छू रहे हैं। सब्जियों के भाव भी बढ़ते ही जा रहे हैं। जबकि उत्पादन में गिरावट नहीं आई है। देश में गेहूं और चावल का 5.4 करोड़ टन अतिरिक्त भंडार है। तेजी से बढ़ती महंगाई के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार जमाखोरी और कालाबाजारी है।वायदा कारोबार भी महंगाई बढ़ाने के लिए काफी हद तक कसूरवार है। महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार भी सजग नहीं है। सरकार इसलिए भी सुस्त है कि महंगाई बढ़ने की वजह से जीडीपी के आंकड़ों में सुधार होता है। इससे सरकार को आर्थिक मोर्चे पर अपनी साख बचाने का अवसर मिलता है।सरकार यह कह रही है कि मंदी के बावजूद हमारी नीतियों की वजह से जीडीपी बेहतर रही। अब तो प्रधानमंत्री ने भी यह कह दिया है कि महंगाई के लिए लोगों को तैयार रहना चाहिए। इससे जमाखोरों का मनोबल और बढ़ेगा और साथ ही महंगाई भी। साफ है कि सरकार कुछ करने वाली नहीं है।महंगाई को काबू में करने के लिए चावल, दाल और गेहूं पर भंडार की सीमा तय होनी चाहिए। जो भी इसका उल्लंघन करे उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाया जाए और उसे जेल भेजा जाए। वायदा कारोबार से कृषि उत्पादों को बाहर करना चाहिए। इन दो कदमों से जमाखोरी और कालाबाजारी रुकेगी और महंगाई पर लगाम लगाई जा सकेगी।
बातचीत: हिमांशु शेखर
कारोबारी नहीं सरकार है इस खेल की सूत्रधार
बनवारी लाल कंछल
राष्ट्रीय अध्यक्ष, उद्योग व्यापार प्रतिनिधि मंडल, पूर्व राज्यसभा सदस्य
महंगाई के लिए मेरी नजर में केवल और केवल केंद्र सरकार ही दोषी है। व्यापारियों का इसमें कोई दोष नही है। मॉनसून को भी दोष देना ठीक नही है। वैसे भी मॉनसून तो चल रहा है और इस बार के सूखे का असर अभी तो देखने में आएगा नहीं।उसके लिए तो छह महीने लगेंगे जब फसल कट कर बाजारों में आएगी। सूखा पहले भी पड़ा पर इस कदर मंहगाई कभी नही बढ़ी है। यहां तो महंगाई मुंह बाये खड़ी है और लोगों का जीना हराम कर रही है। उधर सरकार कह रही है कि सूखे के चलते आने वाले दिनों में चीजों के दाम बढ़ेंगे।अगर आने वाले दिनों में चीजों के दाम बढ़ेंगे तो अभी क्या हो रहा है। आपने देखा कैसे सफाई से आम चुनाव के ठीक पहले डीजल-पेट्रोल के दाम भी गिरा दिए गए और चीजों के दाम भी काबू में थे। रही बात कारोबारी को दोष देने की तो ये तो सबसे आसान है कि उसे दोष दो जो सामान बेचता हो, मुनाफाखोर ठहरा दो उसे। पर सच ये नहीं है।असलियत तो ये है कि व्यापारी कभी महंगाई बढ़ाने की बात सोचता भी नही है। आज कुछ लोग जमाखोरी का आरोप आसानी से व्यापारी पर लगा देते हैं पर वो ये नहीं सोचते कि बड़े रिटेल स्टोर वाले क्या कर रहे हैं।असली जमाखोर तो रिटेल वाले लोग ही हैं जो कि थोक खरीदारी करके दाम बढ़ाते हैं और फिर अपना मुनाफा कमा उसे इन्हीं दिनों में स्कीम का लालच दे कर बेचते हैं। मेरी राय में महंगाई को रोकना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है और वह इससे मुंह नही मोड़ सकती है। सरकार अगर ऐसा करती है तो इसे जनता के साथ धोखा ही कहा जा सकता है।
बातचीत: सिध्दार्थ कलहंस
...और यह है अगला मुद्दा
सप्ताह के ज्वलंत विषय, जो कारोबारी और कारोबार पर गहरा असर डालते हैं। ऐसे ही विषयों पर हर सोमवार को हम प्रकाशित करते हैं व्यापार गोष्ठी नाम का विशेष पृष्ठ। इसमें आपके विचारों को आपके चित्र के साथ प्रकाशित किया जाता है। साथ ही, होती है दो विशेषज्ञों की राय।
इस बार का विषय है - नई प्रत्यक्ष कर संहिता : मुकम्मल या चाहिए और संशोधन? अपनी राय और अपना पासपोर्ट साइज चित्र हमें इस पते पर भेजें:बिजनेस स्टैंडर्ड (हिंदी), नेहरू हाउस, 4 बहादुरशाह ज़फर मार्ग, नई दिल्ली-110002 या फैक्स नंबर- 011-23720201 या फिर ई-मेल करें
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आशा है, हमारी इस कोशिश को देशभर के हमारे पाठकों का अतुल्य स्नेह मिलेगा।
बीएस टीम / August 16, 2009
कमजोर मॉनसून है वजह
महंगाई की चिंता पूरे देश को सता रही है। कोई सरकार को इसके लिए दोषी ठहरा रहा है तो कोई मुद्रास्फीति को लेकिन सच बात तो यह है कि कमजोर मॉनसून ही महंगाई के लिए जिम्मेदार है। क्योंकि इस साल भारत में औसत से भी कम बारिश हुई है। इसकी वजह से खाद्य पदार्थों के उत्पादन में कमी आई और उनकी मांग में बढ़ोतरी हुई है।मांग और आपूर्ति में एक तरह का असंतुलन बन गया है और भाव बढ़ने लगे हैं। कमजोर मॉनसून के अलावा कमजोर निर्यात और उच्च राजकोषीय घाटा महंगाई के लिए जिम्मेवार है।
मुकेश रंगा
इंजीनियरिंग कॉलेज, बीकानेर, राजस्थान
गलत नीतियों का नतीजा
महंगाई के सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार की गलत नीतियां हैं। जरूरी वस्तुओं के भाव को नियंत्रित नहीं रख पाना गलत नीतियों का ही नतीजा है। अगर सही नीतियां होतीं तो जमाखोरी और कालाबाजारी पर रोक लगाकर महंगाई को काबू में किया जा सकता था।नीतियों के सही प्रयोग से महंगाई पर अभी लगाम कसा जा सकता है। महंगाई को नियंत्रित नहीं किए जाने से लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए सरकारी नीतियां ऐसी होनी चाहिए जो जनता के हित में हों और लोग चैन की सांस ले सकें।
नयन प्रकाश गांधी 'प्रदीप्त'
पीएसबीएम, पुणे
सरकार है जिम्मेदार
महंगाई के लिए केवल और केवल सरकार जिम्मेदार है। सरकार की समस्त नीतियां पूंजीवादी व विदेशी शक्तियों को संरक्षण देने की हैं और उसे अपने देश की 80 फीसदी की तादाद वाली गरीब जनता की जरा भी फिक्र नहीं है। तभी तो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्रियों में शुमार किए जाने वाले हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि महंगाई अभी और बढ़ेगी।
सरकार विमान ईंधन, कार, एसी, मोबाइल, कंप्यूटर आदि की कीमतें घटाने के उपाय कर सकती है पर खाद्यान्न क्षेत्र में दखल नहीं दे सकती। सरकार को चिंता है उद्योगपतियों की। यदि मॉनसून महंगाई का कारण है तो जिन सालों में मॉनसून बेहद अच्छा रहा उन सालों में कीमतें क्यों चढ़ी? जब सरकार अमीर वर्ग के उपभोग की तमाम वस्तुएं सस्ती कर सकती है तो वह आम गरीब जनता की रोटी भी सस्ती कर सकती है।
कपिल अग्रवाल
1915, थापर नगर, मेरठ, उत्तर प्रदेश
सभी बराबर के जिम्मेदार
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां के 60 फीसदी से ज्यादा लोग कृषि पर ही निर्भर हैं। इस बार मॉनसून की हालत गड़बड़ है और बारिश 30 से 40 फीसदी तक कम हुई है। इसका असर पैदावार पर पड़ेगा। जबकि मांग में कमी आने की संभावना नहीं है। इससे महंगाई पर असर पड़ेगा।कारोबारी भी मौके का फायदा उठाने में पीछे नहीं रहते हैं। वे जमाखोरी शुरू कर देते हैं और इससे बाजार में माल की कमी होती है और दाम बढ़ते हैं। सरकार ने कायदे-कानून बना रखे हैं लेकिन उनका कड़ाई से पालन नहीं होता है। सरकार अगर जमाखोरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे तो महंगाई पर एक हद तक काबू पाया जा सकता है।
हरनारायण जाजू
मुंबई
कारोबारी और सरकार जिम्मेदार
सिंचाई के वैकल्पिक साधन विकसित किए जाने के बावजूद उससे गरीब किसानों को बहुत लाभ नहीं मिल रहा है। वे किसानी के लिए अभी भी मॉनसून पर ही निर्भर हैं। वहीं कारोबारी का मुख्य मकसद पैसा कमाना होता है। इसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कुल मिलाकर कारोबारियों को लूटने का मौका चाहिए।जहां तक सरकार का प्रश्न है तो उसे लोकतंत्र का नाटक खेलने के लिए इन्हीं कारोबारियों पर निर्भर रहना पड़ता है। अत: सरकार इनके खिलाफ नहीं जा सकती है। सरकारी आंकड़ों में महंगाई घट रही है लेकिन वास्तविकता में यह अपने चरम पर है और लोगों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इसके बावजूद सरकर हाथ पर हाथ धरे बैठी है।
राजेश कपूर
भारतीय स्टेट बैंक, एलएचओ, लखनऊ
कालाबाजारी की मार
अषाढ़ का चूका किसान और डाल से चूका बंदर कहीं का नहीं रहता है। भारतीय अर्थव्यवस्था मॉनसून का जुआ है। बारिश में कमी की वजह से कृषि पर निर्भर देश की 60 फीसदी आबादी को कई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। महंगाई इन्हीं में से एक है।जाहिर है कि पैदावार कम होने से बाजार में आपूर्ति घटेगी और दाम चढ़ेंगे। एक तरफ मॉनसून की मार तो है ही साथ ही साथ दूसरी तरफ कारोबारी वर्ग ने माल को गोदामों में रोककर और कालाबाजारी करके महंगाई को और ज्यादा बढ़ाने का कार्य किया है।
अनुराधा कंवर
रामपुरा हाऊस, सिविल लाइंस, बीकानेर, राजस्थान
सरकार और उपभोक्ता जिम्मेदार
मांग और पूर्ति के नियम का अनुसरण करके उपभोक्ताओं को उन वस्तुओं का उपभोग कम कर देना चाहिए जिनकी कीमतें ऊंची हैं और उनकी क्रय शक्ति से बाहर हैं। ऐसे वस्तुओं की मांग जब घटेगी तो स्वाभाविक तौर पर इनके भाव में भी कमी आएगी। सरकार की ओर से मूल्य नियंत्रण जरूरी है।सरकार मूक दर्शक की तरह बढ़ती हुई महंगाई को देखती नहीं रह सकती हैं। जनहित में सीधा हस्तक्षेप जरूरी है और आवश्यकता के मुताबिक सरकारी दुकानों पर कम भाव पर अनिवार्य वस्तुओं की बिक्री की व्यवस्था की जानी चाहिए। महंगाई को रोकने के लिए सरकार को जिस तरह के ठोस कदम उठाने चाहिए थे, वे उसने नहीं उठाए।
केडी सोमानी
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन, मध्य प्रदेश
सरकारी नीतियां सर्वाधिक जिम्मेदार
कारोबारी वर्ग नैतिकता भुला कर मुर्दे का कफन बेचकर मुनाफा कमाने वाला बेरहम वर्ग हो गया है। यह वर्ग जमाखोरी, कालाबाजारी और भ्रष्टाचार फैलाकर उपलब्धता घटा हुआ दिखाकर गरीबों के पेट पर लात मारकर भी मंहगाई बढ़ाता है ताकि मुनाफा खींच सके। सरकार का कर्तव्य है कि वह मानूसन, कारोबारी, शांति-अशांति का ध्यान रखते हुए ऐसी व्यवस्था करे जिससे जनता का मंहगाई के नाम पर शोषण न हो।दुर्भाग्य से हमारी सरकार की मंदी की ओट में बढ़ाई गई नकदीय तरलता की नीति, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा, जलवायु परिवर्तन के समझौते और खुले बाजार की नीति ने मंहगाई को बेतहाशा उछाल दिया है। महंगाई के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार सरकार है और यदि वह यथार्थवादी नीतियां अपनाए तो मंहगाई के घोड़े पर काबू पाया जा सकता है।
ठाकुर सोहन सिंह भदौरिया
भदौरिया भवन, मुख्य डाकघर के पीछे, बीकानेर, राजस्थान
जमाखोरी ने बढ़ा दी महंगाई
महंगाई को बढ़ाने में सरकार, कारोबारी और मॉनसून तीनों दोषी हैं। सरकारी महकमे के मौसम विभाग का हालिया आंकड़ा कहता है कि पिछल साल की तुलना में बारिश 13 फीसदी अब तक कम हुआ है। मौसम विभाग तथा सरकार सरकार के अन्य विभाग और सरकारी आंकड़ें आम जनता को उलझाए हुए हैं।सरकारी आंकड़ों के मुताबिक महंगाई दर नकारात्मक रही है। जबकि आम आदमी को दो जून की रोटी के जुगाड़ में खून-पसीना एक करना पड़ रहा है। वहीं दूसरी तरफ कारोबारियों ने जमाखोरी करके भारी मुनाफा कमाना शुरू कर दिया है। हाल ही में गुजरात में एनजीओ के गोदामों में हजारों टन चीनी पकड़ी गई थी। यह जमाखोरी का ही नतीजा है।
संतोष कुमार
मैकरॉबर्टगंज, कानपुर, उत्तर प्रदेश
सरकारी नीतियों ने बढ़ाई महंगाई
दिनोंदिन बढ़ रही महंगाई के लिए केंद्र सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। सरकार ने समय रहते ही सटोरिये और स्टॉकिस्टों पर कार्रवाई नहीं की। अब जब छापेमारी की कार्रवाई की जा रही है तो भारी पैमाने पर स्टॉकिस्टों के गोदामों से अनाज बाहर निकल रहा है।साथ ही वायदा कारोबार को तरजीह दिए जाने की नीतियों ने भी महंगाई को बढ़ावा दिया है। जिस प्रकार वायदा बाजारों में खुलेआम कृषि आधारित उत्पादों की बोलियां लगाई जा रही हैं वह तो एक प्रकार से देखा जाय तो सट्टेबाजी का ही हिस्सा है।
इसके अलावा कमोडिटी ट्रांजेक्शन टैक्स को खत्म करके सरकार ने वायदा बाजार को और भी ज्यादा आजादी दे दी है। लिहाजा महंगाई आसमान पर है और सरकार केवल तमाशा देख रही है।
निखिल बोबले
बैंक ऑफ अमेरिका क्वाटेंनियम, मालाड़, मुंबई - 64
सरकारी उपेक्षा से बढ़ी महंगाई
महंगाई रोकने का जिम्मा जिन लोगों पर है वे असहाय नजर आ रहे हैं। जब लोकसभा चुनाव हो रहे थे तो जनता को नेताओं ने सिर माथे पर रखा था लेकिन आज लोगों की चिंता करती हुई कोई भी राजनीतिक दल नहीं दिख रही है। नेता जीत का जश्न मनाने और सत्ता सुख भोगने में मशगूल हैं और जनता दाने-दाने का तरस रही है।बढ़ती महंगाई के लिए मॉनसून और कारोबारियों से कहीं ज्यादा जिम्मेदार सरकार है। क्योंकि अगर सरकार ने ठोस और परिणामदायी योजना बनाई होती तो महंगाई के कारण आज जैसे बदतर हालत पैदा ही नहीं होती। इसके बाद भी प्रधानमंत्री का यह कहना कि महंगाई और बढ़ेगी, बेहद गैरजिम्मेदाराना है।
रमेश चंद्र दूबे
मालवीय रोड, गांधी नगर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
आंकड़ों के खेल में खा गए गच्चा
वैश्विक अर्थव्यवस्था जब मंदी की चपेट में थी तो भारत की मुद्रास्फीति दर लगातार घटती जा रही थी। पहले तो लोगों को इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि मुद्रास्फीति सूचकांक में जीवनावश्यक वस्तुओं की हिस्सेदारी न के बराबर है। जब मुद्रास्फीति ऋणात्मक हुई तो लोगों की आंखें खुलीं और असल जीवन में महंगाई का लोग अहसास करने लगे। दरअसल, सरकार को भी मुद्रास्फीति के इन आंकड़ों के खेल को आम लोगों के समक्ष स्पष्ट करना जरुरी था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। हालांकि, सरकार ने ऐसा करना उचित नहीं समझा और घटती हुई महंगाई दरों की आंखमिचौली में सरकार भी जनता के साथ शामिल हो गई। इसका खामियाजा महंगाई के तौर पर देश के आम लोगों को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ रहा है।
शर्मिला भरणे
गृहिणी, विरार, ठाणे
नीति निर्माता हैं कसूरवार
जब प्रधानमंत्री ही यह बोलें कि महंगाई अभी और बढ़ सकती है तो फिर महंगाई तो बढ़ेगी ही। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि जिन्हें महंगाई और मूल्य नियंत्रण के लिए प्रयास करना चाहिए वही प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर महंगाई बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे हैं।मॉनसून के सामान्य न रहने की दशा में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग और आपूर्ति का संतुलन अवश्य गड़बड़ाता है। पर महंगाई बढ़ने के लिए इससे भी अधिक जिम्मेदार है सरकार का ढुलमुल रवैया। हर कोई जानता है कि चुनावी फंड कहां से आता है। जिन उद्योगपतियों और व्यवसायियों से चुनावी फंड में सहयोग लिया जाता है, उन्हें और उनसे जुड़े कारोबारियों को छूट देने पर महंगाई बढ़ जाती है।
रमेशचंद्र कर्नावट
महानंदानगर, उज्जैन, मध्य प्रदेश
सरकारी नाकामी से बढ़ी महंगाई
बेलगाम महंगाई सरकार की नाकामी को ही साबित करती है। आवश्यक वस्तुओं के दाम नियंत्रित करने की सरकारी मशीनरी आज कहीं नजर नहीं आ रही है। वैसे जरूरत के वक्त में सरकारी मशीनरी का सो जाना नई बात नहीं है। महंगाई के लिए मॉनसून को जिम्मेदार ठहराना सही नहं है।मॉनसून में थोड़ी कमी हो जाना तो एक बहाना भर है। मॉनसून इतना नहीं गड़बड़ाया है जितना की महंगाई के कारण आम आदमी का चूल्हा-चौका गड़बड़ हो गया है। हालात ऐसे ही रहे तो देश में जल्द ही भूख से परिवारों के सामूहिक भुखमरी के समाचार आने शुरू हो जाएंगे। तब सरकार अपनी फजीहत से बचने के लिए वह सब कुछ करेगी जो यदि आज कर दे तो सबका भला हो जाए।
सत्येंद्र नाथ गतवाला
बभनगावां, गांधी नगर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
पुरस्कृत पत्र
तालमेल का अभाव है दोषी
डॉ. एमएस सिद्दीकी
नई बस्ती,असगर रोड, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश
कमजोर आपूर्ति प्रबंधन, जमाखोरी, कालाबाजारी, उत्पादन में गिरावट, केंद्र और राज्य सरकारों में तालमेल का अभाव जैसे कारण महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं। किसी एक कारण को पूरी तरह से महंगाई के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। महंगाई अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों का परिणाम है।मॉनसून की बेरुखी आग में घी का काम कर रही है और दिनोंदिन महंगाई बढ़ती ही जा रही है। जरूरत इस बात की है कि महंगाई के कारणों की तह में जाकर इसके लिए जिम्मेवार बुनियादी कारणों को दूर करने का बंदोबस्त किया जाए। प्रधानमंत्री ने भविष्य में महंगाई बढ़ने की आशंका व्यक्त की है और राज्यों से महंगाई रोकने के लिए कठोर उपाय करने का आग्रह किया है। महंगाई पर काबू पाने के लिए इस पर अमल किया जाना चाहिए।
अन्य सर्वश्रेष्ठ पत्र
कारोबारी और सरकार जिम्मेदार
समरबहादुर यादव
शांति नगर, ठाणे - महाराष्ट्र
महंगाई के लिए मॉनसून को जिम्मेदार नहीं मान सकते हैं। महंगाई के लिए सरकार और कारोबारी दोनों जिम्मेदार हैं। चंद दिनों पहले संप्रग सरकार ने दूसरी बार सत्ता की कमान संभाली है।जगजाहिर है कि चुनावी तैयारियों के लिए नेता कारोबारियों से पैसे ऐंठते हैं। अब वही कारोबारी नेताओं को दिए गए पैसों की वसूली के लिए ग्राहकों से मनमाने ढंग से उत्पादों की कीमतें वसूल रहे हैं। इससे साफ है कि सरकार और कारोबारियों ने मिलकर आम आदमी के लिए महंगाई का तोहफा देकर जीना मुहाल कर दिया है।
बयानबाजी से बढ़ी महंगाई
योगेश जैन
पैंटालूंस ट्रेजर आईलैंड, एमजी रोड, इंदौर, मध्य प्रदेश
तेजी से बढ़ती महंगाई के लिए सही मायने में हमारे प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री के गैरजिम्मेदराना बयान ही अधिक जिम्मेदार हैं। 'महंगाई तो अभी और बढ़ सकती है' जैसे बयानों से जमाखोरों, कालाबाजारियों और सट्टेबाजों को प्रोत्साहन मिलता है।
मॉनसून के सामान्य नहीं रहने की अवस्था में भी उपभोक्ता वस्तुओं में न तो अचानक कोई कमी होती है और न ही महंगाई बढ़ती है। सरकार ही यदि शिथिल हो जाए तो फिर महंगाई बढ़ने के लिए मॉनसून और कारोबारियों को जिम्मेदार मानना कहां तक उचित है?
प्राकृतिक मार ने पैदा किया संकट
अनंत पाटिल
समाजसेवक, वरली गांव, मुंबई - 30
महंगाई रोकने को लेकर सरकार आए दिन प्रयासरत देखी जा रही है। लेकिन कुदरत के आगे सब बेबस हैं। जिस प्रकार मॉनसून की अपेक्षा की गई उससे भी कम बरसात ने अब तक दस्तक दी है।इस वजह से पैदा होने वाली स्थिति को देखते हुए महंगाई आसमान छू रही है। सरकार ने चीनी, दाल जैसी जीवनावश्यक वस्तुओं की कीमतें कम कर उन्हें बाजार में उतारा लेकिन मॉनसून की आंखमिचौली ने आम लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है। ऐसे में बेहतर मॉनसून के बाद ही सरकार से महंगाई रोकने की उम्मीद की जा सकती है।
कई कारण हैं महंगाई के
विजय कुमार लुणावत
पूनम जूस सेंटर, मुक्ति धाम के सामने, नासिक रोड, महाराष्ट्र
भारत में महंगाई कुछ अधिक तीव्रता से बढ़ रही है। देश का मध्यम और निम् वर्ग घोर आर्थिक संकट में जीवन व्यतीत कर रहा है। मॉनसून के सामान्य नहीं रहने की दशा में आवश्यक खाद्यान्न का उत्पादन प्रभावित होता है। इस वजह से उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ने की संभावना बनी रहती है।इस परिस्थिति का लाभ लेकर जमाखोर और सटोरिये आवश्यक वस्तुओं का कृत्रिम अभाव बनाकर महंगाई को बढ़ाते हैं। ऐसा हो रहा है लेकिन सरकार सो रही है। सही मायने में कहा जाए तो महंगाई बढ़ने के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं।
बकौल विश्लेषक
जमाखोरी और कालाबाजारी ने किया है दाल में काला
देविंदर शर्मा
कृषि विशेषज्ञ
भावना और अनुमान के आधार पर इस महंगाई को पैदा किया गया है। महंगाई की कोई ठोस वजह है ही नहीं। कहीं भी आपूर्ति और मांग का कोई संकट नहीं है। दाल के उत्पादन के मामले में पिछले साल और इस साल में कोई फर्क नहीं है।फिर भी दाल के भाव आसमान छू रहे हैं। सब्जियों के भाव भी बढ़ते ही जा रहे हैं। जबकि उत्पादन में गिरावट नहीं आई है। देश में गेहूं और चावल का 5.4 करोड़ टन अतिरिक्त भंडार है। तेजी से बढ़ती महंगाई के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार जमाखोरी और कालाबाजारी है।वायदा कारोबार भी महंगाई बढ़ाने के लिए काफी हद तक कसूरवार है। महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार भी सजग नहीं है। सरकार इसलिए भी सुस्त है कि महंगाई बढ़ने की वजह से जीडीपी के आंकड़ों में सुधार होता है। इससे सरकार को आर्थिक मोर्चे पर अपनी साख बचाने का अवसर मिलता है।सरकार यह कह रही है कि मंदी के बावजूद हमारी नीतियों की वजह से जीडीपी बेहतर रही। अब तो प्रधानमंत्री ने भी यह कह दिया है कि महंगाई के लिए लोगों को तैयार रहना चाहिए। इससे जमाखोरों का मनोबल और बढ़ेगा और साथ ही महंगाई भी। साफ है कि सरकार कुछ करने वाली नहीं है।महंगाई को काबू में करने के लिए चावल, दाल और गेहूं पर भंडार की सीमा तय होनी चाहिए। जो भी इसका उल्लंघन करे उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाया जाए और उसे जेल भेजा जाए। वायदा कारोबार से कृषि उत्पादों को बाहर करना चाहिए। इन दो कदमों से जमाखोरी और कालाबाजारी रुकेगी और महंगाई पर लगाम लगाई जा सकेगी।
बातचीत: हिमांशु शेखर
कारोबारी नहीं सरकार है इस खेल की सूत्रधार
बनवारी लाल कंछल
राष्ट्रीय अध्यक्ष, उद्योग व्यापार प्रतिनिधि मंडल, पूर्व राज्यसभा सदस्य
महंगाई के लिए मेरी नजर में केवल और केवल केंद्र सरकार ही दोषी है। व्यापारियों का इसमें कोई दोष नही है। मॉनसून को भी दोष देना ठीक नही है। वैसे भी मॉनसून तो चल रहा है और इस बार के सूखे का असर अभी तो देखने में आएगा नहीं।उसके लिए तो छह महीने लगेंगे जब फसल कट कर बाजारों में आएगी। सूखा पहले भी पड़ा पर इस कदर मंहगाई कभी नही बढ़ी है। यहां तो महंगाई मुंह बाये खड़ी है और लोगों का जीना हराम कर रही है। उधर सरकार कह रही है कि सूखे के चलते आने वाले दिनों में चीजों के दाम बढ़ेंगे।अगर आने वाले दिनों में चीजों के दाम बढ़ेंगे तो अभी क्या हो रहा है। आपने देखा कैसे सफाई से आम चुनाव के ठीक पहले डीजल-पेट्रोल के दाम भी गिरा दिए गए और चीजों के दाम भी काबू में थे। रही बात कारोबारी को दोष देने की तो ये तो सबसे आसान है कि उसे दोष दो जो सामान बेचता हो, मुनाफाखोर ठहरा दो उसे। पर सच ये नहीं है।असलियत तो ये है कि व्यापारी कभी महंगाई बढ़ाने की बात सोचता भी नही है। आज कुछ लोग जमाखोरी का आरोप आसानी से व्यापारी पर लगा देते हैं पर वो ये नहीं सोचते कि बड़े रिटेल स्टोर वाले क्या कर रहे हैं।असली जमाखोर तो रिटेल वाले लोग ही हैं जो कि थोक खरीदारी करके दाम बढ़ाते हैं और फिर अपना मुनाफा कमा उसे इन्हीं दिनों में स्कीम का लालच दे कर बेचते हैं। मेरी राय में महंगाई को रोकना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है और वह इससे मुंह नही मोड़ सकती है। सरकार अगर ऐसा करती है तो इसे जनता के साथ धोखा ही कहा जा सकता है।
बातचीत: सिध्दार्थ कलहंस
...और यह है अगला मुद्दा
सप्ताह के ज्वलंत विषय, जो कारोबारी और कारोबार पर गहरा असर डालते हैं। ऐसे ही विषयों पर हर सोमवार को हम प्रकाशित करते हैं व्यापार गोष्ठी नाम का विशेष पृष्ठ। इसमें आपके विचारों को आपके चित्र के साथ प्रकाशित किया जाता है। साथ ही, होती है दो विशेषज्ञों की राय।
इस बार का विषय है - नई प्रत्यक्ष कर संहिता : मुकम्मल या चाहिए और संशोधन? अपनी राय और अपना पासपोर्ट साइज चित्र हमें इस पते पर भेजें:बिजनेस स्टैंडर्ड (हिंदी), नेहरू हाउस, 4 बहादुरशाह ज़फर मार्ग, नई दिल्ली-110002 या फैक्स नंबर- 011-23720201 या फिर ई-मेल करें
goshthi@bsmail.in
आशा है, हमारी इस कोशिश को देशभर के हमारे पाठकों का अतुल्य स्नेह मिलेगा।
मामूली आदमी और महंगाई
बढ़ती महंगाई जिम्मेदार कौन ?
अनुज खरे
लगातार खबरें आ रही हैं कि सरकार बढ़ती महंगाई पर काबू पाने में खुद को लाचार मान रही है। सरकार के बड़े मंत्री प्रणव मुखर्जी, शरद पवार और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहुलूवालिया तक साफ तौर पर कह चुके हैं कि अगले कुछ महीनों तक आम लोगों को महंगाई से जूझना ही होगा। कृषि मंत्री पवार का कहना है कि नई फसल आने तक लोगों को इस महंगाई से बचाने में सरकार बेबस है। इसी तरह वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का भी कहना है कि महंगाई तभी कम होगी जब राज्य अपनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार कर लेंगे, वहीं मोंटेक सिंह का कहना है कि सरकार के पास कोई समाधान नहीं है। बढ़ती महंगाई से बेहाल लोग जैसे तैसे करके अपने बजट में घर चला रहे हैं। तो यहां प्रश्न है कि ऐसी स्थिती में जनता समाधान के लिए किसकी तरफ देखे।- यदि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग इतने महत्वपूर्ण मसले पर साफ तौर पर हाथ खड़े कर देते हैं तो आखिर वे किस हक से जनता की की नुमाइंदगी करने का दावा करते हैं।- यदि मामला केंद्र और राज्य सरकार के बीच में है तो इसे सुलझाने की जिम्मेदारी किसकी है ? जनता क्यों बलि का बकरा बन रही है।- सरकार ने हाल ही में महंगाई नापने का नया तरीका अपनाने का फैसला किया था जिसके बाद महंगाई की दर 13.39 फीसदी पाई गई जो वास्तविकता के काफी करीब है, क्योंकि इसके पहले पुराने तरीके से किए गए सूचकांक ने महंगाई दर 1.51 फीसदी ही दिखाई गई थी। इस प्रक्रिया से कम से कम सरकार को इस बात का अहसास तो हुआ था कि लोग महंगाई से किस कदर त्रस्त हैं। अन्यथा को कुछ ही महीने पहले महंगाई दर में जबर्दस्त गिरावट दर्ज की गई थी, जिसे सरकार अपनी उपलब्धियों के तौर पर दिखा रही थी। जबकि विशेषज्ञ तब भी कह रहे थे कि यह सूचकांक सही स्थिति नहीं दर्शा रहा है। तब भी कीमतों में कमी नहीं आना उनकी बात को सही भी साबित कर रहा था। विचारणीय प्रश्न है कि इस अवधि में ऐसा क्या हुआ कि सरकार को सूचकांक की खामी समझ मे आ गई । इस पर तुर्रा ये कि जब सही महंगाई दर सामने आई तो सरकार ने उसकी जिम्मेदारी लेकर लोगों को निजात दिलाने के बजाए अपने ही हाथ खड़े कर दिए।
अनुज खरे
लगातार खबरें आ रही हैं कि सरकार बढ़ती महंगाई पर काबू पाने में खुद को लाचार मान रही है। सरकार के बड़े मंत्री प्रणव मुखर्जी, शरद पवार और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहुलूवालिया तक साफ तौर पर कह चुके हैं कि अगले कुछ महीनों तक आम लोगों को महंगाई से जूझना ही होगा। कृषि मंत्री पवार का कहना है कि नई फसल आने तक लोगों को इस महंगाई से बचाने में सरकार बेबस है। इसी तरह वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का भी कहना है कि महंगाई तभी कम होगी जब राज्य अपनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार कर लेंगे, वहीं मोंटेक सिंह का कहना है कि सरकार के पास कोई समाधान नहीं है। बढ़ती महंगाई से बेहाल लोग जैसे तैसे करके अपने बजट में घर चला रहे हैं। तो यहां प्रश्न है कि ऐसी स्थिती में जनता समाधान के लिए किसकी तरफ देखे।- यदि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग इतने महत्वपूर्ण मसले पर साफ तौर पर हाथ खड़े कर देते हैं तो आखिर वे किस हक से जनता की की नुमाइंदगी करने का दावा करते हैं।- यदि मामला केंद्र और राज्य सरकार के बीच में है तो इसे सुलझाने की जिम्मेदारी किसकी है ? जनता क्यों बलि का बकरा बन रही है।- सरकार ने हाल ही में महंगाई नापने का नया तरीका अपनाने का फैसला किया था जिसके बाद महंगाई की दर 13.39 फीसदी पाई गई जो वास्तविकता के काफी करीब है, क्योंकि इसके पहले पुराने तरीके से किए गए सूचकांक ने महंगाई दर 1.51 फीसदी ही दिखाई गई थी। इस प्रक्रिया से कम से कम सरकार को इस बात का अहसास तो हुआ था कि लोग महंगाई से किस कदर त्रस्त हैं। अन्यथा को कुछ ही महीने पहले महंगाई दर में जबर्दस्त गिरावट दर्ज की गई थी, जिसे सरकार अपनी उपलब्धियों के तौर पर दिखा रही थी। जबकि विशेषज्ञ तब भी कह रहे थे कि यह सूचकांक सही स्थिति नहीं दर्शा रहा है। तब भी कीमतों में कमी नहीं आना उनकी बात को सही भी साबित कर रहा था। विचारणीय प्रश्न है कि इस अवधि में ऐसा क्या हुआ कि सरकार को सूचकांक की खामी समझ मे आ गई । इस पर तुर्रा ये कि जब सही महंगाई दर सामने आई तो सरकार ने उसकी जिम्मेदारी लेकर लोगों को निजात दिलाने के बजाए अपने ही हाथ खड़े कर दिए।
Sunday, November 15, 2009
सियासत में जुर्म और ताकत का पर्योग
मीम जाद फजली
राजनीति में धनबल जरूरत से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों होता जा रहा है पिछले सप्ताह के राजनीतिक घटनाक्रमों में साफ दिखा कि क्षेत्रीय पार्टियों में ही नहीं, कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों तक में धनबल कितना प्रभावी हो गया है। कर्नाटक में जो कुछ हुआ या जो कुछ चल रहा है, उसमें भी धनबल का बोलबाला साफ नजर आता है। कर्नाटक की येडि्डयुरप्पा सरकार में रेड्डी बंधु मंत्री हैं। वाकई धनबल की बदौलत ही भाजपा संगठन और सरकार में उनका वर्चस्व है। हवाई दुर्घटना में मारे गए आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी से भी रेड्डी बंधुओं के कारोबारी रिश्ते बताए जाते हैं। आरोप लगाया जाता है कि कांग्रेस दक्षिण भारत की पहली भाजपा सरकार को अस्थिर करने की कोशिश में थी। बेल्लारी के इन दोनों खान मालिकों अर्थात रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक की राजनीति में अच्छी खासी पैठ का फायदा उठाकर संकट खडा किया और अपनी कई मांगों को मनवा लिया, जिसमें कुछ मंत्रियों को सरकार से हटाने, कुछ अफसरों को उनके मौजूदा पदों से हटाने, विधानसभा अध्यक्ष शेट्टर को मंत्रिमंडल में शामिल कराने और जिन आदेशों के कारण उन्हें व्यवसाय में नुकसान हो रहा था, उन्हें रद्द कराना शामिल है। अनिच्छुक येडि्डयुरप्पा को उक्त मांगें माननी पडीं। वे तो कैमरे के सामने रो भी पडे। यह सब कर्नाटक में धनबल के राजनीति पर दबदबे के कारण ही हुआ।धन के जोर का दूसरा उदाहरण आंध्र प्रदेश में सामने आया। डॉ. वाई.एस. राजशेखर रेड्डी की अचानक हुई मौत के बाद प्रदेश में राजनीतिक संकट पैदा हो गया, क्योंकि पहली बार सांसद बने नौसिखिया राजनीतिज्ञ और डॉ. रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी मुख्यमंत्री पद के तगडे दावेदार के रू प में उभरे। डॉ. रेड्डी के शव को दफनाए जाने से पहले ही राजनीतिक ड्रामा शुरू हो गया, जब जगन के समर्थकों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की मांग शुरू कर दी। उनमें से कुछ ने तो हेलीकॉप्टर दुर्घटना के बाद मुख्यमंत्री बने के. रोसैया से असहयोग तक शुरू कर दिया। कांग्रेस हाईकमान ने जगन पर लगाम लगाने की कोशिश की, लेकिन जगन समर्थकों ने काग्रेस नेताओं के पुतले फूं कना शुरू कर उसे मुश्किल में डाल दिया था। हाईकमान कुछ हफ्ते बीतने के बाद ही जगन समर्थकों को यह संकेत दे पाया कि रोसैया मुख्यमंत्री बने रहेंगे। खुद सोनिया गांधी ने पिछले सप्ताह जगन से साफ शब्दों में कह दिया कि उन्हें रोसैया को सहयोग देना होगा। हाईकमान को आंख दिखाने का साहस जगन में कैसे आया यह धनबल ही था, जिसकी बदौलत विधायक जगन मोहन का समर्थन कर रहे थे। जगन के पिता डॉ. रेड्डी ने इन विधायकों को कांग्रेस का टिकट दिलाया था और चुनाव लडने के लिए पैसों का बंदोबस्त भी किया था। इसलिए वे कांग्रेस से ज्यादा उनके प्रति व्यक्तिगत वफादारी दिखा रहे थे। कांग्रेस को आंध्र प्रदेश के अनुभव से सबक लेना चाहिए।तीसरा उदाहरण, जब झारखंड बना था, प्रदेश के लोगों को आस बंधी थी कि इलाके का बहुप्रतीक्षित विकास होगा। लेकिन मधु कोडा प्रकरण से साफ है कि कोडा जैसे राजनेताओं ने खनिजों से समृद्ध इस प्रदेश को जमकर लूटा। कोडा फरवरी 2005 से सितम्बर 2006 तक प्रदेश के खनिज और सहकारिता मंत्री रहे थे। उन्होंने वर्ष 2006 में झारखंड का मुख्यमंत्री बनकर किसी निर्दलीय के पहली बार इस पद पर पहुंचने का रिकार्ड बनाया था। उन्हें कांग्रेस और राजद का समर्थन प्राप्त था। वे 23 अगस्त 2008 तक मुख्यमंत्री रहे।देश यह जानकर हतप्रभ रह गया कि मधु कोडा ने अपने संक्षिप्त राजनीतिक जीवन में दो हजार करोड रूपए से ज्यादा की सम्पत्ति बना ली। आरोप है कि मधु कोडा और उनके साथियों ने थाईलैंड, इंडोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और सिंगापुर समेत कई देशों में खनन, इस्पात और ऊर्जा उद्योगों में निवेश किया है।ऎसा नहीं है कि राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को राजनीति में धनबल के बढते उपयोग का पता नहीं हो। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, तब मुंबई में 1985 में हुए कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन में उन्होंने सत्ता के दलालों का उल्लेख कर खूब तालियां बटोरी थीं। लेकिन वे सत्ता के दलालों से पीछा नहीं छुडा पाए। अब उनके बेटे और कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी धनबल के बारे में बोल रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे राजनीति में धनबल का दबदबा खत्म कर पाएंगेसभी राजनीतिक पार्टियां इस पर चिंता जताती हैं, लेकिन धनबलियों या बाहुबलियों को टिकट देने में भी नहीं हिचकिचाती हैं। उदाहरण के लिए, बिल्डरों की लॉबी ने हाल ही में हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में अच्छी-खासी सीटें प्राप्त की हैं। प्रदेश की लगभग आधी सीटों पर ऎसे प्रत्याशी जीते हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं।एक समय था, जब राजनीतिज्ञ गुंडों के बाहुबल का उपयोग चुनाव जीतने के लिए करते थे। उसके बाद बाहुबली खुद राजनीति में आ गए और चुनाव जीतने लगे। इसके बाद नेता बडे उद्योगपतियों से चुनावों के लिए मोटी रकम चंदे में लेने लगे। कुछ अर्से बाद उद्योगपतियों ने सोचा कि वह दूसरों को पैसा देकर उन्हें चुनाव जीतने में मदद देने के बजाय खुद ही क्यों न लडकर चुनाव जीतें राजनीतिक पार्टियों को धनबल और बाहुबल से राजनीति को पैदा हुए खतरे को समझना चाहिए। यदि इन पर अंकुश नहीं लगा, तो बाद में उन्हें पछताना होगा। सुधार की शुरूआत टिकट बांटते समय ही होनी चाहिए। अमीर लोग राजनीति में आएं और सांसद या विधायक बनें, इस पर तो किसी को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं और आंध्रप्रदेश में जगन मोहन रेड्डी का जो रवैया रहा है, उसे तो कोई उचित नहीं ठहरा सकता।
राजनीति में धनबल जरूरत से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों होता जा रहा है पिछले सप्ताह के राजनीतिक घटनाक्रमों में साफ दिखा कि क्षेत्रीय पार्टियों में ही नहीं, कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों तक में धनबल कितना प्रभावी हो गया है। कर्नाटक में जो कुछ हुआ या जो कुछ चल रहा है, उसमें भी धनबल का बोलबाला साफ नजर आता है। कर्नाटक की येडि्डयुरप्पा सरकार में रेड्डी बंधु मंत्री हैं। वाकई धनबल की बदौलत ही भाजपा संगठन और सरकार में उनका वर्चस्व है। हवाई दुर्घटना में मारे गए आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी से भी रेड्डी बंधुओं के कारोबारी रिश्ते बताए जाते हैं। आरोप लगाया जाता है कि कांग्रेस दक्षिण भारत की पहली भाजपा सरकार को अस्थिर करने की कोशिश में थी। बेल्लारी के इन दोनों खान मालिकों अर्थात रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक की राजनीति में अच्छी खासी पैठ का फायदा उठाकर संकट खडा किया और अपनी कई मांगों को मनवा लिया, जिसमें कुछ मंत्रियों को सरकार से हटाने, कुछ अफसरों को उनके मौजूदा पदों से हटाने, विधानसभा अध्यक्ष शेट्टर को मंत्रिमंडल में शामिल कराने और जिन आदेशों के कारण उन्हें व्यवसाय में नुकसान हो रहा था, उन्हें रद्द कराना शामिल है। अनिच्छुक येडि्डयुरप्पा को उक्त मांगें माननी पडीं। वे तो कैमरे के सामने रो भी पडे। यह सब कर्नाटक में धनबल के राजनीति पर दबदबे के कारण ही हुआ।धन के जोर का दूसरा उदाहरण आंध्र प्रदेश में सामने आया। डॉ. वाई.एस. राजशेखर रेड्डी की अचानक हुई मौत के बाद प्रदेश में राजनीतिक संकट पैदा हो गया, क्योंकि पहली बार सांसद बने नौसिखिया राजनीतिज्ञ और डॉ. रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी मुख्यमंत्री पद के तगडे दावेदार के रू प में उभरे। डॉ. रेड्डी के शव को दफनाए जाने से पहले ही राजनीतिक ड्रामा शुरू हो गया, जब जगन के समर्थकों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की मांग शुरू कर दी। उनमें से कुछ ने तो हेलीकॉप्टर दुर्घटना के बाद मुख्यमंत्री बने के. रोसैया से असहयोग तक शुरू कर दिया। कांग्रेस हाईकमान ने जगन पर लगाम लगाने की कोशिश की, लेकिन जगन समर्थकों ने काग्रेस नेताओं के पुतले फूं कना शुरू कर उसे मुश्किल में डाल दिया था। हाईकमान कुछ हफ्ते बीतने के बाद ही जगन समर्थकों को यह संकेत दे पाया कि रोसैया मुख्यमंत्री बने रहेंगे। खुद सोनिया गांधी ने पिछले सप्ताह जगन से साफ शब्दों में कह दिया कि उन्हें रोसैया को सहयोग देना होगा। हाईकमान को आंख दिखाने का साहस जगन में कैसे आया यह धनबल ही था, जिसकी बदौलत विधायक जगन मोहन का समर्थन कर रहे थे। जगन के पिता डॉ. रेड्डी ने इन विधायकों को कांग्रेस का टिकट दिलाया था और चुनाव लडने के लिए पैसों का बंदोबस्त भी किया था। इसलिए वे कांग्रेस से ज्यादा उनके प्रति व्यक्तिगत वफादारी दिखा रहे थे। कांग्रेस को आंध्र प्रदेश के अनुभव से सबक लेना चाहिए।तीसरा उदाहरण, जब झारखंड बना था, प्रदेश के लोगों को आस बंधी थी कि इलाके का बहुप्रतीक्षित विकास होगा। लेकिन मधु कोडा प्रकरण से साफ है कि कोडा जैसे राजनेताओं ने खनिजों से समृद्ध इस प्रदेश को जमकर लूटा। कोडा फरवरी 2005 से सितम्बर 2006 तक प्रदेश के खनिज और सहकारिता मंत्री रहे थे। उन्होंने वर्ष 2006 में झारखंड का मुख्यमंत्री बनकर किसी निर्दलीय के पहली बार इस पद पर पहुंचने का रिकार्ड बनाया था। उन्हें कांग्रेस और राजद का समर्थन प्राप्त था। वे 23 अगस्त 2008 तक मुख्यमंत्री रहे।देश यह जानकर हतप्रभ रह गया कि मधु कोडा ने अपने संक्षिप्त राजनीतिक जीवन में दो हजार करोड रूपए से ज्यादा की सम्पत्ति बना ली। आरोप है कि मधु कोडा और उनके साथियों ने थाईलैंड, इंडोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात और सिंगापुर समेत कई देशों में खनन, इस्पात और ऊर्जा उद्योगों में निवेश किया है।ऎसा नहीं है कि राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को राजनीति में धनबल के बढते उपयोग का पता नहीं हो। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे, तब मुंबई में 1985 में हुए कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन में उन्होंने सत्ता के दलालों का उल्लेख कर खूब तालियां बटोरी थीं। लेकिन वे सत्ता के दलालों से पीछा नहीं छुडा पाए। अब उनके बेटे और कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी धनबल के बारे में बोल रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे राजनीति में धनबल का दबदबा खत्म कर पाएंगेसभी राजनीतिक पार्टियां इस पर चिंता जताती हैं, लेकिन धनबलियों या बाहुबलियों को टिकट देने में भी नहीं हिचकिचाती हैं। उदाहरण के लिए, बिल्डरों की लॉबी ने हाल ही में हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में अच्छी-खासी सीटें प्राप्त की हैं। प्रदेश की लगभग आधी सीटों पर ऎसे प्रत्याशी जीते हैं, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं।एक समय था, जब राजनीतिज्ञ गुंडों के बाहुबल का उपयोग चुनाव जीतने के लिए करते थे। उसके बाद बाहुबली खुद राजनीति में आ गए और चुनाव जीतने लगे। इसके बाद नेता बडे उद्योगपतियों से चुनावों के लिए मोटी रकम चंदे में लेने लगे। कुछ अर्से बाद उद्योगपतियों ने सोचा कि वह दूसरों को पैसा देकर उन्हें चुनाव जीतने में मदद देने के बजाय खुद ही क्यों न लडकर चुनाव जीतें राजनीतिक पार्टियों को धनबल और बाहुबल से राजनीति को पैदा हुए खतरे को समझना चाहिए। यदि इन पर अंकुश नहीं लगा, तो बाद में उन्हें पछताना होगा। सुधार की शुरूआत टिकट बांटते समय ही होनी चाहिए। अमीर लोग राजनीति में आएं और सांसद या विधायक बनें, इस पर तो किसी को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं और आंध्रप्रदेश में जगन मोहन रेड्डी का जो रवैया रहा है, उसे तो कोई उचित नहीं ठहरा सकता।
Saturday, November 14, 2009
3 रुपये का कमाल, 'मिरोध' बेमिसाल
14 Nov 2009, 1330 hrs IST,नवभारतटाइम्स.कॉम विजय दीक्षित ।। लखनऊ
सिर्फ 3 रुपये में नसबंदी। सुनकर कुछ अटपटा लगता है ना। मगर यह सौ फीसदी सच
है। कॉन्डम और कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स का जमाना अब पुराना हो चुका है। अब गर्भ निरोधक 'निरोध' को बाय-बाय कीजिए और मिरोध (बर्थ कंट्रोल इंजेक्शन) से हाय-हैलो कीजिए। कॉन्डम का इस्तेमाल तो इंसान को कई बार करना पड़ता है, पर मिरोध का केवल एक बार प्रयोग करने से पुरुष जिंदगीभर निरोध पर आने वाले खर्च की बचत कर सकता है। इस इंजेक्शन का प्रयोग एक बार करने वाला व्यक्ति अपने पूरे जीवन में पिता नहीं बन सकता। 3 रुपये खर्च करके इंजेक्शन लगाने में केवल तीन सेकंड लगते हैं, जिसके तुरंत बाद पुरुष काम पर जा सकता है। लखनऊ स्थित किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज ने भारत समेत दुनिया भर की पॉप्युलेशन प्रॉब्लम पर इमरजंसी ब्रेक लगाने की फूलप्रूफ व्यवस्था करने का दावा किया है। मिरोध नामक गर्भ निरोधक इंजेक्शन को डिवेलप करने वाले रिसर्च टीम के लीडर डॉ. एन. एस. डसीला ने बताया कि रिसर्च के अपेक्षित परिणाम आने के बाद सरकार को सूचना भेज दी गई है। हेल्थ डिपार्टमेंट के प्रिंसिपल सेक्रेटरी प्रदीप शुक्ला ने इस तकनीक को पेटेंट कराने के लिए वित्त विभाग से 10 लाख रुपये की राशि मांगी है, जो मंजूर हो गई है। यूपी सरकार को इस इंजेक्शन का इंटरनैशनल लेवल पर पेटेंट कराने के लिए अपने स्तर पर कार्रवाई करनी होगी। डसीला ने दावा किया कि इस नए अनुसंधान की सफलता से गर्भ निरोधक कंपनियों में खलबली मच जाएगी। कॉन्डम, माला डी और इस तरह के अन्य उत्पादों का सालाना कारोबार पूरी दुनिया में खरबों डॉलर का है। और तो और, डसीला ने पूरे आत्मविश्वास से कहा कि कि नए प्रयोग से पुरुषों और महिलाओं के प्लेजर में कमी नहीं आएगी देखी गई, बल्कि बढ़ोतरी ही होगी। इससे बर्थ कंट्रोल का टारगेट आसानी से पूरा किया जा सकता है। विश्व स्तर पर इसका प्रयोग होने में डेढ़-दो साल लग सकते हैं।
रिसर्च टीम के लीडर का दावा था कि इस चमत्कारिक खोज के साइड इफेक्ट अब तक सामने नहीं आए हैं और न ही आने की कोई संभावना है। उन्होंने बताया कि बर्थ कंट्रोल के इस नए फॉर्म्युले को पेटेंट कराने की कार्रवाई अंतिम चरण में है। इंजेक्शन में हाफ एमएल के केमिकल्स की कीमत 50 पैसे तक होगी। इंजेक्शन टेस्टिकल के पास नस में केवल तीन सेकंड में इंजेक्ट होगा। इसको लगाते ही पुरुषों में स्पर्म बनना बंद हो जाते हैं। इससे पुरुष जीवन भर नई संतान को जन्म नहीं दे पाएगा।
सिर्फ 3 रुपये में नसबंदी। सुनकर कुछ अटपटा लगता है ना। मगर यह सौ फीसदी सच
है। कॉन्डम और कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स का जमाना अब पुराना हो चुका है। अब गर्भ निरोधक 'निरोध' को बाय-बाय कीजिए और मिरोध (बर्थ कंट्रोल इंजेक्शन) से हाय-हैलो कीजिए। कॉन्डम का इस्तेमाल तो इंसान को कई बार करना पड़ता है, पर मिरोध का केवल एक बार प्रयोग करने से पुरुष जिंदगीभर निरोध पर आने वाले खर्च की बचत कर सकता है। इस इंजेक्शन का प्रयोग एक बार करने वाला व्यक्ति अपने पूरे जीवन में पिता नहीं बन सकता। 3 रुपये खर्च करके इंजेक्शन लगाने में केवल तीन सेकंड लगते हैं, जिसके तुरंत बाद पुरुष काम पर जा सकता है। लखनऊ स्थित किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज ने भारत समेत दुनिया भर की पॉप्युलेशन प्रॉब्लम पर इमरजंसी ब्रेक लगाने की फूलप्रूफ व्यवस्था करने का दावा किया है। मिरोध नामक गर्भ निरोधक इंजेक्शन को डिवेलप करने वाले रिसर्च टीम के लीडर डॉ. एन. एस. डसीला ने बताया कि रिसर्च के अपेक्षित परिणाम आने के बाद सरकार को सूचना भेज दी गई है। हेल्थ डिपार्टमेंट के प्रिंसिपल सेक्रेटरी प्रदीप शुक्ला ने इस तकनीक को पेटेंट कराने के लिए वित्त विभाग से 10 लाख रुपये की राशि मांगी है, जो मंजूर हो गई है। यूपी सरकार को इस इंजेक्शन का इंटरनैशनल लेवल पर पेटेंट कराने के लिए अपने स्तर पर कार्रवाई करनी होगी। डसीला ने दावा किया कि इस नए अनुसंधान की सफलता से गर्भ निरोधक कंपनियों में खलबली मच जाएगी। कॉन्डम, माला डी और इस तरह के अन्य उत्पादों का सालाना कारोबार पूरी दुनिया में खरबों डॉलर का है। और तो और, डसीला ने पूरे आत्मविश्वास से कहा कि कि नए प्रयोग से पुरुषों और महिलाओं के प्लेजर में कमी नहीं आएगी देखी गई, बल्कि बढ़ोतरी ही होगी। इससे बर्थ कंट्रोल का टारगेट आसानी से पूरा किया जा सकता है। विश्व स्तर पर इसका प्रयोग होने में डेढ़-दो साल लग सकते हैं।
रिसर्च टीम के लीडर का दावा था कि इस चमत्कारिक खोज के साइड इफेक्ट अब तक सामने नहीं आए हैं और न ही आने की कोई संभावना है। उन्होंने बताया कि बर्थ कंट्रोल के इस नए फॉर्म्युले को पेटेंट कराने की कार्रवाई अंतिम चरण में है। इंजेक्शन में हाफ एमएल के केमिकल्स की कीमत 50 पैसे तक होगी। इंजेक्शन टेस्टिकल के पास नस में केवल तीन सेकंड में इंजेक्ट होगा। इसको लगाते ही पुरुषों में स्पर्म बनना बंद हो जाते हैं। इससे पुरुष जीवन भर नई संतान को जन्म नहीं दे पाएगा।
Tuesday, November 10, 2009
धांगड़ टोला मतलब अभाव+कुपोषण+बीमारी
Nov 10, 11:36 am
मधुबनी [श्यामानंद मिश्र]। पिछड़ेपन का सटीक नमूना है पंडौल प्रखंड की बेलाही पंचायत का यह कमलाबाड़ी धांगड़ टोला। यहां है अभाव, कुपोषण और बीमारियों का बोलबाला। इस गरीब बस्ती में पिछले दो वर्षो के भीतर दर्जनों लोग बीमारियों की चपेट में असामयिक काल-कवलित हो चुके हैं तो कई दर्जन काल के गाल में समाने का दिन गिन रहे हैं। यहां के लगभग सभी बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। सरकार के हर दावे को इस टोले की आर्थिक विपन्नता खोखला साबित कर रही है। तकरीबन साल भर पहले दैनिक जागरण में बस्ती की दयनीय दशा उजागर करती विस्तृत रपट प्रकाशित हुई थी, जिसके बाद कुछ दिनों के लिए प्रशासनिक महकमे में सुधार की सुगबुगाहट तो हुई, मगर फिर सब कुछ जैसे का तैसा हो गया। करीबन 100 वर्ष पूर्व दरभंगा महाराज के आग्रह पर धांगड़ जाति के लोग दक्षिण बिहार से यहां आकर बसे थे। आदिवासी मूल के इन लोगों का तब मूल काम शिकारमाही था। दरभंगा राज के समय में तो इन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई, लेकिन बाद के दशकों में इनके ऊपर एक के बाद एक संकट मंडराने लगा। अभी हाल यह है कि तकरीबन 150 घरों की बस्ती में किसी के पास टूटी-फूटी झोपड़ी के सिवाय कुछ नहीं है। गांव के लोग बताते हैं कि एक दशक पूर्व इंदिरा आवास योजना के तहत इन्हें घर मुहैया कराए गए थे, जो अब जर्जर हो चुके हैं। गांव में एक सरकारी दालान तो जरूर है, लेकिन हजारों की आबादी के बावजूद यहां एक भी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। आर्थिक विपन्नता के कारण बस्ती के 80 प्रतिशत स्त्री-पुरुष व बच्चे विभिन्न रोगों से ग्रसित हैं। धांगड़ मांझी टोला में प्रवेश करते ही कुछ अलग सत्य के ही दर्शन होते हैं। बस्ती के लोग स्थानीय मुखिया व जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ आला अधिकारियों से नाराज दिखते हैं। पिछले दो वर्ष के भीतर विभिन्न बीमारियों से मरने वालों में मंगली देवी, अमृत देवी, भोली मांझी, रामकिशुन मांझी, मंगला मांझी, खुशबू, मरछिया देवी आदि नाम शामिल हैं। फिलहाल तीन बच्चों की मां व गर्भवती बासो देवी बीमार है और मौत के दिन गिन रही है। योगेन्द्र माझी और उनके जैसे दर्जनों अन्य के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। बुधन मांझी व उनकी पत्नी मंजू के मर जाने के बाद उनका अनाथ बच्चा भगवान भरोसे है। रधिया, आरती, कालो, मरनी, भुनेश्वर, वीणा, शांति विभिन्न बीमारियों से जूझ रहे हैं। सरकारी योजनाओं से उनका विश्वास उठ चुका है।
मधुबनी [श्यामानंद मिश्र]। पिछड़ेपन का सटीक नमूना है पंडौल प्रखंड की बेलाही पंचायत का यह कमलाबाड़ी धांगड़ टोला। यहां है अभाव, कुपोषण और बीमारियों का बोलबाला। इस गरीब बस्ती में पिछले दो वर्षो के भीतर दर्जनों लोग बीमारियों की चपेट में असामयिक काल-कवलित हो चुके हैं तो कई दर्जन काल के गाल में समाने का दिन गिन रहे हैं। यहां के लगभग सभी बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। सरकार के हर दावे को इस टोले की आर्थिक विपन्नता खोखला साबित कर रही है। तकरीबन साल भर पहले दैनिक जागरण में बस्ती की दयनीय दशा उजागर करती विस्तृत रपट प्रकाशित हुई थी, जिसके बाद कुछ दिनों के लिए प्रशासनिक महकमे में सुधार की सुगबुगाहट तो हुई, मगर फिर सब कुछ जैसे का तैसा हो गया। करीबन 100 वर्ष पूर्व दरभंगा महाराज के आग्रह पर धांगड़ जाति के लोग दक्षिण बिहार से यहां आकर बसे थे। आदिवासी मूल के इन लोगों का तब मूल काम शिकारमाही था। दरभंगा राज के समय में तो इन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई, लेकिन बाद के दशकों में इनके ऊपर एक के बाद एक संकट मंडराने लगा। अभी हाल यह है कि तकरीबन 150 घरों की बस्ती में किसी के पास टूटी-फूटी झोपड़ी के सिवाय कुछ नहीं है। गांव के लोग बताते हैं कि एक दशक पूर्व इंदिरा आवास योजना के तहत इन्हें घर मुहैया कराए गए थे, जो अब जर्जर हो चुके हैं। गांव में एक सरकारी दालान तो जरूर है, लेकिन हजारों की आबादी के बावजूद यहां एक भी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। आर्थिक विपन्नता के कारण बस्ती के 80 प्रतिशत स्त्री-पुरुष व बच्चे विभिन्न रोगों से ग्रसित हैं। धांगड़ मांझी टोला में प्रवेश करते ही कुछ अलग सत्य के ही दर्शन होते हैं। बस्ती के लोग स्थानीय मुखिया व जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ आला अधिकारियों से नाराज दिखते हैं। पिछले दो वर्ष के भीतर विभिन्न बीमारियों से मरने वालों में मंगली देवी, अमृत देवी, भोली मांझी, रामकिशुन मांझी, मंगला मांझी, खुशबू, मरछिया देवी आदि नाम शामिल हैं। फिलहाल तीन बच्चों की मां व गर्भवती बासो देवी बीमार है और मौत के दिन गिन रही है। योगेन्द्र माझी और उनके जैसे दर्जनों अन्य के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। बुधन मांझी व उनकी पत्नी मंजू के मर जाने के बाद उनका अनाथ बच्चा भगवान भरोसे है। रधिया, आरती, कालो, मरनी, भुनेश्वर, वीणा, शांति विभिन्न बीमारियों से जूझ रहे हैं। सरकारी योजनाओं से उनका विश्वास उठ चुका है।
Monday, November 9, 2009
Saturday, November 7, 2009
Wednesday, November 4, 2009
बेबस दिल्ली में महंगा सफर
4 Nov 2009, 0024 hrs IST,नवभारत टाइम्स नई दिल्ली।। भारी विरोध के बावजूद दिल्ली सरकार ने डीटीसी, ब्लूलाइन और मेट्रो की फीडर बसों में बढ़े हुए किराए बुधवार से लागू करने का ऐलान कर दिया है। दिल्ली सरकार के ट्रांसपोर्ट विभाग ने मंगलवार को नोटिफिकेशन जारी कर दिया। इस नोटिफिकेशन के बाद बुधवार सुबह से नए किराए लागू हो जाएंगे और अब पैसिंजरों को उसी के अनुरूप किराया देना होगा। बढ़ा हुआ किराया डेली पास, मासिक पास के अलावा स्कूलों को दी जाने वाली डीटीसी बसों पर भी लागू होगा यानी जिन स्कूलों में डीटीसी की बसें हैं, वहां के स्टूडेंट्स को भी अब ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे। स्कूल-कॉलिज के छात्रों को भी अब पास के लिए ज्यादा पैसे देने होंगे। नए किराए लागू होने से कई जगह पब्लिक ट्रांसपोर्ट, प्राइवेट वाहनों के मुकाबले ज्यादा महंगा हो जाएगा यानी बस की बजाय अपने दुपहिया वाहन में सफर करना सस्ता होगा। दिल्ली के ट्रांसपोर्ट कमिश्नर आर. के. वर्मा ने मंगलवार को यह नोटिफिकेशन जारी करते हुए इसे लागू करने की घोषणा की। इस नोटिफिकेशन के मुताबिक अब पैसिंजर डीटीसी या ब्लूलाइन बस में 3 किमी के सफर के लिए 5 रुपये देने होंगे। अब तक पैसिंजर 3 रुपये में 4 किमी का सफर तय करते थे। सबसे ज्यादा मार ऐसे पैसिंजरों पर ही पड़ी है। इनके लिए दिल्ली सरकार ने एक ही झटके में किराए में 300 फीसदी से भी ज्यादा की बढ़ोतरी की है। यानी अब पैसिंजर को 4 किमी का सफर करने के लिए 3 रुपये की बजाय 10 रुपये खर्च करने होंगे। नोटिफिकेशन के मुताबिक 3 से 10 किमी का सफर करने वालों को 10 रुपये और उससे ज्यादा का सफर करने वालों को 15 रुपये खर्च करने होंगे। इसी तरह एयरकंडीशन बसों का भाड़ा तो नहीं बढ़ाया गया लेकिन उनके किमी कम कर दिए गए हैं यानी अब तक 8 किमी के लिए 10 रुपये देने होते थे लेकिन अब डीटीसी की एसी बसों में 10 रुपये में 4 किमी का सफर होगा। इसी तरह 4 से 8 किमी के लिए 15 रुपये, 8 से 12 किमी के लिए 20 और उससे ज्यादा के लिए 25 रुपये देने होंगे। यही नहीं, नाइट सर्विस और लिमिटेड बस सर्विस के लिए भी 25 रुपये किराया देना होगा। ऐसी बसों में अब तक 10 रुपये का टिकट था। इस तरह से इन बसों के पैसिंजरों पर भी एक ही झटके में 150 फीसदी किराया बढ़ा दिया गया है। मेट्रो की फीडर बसों में सफर करने वालों को भी दिल्ली सरकार ने नहीं बख्शा। अब 8 किमी तक का सफर करने वाले पैसिंजरों को 5 रुपये की बजाय 7 रुपये देने होंगे और 8 किमी से ज्यादा के सफर के लिए 8 रुपये की बजाय 10 रुपये किराया देना होगा। अब डीटीसी बसों के मासिक पास की राशि 450 रुपये से बढ़ाकर 800 रुपये हो जाएगी। इसी तरह डेली पास भी 25 रुपये से बढ़ाकर 40 रुपये हो गया है। सरकार ने बेटिकट सफर करने वालों के लिए जुर्माना भी 100 रुपये से बढ़ाकर 200 रुपये कर दिया गया है। बस भाड़े की मार उन पैसिंजरों पर ज्यादा पड़ेगी, जिनके गंतव्य स्थानों के लिए सीधी बस सेवा नहीं है यानी उन्हें 4-6 किमी पर बस बदलनी पड़ती है। ऐसे पैसिंजरों को हर बार 10 रुपये का टिकट लेना होगा। दिलचस्प यह है कि सरकार ने यह किराया तब बढ़ाया है, जबकि सरकार खुद अपील कर रही है कि सड़कों पर भीड़भाड़ कम करने के लिए लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करें लेकिन नए किराए इस तरह से बनाए गए हैं कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट महंगा हो गया है और प्राइवेट वाहन चलाना सस्ता। लेकिन इसके बावजूद सरकार ने नए किराए लागू करके पैसिंजरों की जेब पर एक और भार डाल दिया है।
Saturday, October 31, 2009
स्मृति विशेषः एक जादुई व्यक्तित्व
राजकिशोर Saturday, October 31, 2009 02:28 [IST]
स्मृति विशेषः श्रीमती इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व में जादू था, इसमें कोई शक नहीं है। राजनीति विज्ञान में करिश्माई नेतृत्व का अध्ययन किया जाता है। लेकिन अभी तक यह तय नहीं किया जा सका है कि कोई करिश्माई नेता बनता कैसे है।इंदिरा गांधी का आकषर्ण किस बात में निहित था? जाहिर है, किसी एक विशेषता से कोई करिश्मा खड़ा नहीं होता। इंदिराजी में एक आभिजात्य था। यह आभिजात्य उनके पिता जवाहरलाल नेहरू में भी था, लेकिन उनके व्यक्तित्व के अधिकांश पहलू जनसाधारण के बीच इतने खुले हुए थे कि वहां रहस्य नाम की कोई चीज नहीं रह गई थी। इसके विपरीत, इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व काफी हद तक रहस्यपूर्ण था। लेकिन वे एकांतवासिनी नहीं थीं। इतने बड़े देश की राजनीति संभाल रही थीं। कांग्रेस जैसा विशाल संगठन चला रही थीं। इतने विस्तृत सार्वजनिक जीवन के बावजूद उनके भीतर कुछ था जो सबसे अलग और सबसे अछूता था। यह शायद कुछ ऐसी ही चीज थी, जिसे हम भारत का रहस्य कह सकते है, जो स्वयं भारतवासियों के लिए भी अबूझ बना रहता है। राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण होता है, जनता का विश्वास जीतना। जो जनता के दिल पर आसन जमा लेता है, वह उसके सातों खून माफ कर देती है। इंदिरा गांधी को भारत की जनता ने जितना चाहा, उतना किसी और नेता को नहीं। न उनके पहले, न उनके बाद। गांधीजी की बात अलग थी। वे महात्मा थे। नेहरू किसी दार्शनिक की तरह लगते थे। भगत सिंह और सुभाष वीर थे। पर इंदिरा गांधी शासक थीं। इंदिरा गांधी के प्रति इस आकषर्ण के पीछे कहीं यह विश्वास निहित था कि देश के गरीब लोगों के साथ उनका गहरा सरोकार है। इंदिरा गांधी के शासन में गरीबों को राहत पहुंचाने वाली दर्जनों योजनाएं गांव-गांव में पहुंचीं। इससे देश में एक नया वातावरण बना। हताश जनता में आशा का संचार हुआ। यह आशावाद इंदिरा गांधी की सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी थी। बांग्लादेश युद्घ इंदिरा गांधी का सबसे साहसिक निर्णय था। भारत ने बहुत दिनों से अपना पराक्रम दिखाया नहीं था। इसलिए यह भारतीय मानस के लिए एक अप्रत्याशित उत्सव की तरह था। उसके बाद ही इंदिरा गांधी सही अर्थो में जन-मन की प्रिय बनीं और आज तक बनी हुई हैं। इंदिरा गांधी के चमत्कारी व्यक्तित्व को जिस चीज ने सदा के लिए हरा-भरा बना दिया, वह था अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में भारत के स्वाभिमान का डंका। यह एक नई बात थी। अमेरिकी नीतियों के प्रति इंदिरा गांधी में जो वितृष्णा थी, वह गहरी और वास्तविक थी। उस वितृष्णा को भारत के अंतर्मन में आज भी देखा जा सकता है लेकिन ये सब इंदिरा गांधी के संश्लिष्ट व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू भर हैं। क्या उनका स्त्री होना भी उनके जादू का एक कोण था? बेशक दक्षिण एशिया में अनेक स्त्री शासक हुई हैं। पर इंदिरा गांधी इन सबमें विशिष्ट थीं। यही वजह है कि उन्हें आज भी स्त्री सशक्तीकरण का एक मानक माना जाता है
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)यह 1982-83 की बात है। मैंने अपनी एक किताब उनको भेंट करने के लिए समय मांगा। फिर मुझे फोन आया कि आप अकेले न आएं। मैडम और बच्चों को भी लेकर आएं। मैं, मेरी पत्नी और तीन बच्चे जब इंदिराजी के घर पहुंचे तो उस समय वहां इंडोनेशिया से कोई डेलीगेशन आया हुआ था। बीच में जो वेटिंगरूम था, उसमें एम एल फोतेदार और आर के धवन बैठे थे। उन्हांेने इंदिराजी के कान में कुछ कहा। इंदिराजी जोर से बोलीं, ‘वह जो कमरा बहुत दिनों से नहीं खुला है, उसको खुलवाओ।’ जल्दी-जल्दी वह कमरा खोला गया। सफाई की गई। फूल-वूल लगाए गए। तब तक वो हमारे साथ कॉरीडोर में खड़ी रहीं। उसके बाद वो हमारे साथ करीब आधे घंटे तक बैठी रहीं। जैसे उनको कोई और काम न हो। मैंने उन्हें अपनी किताब भेंट की।
स्मृति विशेषः श्रीमती इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व में जादू था, इसमें कोई शक नहीं है। राजनीति विज्ञान में करिश्माई नेतृत्व का अध्ययन किया जाता है। लेकिन अभी तक यह तय नहीं किया जा सका है कि कोई करिश्माई नेता बनता कैसे है।इंदिरा गांधी का आकषर्ण किस बात में निहित था? जाहिर है, किसी एक विशेषता से कोई करिश्मा खड़ा नहीं होता। इंदिराजी में एक आभिजात्य था। यह आभिजात्य उनके पिता जवाहरलाल नेहरू में भी था, लेकिन उनके व्यक्तित्व के अधिकांश पहलू जनसाधारण के बीच इतने खुले हुए थे कि वहां रहस्य नाम की कोई चीज नहीं रह गई थी। इसके विपरीत, इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व काफी हद तक रहस्यपूर्ण था। लेकिन वे एकांतवासिनी नहीं थीं। इतने बड़े देश की राजनीति संभाल रही थीं। कांग्रेस जैसा विशाल संगठन चला रही थीं। इतने विस्तृत सार्वजनिक जीवन के बावजूद उनके भीतर कुछ था जो सबसे अलग और सबसे अछूता था। यह शायद कुछ ऐसी ही चीज थी, जिसे हम भारत का रहस्य कह सकते है, जो स्वयं भारतवासियों के लिए भी अबूझ बना रहता है। राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण होता है, जनता का विश्वास जीतना। जो जनता के दिल पर आसन जमा लेता है, वह उसके सातों खून माफ कर देती है। इंदिरा गांधी को भारत की जनता ने जितना चाहा, उतना किसी और नेता को नहीं। न उनके पहले, न उनके बाद। गांधीजी की बात अलग थी। वे महात्मा थे। नेहरू किसी दार्शनिक की तरह लगते थे। भगत सिंह और सुभाष वीर थे। पर इंदिरा गांधी शासक थीं। इंदिरा गांधी के प्रति इस आकषर्ण के पीछे कहीं यह विश्वास निहित था कि देश के गरीब लोगों के साथ उनका गहरा सरोकार है। इंदिरा गांधी के शासन में गरीबों को राहत पहुंचाने वाली दर्जनों योजनाएं गांव-गांव में पहुंचीं। इससे देश में एक नया वातावरण बना। हताश जनता में आशा का संचार हुआ। यह आशावाद इंदिरा गांधी की सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी थी। बांग्लादेश युद्घ इंदिरा गांधी का सबसे साहसिक निर्णय था। भारत ने बहुत दिनों से अपना पराक्रम दिखाया नहीं था। इसलिए यह भारतीय मानस के लिए एक अप्रत्याशित उत्सव की तरह था। उसके बाद ही इंदिरा गांधी सही अर्थो में जन-मन की प्रिय बनीं और आज तक बनी हुई हैं। इंदिरा गांधी के चमत्कारी व्यक्तित्व को जिस चीज ने सदा के लिए हरा-भरा बना दिया, वह था अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में भारत के स्वाभिमान का डंका। यह एक नई बात थी। अमेरिकी नीतियों के प्रति इंदिरा गांधी में जो वितृष्णा थी, वह गहरी और वास्तविक थी। उस वितृष्णा को भारत के अंतर्मन में आज भी देखा जा सकता है लेकिन ये सब इंदिरा गांधी के संश्लिष्ट व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू भर हैं। क्या उनका स्त्री होना भी उनके जादू का एक कोण था? बेशक दक्षिण एशिया में अनेक स्त्री शासक हुई हैं। पर इंदिरा गांधी इन सबमें विशिष्ट थीं। यही वजह है कि उन्हें आज भी स्त्री सशक्तीकरण का एक मानक माना जाता है
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)यह 1982-83 की बात है। मैंने अपनी एक किताब उनको भेंट करने के लिए समय मांगा। फिर मुझे फोन आया कि आप अकेले न आएं। मैडम और बच्चों को भी लेकर आएं। मैं, मेरी पत्नी और तीन बच्चे जब इंदिराजी के घर पहुंचे तो उस समय वहां इंडोनेशिया से कोई डेलीगेशन आया हुआ था। बीच में जो वेटिंगरूम था, उसमें एम एल फोतेदार और आर के धवन बैठे थे। उन्हांेने इंदिराजी के कान में कुछ कहा। इंदिराजी जोर से बोलीं, ‘वह जो कमरा बहुत दिनों से नहीं खुला है, उसको खुलवाओ।’ जल्दी-जल्दी वह कमरा खोला गया। सफाई की गई। फूल-वूल लगाए गए। तब तक वो हमारे साथ कॉरीडोर में खड़ी रहीं। उसके बाद वो हमारे साथ करीब आधे घंटे तक बैठी रहीं। जैसे उनको कोई और काम न हो। मैंने उन्हें अपनी किताब भेंट की।
स्मृति विशेषः जरा याद करो कुर्बानी... पहले शर्मीली थीं इंदिराजी
Saturday, October 31
बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में इंदिरा गांधी ने हर मोर्चे पर जिस तरह से साथ दिया, उसे उस पार के लोग कभी भूल नहीं सकते। मुक्ति संग्राम में अमूल्य अवदानः इंदिरा गांधी का सबसे बड़ा योगदान बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में उनकी ऐतिहासिक भूमिका है। 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में इंदिरा गांधी ने हर मोर्चे पर जिस तरह से साथ दिया, उसे उस पार (बांग्लादेश) के लोग कभी भूल नहीं सकते। इंदिरा जी के उस अवदान का असर दोनों देशों के संबंधों पर भी पड़ा और यह सकारात्मक असर रहा। शेख मुजीबुर्रहमान से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना तक ने उस मैत्री संबंधों को निरंतर मजबूती दी है। बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में यथेष्ट सहयोग कर इंदिरा जी ने अपने अपार साहस का परिचय दिया था। इंदिरा जी भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं किंतु साहस में कोई भी प्रधानमंत्री उनकी बराबरी नहीं कर सका। इंदिरा जी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। उन्होंने 20 सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा भी की थी। इससे जाहिर है कि समाज के गरीब और दलित तबके के उत्थान के प्रति उनकी नीयत साफ थी और वे हाशिए पर पड़े समाज का वास्तविक विकास चाहती थीं।
पंजाब में ऑपरेशन ब्लू स्टार और इमरजेंसी के उनके फैसलों से हमारे जैसे अनेक लोगों को भारी निराशा हुई थी। लेकिन इन्हीं कमजोरियों के कारण इंदिराजी का दूसरे क्षेत्रों में अवदान कम नहीं हो जाता। वे उन प्रधानमंत्रियों में से थीं, जो साहित्य-कला-संस्कृति के प्रति अत्यंत आदर भाव रखते थे। शायद इसके पीछे शांतिनिकेतन और स्वयं उनके घर के परिवेश की महती भूमिका रही हो। इंदिरा जी शांतिनिकेतन की छात्रा थीं और इसीलिए वहां के अपने गुरुओं को आजीवन सम्मान दिया। शांतिनिकेतन में इंदिराजी को हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पढ़ाया था और इसीलिए द्विवेदी जी जब भी चाहते प्रधानमंत्री का कार्यालय या आवास उनके लिए सदैव खुला रहता। दूसरे बुद्धिजीवियों के प्रति भी इंदिराजी बहुत संवेदनशील रवैया रखती थीं। यह चीज उन्हें विरासत में मिली थी। पुत्री के नाम पिता के पत्र से साफ है कि जवाहरलाल नेहरू बेटी को किस तरह की शिक्षा देना चाहते थे। विरासत की शिक्षा इंदिराजी को इस रूप में मिली कि भारत के मूलभूत सवालों के प्रति एक नया परिप्रेक्ष्य उनके सामने खुलता जाता।
विरासत में मिली थी गुटनिरपेक्षता
इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ के साथ स्वाभाविक मित्रता को कायम रखते हुए अमेरिका के साथ एक निश्चित सामरिक दूरी बनाए रखी। इंदिरा गांधी ने भारत में अमेरिका का पांव जमने नहीं दिया। जब वह प्रधानमंत्री थीं तो अमेरिका ने बहुत कोशिश की कि वह अंडमान निकोबार के पोर्ट ब्लेयर द्वीप समूह में अपना सैन्य अड्डा स्थापित कर ले। किंतु इंदिराजी को पता था कि अमेरिका अपने सामरिक महत्व की जगह को किस तरह से तहस नहस कर देता है। आज हम देख रहे हैं कि कैसे अमेरिका ने भारत के सैनिकों के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास के जरिए अपना प्रभाव स्थापित करने की शुरुआत कर दी है। इंदिरा गांधी ने सही दोस्तों की पहचान की। सोवियत संघ के साथ स्वाभाविक मित्रता को कायम रखते हुए अमेरिका के साथ एक निश्चित सामरिक दूरी उन्होंने बनाए रखी। वे अमेरिका से भले ही हथियार खरीदती थीं, किंतु अमेरिका के पैर कभी भी भारत में जमने नहीं दिए। तब विश्व तीन ध्रुवों में बंटा था। एक तरफ सोवियत संघ था तो दूसरी तरफ अमेरिका और तीसरा गुट निरपेक्ष देशों का समूह। पंडित जी की गुटनिरपेक्ष नीति इंदिराजी को विरासत में मिली थी, जिसे उन्होंने क्षण भर के लिए छोड़ा नहीं। इंदिराजी ने अपने को गुटनिरपेक्ष देशों के समूह का सबसे ताकतवर नेता बनाया और बाकी दोनों ध्रुवों के साथ इस समूह को संतुलन की शक्ति के रूप में स्थापित किया। लेकिन उस दौरान भी उनका झुकाव स्वाभाविक मित्र सोवियत संघ के प्रति बरकरार रहा। सोवियत संघ ने भी मित्रता के निर्वाह में कोई कसर बाकी नहीं रखी। जबकि अमेरिका की यह नीति रही कि वह भारत को कोई तकनीक देता तो उस पर अपना नियंत्रण भी रखना चाहता था। सोवियत संघ ने कई बड़े कल कारखाने स्थापित करने में भारत की मदद की थी और उसे तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के पूरे अवसर उपलब्ध कराए। उसने तकनीकी रूप से दक्ष विशेषज्ञों को भेजकर भारत के लोगों को समुचित प्रशिक्षण दिया। इसी तरह इतिहासस्वीकृत तथ्य है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर इंदिराजी ने अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया था। इंदिराजी ने राष्ट्रीयकरण के अलावा प्रिवी पर्स आदि से जुड़े जो फैसले किए वे उन पर वाम प्रभाव की देन थे। इससे उनकी विश्वसनीयता और साख बहुत ज्यादा बढ़ गई थी।-(प्रो. नदीम हसनैन)
सुभाष काश्यप Saturday, October 31, 2009 02:32 [IST]
इंदिरा गांधी के स्मृति विशेष पर इसे भी पढ़े...* स्मृति विशेषः एक जादुई व्यक्तित्व
विशेष. यूं तो इंदिराजी से जुड़े कई संस्मरण हैं, लेकिन आखिर से ही शुरू करूं। मैं उन दिनों लोकसभा में महासचिव था। 31 अक्टूबर, 1984 को कलकत्ता में पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन चल रहा था, मैं भी उसमें शामिल था। सुबह के सेशन में जलपान का अंतराल हुआ। तभी खबर आई कि दिल्ली में इंदिराजी के सुरक्षाकर्मियों ने उन पर गोली चलाई है और वो बुरी तरह घायल हो गई हैं। चिंता का ऐसा माहौल बना कि सम्मेलन को स्थगित कर दिया गया। हम कुछ लोग, लोकसभा के तत्कालीन उपाध्यक्ष बलराम जाखड़ जी के साथ तुरंत राजभवन पहुंचे। उमाशंकर दीक्षित जी राज्यपाल (पश्चिम बंगाल) थे। शीला दीक्षित भी वहीं थीं। उस समय राजीव गांधी पश्चिम बंगाल के किसी इंटीरियर क्षेत्र में थे। उन्हें तुरंत सूचना दी गई। इंडियन एयरलाइंस की एक रूटीन फ्लाइट को कैंसिल करके उनके लिए तैयार रखा गया कि जैसे ही राजीव जी कलकत्ता आएं, उनको तुरंत दिल्ली ले जाया जाए। ज्यों ही राजीव जी राजभवन पहुंचे, हम लोग नई दिल्ली के लिए रवाना हो गए। जब जहाज कलकत्ता और नई दिल्ली के बीच में था, तब राजीव गांधी कॉकपिट से बाहर आए। अगली सीट पर एक तरफ प्रणब मुखर्जी बैठे थे और दूसरी तरफ उमाशंकर दीक्षित। उन्होंने प्रणब मुखर्जी से कहा- ‘एवरीथिंग इज ओवर’। यानी उन्हें खबर मिल गई कि इंदिराजी का देहावसान हो गया। इसके बाद पूरे जहाज में दु:ख का वातावरण हो गया। ऐसे समाचार के लिए कोई तैयार नहीं था। नई दिल्ली एयरपोर्ट से हम लोग सीधे एम्स आए। प्राइवेट वार्ड की सातवीं मंजिल पर इंदिराजी का शव रखा था। वहां पर सारे कैबिनेट मंत्री मौजूद थे। सारा वातावरण (बाहर और अंदर भी) राष्ट्रीय आपदा-सा था। सातवीं मंजिल से दो-एक घंटे बाद जब हम नीचे आए तो वहां मैंने देखा कि कुछ लोग एक सिख नागरिक की पगड़ी जला रहे थे। आपे से बाहर हो गए थे वे लोग। वह बहुत दुखद दृश्य था। जहां तक इंदिराजी के साथ मेरे व्यक्तिगत संबंध का सवाल है तो मैंने पहली बार उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय कैंपस में देखा। यह बात 1946-47 की है। वे सिनेट हॉल और लाइब्रेरी बिल्डिंग के बीच में खड़ी थीं। मैं उन दिनों बीए फस्र्ट ईयर में था। छुट्टी का दिन था। मैं कैमरा लिए घूम रहा था। जब पता चला तो मैं दौड़कर इंदिराजी के पास गया और कहा- यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आपका फोटो खींच लूं। उन्होंने आज्ञा दी। मैंने फोटो खींचा। वो फोटो आज भी मेरे पास है। उन दिनों वो बहुत शर्मीली थीं और बहुत सुंदर युवती दिखती थीं।जब मैं 1953 में यूपीएससी से ऑफिसर के रूप में पार्लियामेंट में आया, तब पहली लोकसभा थी और पंडितजी प्रधानमंत्री थे। पंडितजी के निधन के बाद जब इंदिराजी लोकसभा में एक सदस्य के रूप में आईं तो कम बोलती थीं। लालबहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने, तब इंदिराजी को सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। तब भी वो बहुत कम बोलती थीं। वो शांत और सौम्य स्वभाव की थीं। बाद के दिनों में जो उनकी छवि बनी, बिल्कुल उसके विपरीत। मैं जेनेवा में युनाइटेड नेशंस इंटर पार्लियामेंट्री मीटिंग में था। यह 1982-83 की बात है। मुझे सूचना मिली कि लोकसभा में तुम्हारी जरूरत है वापस आ जाओ। यहां आने पर लोकसभा के स्पीकर बलराम जाखड़ ने बताया कि इंदिराजी चाहती हैं कि तुम लोकसभा के महासचिव का पद संभालो।
1 जनवरी,1984 को जब मैंने पद संभाला तो तीन-चार दिन बाद इंदिराजी से मिलने गया। उन्होंने कहा, ‘ये जो पद आपने लिया है, वो बहुत जिम्मेदारी भरा पद है। लोग तुम्हारे पास आएंगे और कहेंगे, ‘प्राइम मिनिस्टर वांट्स इट।’ तुम उनकी इन बातों पर विश्वास मत करना।’ उनको यह मालूम था कि लोग उनके नाम से काम कराते हैं, जो वह नहीं चाहती थीं।(लेखक लोकसभा के पूर्व महासचिव हैं .जब इंदिराजी लोकसभा में एक सदस्य के रूप में आईं तो कम बोलती थीं। लालबहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने, तब इंदिराजी को सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। तब भी वो बहुत कम बोलती थीं। वो शांत और सौम्य स्वभाव की थीं।
बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में इंदिरा गांधी ने हर मोर्चे पर जिस तरह से साथ दिया, उसे उस पार के लोग कभी भूल नहीं सकते। मुक्ति संग्राम में अमूल्य अवदानः इंदिरा गांधी का सबसे बड़ा योगदान बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में उनकी ऐतिहासिक भूमिका है। 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में इंदिरा गांधी ने हर मोर्चे पर जिस तरह से साथ दिया, उसे उस पार (बांग्लादेश) के लोग कभी भूल नहीं सकते। इंदिरा जी के उस अवदान का असर दोनों देशों के संबंधों पर भी पड़ा और यह सकारात्मक असर रहा। शेख मुजीबुर्रहमान से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना तक ने उस मैत्री संबंधों को निरंतर मजबूती दी है। बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में यथेष्ट सहयोग कर इंदिरा जी ने अपने अपार साहस का परिचय दिया था। इंदिरा जी भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं किंतु साहस में कोई भी प्रधानमंत्री उनकी बराबरी नहीं कर सका। इंदिरा जी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। उन्होंने 20 सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा भी की थी। इससे जाहिर है कि समाज के गरीब और दलित तबके के उत्थान के प्रति उनकी नीयत साफ थी और वे हाशिए पर पड़े समाज का वास्तविक विकास चाहती थीं।
पंजाब में ऑपरेशन ब्लू स्टार और इमरजेंसी के उनके फैसलों से हमारे जैसे अनेक लोगों को भारी निराशा हुई थी। लेकिन इन्हीं कमजोरियों के कारण इंदिराजी का दूसरे क्षेत्रों में अवदान कम नहीं हो जाता। वे उन प्रधानमंत्रियों में से थीं, जो साहित्य-कला-संस्कृति के प्रति अत्यंत आदर भाव रखते थे। शायद इसके पीछे शांतिनिकेतन और स्वयं उनके घर के परिवेश की महती भूमिका रही हो। इंदिरा जी शांतिनिकेतन की छात्रा थीं और इसीलिए वहां के अपने गुरुओं को आजीवन सम्मान दिया। शांतिनिकेतन में इंदिराजी को हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पढ़ाया था और इसीलिए द्विवेदी जी जब भी चाहते प्रधानमंत्री का कार्यालय या आवास उनके लिए सदैव खुला रहता। दूसरे बुद्धिजीवियों के प्रति भी इंदिराजी बहुत संवेदनशील रवैया रखती थीं। यह चीज उन्हें विरासत में मिली थी। पुत्री के नाम पिता के पत्र से साफ है कि जवाहरलाल नेहरू बेटी को किस तरह की शिक्षा देना चाहते थे। विरासत की शिक्षा इंदिराजी को इस रूप में मिली कि भारत के मूलभूत सवालों के प्रति एक नया परिप्रेक्ष्य उनके सामने खुलता जाता।
विरासत में मिली थी गुटनिरपेक्षता
इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ के साथ स्वाभाविक मित्रता को कायम रखते हुए अमेरिका के साथ एक निश्चित सामरिक दूरी बनाए रखी। इंदिरा गांधी ने भारत में अमेरिका का पांव जमने नहीं दिया। जब वह प्रधानमंत्री थीं तो अमेरिका ने बहुत कोशिश की कि वह अंडमान निकोबार के पोर्ट ब्लेयर द्वीप समूह में अपना सैन्य अड्डा स्थापित कर ले। किंतु इंदिराजी को पता था कि अमेरिका अपने सामरिक महत्व की जगह को किस तरह से तहस नहस कर देता है। आज हम देख रहे हैं कि कैसे अमेरिका ने भारत के सैनिकों के साथ संयुक्त युद्धाभ्यास के जरिए अपना प्रभाव स्थापित करने की शुरुआत कर दी है। इंदिरा गांधी ने सही दोस्तों की पहचान की। सोवियत संघ के साथ स्वाभाविक मित्रता को कायम रखते हुए अमेरिका के साथ एक निश्चित सामरिक दूरी उन्होंने बनाए रखी। वे अमेरिका से भले ही हथियार खरीदती थीं, किंतु अमेरिका के पैर कभी भी भारत में जमने नहीं दिए। तब विश्व तीन ध्रुवों में बंटा था। एक तरफ सोवियत संघ था तो दूसरी तरफ अमेरिका और तीसरा गुट निरपेक्ष देशों का समूह। पंडित जी की गुटनिरपेक्ष नीति इंदिराजी को विरासत में मिली थी, जिसे उन्होंने क्षण भर के लिए छोड़ा नहीं। इंदिराजी ने अपने को गुटनिरपेक्ष देशों के समूह का सबसे ताकतवर नेता बनाया और बाकी दोनों ध्रुवों के साथ इस समूह को संतुलन की शक्ति के रूप में स्थापित किया। लेकिन उस दौरान भी उनका झुकाव स्वाभाविक मित्र सोवियत संघ के प्रति बरकरार रहा। सोवियत संघ ने भी मित्रता के निर्वाह में कोई कसर बाकी नहीं रखी। जबकि अमेरिका की यह नीति रही कि वह भारत को कोई तकनीक देता तो उस पर अपना नियंत्रण भी रखना चाहता था। सोवियत संघ ने कई बड़े कल कारखाने स्थापित करने में भारत की मदद की थी और उसे तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के पूरे अवसर उपलब्ध कराए। उसने तकनीकी रूप से दक्ष विशेषज्ञों को भेजकर भारत के लोगों को समुचित प्रशिक्षण दिया। इसी तरह इतिहासस्वीकृत तथ्य है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर इंदिराजी ने अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया था। इंदिराजी ने राष्ट्रीयकरण के अलावा प्रिवी पर्स आदि से जुड़े जो फैसले किए वे उन पर वाम प्रभाव की देन थे। इससे उनकी विश्वसनीयता और साख बहुत ज्यादा बढ़ गई थी।-(प्रो. नदीम हसनैन)
सुभाष काश्यप Saturday, October 31, 2009 02:32 [IST]
इंदिरा गांधी के स्मृति विशेष पर इसे भी पढ़े...* स्मृति विशेषः एक जादुई व्यक्तित्व
विशेष. यूं तो इंदिराजी से जुड़े कई संस्मरण हैं, लेकिन आखिर से ही शुरू करूं। मैं उन दिनों लोकसभा में महासचिव था। 31 अक्टूबर, 1984 को कलकत्ता में पीठासीन अधिकारियों का सम्मेलन चल रहा था, मैं भी उसमें शामिल था। सुबह के सेशन में जलपान का अंतराल हुआ। तभी खबर आई कि दिल्ली में इंदिराजी के सुरक्षाकर्मियों ने उन पर गोली चलाई है और वो बुरी तरह घायल हो गई हैं। चिंता का ऐसा माहौल बना कि सम्मेलन को स्थगित कर दिया गया। हम कुछ लोग, लोकसभा के तत्कालीन उपाध्यक्ष बलराम जाखड़ जी के साथ तुरंत राजभवन पहुंचे। उमाशंकर दीक्षित जी राज्यपाल (पश्चिम बंगाल) थे। शीला दीक्षित भी वहीं थीं। उस समय राजीव गांधी पश्चिम बंगाल के किसी इंटीरियर क्षेत्र में थे। उन्हें तुरंत सूचना दी गई। इंडियन एयरलाइंस की एक रूटीन फ्लाइट को कैंसिल करके उनके लिए तैयार रखा गया कि जैसे ही राजीव जी कलकत्ता आएं, उनको तुरंत दिल्ली ले जाया जाए। ज्यों ही राजीव जी राजभवन पहुंचे, हम लोग नई दिल्ली के लिए रवाना हो गए। जब जहाज कलकत्ता और नई दिल्ली के बीच में था, तब राजीव गांधी कॉकपिट से बाहर आए। अगली सीट पर एक तरफ प्रणब मुखर्जी बैठे थे और दूसरी तरफ उमाशंकर दीक्षित। उन्होंने प्रणब मुखर्जी से कहा- ‘एवरीथिंग इज ओवर’। यानी उन्हें खबर मिल गई कि इंदिराजी का देहावसान हो गया। इसके बाद पूरे जहाज में दु:ख का वातावरण हो गया। ऐसे समाचार के लिए कोई तैयार नहीं था। नई दिल्ली एयरपोर्ट से हम लोग सीधे एम्स आए। प्राइवेट वार्ड की सातवीं मंजिल पर इंदिराजी का शव रखा था। वहां पर सारे कैबिनेट मंत्री मौजूद थे। सारा वातावरण (बाहर और अंदर भी) राष्ट्रीय आपदा-सा था। सातवीं मंजिल से दो-एक घंटे बाद जब हम नीचे आए तो वहां मैंने देखा कि कुछ लोग एक सिख नागरिक की पगड़ी जला रहे थे। आपे से बाहर हो गए थे वे लोग। वह बहुत दुखद दृश्य था। जहां तक इंदिराजी के साथ मेरे व्यक्तिगत संबंध का सवाल है तो मैंने पहली बार उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय कैंपस में देखा। यह बात 1946-47 की है। वे सिनेट हॉल और लाइब्रेरी बिल्डिंग के बीच में खड़ी थीं। मैं उन दिनों बीए फस्र्ट ईयर में था। छुट्टी का दिन था। मैं कैमरा लिए घूम रहा था। जब पता चला तो मैं दौड़कर इंदिराजी के पास गया और कहा- यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आपका फोटो खींच लूं। उन्होंने आज्ञा दी। मैंने फोटो खींचा। वो फोटो आज भी मेरे पास है। उन दिनों वो बहुत शर्मीली थीं और बहुत सुंदर युवती दिखती थीं।जब मैं 1953 में यूपीएससी से ऑफिसर के रूप में पार्लियामेंट में आया, तब पहली लोकसभा थी और पंडितजी प्रधानमंत्री थे। पंडितजी के निधन के बाद जब इंदिराजी लोकसभा में एक सदस्य के रूप में आईं तो कम बोलती थीं। लालबहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने, तब इंदिराजी को सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। तब भी वो बहुत कम बोलती थीं। वो शांत और सौम्य स्वभाव की थीं। बाद के दिनों में जो उनकी छवि बनी, बिल्कुल उसके विपरीत। मैं जेनेवा में युनाइटेड नेशंस इंटर पार्लियामेंट्री मीटिंग में था। यह 1982-83 की बात है। मुझे सूचना मिली कि लोकसभा में तुम्हारी जरूरत है वापस आ जाओ। यहां आने पर लोकसभा के स्पीकर बलराम जाखड़ ने बताया कि इंदिराजी चाहती हैं कि तुम लोकसभा के महासचिव का पद संभालो।
1 जनवरी,1984 को जब मैंने पद संभाला तो तीन-चार दिन बाद इंदिराजी से मिलने गया। उन्होंने कहा, ‘ये जो पद आपने लिया है, वो बहुत जिम्मेदारी भरा पद है। लोग तुम्हारे पास आएंगे और कहेंगे, ‘प्राइम मिनिस्टर वांट्स इट।’ तुम उनकी इन बातों पर विश्वास मत करना।’ उनको यह मालूम था कि लोग उनके नाम से काम कराते हैं, जो वह नहीं चाहती थीं।(लेखक लोकसभा के पूर्व महासचिव हैं .जब इंदिराजी लोकसभा में एक सदस्य के रूप में आईं तो कम बोलती थीं। लालबहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने, तब इंदिराजी को सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। तब भी वो बहुत कम बोलती थीं। वो शांत और सौम्य स्वभाव की थीं।
Monday, October 26, 2009
पार्टियां करोड़पति उम्मीदवारों को ही टिकट दे रही हैं
26 Oct 2009, 1130 hrs IST,नवभारत टाइम्स संजय कुंदन
एक सच यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि लगातार संपन्न हो रहे हैं और दूसरा सच यह है कि संपन्न लोग
ही जनप्रतिनिधि बन रहे हैं। कुल जमा बात यह है कि भारतीय राजनीति धन के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटने लगी है। हाल में संपन्न तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों का भी यही संदेश है। असोसिएशन फॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और नैशनल इलेक्शन वॉच के एक अध्ययन के मुताबिक महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश की विधानसभाओं में इस बार चुनकर आए आधे विधायक करोड़पति हैं। पिछली असेंबली की तुलना में इन तीनों राज्यों में करोड़पतियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। महाराष्ट्र में पिछली विधानसभा में 108 करोड़पति थे जबकि इस बार 184 हैं। हरियाणा में ऐसे विधायकों की संख्या पिछली बार 47 थी तो इस बार 65 है। अरुणाचल प्रदेश में पिछली बार यह संख्या 17 थी जबकि इस बार 35 है। एक तबका कह रहा है कि असेंबली में करोड़पतियों की बढ़ती संख्या राज्यों की बढ़ती खुशहाली को दर्शा रही है। दरअसल, सामाजिक-आर्थिक विकास की तीव्र प्रक्रिया ने इन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में करोड़पति पैदा किए हैं। लेकिन यह आधा-अधूरा सच है। इन राज्यों में ऐसे भी उम्मीदवार चुनाव में खड़े थे जिनकी संपत्ति दस लाख से कम थी पर ऐसे कम लोग ही जीतकर आए। ज्यादातर जीते वही कैंडिडेट, जिनकी संपत्ति दस करोड़ या उससे ज्यादा थी। महाराष्ट्र में दस लाख रुपये से कम संपत्ति वाले केवल 0.98 प्रतिशत कैंडिडेट्स ही चुनाव जीत सके जबकि हरियाणा में ऐसे केवल 2.34 प्रतिशत उम्मीदवारों को ही यह सौभाग्य मिल सका। दूसरी तरफ दस करोड़ से ज्यादा संपत्ति वाले 48 फीसदी उम्मीदवार महाराष्ट्र में, 44 फीसदी हरियाणा में और 53 फीसदी अरुणाचल प्रदेश में सफल रहे। मतलब साफ है कि जिसके पास संपत्ति है उसके जीतने की गुंजाइश ज्यादा हो गई है और जो साधारण पृष्ठभूमि का है उसके सफल होने की संभावना घट गई है। यह बदली हुई भारतीय राजनीति है। सवाल है कि तरह-तरह की मुश्किलों के बीच जीवन गुजार रहे बहुसंख्य लोग समृद्ध तबके को ही चुनाव में क्यों जिता रहे हैं? इस सवाल का एक सीधा जवाब तो यह है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। कमोबेश सभी पार्टियां करोड़पति उम्मीदवारों को ही टिकट दे रही हैं। इन तीन राज्यों में अव्वल रहने वाली कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भले ही सादगी की बात कर रहा हो पर उसने यहां ज्यादातर थैलीशाहों को चुनाव मैदान में उतारा। आज कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भले ही गांव-गांव में गरीब दलितों के बीच घूम रहे हों और अपनी इस अदा से देश के भद्रलोक की शाबाशी बटोर रहे हों पर उनकी पार्टी ने गरीबों को राजनीति में भागीदारी देने के लिए हाल में कोई गंभीर कदम नहीं उठाया है। कांग्रेस गरीबों की बात जरूर करती है, उसके नेतृत्व वाली सरकार ने निर्धनों के कल्याण के लिए कुछ सार्थक कदम भी उठाएं हैं लेकिन वह पहले की तरह राजनीति का दरवाजा गरीबों के लिए नहीं खोलना चाहती। अब दूसरी पार्टियों का भी कमोबेश यही रवैया होता जा रहा है। जो दल दबे-कुचले वर्ग के नाम पर राजनीति करके सत्ता में आए, उनमें भी अब करोड़पतियों की ही पूछ होती है। शायद इसकी वजह यह है कि सियासत ही धन-केंदित हो गई है। सवाल केवल चुनाव में खर्च का ही नहीं है बल्कि हर पार्टी इस बात को लेकर सशंकित रहती है कि सरकार बनाने-बचाने के लिए उसे न जाने कितने सांसद-विधायकों को पटाना पड़ेगा। लेकिन यह भी तय है कि सियासत में गरीबी का मुद्दा कभी खत्म नहीं होने वाला है। वह तो बना रहेगा। यह मुद्दा उठाते रहेंगे करोड़पति विधायक-सांसद। इन करोड़पतियों के बीच इस बात की होड़ मचेगी कि कौन कितना गरीब समर्थक है। कुछ धनपति साबित करेंगे कि वे गरीबों के साथ रह सकते हैं, खा-पी सकते हैं। करोड़पति जनप्रतिनिधि साधनहीनों के लिए पहले की तरह योजनाएं बनाते रहेंगे। इसके साथ जनप्रतिनिधियों की संपन्नता भी बढ़ती रहेगी। एक गरीब यह सब चुपचाप देखेगा। अपने लिए खुद नीतियां तय करने का उसका सपना थोड़ा और दूर हो गया है।
एक सच यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि लगातार संपन्न हो रहे हैं और दूसरा सच यह है कि संपन्न लोग
ही जनप्रतिनिधि बन रहे हैं। कुल जमा बात यह है कि भारतीय राजनीति धन के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटने लगी है। हाल में संपन्न तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों का भी यही संदेश है। असोसिएशन फॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और नैशनल इलेक्शन वॉच के एक अध्ययन के मुताबिक महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल प्रदेश की विधानसभाओं में इस बार चुनकर आए आधे विधायक करोड़पति हैं। पिछली असेंबली की तुलना में इन तीनों राज्यों में करोड़पतियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। महाराष्ट्र में पिछली विधानसभा में 108 करोड़पति थे जबकि इस बार 184 हैं। हरियाणा में ऐसे विधायकों की संख्या पिछली बार 47 थी तो इस बार 65 है। अरुणाचल प्रदेश में पिछली बार यह संख्या 17 थी जबकि इस बार 35 है। एक तबका कह रहा है कि असेंबली में करोड़पतियों की बढ़ती संख्या राज्यों की बढ़ती खुशहाली को दर्शा रही है। दरअसल, सामाजिक-आर्थिक विकास की तीव्र प्रक्रिया ने इन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में करोड़पति पैदा किए हैं। लेकिन यह आधा-अधूरा सच है। इन राज्यों में ऐसे भी उम्मीदवार चुनाव में खड़े थे जिनकी संपत्ति दस लाख से कम थी पर ऐसे कम लोग ही जीतकर आए। ज्यादातर जीते वही कैंडिडेट, जिनकी संपत्ति दस करोड़ या उससे ज्यादा थी। महाराष्ट्र में दस लाख रुपये से कम संपत्ति वाले केवल 0.98 प्रतिशत कैंडिडेट्स ही चुनाव जीत सके जबकि हरियाणा में ऐसे केवल 2.34 प्रतिशत उम्मीदवारों को ही यह सौभाग्य मिल सका। दूसरी तरफ दस करोड़ से ज्यादा संपत्ति वाले 48 फीसदी उम्मीदवार महाराष्ट्र में, 44 फीसदी हरियाणा में और 53 फीसदी अरुणाचल प्रदेश में सफल रहे। मतलब साफ है कि जिसके पास संपत्ति है उसके जीतने की गुंजाइश ज्यादा हो गई है और जो साधारण पृष्ठभूमि का है उसके सफल होने की संभावना घट गई है। यह बदली हुई भारतीय राजनीति है। सवाल है कि तरह-तरह की मुश्किलों के बीच जीवन गुजार रहे बहुसंख्य लोग समृद्ध तबके को ही चुनाव में क्यों जिता रहे हैं? इस सवाल का एक सीधा जवाब तो यह है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। कमोबेश सभी पार्टियां करोड़पति उम्मीदवारों को ही टिकट दे रही हैं। इन तीन राज्यों में अव्वल रहने वाली कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भले ही सादगी की बात कर रहा हो पर उसने यहां ज्यादातर थैलीशाहों को चुनाव मैदान में उतारा। आज कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भले ही गांव-गांव में गरीब दलितों के बीच घूम रहे हों और अपनी इस अदा से देश के भद्रलोक की शाबाशी बटोर रहे हों पर उनकी पार्टी ने गरीबों को राजनीति में भागीदारी देने के लिए हाल में कोई गंभीर कदम नहीं उठाया है। कांग्रेस गरीबों की बात जरूर करती है, उसके नेतृत्व वाली सरकार ने निर्धनों के कल्याण के लिए कुछ सार्थक कदम भी उठाएं हैं लेकिन वह पहले की तरह राजनीति का दरवाजा गरीबों के लिए नहीं खोलना चाहती। अब दूसरी पार्टियों का भी कमोबेश यही रवैया होता जा रहा है। जो दल दबे-कुचले वर्ग के नाम पर राजनीति करके सत्ता में आए, उनमें भी अब करोड़पतियों की ही पूछ होती है। शायद इसकी वजह यह है कि सियासत ही धन-केंदित हो गई है। सवाल केवल चुनाव में खर्च का ही नहीं है बल्कि हर पार्टी इस बात को लेकर सशंकित रहती है कि सरकार बनाने-बचाने के लिए उसे न जाने कितने सांसद-विधायकों को पटाना पड़ेगा। लेकिन यह भी तय है कि सियासत में गरीबी का मुद्दा कभी खत्म नहीं होने वाला है। वह तो बना रहेगा। यह मुद्दा उठाते रहेंगे करोड़पति विधायक-सांसद। इन करोड़पतियों के बीच इस बात की होड़ मचेगी कि कौन कितना गरीब समर्थक है। कुछ धनपति साबित करेंगे कि वे गरीबों के साथ रह सकते हैं, खा-पी सकते हैं। करोड़पति जनप्रतिनिधि साधनहीनों के लिए पहले की तरह योजनाएं बनाते रहेंगे। इसके साथ जनप्रतिनिधियों की संपन्नता भी बढ़ती रहेगी। एक गरीब यह सब चुपचाप देखेगा। अपने लिए खुद नीतियां तय करने का उसका सपना थोड़ा और दूर हो गया है।
Monday, October 19, 2009
पथरी की कोई उम्र नहीं...बच्चे भी घेरे में
19 Oct 2009, 1030 hrs IST,नवभारत टाइम्स।।
नई दिल्ली पथरी की दिक्कत सिर्फ बड़ों को नहीं, बल्कि बच्चों और यहां तक कि नवजात शिशुओं को भी हो रही है। डॉक्टरों का मानना है कि लाइफस्टाइल की वजह से दिक्कत और बढ़ रही है। सबसे खतरनाक बात यह है कि यह बीमारी साइलंट किलर है। ऐसे मामलों में दर्द नहीं होता और पथरी का पता नहीं लग पाता और यह बढ़ते-बढ़ते किडनी को खराब कर सकती है। ऐसे में खास तौर पर उन लोगों को ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है जिनकी फैमिली में किसी को पथरी हुई हो। चीफ यूरोलॉजिस्ट डॉ. अनिल वार्ष्णेव ने बताया कि हाल ही में हमने सात महीने के एक बच्चे को ट्रीट किया जिसे पथरी थी। 10 महीने के एक बच्चे को भी ऑपरेट किया जिसके दोनों किडनी और ब्लैडर में स्टोन था। 6 साल से 12 साल के बच्चों के भी कई मामले आए हैं। छोटे बच्चों में स्टोन बनने की एक बड़ी वजह मेटाबॉलिक अबनॉरमिलिटी है। अगर फैमिली में किसी को स्टोन प्रॉब्लम हो तो इस बात के ज्यादा चांस हैं कि बच्चों में भी स्टोन बनें। लाइफस्टाइल भी इस दिक्कत को बढ़ा रही है। पानी कम पीने, कुपोषण, विटामिन ए की कमी से ब्लैडर स्टोन की संभावना ज्यादा रहती है। मोटापा, फास्ट फूड, ज्यादा नमक, ज्यादा नॉन वेजिटेरियन फूड खाने से किडनी स्टोन बढ़ता है। उन्होंने बताया कि पथरी के हर हजार मरीजों में से 10 बच्चे होते हैं। 20 से 40 साल की उम्र की कैटिगरी में हर चार में से एक को पथरी होती है। महिलाओं के मुकाबले पुरुषों में इसकी चार गुना अधिक संभावना होती है। सीनियर यूरोलॉजिस्ट डॉ. अंशुमन अग्रवाल कहते हैं कि कई बार बच्चा बहुत रोता हो, यूरीन में खून आता हो, जलन होती हो, उल्टी होती हो और भूख नहीं लगती हो तो यह पथरी की शुरुआत हो सकती है। ऐसे में अनदेखी करने की बजाय जांच कराई जानी चाहिए। जिन लोगों की फैमिली में स्टोन की हिस्ट्री हो, उन्हें आंवला, चीकू, टमाटर, प्याज, पालक, काजू, कॉफी, कोला का कम इस्तेमाल करना चाहिए। एम्स में यूरो-ऑनको सर्जन डॉ. अमलेश सेठ कहते हैं कि अडल्ट में पथरी होने में डाइट का खासा रोल रहता है। इसलिए खान-पान पर ध्यान देना चाहिए। अगर किसी को एक बार पथरी हो गई तो दोबारा होने का रिस्क 60-70 फीसदी होती है। कई लोग सोचते हैं कि ज्यादा दूध पीना अच्छा है लेकिन एक अडल्ट को 24 घंटे में आधा लीटर दूध या इससे बनी चीजों से ज्यादा नहीं लेना चाहिए, क्योंकि इससे कैल्शियम ज्यादा मिलेगा और पथरी की संभावना बढ़ेगी। बिना डॉक्टर की सलाह के पेन किलर लेना हानिकारक है, ये किडनी को नुकसान पहुंचाती है। कुछ एंटी बायोटिक कॉम्पोजिशन भी स्टोन फॉरमेशन को बढ़ा सकते हैं।
नई दिल्ली पथरी की दिक्कत सिर्फ बड़ों को नहीं, बल्कि बच्चों और यहां तक कि नवजात शिशुओं को भी हो रही है। डॉक्टरों का मानना है कि लाइफस्टाइल की वजह से दिक्कत और बढ़ रही है। सबसे खतरनाक बात यह है कि यह बीमारी साइलंट किलर है। ऐसे मामलों में दर्द नहीं होता और पथरी का पता नहीं लग पाता और यह बढ़ते-बढ़ते किडनी को खराब कर सकती है। ऐसे में खास तौर पर उन लोगों को ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है जिनकी फैमिली में किसी को पथरी हुई हो। चीफ यूरोलॉजिस्ट डॉ. अनिल वार्ष्णेव ने बताया कि हाल ही में हमने सात महीने के एक बच्चे को ट्रीट किया जिसे पथरी थी। 10 महीने के एक बच्चे को भी ऑपरेट किया जिसके दोनों किडनी और ब्लैडर में स्टोन था। 6 साल से 12 साल के बच्चों के भी कई मामले आए हैं। छोटे बच्चों में स्टोन बनने की एक बड़ी वजह मेटाबॉलिक अबनॉरमिलिटी है। अगर फैमिली में किसी को स्टोन प्रॉब्लम हो तो इस बात के ज्यादा चांस हैं कि बच्चों में भी स्टोन बनें। लाइफस्टाइल भी इस दिक्कत को बढ़ा रही है। पानी कम पीने, कुपोषण, विटामिन ए की कमी से ब्लैडर स्टोन की संभावना ज्यादा रहती है। मोटापा, फास्ट फूड, ज्यादा नमक, ज्यादा नॉन वेजिटेरियन फूड खाने से किडनी स्टोन बढ़ता है। उन्होंने बताया कि पथरी के हर हजार मरीजों में से 10 बच्चे होते हैं। 20 से 40 साल की उम्र की कैटिगरी में हर चार में से एक को पथरी होती है। महिलाओं के मुकाबले पुरुषों में इसकी चार गुना अधिक संभावना होती है। सीनियर यूरोलॉजिस्ट डॉ. अंशुमन अग्रवाल कहते हैं कि कई बार बच्चा बहुत रोता हो, यूरीन में खून आता हो, जलन होती हो, उल्टी होती हो और भूख नहीं लगती हो तो यह पथरी की शुरुआत हो सकती है। ऐसे में अनदेखी करने की बजाय जांच कराई जानी चाहिए। जिन लोगों की फैमिली में स्टोन की हिस्ट्री हो, उन्हें आंवला, चीकू, टमाटर, प्याज, पालक, काजू, कॉफी, कोला का कम इस्तेमाल करना चाहिए। एम्स में यूरो-ऑनको सर्जन डॉ. अमलेश सेठ कहते हैं कि अडल्ट में पथरी होने में डाइट का खासा रोल रहता है। इसलिए खान-पान पर ध्यान देना चाहिए। अगर किसी को एक बार पथरी हो गई तो दोबारा होने का रिस्क 60-70 फीसदी होती है। कई लोग सोचते हैं कि ज्यादा दूध पीना अच्छा है लेकिन एक अडल्ट को 24 घंटे में आधा लीटर दूध या इससे बनी चीजों से ज्यादा नहीं लेना चाहिए, क्योंकि इससे कैल्शियम ज्यादा मिलेगा और पथरी की संभावना बढ़ेगी। बिना डॉक्टर की सलाह के पेन किलर लेना हानिकारक है, ये किडनी को नुकसान पहुंचाती है। कुछ एंटी बायोटिक कॉम्पोजिशन भी स्टोन फॉरमेशन को बढ़ा सकते हैं।
Tuesday, October 13, 2009
فسطےنی حکمراں کی نا عاقبت اندےشیل
دنےا کے تمام دانشور اور حکماءاس بات پر متفق ہےں کہ روئے زمےن پر روز مرہ برپا ہونے والی دہشت گردی اور انسانی معاشرے مےں پھےلی ہوئی بے چےنی،اضطراب اور افراتفری کی اہم وجہ عدل و انصاف کا فقدان ہے۔ جب معاشرے کے وہ لوگ جن کے ہاتھوں مےں منصفی کا قلم ہوتا ہے اگر وہی لوگ انصاف کرتے وقت جانبداری، اقربا پروری اور قومی و ملی پہچان کی بنےا دپرجرائم کو تولنے لگے تو ےقےن کرلےنا چاہئے کہ ناکردہ گناہ کی سزا بھگتنے والا اگرچہ وقت کے ہاتھوں مجبور ہو کر اپنے ہاتھوں مےں ہتھکڑےاں ڈال لے گا ،مگر اس کے اندر پکنے والا انتقام کا لاوازہرےلا اورمزید دھماکہ خےز ہوتا جائے گا۔ بالآخر اےک دن وہی لاوا جب پھٹے گا تو دنےا ےہ سب بھول کرکہ اس جرم کا ارتکاب کرنے والا کس قدر نا انصافےو ںکا شکار رہا ہے، آلام و شدائد کے کن جہنم سے اسے گزارا گےا ہے اور ےہ سب اےک ناکردہ گناہ کے سبب ہوا ہے۔لوگوں کی نگاہ اس جانب نہےں جاتی بلکہ براہ راست اپنی آنکھوں کے سامنے انجام دئےے جانے والے جرم کو دےکھ کر انسان بےساختہ ےہ کہتا ہے کہ اس کا انجام دےنے والا وحشی ہے، درندہ ہے،دہشت گرد ہے، بنی نوع انسانےت کا قاتل ہے اور یہ صحیح بھی ہے کہ اپنے انتقام کی آگ سرد کرنے کیلئے بے گناہوں کونشانہ بنانے کی اجازت قطعی نہیں دی جاسکتی۔مگرانصاف کا تقاضہ یہ کہ فیصلے لیتے وقت ان تمام پہلوو¾ںکومد نظر رکھناچاہئے تاکہ دنیا میںامن کا بول بالاہو۔
اس وقت مشرق وسطیٰ مےں بے گناہ انسانی آبادی مےں ظلم و بربرےت کی جو تارےخ رقم کی جارہی ہے،چاہے وہ جس کی جانب سے بھی انجام دئےے جارہے ہوں، ان تمام کا سرا کہےں نہ کہےں اسی نا انصافی سے جا ملتا ہے، جس کے پاداش مےں فسادات جنم لےتے ہےں،بدامنی کا اژدہاپھن پھےلائے انسان کی طرف بے تحاشہ دوڑ پڑتا ہے اور بس اےک آن مےں آبادی کی آبادی کو اپنا لقمہ بنا لےنے کی کوشش کرتا ہے۔اگرچہ مغربی سامراج نے مظالم کی واضح ےلغار کے باوجود آج تک اسے قبول کرنے سے گرےز کےا ہے کہ مشرق وسطیٰ© مےں بدامنی کی اہم وجہ اقوام متحدہ مےں لئے جانے والے وہ فےصلے ہےں ےا امرےکہ کے ذرےعہ جاری کئے جانے والے وہ قوانےن جن سے اسرائےل کے تمام مظالم کو جواز حاصل ہوتا ہے اور اس طرح اسرائےلی فوج کے لئے مزےد وحشےانہ کھےل کھےلنے کا عزم و حوصلہ انگےز ہوتا ہے۔امرےکی پشت پناہی اور اقوام متحدہ کی سردمہری کی وجہ سے ہی اسرائےلی فوج کے حوصلے اتنے قوی ہوجاتے ہےں کہ وہ بے انتہا مظالم کا طوفان کھڑا کرنے کے باوجود اطمےنان محسوس کرتی ہے اور اسے ےہ خوف قطعاً نہےں رہتا کہ اس کی ان ظالمانہ حرکتوں پر گرفت بھی ہو سکتی ہے۔دنےا کے سامنے اسے جواب دہ بھی ہونا پڑسکتا ہے ےا انصاف کا چابک اس کی پشت پر چلاےا جاسکتا ہے۔ےہی وجہ ہے کہ 27دسمبر 2008ءکوجب کہ نئے سال کی آمد آمد تھی غزہ کی آبادی پر اسرائےلی طےارو ںنے بموں کی اتنی بارش کردی کہ چند دن کے لئے پورا شہر دھواں کی نذرہو گےا ۔آنکھےں قرےب کھڑے ہوئے شخص کو بھی پہچاننے سے قاصر رہےں اور ےہ سلسلہ اےک دو دن نہےںکئی ہفتوں تک چلا۔مشرق وسطیٰ کے اخبارات نے اموات کی روزانہ کی اطلاعات ساری دنےا کو فراہم کےں۔فلسطےنی اخبار’ الشرق‘ کے مطابق مذکورہ اسرائےلی حملوں مےں تقرےباً ڈےڑھ ہزار افراد جاں بحق ہو ئے تھے، جن مےں 25فےصد تعداد ان خواتےن کی تھی ،جن پر ہاتھ اٹھانا انسانی مذاہب مےں گناہ تصور کےا جاتاہے۔کچھ ےہی تعداد ان معصوم بچوں کی بھی تھی جن کے ہاتھوں مےں کھلونے ہوتے ہےں اور ہر ہاتھ محبت سے انہےں اٹھالےنے مےں اعزاز محسوس کرتا ہے۔مگر اسرائےلی بربرےت کا نہ تھمنے والاطوفان تمام انسانی اقدار اور اخلاقی حدود کو پےروں تلے روندتے ہوئے جاری رہا۔فلک بوس عمارتےں زمےں بوس ہو گئےں، ہزاروں باشندگان غزہ سرچھپانے کے لئے دوگز چھت سے بھی محروم ہو گئے۔اےسا نہےں ہے کہ اس دوران عالمی برادری نے اسرائےل کی مذمت نہ کی ہو ےا اسے فوری جنگ بندی کی ہداےت نہ دی ہو، اقوام متحدہ بھی منہ بھرائی کے لئے اسرائےل سے درخواست کرتا رہا ۔ مگر اسرائےلی حکمرانو ںکو ظلم و بربرےت کی وہ تارےخ رقم کرنی تھی جس سے ہٹلر کی روحےں بھی شرما جائےں۔ لہذا ساری دنےا بھونکتی رہی، انسانےت اس پر ملامت بھےجتی رہی مگر اسرائےل پر کسی کا بھی اثر نہےں ہوا۔انجام کار غزہ تباہ کردےا گےا اور اس کے جواز کے لئے اسرائےلی وزرا کی طرف سے بس اتنا کہا گےا کہ حماس کے روز روز کے راکٹ حملوں کا بس ےہی اےک علاج ہے۔غزہ کے اسپتال انسانی لاشوں اور زخمےوں سے پٹ گئے، بے شمارنہتھے شہری خاک و خون مےں غلطاں اپنے رب سے جا ملے۔امرےکہ سمےت دنےا کے اکثر و بےشتر ممالک نے فوری جنگ بندی کی تمام کوششےں کی مگر سبھی اکارت گئےں۔خدا خدا کر کے اسرائےل نے اپنے بربرےت کے اژدھے کو خموشی کا لبادہ اوڑھا کر واپس بلالےا۔ مگر عالمی برادری نے اقوام متحدہ پر دباﺅ ڈالنا شروع کردےا کہ اسرائےل کو جنگی مجرم قرار دےتے ہوئے اس کے خلاف مقدمہ چلاےا جائے اور اسے قرار واقعی سزا دی جائے۔عالمی دباﺅ کے پےش نظر تفتےشی کمےٹی بھی تشکےل دی گئی، اس کی رپورٹ بھی آئی ، جس نے اسرائےل کو جنگی مجرم قرار دے دےا ۔مگر مغرب نوازی اور امرےکہ کی پشت پناہی کی وجہ سے دنےا کی مضبوط عدالت اس کے خلاف کوئی بھی فےصلہ لےنے سے قاصر رہی۔آج پھر وہی اسرائےل بے حےائی کی حد کرتے ہوئے اقوام متحدہ کو ےہ بتانے کی کوشش کررہا ہے کہ جنگی مجرم ہمارے ساتھ حماس کو بھی قرار دےا جائے حالانکہ حماس کا دفاعی حملہ فوج پر تھا ےا اسرائےلی بے گناہ عوام پر ےہ منظر ساری دنےا نے دےکھا ہے۔دنےا نے دےکھا ہے کہ اسرائےلی فوج بھےڑےوں کے روپ مےں کس طرح انسانی آبادی پر بموں کی بارش کررہی تھےں اور نہتھے بے گناہ عوام ،بچے ،بوڑھے اور خواتےن ان کے بارود کا نشانہ بن رہے تھے۔جس کی آگ آج بھی سرد نہےں ہو سکی ہے۔ ان بموں سے زخمی سےکڑوں فلسطےنی ےا تو ہمےشہ کے لئے مفلوج ہو چکے ہےں ےا اےسے زخمی ہےں کہ آج تک انہےں شفا نصےب ہو سکی ہے۔المےہ تو ےہ ہے کہ جنوبی افرےقہ کے جسٹس رچرڈ گولڈ اسٹون کی نمائندگی والی ٹےم کے ذرےعہ تےار کی گئی حالےہ رپورٹ مےں اسرائےل کی پشت پناہی کرتے ہوئے حماس اور اسرائےل دونوں کو مشترکہ طو رپر جنگی مجرم قرار دےا گےا ہے۔حماس نے مذکورہ رپورٹ کو مسترد تو کردےا ہے مگر محمود عباس جےسے اسرائیل نواز کو ےہ قطعاً گوارہ نہےں ہے کہ وہ کسی مقام پر بھی حماس کو گوارہ کرسکے۔لہذا نہوں نے مصر مےں ہونے والے معاہدے کو ےہ الزام رکھتے ہوئے خارج کردےا ہے کہ حماس تنازعہ کو ہوا دےنا چاہتا ہے۔اس مقام پربھی محمود عباس کو اپنی جماعت کی بالادسری کی فکرنے قوم کی خیرسے بے نیاز کردیااورغلط فیصلے کی بڑھ رہے ہیں۔حالانکہ آج بھی دنےا انصاف کی راہ سے اقربا پروری ےا جانب داری کو کنارے کردے تو ممکن ہے کہ صحےح فےصلے اسرائےل اور فلسطےن کے لئے امن کا نےا باب کھول سکےں ۔
اس وقت مشرق وسطیٰ مےں بے گناہ انسانی آبادی مےں ظلم و بربرےت کی جو تارےخ رقم کی جارہی ہے،چاہے وہ جس کی جانب سے بھی انجام دئےے جارہے ہوں، ان تمام کا سرا کہےں نہ کہےں اسی نا انصافی سے جا ملتا ہے، جس کے پاداش مےں فسادات جنم لےتے ہےں،بدامنی کا اژدہاپھن پھےلائے انسان کی طرف بے تحاشہ دوڑ پڑتا ہے اور بس اےک آن مےں آبادی کی آبادی کو اپنا لقمہ بنا لےنے کی کوشش کرتا ہے۔اگرچہ مغربی سامراج نے مظالم کی واضح ےلغار کے باوجود آج تک اسے قبول کرنے سے گرےز کےا ہے کہ مشرق وسطیٰ© مےں بدامنی کی اہم وجہ اقوام متحدہ مےں لئے جانے والے وہ فےصلے ہےں ےا امرےکہ کے ذرےعہ جاری کئے جانے والے وہ قوانےن جن سے اسرائےل کے تمام مظالم کو جواز حاصل ہوتا ہے اور اس طرح اسرائےلی فوج کے لئے مزےد وحشےانہ کھےل کھےلنے کا عزم و حوصلہ انگےز ہوتا ہے۔امرےکی پشت پناہی اور اقوام متحدہ کی سردمہری کی وجہ سے ہی اسرائےلی فوج کے حوصلے اتنے قوی ہوجاتے ہےں کہ وہ بے انتہا مظالم کا طوفان کھڑا کرنے کے باوجود اطمےنان محسوس کرتی ہے اور اسے ےہ خوف قطعاً نہےں رہتا کہ اس کی ان ظالمانہ حرکتوں پر گرفت بھی ہو سکتی ہے۔دنےا کے سامنے اسے جواب دہ بھی ہونا پڑسکتا ہے ےا انصاف کا چابک اس کی پشت پر چلاےا جاسکتا ہے۔ےہی وجہ ہے کہ 27دسمبر 2008ءکوجب کہ نئے سال کی آمد آمد تھی غزہ کی آبادی پر اسرائےلی طےارو ںنے بموں کی اتنی بارش کردی کہ چند دن کے لئے پورا شہر دھواں کی نذرہو گےا ۔آنکھےں قرےب کھڑے ہوئے شخص کو بھی پہچاننے سے قاصر رہےں اور ےہ سلسلہ اےک دو دن نہےںکئی ہفتوں تک چلا۔مشرق وسطیٰ کے اخبارات نے اموات کی روزانہ کی اطلاعات ساری دنےا کو فراہم کےں۔فلسطےنی اخبار’ الشرق‘ کے مطابق مذکورہ اسرائےلی حملوں مےں تقرےباً ڈےڑھ ہزار افراد جاں بحق ہو ئے تھے، جن مےں 25فےصد تعداد ان خواتےن کی تھی ،جن پر ہاتھ اٹھانا انسانی مذاہب مےں گناہ تصور کےا جاتاہے۔کچھ ےہی تعداد ان معصوم بچوں کی بھی تھی جن کے ہاتھوں مےں کھلونے ہوتے ہےں اور ہر ہاتھ محبت سے انہےں اٹھالےنے مےں اعزاز محسوس کرتا ہے۔مگر اسرائےلی بربرےت کا نہ تھمنے والاطوفان تمام انسانی اقدار اور اخلاقی حدود کو پےروں تلے روندتے ہوئے جاری رہا۔فلک بوس عمارتےں زمےں بوس ہو گئےں، ہزاروں باشندگان غزہ سرچھپانے کے لئے دوگز چھت سے بھی محروم ہو گئے۔اےسا نہےں ہے کہ اس دوران عالمی برادری نے اسرائےل کی مذمت نہ کی ہو ےا اسے فوری جنگ بندی کی ہداےت نہ دی ہو، اقوام متحدہ بھی منہ بھرائی کے لئے اسرائےل سے درخواست کرتا رہا ۔ مگر اسرائےلی حکمرانو ںکو ظلم و بربرےت کی وہ تارےخ رقم کرنی تھی جس سے ہٹلر کی روحےں بھی شرما جائےں۔ لہذا ساری دنےا بھونکتی رہی، انسانےت اس پر ملامت بھےجتی رہی مگر اسرائےل پر کسی کا بھی اثر نہےں ہوا۔انجام کار غزہ تباہ کردےا گےا اور اس کے جواز کے لئے اسرائےلی وزرا کی طرف سے بس اتنا کہا گےا کہ حماس کے روز روز کے راکٹ حملوں کا بس ےہی اےک علاج ہے۔غزہ کے اسپتال انسانی لاشوں اور زخمےوں سے پٹ گئے، بے شمارنہتھے شہری خاک و خون مےں غلطاں اپنے رب سے جا ملے۔امرےکہ سمےت دنےا کے اکثر و بےشتر ممالک نے فوری جنگ بندی کی تمام کوششےں کی مگر سبھی اکارت گئےں۔خدا خدا کر کے اسرائےل نے اپنے بربرےت کے اژدھے کو خموشی کا لبادہ اوڑھا کر واپس بلالےا۔ مگر عالمی برادری نے اقوام متحدہ پر دباﺅ ڈالنا شروع کردےا کہ اسرائےل کو جنگی مجرم قرار دےتے ہوئے اس کے خلاف مقدمہ چلاےا جائے اور اسے قرار واقعی سزا دی جائے۔عالمی دباﺅ کے پےش نظر تفتےشی کمےٹی بھی تشکےل دی گئی، اس کی رپورٹ بھی آئی ، جس نے اسرائےل کو جنگی مجرم قرار دے دےا ۔مگر مغرب نوازی اور امرےکہ کی پشت پناہی کی وجہ سے دنےا کی مضبوط عدالت اس کے خلاف کوئی بھی فےصلہ لےنے سے قاصر رہی۔آج پھر وہی اسرائےل بے حےائی کی حد کرتے ہوئے اقوام متحدہ کو ےہ بتانے کی کوشش کررہا ہے کہ جنگی مجرم ہمارے ساتھ حماس کو بھی قرار دےا جائے حالانکہ حماس کا دفاعی حملہ فوج پر تھا ےا اسرائےلی بے گناہ عوام پر ےہ منظر ساری دنےا نے دےکھا ہے۔دنےا نے دےکھا ہے کہ اسرائےلی فوج بھےڑےوں کے روپ مےں کس طرح انسانی آبادی پر بموں کی بارش کررہی تھےں اور نہتھے بے گناہ عوام ،بچے ،بوڑھے اور خواتےن ان کے بارود کا نشانہ بن رہے تھے۔جس کی آگ آج بھی سرد نہےں ہو سکی ہے۔ ان بموں سے زخمی سےکڑوں فلسطےنی ےا تو ہمےشہ کے لئے مفلوج ہو چکے ہےں ےا اےسے زخمی ہےں کہ آج تک انہےں شفا نصےب ہو سکی ہے۔المےہ تو ےہ ہے کہ جنوبی افرےقہ کے جسٹس رچرڈ گولڈ اسٹون کی نمائندگی والی ٹےم کے ذرےعہ تےار کی گئی حالےہ رپورٹ مےں اسرائےل کی پشت پناہی کرتے ہوئے حماس اور اسرائےل دونوں کو مشترکہ طو رپر جنگی مجرم قرار دےا گےا ہے۔حماس نے مذکورہ رپورٹ کو مسترد تو کردےا ہے مگر محمود عباس جےسے اسرائیل نواز کو ےہ قطعاً گوارہ نہےں ہے کہ وہ کسی مقام پر بھی حماس کو گوارہ کرسکے۔لہذا نہوں نے مصر مےں ہونے والے معاہدے کو ےہ الزام رکھتے ہوئے خارج کردےا ہے کہ حماس تنازعہ کو ہوا دےنا چاہتا ہے۔اس مقام پربھی محمود عباس کو اپنی جماعت کی بالادسری کی فکرنے قوم کی خیرسے بے نیاز کردیااورغلط فیصلے کی بڑھ رہے ہیں۔حالانکہ آج بھی دنےا انصاف کی راہ سے اقربا پروری ےا جانب داری کو کنارے کردے تو ممکن ہے کہ صحےح فےصلے اسرائےل اور فلسطےن کے لئے امن کا نےا باب کھول سکےں ۔
Monday, October 12, 2009
سینٹرل مدرسہ بورڈمسلمانوںکےلئے محض ایک دھوکہ
غےر ضروری شوشے چھوڑ کر اصل مسئلہ سے منہ موڑلےناسیاسی کھیل میںکامیاب داﺅکہلاتاہے۔ سےاسی جماعتوں کا مسلمانوں کے ساتھ کم از کم ایساہی کھیل آزادی کے بعدسے جاری ہے۔سچر رپورٹ نے مےں مسلمانو ںکی زبوں حالی کے حوالہ سے کچھ اےسے انکشافات کئے ہےں جس کا اس سے قبل ےقےن نہےں کےا جاسکتا تھا۔وطن عزےز کی آزادی مےں قائدانہ رول ادا کرنے والا ےہ طبقہ سےاسی بازےگروں کا کس طرح شکار ہوا اور اسے فنا کردےنے کی کےسی کےسی ناپاک سازشےں رچی گئےں ا س کا اندازہ سچر رپورٹ کو محض سرسری نظر پڑھ لےنے سے ہی ہوجاتاہے۔اب سوا ل ےہ پےدا ہوتا ہے کہ کےا ہماری حکومت مسلمانوں کےلئے کچھ کرنے اورسچرسفارشات کے نفاذکا مخلصانہ عزم رکھتی ہے ےا نہےں۔اگر اس سوال کے حل کےلئے ہم اخبارات کے صفحات مےں پھےلے ہوئے ان حکومتی اعلانات کا جائزہ لےں اور پھر ان اعلانات کوعملی طورپردیکھنے کی کوشش کریں تو بےساختہ ےہ کہنا پڑے گا کہ ےقےنا کانگرےس ےا اس جےسی دوسری تمام سےکولر جماعتےں جو بظاہر مسلمانو ںکی خےرخواہی کا ڈھنڈورا پےٹتے نہےں تھکتیں، ان کی تمام نقل و حرکت اورخوشنماوعدوںکا مقصد مسلمانوںکی خوشحالی نہےں بلکہ ان کے ووٹوں کے سہارے اقتدارحاصل کرنا ان کی تمام سرگرمےوں کا اہم مقصد ہے۔حکومت کی نےتوں اور اس کے عزائم کا جائزہ لےنے کیلئے کہ وہ ہمارے لئے مخلص ہےں ےا ان کی ہمدردی کا راگ اس منافق کی بانسری ہے جو سانپ کو پکڑنے کے لئے بل کے سامنے بجاتا رہتا ہے ےا اس شکاری کے فرےب آمےز چارہ کی طرح ہے جو رنگ برنگی چڑےوں کو قےد کرنے کے لئے جال کے نےچے ڈال دےتا ہے۔ہمیںان کے سابقہ منصوبوںاورعمل کابنظرغائرمطالعہ کرناہوگا۔وطن عزےز مےں آزادی کے بعد مسلمانوں کے ساتھ جو کچھ بھی ہوتا رہا ہے۔ چاہے وہ ان کی زبوں حالی کا ماتم ہو ےا آسمان چھولےنے والے خوشنما وعدے اور اعلانات،انکی بس اتنی حقیقت ہے کہ ےہ صرف مسلمانوں کو ٹھگ لےنے کےلئے منظر عام پر آتے رہے ہےں۔البتہ سچائی یہ ہے کہ مسلمانوں کے چہرے پر خوشحالی کی چمک لانے کے لئے آج تک کسی بھی سےاسی جماعت نے مخلصانہ کوشش نہےں کی ہے بلکہ وطن عزےز کی سےاسی جماعت اس منڈی کی طرح ہے جہاں خرےدار اگر شعور اور ادراک سے خالی ہو تو اپنی متاع بےش قےمت کو کوڑےوں مےں بےچ کرلوٹ آتاہے اور مستقل کے پچھتاوا کے علاوہ اس کے پاس کچھ بھی نہےں بچتا ےا اس گاہک کی طرح ہے جسے سونا دکھا کر پےتل تھما دےا جاتا ہے اور ا سکے بدلے اس کی تجوری خالی کرالی جاتی ہے۔ پھر جب اس پر ےہ انکشاف ہوتا ہے کہ اس نے آج بازار سے سونا سمجھ کر جو چےز خرےدی ہے اس پر سونے کی اصلی قلعی تو ضرور ہے مگر قلعی کے نےچے جو شئے ہے وہ پےتل ہے۔ دس گرام کے اس پےتل کو بےچ کر اس سے وہ اےک وقت کی روٹی بھی حاصل نہےں کرسکتا۔ ہمارا المےہ ےہ ہے کہ آزادی کے بعد ےا تو ہمےں مخلص قےادت نہےں ملی ےا اپنی انا مےں اس قدر مست ہو گئے کہ ہم نے کسی کو بھی اپنے سے بڑا ماننے کا تصور بھی ذہن و فکر سے نکال دےا۔اس کانتےجہ ےہ ہوا کہ مسلمانو ںکے ہر محلے مےں انہےں کے کنبوں اور قبےلو ںسے اےسے افراد سےاسی چغہ مےں ملبوس ہو کر ان کے مقدر کا سودا کرنے کے لئے بازار پہنچ گئے جو بظاہر مسلمانو ںکی بات کرتے تھے مگر بباطن مسلمانوں کی تقدےر بےچ کر اپنی دنےا سنوارنا ان کاپےشہ تھا۔
ہمارے ملک کی سرکارےں ہمارے لئے مخلص تھی ےا انہو ںنے ہمارا استحصال کر کے اپنا سےاسی قد بلند کرنے کا مذموم کھےل کھےلا تھا۔اسے جاننے کے لئے ہمےں ان تمام منصوبوں کا بغور مطالعہ کرنا پڑے گا، جن کا تعلق مسلمانو ںکی خوشحالی اور ان کی ترقی سے ہے۔اگر ان منصوبوں کو عملی جامہ پہناےا گےا ہے اور مسلمان ان سرکاری منصوبوں سے براہ راست نفع حاصل کر رہے ہےں تو بلا تردد ےہ بات کہی جائے گی کہ سرکار کا مقصد مسلمانو ںکی خوشحالی اور ان کی ترقی ہے اور اگر ان منصوبوں کی حےثےت صرف کاغذی خانہ پری اور سبز باغ دکھانا رہا ہے تو ےہ بلاخوف تردیدیہ کہاجا ئے گاکہ اس منصوبے کے ذرےعہ ہمےں بے وقوف بنانے ےا مزےد ابتر کردےنے کا پروگرام بناےا گےا ہے اور جس جماعت کی طرف سے ےہ دھوکہ کی ٹٹی کھڑی کی گئی ہے اسے مسلمانوںکی دشمن اور اس طرح کے ترقی کی مخالف قرار دےنے کے علاوہ اور کچھ بھی نہےں کہا جاسکتا۔غورکےجئے!آزادی کے بعد اگرچہ مسلمانوں کی حالت بھی بہت اچھی نہےں رہ گئی تھی مگر ہمارے ملک کا دلت طبقہ تو اور بھی زےادہ تباہ حال اور قابل رحم زندگی گزار رہا تھا۔پھر کےا وجہ ہے کہ آج تقرےباً تمام سرکاری دفاتر مےں انہےں مواقع مےسر ہو گئے۔ان کی تعلےمی حالت بھی بہتر ہونے لگی۔مگر مسلمانو ںکی حالت جو اس زمانہ میں پسماندہ طبقات کی بنسبت قدرے بہتر تھی وہ اور بھی بدترہوتی گئی۔سرکاری دفاتر مےں ملازمت کے دروازے ان کے لئے بند کردئےے گئے اور تعلےمی مےدان مےں اتنی دشوارےاں ان کی راہوں مےں کھڑی کردی گئےں کہ کوشش کے باوجود ان کا حوصلہ جواب دے گےااوروہ ان رکاوٹوںکودور نہیںکرسکے۔ےہ کون سا انصاف ہے کہ ملک کے جس طبقہ مےں تعلےم کی شرح چار فےصد سے بھی کم ہے اسے اوپر لانے کے لئے محض اعلانات اور پےغامات تک محدود کردےا گےا اور جس طبقہ کی تعلےمی حالت مسلمانو ں سے بہتر تھی اسے مزےد سہولےات سے نوازا گےاتاکہ ان کی ترقی دن دونی رات چوگنی ہوتی رہے۔کانگرےس مسلمانو ںکے لئے مخلص ہے ےا محض اس منافق کی طرح جو سب کچھ ٹھگ لےنا چاہتا ہے اس کا اندازہ لگانے کے لئے آپ ملک کی اعلیٰ ےونےورسٹےوں کا دورہ کر لےں وہاں کے مسلم طلبہ کو اقلےت کے نام پر ےا ان کی فلاح و بہبود کے لئے کےا کچھ دےا جاتاہے،ےہ جان کر آپ کو معلوم ہوجائے گا کہ کانگرےس مسلمانوں کے لئے کبھی بھی مخلص نہےں رہی ہے اور مسلمانوں کی بھلائی کانگرےس نے کبھی پسند بھی نہےں کی ہے۔دلت طبقہ جن کی تعلےمی شرح مسلمانو ںسے بہتر ہے، انہےں پندرہ سے 25ہزار کے درمےان وظےفے ملتے ہےں،جب کہ مسلم طبقہ جن کی تعلےمی شرح انتہائی افسوسناک ہے ، انہےں دےا جانے والا اسکالر شپ پانچ سو سے زائد نہےں ہوتا۔ےہی وجہ ہے کہ آج پسماندہ طبقات کے بےشتر طلبہ مہنگی گاڑےوں مےں ےونےورسٹی آتے ہےں جب کہ مسلم بچے پےٹ بھر کھانا بھی اس وظےفے سے حاصل نہےںکرسکتے۔
کانگرےس پارٹی نے مسلمانو ںکو اےک بار پھر ےرغمال بنانے کے لئے سےنٹرل مدرسہ بورڈ کے قےام کا شوشہ چھوڑا ہے، جو روز اول سے ہی تنازعات کا شکار ہے۔قطع نظر اس سے کہ مذکورہ بورڈ کے قےام سے مسلمانو ںکا فائدہ ہوگا ےا نقصان۔اتنا تو پوچھا ہی جا سکتا ہے کہ آپ نے ہمارے ان کالجوں کے لئے تو راستے بند کررکھے ہےں، جنہےں ہم نے اپنی زمےنوں پر اپنے پےسوں سے کھڑا کےا ہے اور منظوری کے لئے آپ کی توجہ کا انتظار ہے۔ملک کے اےک کونے سے دوسرے کونے تک تقرےباً بارہ سو اےسے مجوزہ کالج موجود ہےں جنہےں مسلم تنظےموں ےا شخصےات نے مسلم بچوں کی خےر خواہی اور بھلائی کےلئے قائم کےا ہے۔مگر حکومت کی جانب سے منظوری نہ ملنے کی وجہ سے اےسے تمام کالج مےں زےر تعلےم طلبہ کا مستقبل تارےک ہو رہا ہے۔اگر اس فہرست مےں اقلےتو ںکے اپنے پےسوں سے تعمےر ان اسکولوں کو بھی شامل کرلےا جائے جنہےں مسلم بچوں کے لئے مسلمانوں نے خود قائم کےا ہے مگر حکومت اسے منظوری دےنے پر آمادہ نہےں ہے تو ےہ تعداد کئی ہزار مےں ہوگی۔مدرسہ بورڈ کا سز باغ دکھانے والی حکومت کو ےہ سوچنا چاہئے کہ کےوں نہ ان تمام اداروں کو منظوری دیدی جائے جنہےں اقلےتی تنظےموں نے صرف اقلےتی طلبہ کے مستقبل کو سنوارنے کےلئے تےار کےا ہے،تاکہ مسلم بچوں کا مستقبل تارےک ہونے سے بچ جائے۔مگر حقےقت حال ےہ ہے کہ بورڈ کے قےام کی منشا مسلمانوں کی تباہ حالی پر ترس کھانا قطعاً نہےں ہے بلکہ اس کے ذرےعہ مدارس کے فضلا مےں اس نظرےے کا عام کردےنا ہے جو ہماری حکومت کو مغربی سامراج سے دےا گےا ہے۔اسرائےلی دوستی میں ساری دنےا سے آگے موجودہ ہندوستانی حکومت کی منشا ےہ ہے کہ اےسے مدارس ترتےب دے دئےے جائےں جہاں سے تےار ہونے والے ائمہ کو داڑھی سے دشمنی ہو ، غیراسلامی طرززنگی مرغوب ہواور ہر اس فکر کو عام کرنا ان کی زندگی کا مقصد بن جائے جو مغربی اقدار کی شان بڑھاتی ہو اور حکومت کی خوشنودی جس سے حاصل ہوتی ہو، چہ جائےکہ اس سے اسلام کی شبےہ بگڑ جائے اور معاشرہ اسلامی تہذےب سے نا آشنا ہو جائے۔جن صاحبان کو ےہ شکوہ ہے کہ مدارس بورڈ پر اعتراض کرنے والوں نے حکومت کے اس منشور کو نہےں پڑھا ہے جو مدرسہ کی تجدےد کاری کے تعلق سے حکومت نے ترتےب دی ہے تو انہےں جان لےنا چاہئے کہ دنےا کے کسی بھی منشور مےں اس آئےڈےل اور نظرےہ کو واضح نہےں کےا جاتا جو منشور کا اصل مقصد ہوتے ہےں بلکہ منشور مےں اےسی شقےں داخل کردی جاتی ہےں جو بذات خود مطلوبہ نظرےے کو تقوےت پہنچاتی ہوں۔ لہذا مدارس بور ڈ کا قےام سرکاری نظرےہ کو مدارس مےں داخل کرنے کا منصوبہ ہے نہ کہ مسلمانوں کی پسماندگی کو دور کرنے کا۔
ہمارے ملک کی سرکارےں ہمارے لئے مخلص تھی ےا انہو ںنے ہمارا استحصال کر کے اپنا سےاسی قد بلند کرنے کا مذموم کھےل کھےلا تھا۔اسے جاننے کے لئے ہمےں ان تمام منصوبوں کا بغور مطالعہ کرنا پڑے گا، جن کا تعلق مسلمانو ںکی خوشحالی اور ان کی ترقی سے ہے۔اگر ان منصوبوں کو عملی جامہ پہناےا گےا ہے اور مسلمان ان سرکاری منصوبوں سے براہ راست نفع حاصل کر رہے ہےں تو بلا تردد ےہ بات کہی جائے گی کہ سرکار کا مقصد مسلمانو ںکی خوشحالی اور ان کی ترقی ہے اور اگر ان منصوبوں کی حےثےت صرف کاغذی خانہ پری اور سبز باغ دکھانا رہا ہے تو ےہ بلاخوف تردیدیہ کہاجا ئے گاکہ اس منصوبے کے ذرےعہ ہمےں بے وقوف بنانے ےا مزےد ابتر کردےنے کا پروگرام بناےا گےا ہے اور جس جماعت کی طرف سے ےہ دھوکہ کی ٹٹی کھڑی کی گئی ہے اسے مسلمانوںکی دشمن اور اس طرح کے ترقی کی مخالف قرار دےنے کے علاوہ اور کچھ بھی نہےں کہا جاسکتا۔غورکےجئے!آزادی کے بعد اگرچہ مسلمانوں کی حالت بھی بہت اچھی نہےں رہ گئی تھی مگر ہمارے ملک کا دلت طبقہ تو اور بھی زےادہ تباہ حال اور قابل رحم زندگی گزار رہا تھا۔پھر کےا وجہ ہے کہ آج تقرےباً تمام سرکاری دفاتر مےں انہےں مواقع مےسر ہو گئے۔ان کی تعلےمی حالت بھی بہتر ہونے لگی۔مگر مسلمانو ںکی حالت جو اس زمانہ میں پسماندہ طبقات کی بنسبت قدرے بہتر تھی وہ اور بھی بدترہوتی گئی۔سرکاری دفاتر مےں ملازمت کے دروازے ان کے لئے بند کردئےے گئے اور تعلےمی مےدان مےں اتنی دشوارےاں ان کی راہوں مےں کھڑی کردی گئےں کہ کوشش کے باوجود ان کا حوصلہ جواب دے گےااوروہ ان رکاوٹوںکودور نہیںکرسکے۔ےہ کون سا انصاف ہے کہ ملک کے جس طبقہ مےں تعلےم کی شرح چار فےصد سے بھی کم ہے اسے اوپر لانے کے لئے محض اعلانات اور پےغامات تک محدود کردےا گےا اور جس طبقہ کی تعلےمی حالت مسلمانو ں سے بہتر تھی اسے مزےد سہولےات سے نوازا گےاتاکہ ان کی ترقی دن دونی رات چوگنی ہوتی رہے۔کانگرےس مسلمانو ںکے لئے مخلص ہے ےا محض اس منافق کی طرح جو سب کچھ ٹھگ لےنا چاہتا ہے اس کا اندازہ لگانے کے لئے آپ ملک کی اعلیٰ ےونےورسٹےوں کا دورہ کر لےں وہاں کے مسلم طلبہ کو اقلےت کے نام پر ےا ان کی فلاح و بہبود کے لئے کےا کچھ دےا جاتاہے،ےہ جان کر آپ کو معلوم ہوجائے گا کہ کانگرےس مسلمانوں کے لئے کبھی بھی مخلص نہےں رہی ہے اور مسلمانوں کی بھلائی کانگرےس نے کبھی پسند بھی نہےں کی ہے۔دلت طبقہ جن کی تعلےمی شرح مسلمانو ںسے بہتر ہے، انہےں پندرہ سے 25ہزار کے درمےان وظےفے ملتے ہےں،جب کہ مسلم طبقہ جن کی تعلےمی شرح انتہائی افسوسناک ہے ، انہےں دےا جانے والا اسکالر شپ پانچ سو سے زائد نہےں ہوتا۔ےہی وجہ ہے کہ آج پسماندہ طبقات کے بےشتر طلبہ مہنگی گاڑےوں مےں ےونےورسٹی آتے ہےں جب کہ مسلم بچے پےٹ بھر کھانا بھی اس وظےفے سے حاصل نہےںکرسکتے۔
کانگرےس پارٹی نے مسلمانو ںکو اےک بار پھر ےرغمال بنانے کے لئے سےنٹرل مدرسہ بورڈ کے قےام کا شوشہ چھوڑا ہے، جو روز اول سے ہی تنازعات کا شکار ہے۔قطع نظر اس سے کہ مذکورہ بورڈ کے قےام سے مسلمانو ںکا فائدہ ہوگا ےا نقصان۔اتنا تو پوچھا ہی جا سکتا ہے کہ آپ نے ہمارے ان کالجوں کے لئے تو راستے بند کررکھے ہےں، جنہےں ہم نے اپنی زمےنوں پر اپنے پےسوں سے کھڑا کےا ہے اور منظوری کے لئے آپ کی توجہ کا انتظار ہے۔ملک کے اےک کونے سے دوسرے کونے تک تقرےباً بارہ سو اےسے مجوزہ کالج موجود ہےں جنہےں مسلم تنظےموں ےا شخصےات نے مسلم بچوں کی خےر خواہی اور بھلائی کےلئے قائم کےا ہے۔مگر حکومت کی جانب سے منظوری نہ ملنے کی وجہ سے اےسے تمام کالج مےں زےر تعلےم طلبہ کا مستقبل تارےک ہو رہا ہے۔اگر اس فہرست مےں اقلےتو ںکے اپنے پےسوں سے تعمےر ان اسکولوں کو بھی شامل کرلےا جائے جنہےں مسلم بچوں کے لئے مسلمانوں نے خود قائم کےا ہے مگر حکومت اسے منظوری دےنے پر آمادہ نہےں ہے تو ےہ تعداد کئی ہزار مےں ہوگی۔مدرسہ بورڈ کا سز باغ دکھانے والی حکومت کو ےہ سوچنا چاہئے کہ کےوں نہ ان تمام اداروں کو منظوری دیدی جائے جنہےں اقلےتی تنظےموں نے صرف اقلےتی طلبہ کے مستقبل کو سنوارنے کےلئے تےار کےا ہے،تاکہ مسلم بچوں کا مستقبل تارےک ہونے سے بچ جائے۔مگر حقےقت حال ےہ ہے کہ بورڈ کے قےام کی منشا مسلمانوں کی تباہ حالی پر ترس کھانا قطعاً نہےں ہے بلکہ اس کے ذرےعہ مدارس کے فضلا مےں اس نظرےے کا عام کردےنا ہے جو ہماری حکومت کو مغربی سامراج سے دےا گےا ہے۔اسرائےلی دوستی میں ساری دنےا سے آگے موجودہ ہندوستانی حکومت کی منشا ےہ ہے کہ اےسے مدارس ترتےب دے دئےے جائےں جہاں سے تےار ہونے والے ائمہ کو داڑھی سے دشمنی ہو ، غیراسلامی طرززنگی مرغوب ہواور ہر اس فکر کو عام کرنا ان کی زندگی کا مقصد بن جائے جو مغربی اقدار کی شان بڑھاتی ہو اور حکومت کی خوشنودی جس سے حاصل ہوتی ہو، چہ جائےکہ اس سے اسلام کی شبےہ بگڑ جائے اور معاشرہ اسلامی تہذےب سے نا آشنا ہو جائے۔جن صاحبان کو ےہ شکوہ ہے کہ مدارس بورڈ پر اعتراض کرنے والوں نے حکومت کے اس منشور کو نہےں پڑھا ہے جو مدرسہ کی تجدےد کاری کے تعلق سے حکومت نے ترتےب دی ہے تو انہےں جان لےنا چاہئے کہ دنےا کے کسی بھی منشور مےں اس آئےڈےل اور نظرےہ کو واضح نہےں کےا جاتا جو منشور کا اصل مقصد ہوتے ہےں بلکہ منشور مےں اےسی شقےں داخل کردی جاتی ہےں جو بذات خود مطلوبہ نظرےے کو تقوےت پہنچاتی ہوں۔ لہذا مدارس بور ڈ کا قےام سرکاری نظرےہ کو مدارس مےں داخل کرنے کا منصوبہ ہے نہ کہ مسلمانوں کی پسماندگی کو دور کرنے کا۔
Friday, October 9, 2009
सेक्स: हमेशा रहें जवां!
अक्सर शादी के कुछ समय बाद या बेबी होने के बाद कपल्स को सेक्स लाइफ में कुछ ठहराव सा महसूस होने लगता है। आइए हम आपको बताते हैं कुछ टिप्स , जिनकी मदद से आपकी सेक्स लाइफ हमेशा जवां रहेगी :
अपनी - अपनी फैंटसी
- केवल प्रचलित धारणाओं पर ही यकीन न करें। सेक्स में क्वॉन्टिटी से ज्यादा महत्वपूर्ण है इसकी क्वॉलिटी। अगर आप अपने पार्टनर के साथ ज्यादा से ज्यादा बार सेक्स करने की कोशिशों में जुटे हैं , तो हम आपको बता दें कि सच यह है कि एक सामान्य कपल हफ्ते में एक बार या इससे भी कम सेक्स करता है।- सेक्स से जुड़ी कई समस्याओं की वजह बेडरूम से बाहर भी हो सकती हैं। जो महिलाएं दिन में आराम कर पाती हैं। घर के कामों में दूसरों की मदद लेती हैं और बच्चों की सही देखभाल करती हैं , वे सेक्स में ज्यादा संतुष्ट रहती हैं। - महिलाओं की खराब बॉडी लैंग्वेज भी समस्या का कारण हो सकती है। अपना कॉन्फिडेंस बनाए रखें और सेक्स को पूरी तरह एंजॉय करें। चाहें तो वे खुद को फिट रखने के लिए ड्रामा या डांसिंग की क्लासेज अटेंड कर सकती हैं। - ज्यादातर महिलाएं शर्म की वजह से सेक्स को पूरी तरह एंजॉय नहीं कर पातीं। वे चाहकर भी पार्टनर के सामने अपनी इच्छाओं को एक्सप्रेस नहीं कर पातीं। आप चाहें , तो पहले बिना पार्टनर के रोमांटिक माहौल बनाकर अपनी इच्छाओं को जानें और फिर उन्हें पार्टनर के सामने एक्सप्रेस करें।
- आजकल कॉन्डम नए सेक्स टॉय के रूप में सामने आया है। ये न सिर्फ ज्यादा देर तक सेक्स एंजॉय करने में मदद करते हैं , बल्कि अलग - अलग फ्लेवर में उपलब्ध होने की वजह से कुछ चेंज का ऑप्शन देते हैं।
प्यार करते समय
- सेक्स के बारे में बात सिर्फ सेक्स करते समय ही न करें। हर वक्त सही वक्त होता है। जब भी आप दोनों के पास फुर्सत के पल हों , आप इस पर बात कर सकते हैं। - सेक्स और प्यार में अंतर समझिए। प्यार आगे बढ़ते - बढ़ते सेक्स तक पहुंच सकता है। कोशिश करें कि इंटरकोर्स के अलावा एक दूसरे को सहलाने और मसाज जैसी चीजों को भी अच्छा - खासा समय दें। - स्टडीज से साबित हुआ है कि अल्कोहल लेने और सिगरेट पीने से न सिर्फ पुरुषों , बल्कि महिलाओं में भी कामेच्छा कम होती है। - ज्यादा शराब या सिगरेट पीना न सिर्फ आपकी सेक्स लाइफ को बर्बाद कर सकता है , बल्कि नर्वस सिस्टम को भी नुकसान पहुंचाता है। इसलिए कोशिश कीजिए कि इन चीजों का सेवन कम से कम करें। - अक्सर न्यूली मैरिड कपल ऑर्गेजम को लेकर प्रेशर में रहते हैं। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि यह एक एक्सपीरियंस है ना कि कोई गोल। जरूरी नहीं है कि एक बार में दोनों पार्टनर ऑर्गेजम तक पहुंच जाएं। फिर भी अगर चाहते हैं कि लेडी पार्टनर ऑर्गेजम तक पहुंचे , तो सेक्स की शुरुआत से उसे एक्साइट करने की कोशिश करें। इससे उसे जल्दी आर्गेजम तक पहुंचने में आसानी होगी। - अगर आप फिजिकली और मेंटली दोनों तरह से फिट हैं , तभी अच्छी तरह सेक्स कर पाएंगे। इसलिए जरूरी है कि आप बेहतर डाइट के साथ रोजाना एक्सरसाइज व पूरी नींद लें। इस तरह आप सेक्स के दौरान बेहतर परफॉर्मेंस दे पाएंगे।
तन - मन दोनों से जुड़िए
- अपने पार्टनर के साथ शरीर के अलावा मन से भी जुड़ाव महसूस कीजिए। इससे आप सेक्स में अद्भुत आनंद अनुभव करेंगे। - सेक्सुअल ऐक्टिविटी के लिए ' एड्रनेलिन ' केमिकल बहुत जरूरी होता है। शरीर में इसकी मात्रा बढ़ाने की कोशिश कीजिए। अगर आप थके हुए या तनावग्रस्त हैं , तो अपनी पसंद का कोई काम कीजिए। मनपसंद मूवी देखिए या कॉफी का कप लेकर रिलैक्स कीजिए। - अक्सर लोग थकान की सोचकर सेक्स से कतराते हैं। जबकि सेक्स करने से थकान दूर होती है। फिर भी अगर आप काफी थके हुए हैं , पहले आराम और फिर सेक्स कीजिए। - अपने पार्टनर के साथ हर सेक्सुअल ऐक्टिविटी पर बात कीजिए। नए - नए ऐक्शंस के बारे में सोचिए। आप जितने ऐक्शंस की कल्पना कर सकते हैं , उन्हें एक कागज पर नोट करना अच्छा रहेगा। उसके बाद उनके आगे ओके , नॉट ओके और ट्राई लिखिए। कोशिश कीजिए की ओके वाले ऐक्शंस को आप रेग्युलर आजमाएं। - कई बार मन में फीलिंग आती है कि मैं सेक्सी नहीं लग रही हूं। इसके बावजूद आप सेक्स करना चाहती हैं , तो मन से ऐसी बातों को निकाल फेंकिए और निश्चिंत होकर सेक्स का मजा लीजिए।
बच्चे के बाद
- अगर आप पैरंट्स बन चुके हैं , तो आपकी सेक्स लाइफ और बेहतर हो जाती है। तमाम रिसर्च में सामने आया है कि एक बेबी होने के बाद नर्व्स ज्यादा ऐक्टिव हो जाती हैं और ऑर्गेजम की संभावना भी बढ़ जाती है। साथ ही बच्चा आपके बीच की इमोशनल फीलिंग्स को और मजबूत कर देता है , जिससे आप ज्यादा करीब आ जाते हैं। - ध्यान रहे , फोरप्ले किसी भी सेक्स रिलेशनशिप का सबसे जरूरी पार्ट है। अगर आप फोरप्ले के बाद सेक्स करते हैं , तो इसका मजा दोगुना हो जाएगा। - एक - दूसरे से बातचीत कीजिए। अक्सर यह देखा गया है कि अगर आप अपनी रिलेशनशिप के बारे में बात नहीं करते , तो यह जल्दी ही बोझिल रिश्ते में बदल जाता है। विश्वास कीजिए , यह तरीका आजमाने पर आपको जल्द चेंज नजर आएंगे। - कई पैरंट्स बच्चा होने के बाद सेक्स नहीं कर पाते। ऐसे में आपको इसे लेकर क्रेजी होना पड़ेगा। माना कि बच्चे के सामने सेक्स के कम मौके मिलते हैं , लेकिन समझदार पैरंट्स बच्चे के झपकी लेते वक्त भी एक - दूसरे को प्यार कर लेते हैं। - कभी भी सेक्स को रूटीन तरीके से ना करें। अगर सेक्स का पूरा लुत्फ उठाना चाहते हैं , तो जरूरी है कि आप कुछ ना कुछ एक्सपेरिमेंट करते रहें।
उनकी चाहत पहचानें
- महिलाओं को यह कतई पसंद नहीं होता कि पुरुष उनके शरीर के किसी एक अंग पर ध्यान फोकस करें। वह चाहती हैं कि आप उनकी पूरी बॉडी पर ध्यान दें। अगर आप ऐसा करते हैं , तो यकीन मानिए कि महिलाओं की ऑर्गेजम तक पहुंचने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। - अक्सर कुछ पुरुषों में पेनिस के साइज को लेकर हीन भावना होती है। ऐसे लोगों की जानकारी के लिए बता दें कि पेनिस का एवरेज साइज पांच इंच होता है। उससे भी बड़ी बात यह है कि महिलाओं की वेजाइना में सिर्फ तीन इंच गहराई तक ही सेंसिटिविटी होती है। अगर आप उससे ज्यादा अंदर जाते हैं , तो वह वेस्टेज ही है। इसलिए अगर किसी के पेनिस का साइज छोटा है , तो उसके पार्टनर को खुश कर पाने के ज्यादा चांस है। - सपने देखिए। अगर आप सेक्स करते वक्त किसी और के बारे में सोचते हैं , तो इसमें कोई नुकसान नहीं। इस तरह आप अपने सेक्सुअल एक्सपीरियंस को और ज्यादा बेहतर बना सकते हैं। - बढ़ती उम्र के साथ सेक्स पर विराम मत लगाइए। स्वयं को सेक्सुअली फिट रखना एक चैलेंज होता है , इसका सामना कीजिए। बढ़ती उम्र का सामना करने के लिए फोरप्ले का वक्त बढ़ाइये। साथ ही आप उन पलों को भी याद कर सकते हैं , जब आप पहली बार मिले थे। - सेक्स आप दोनों को ज्यादा करीब लाता है। इससे आपके और आपके पार्टनर के दिल जुड़ने में मदद मिलती है।
अपनी - अपनी फैंटसी
- केवल प्रचलित धारणाओं पर ही यकीन न करें। सेक्स में क्वॉन्टिटी से ज्यादा महत्वपूर्ण है इसकी क्वॉलिटी। अगर आप अपने पार्टनर के साथ ज्यादा से ज्यादा बार सेक्स करने की कोशिशों में जुटे हैं , तो हम आपको बता दें कि सच यह है कि एक सामान्य कपल हफ्ते में एक बार या इससे भी कम सेक्स करता है।- सेक्स से जुड़ी कई समस्याओं की वजह बेडरूम से बाहर भी हो सकती हैं। जो महिलाएं दिन में आराम कर पाती हैं। घर के कामों में दूसरों की मदद लेती हैं और बच्चों की सही देखभाल करती हैं , वे सेक्स में ज्यादा संतुष्ट रहती हैं। - महिलाओं की खराब बॉडी लैंग्वेज भी समस्या का कारण हो सकती है। अपना कॉन्फिडेंस बनाए रखें और सेक्स को पूरी तरह एंजॉय करें। चाहें तो वे खुद को फिट रखने के लिए ड्रामा या डांसिंग की क्लासेज अटेंड कर सकती हैं। - ज्यादातर महिलाएं शर्म की वजह से सेक्स को पूरी तरह एंजॉय नहीं कर पातीं। वे चाहकर भी पार्टनर के सामने अपनी इच्छाओं को एक्सप्रेस नहीं कर पातीं। आप चाहें , तो पहले बिना पार्टनर के रोमांटिक माहौल बनाकर अपनी इच्छाओं को जानें और फिर उन्हें पार्टनर के सामने एक्सप्रेस करें।
- आजकल कॉन्डम नए सेक्स टॉय के रूप में सामने आया है। ये न सिर्फ ज्यादा देर तक सेक्स एंजॉय करने में मदद करते हैं , बल्कि अलग - अलग फ्लेवर में उपलब्ध होने की वजह से कुछ चेंज का ऑप्शन देते हैं।
प्यार करते समय
- सेक्स के बारे में बात सिर्फ सेक्स करते समय ही न करें। हर वक्त सही वक्त होता है। जब भी आप दोनों के पास फुर्सत के पल हों , आप इस पर बात कर सकते हैं। - सेक्स और प्यार में अंतर समझिए। प्यार आगे बढ़ते - बढ़ते सेक्स तक पहुंच सकता है। कोशिश करें कि इंटरकोर्स के अलावा एक दूसरे को सहलाने और मसाज जैसी चीजों को भी अच्छा - खासा समय दें। - स्टडीज से साबित हुआ है कि अल्कोहल लेने और सिगरेट पीने से न सिर्फ पुरुषों , बल्कि महिलाओं में भी कामेच्छा कम होती है। - ज्यादा शराब या सिगरेट पीना न सिर्फ आपकी सेक्स लाइफ को बर्बाद कर सकता है , बल्कि नर्वस सिस्टम को भी नुकसान पहुंचाता है। इसलिए कोशिश कीजिए कि इन चीजों का सेवन कम से कम करें। - अक्सर न्यूली मैरिड कपल ऑर्गेजम को लेकर प्रेशर में रहते हैं। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि यह एक एक्सपीरियंस है ना कि कोई गोल। जरूरी नहीं है कि एक बार में दोनों पार्टनर ऑर्गेजम तक पहुंच जाएं। फिर भी अगर चाहते हैं कि लेडी पार्टनर ऑर्गेजम तक पहुंचे , तो सेक्स की शुरुआत से उसे एक्साइट करने की कोशिश करें। इससे उसे जल्दी आर्गेजम तक पहुंचने में आसानी होगी। - अगर आप फिजिकली और मेंटली दोनों तरह से फिट हैं , तभी अच्छी तरह सेक्स कर पाएंगे। इसलिए जरूरी है कि आप बेहतर डाइट के साथ रोजाना एक्सरसाइज व पूरी नींद लें। इस तरह आप सेक्स के दौरान बेहतर परफॉर्मेंस दे पाएंगे।
तन - मन दोनों से जुड़िए
- अपने पार्टनर के साथ शरीर के अलावा मन से भी जुड़ाव महसूस कीजिए। इससे आप सेक्स में अद्भुत आनंद अनुभव करेंगे। - सेक्सुअल ऐक्टिविटी के लिए ' एड्रनेलिन ' केमिकल बहुत जरूरी होता है। शरीर में इसकी मात्रा बढ़ाने की कोशिश कीजिए। अगर आप थके हुए या तनावग्रस्त हैं , तो अपनी पसंद का कोई काम कीजिए। मनपसंद मूवी देखिए या कॉफी का कप लेकर रिलैक्स कीजिए। - अक्सर लोग थकान की सोचकर सेक्स से कतराते हैं। जबकि सेक्स करने से थकान दूर होती है। फिर भी अगर आप काफी थके हुए हैं , पहले आराम और फिर सेक्स कीजिए। - अपने पार्टनर के साथ हर सेक्सुअल ऐक्टिविटी पर बात कीजिए। नए - नए ऐक्शंस के बारे में सोचिए। आप जितने ऐक्शंस की कल्पना कर सकते हैं , उन्हें एक कागज पर नोट करना अच्छा रहेगा। उसके बाद उनके आगे ओके , नॉट ओके और ट्राई लिखिए। कोशिश कीजिए की ओके वाले ऐक्शंस को आप रेग्युलर आजमाएं। - कई बार मन में फीलिंग आती है कि मैं सेक्सी नहीं लग रही हूं। इसके बावजूद आप सेक्स करना चाहती हैं , तो मन से ऐसी बातों को निकाल फेंकिए और निश्चिंत होकर सेक्स का मजा लीजिए।
बच्चे के बाद
- अगर आप पैरंट्स बन चुके हैं , तो आपकी सेक्स लाइफ और बेहतर हो जाती है। तमाम रिसर्च में सामने आया है कि एक बेबी होने के बाद नर्व्स ज्यादा ऐक्टिव हो जाती हैं और ऑर्गेजम की संभावना भी बढ़ जाती है। साथ ही बच्चा आपके बीच की इमोशनल फीलिंग्स को और मजबूत कर देता है , जिससे आप ज्यादा करीब आ जाते हैं। - ध्यान रहे , फोरप्ले किसी भी सेक्स रिलेशनशिप का सबसे जरूरी पार्ट है। अगर आप फोरप्ले के बाद सेक्स करते हैं , तो इसका मजा दोगुना हो जाएगा। - एक - दूसरे से बातचीत कीजिए। अक्सर यह देखा गया है कि अगर आप अपनी रिलेशनशिप के बारे में बात नहीं करते , तो यह जल्दी ही बोझिल रिश्ते में बदल जाता है। विश्वास कीजिए , यह तरीका आजमाने पर आपको जल्द चेंज नजर आएंगे। - कई पैरंट्स बच्चा होने के बाद सेक्स नहीं कर पाते। ऐसे में आपको इसे लेकर क्रेजी होना पड़ेगा। माना कि बच्चे के सामने सेक्स के कम मौके मिलते हैं , लेकिन समझदार पैरंट्स बच्चे के झपकी लेते वक्त भी एक - दूसरे को प्यार कर लेते हैं। - कभी भी सेक्स को रूटीन तरीके से ना करें। अगर सेक्स का पूरा लुत्फ उठाना चाहते हैं , तो जरूरी है कि आप कुछ ना कुछ एक्सपेरिमेंट करते रहें।
उनकी चाहत पहचानें
- महिलाओं को यह कतई पसंद नहीं होता कि पुरुष उनके शरीर के किसी एक अंग पर ध्यान फोकस करें। वह चाहती हैं कि आप उनकी पूरी बॉडी पर ध्यान दें। अगर आप ऐसा करते हैं , तो यकीन मानिए कि महिलाओं की ऑर्गेजम तक पहुंचने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। - अक्सर कुछ पुरुषों में पेनिस के साइज को लेकर हीन भावना होती है। ऐसे लोगों की जानकारी के लिए बता दें कि पेनिस का एवरेज साइज पांच इंच होता है। उससे भी बड़ी बात यह है कि महिलाओं की वेजाइना में सिर्फ तीन इंच गहराई तक ही सेंसिटिविटी होती है। अगर आप उससे ज्यादा अंदर जाते हैं , तो वह वेस्टेज ही है। इसलिए अगर किसी के पेनिस का साइज छोटा है , तो उसके पार्टनर को खुश कर पाने के ज्यादा चांस है। - सपने देखिए। अगर आप सेक्स करते वक्त किसी और के बारे में सोचते हैं , तो इसमें कोई नुकसान नहीं। इस तरह आप अपने सेक्सुअल एक्सपीरियंस को और ज्यादा बेहतर बना सकते हैं। - बढ़ती उम्र के साथ सेक्स पर विराम मत लगाइए। स्वयं को सेक्सुअली फिट रखना एक चैलेंज होता है , इसका सामना कीजिए। बढ़ती उम्र का सामना करने के लिए फोरप्ले का वक्त बढ़ाइये। साथ ही आप उन पलों को भी याद कर सकते हैं , जब आप पहली बार मिले थे। - सेक्स आप दोनों को ज्यादा करीब लाता है। इससे आपके और आपके पार्टनर के दिल जुड़ने में मदद मिलती है।
Tuesday, October 6, 2009
وہ کیادے گاچھین لینا جس کامذہب ہے
سچ بول دوں۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔ میم ضاد فضلی
جمہوری نظام حکومت مےں ووٹو ںکی اہمےت کی وجہ سے سےاسی جماعتوںکی تمام ترتوجہ وہ عوامی مسائل ےا پہلو ہوا کرتے ہےںجس سے ووٹ بےنک مےں اضافہ ہو اور پروانہ وار رائے دہندگان کا رےوڑ ان کی طرف بھاگا چلاآئے۔یہاں عوامی فلاح و بہبود سے زےادہ ذاتی مفادات مرغوب و مقصود ہوتے ہےں۔قابل غور ہے کہ سےاسی مفادات کو ذہن مےں رکھ کر عمل مےں لائے جانے والی اسکےمےں اکثر و بےشترتنازعات کا شکار ہو جاتی ہےں۔جس کا بڑا نقصان ےہ ہوتا ہے کہ ان اسکےموں کے مثبت پہلو سے بھی وہ فوائد حاصل نہےں ہو پاتے جو کسی نہ کسی طرح مقصود ہوتے ہےں۔مگر سےاسی جماعتوں کو اپنے اپنے طو رپر کہےں عوام کو ورغلانے تو کہےں اپنے قرےب کرنے کا فائدہ ضرور مل جاتا ہے۔سچر سفارشات کے بعد ےوپی اے مےں ترتےب دئےے جانے والے سےنٹرل مدرسہ بورڈ کو بھی اسی تناظر مےں دےکھا جاسکتا ہے۔کانگرےس کےلئے روز اول سے مسلمانو ںکے مفادات سے زےادہ ان کے ووٹ زےادہ توجہ کا طالب رہے ہےں۔ اس سلسلے مےں کم و بےش دوسری جماعتوںکی کارکردگی بھی مسلمانوں کےساتھ بہت زےادہ مختلف نہےں رہی ہے۔انہےں بھی مسلمانو ںکے ووٹوں کی جب تک ضرورت رہی ان کے مفاد اور فلاح و ترقی کی باتےں ان کی زبانوںپر تی رہی، مگر جےسے ہی ان جماعتوں کوسےاسی مفاد حاصل ہو گےا، مسلمان ان کے لئے متاع بے حےثےت قرار دے دئےے گئے۔
مثال کے طو رپر آرجے ڈی سپرےمو لالو پرشاد کو ہی لے لےجئے، لالوجی اپنے سےاسی مفادات کے حصول کےلئے 15برسوں تک رےاست بہار مےں مسلمانو ںکی زبوں حالی پر دکھاوے کا ناٹک کر کے رجھاتے رہے، جس سے انہےں وہ تمام مقاصدتو حاصل ہوگئے۔ جس کےلئے انہو ںنے بہروپئے کا روپ اختےار کرلےا تھا۔15برس کے آرجے ڈی کے دور اقتدار مےں مسلمانوں کی غربت پر اشک بہانے والے ےہ لےڈر اور ان کے مصاحبےن مالا مال ہوتے رہے وہ زمےن سے آسمان کی بلندی سرکرنے مےں کامےاب ہو گئے مگر رےاست کے تقرےباً 27فےصد مسلمانوں کی حالت لمحہ بھر کے لئے بھی نہےں بدلی،وہ جہاں تھے اس سے بھی نےچے دھنستے رہے۔مگر کےا کےجئے گا کہ جمہوریت مےں سےاست اسی کا نام ہے۔ےہاں
لےڈرو ںکی تمام سرگرمےاں ان کے سےاسی مقاصد کے حصول کے لئے وقف رہتی ہےں نہ کہ عوام الناس کو ترقےات سے سرفراز کرنے کے لئے۔اگرلالویادوکو مسلمانو ںکی زبو ںحالی اور مظلومےت کا حقےقی احساس ہوتا اور مسلمانو ںکےلئے ان کے ذہن و فکر مےں کہےں ہمدردی کا جذبہ ہوتا تو وہ 1987ءمےںبہار مدرسہ بورڈ کے ذرےعہ ملحق کئے گئے 2987مدارس کو منظور کر کے کم از کم دس ہزار مسلمانو ں اور مدارس کے فضلا ءکو روزگارمہےا کراسکتے تھے۔ےہ تو اےک مثال ہے۔تقرےباً تمام سےاسی جماعتو ںکے سربراہان، لےڈران اور ان کی حکومتو ںکا مسلمانوں کے ساتھ ےہی سلوک رہا ہے۔ان کے ذرےعہ وجود مےں لائے جانے والے تمام منصوبے کا ماحصل سےاسی مفادات رہے ہےں۔انہےں اس سے کبھی بھی سرورکار نہےں رہا کہ مسلمانوں ےادےگر اقلےتوں کی خوشحالی درحقےقت کن اسکےموں اور منصوبوںمےں مضمر ہےں۔ان دنوں ےوپی اے پر بھی مسلمانوں کو آسمان کی سےر کرانے کا بھوت سوار ہو چکا ہے، جسے مسلمانوں کو ووٹ بےنک سے زےادہ کوئی اہمےت نہےںدےنی چاہئے۔اس کی وجہ ےہ ہے کہ ےہ مدارس خالص دےنی ادارے ہےں۔ ان کے قےام کا مقصد دنےا کی منفعت سے زےادہ آخرت کی سرخروئی اورمسلم معاشرے کی اسلامی تربےت رہی ہے۔تارےخ شاہد ہے کہ جن مدارس نے بھی اپنے اصلی مقاصد سے انحراف کی کوشش کی وہ مدارس نہےں رہے بلکہ ان کی مثال اس مظلوم طوطے جےسی ہو گئی جس کی چونچ کاٹ دی گئی تھی اور اس کے پر کی تمام سبز تےلےاں نوچ کر پھےنک دی گئی تھیں،پھر بھی اس طوطے کا سوداگر سربازار ےہ بتاتا پھر رہا تھا کہ مےں انسانوں کی بولی سمجھنے والا طوطا بےچ رہا ہوں۔ہم اس ضمن مےں جماعت اسلامی کے ان ادارو ںکا ذکر بھی کرسکتے ہےں جنہےں بانی¿ جماعت شےخ ابوالاعلیٰ مودودی ؒنے دےن کی بقا کی بنےاد قرار دےا تھا۔ ان کے پےشروﺅں نے بعد مےں ان اداروں کی حےثےت ےوں بگاڑی کہ ان کے کاموں کے ساتھ نام بھی بدلتے چلے گئے۔ہمےں ےاد آتا ہے دربھنگہ کا درسگاہ اسلامی،جسے اسلامی تعلےم کے لئے قدر کی نگاہوں سے دےکھا جاتا تھا مگر دنےا کی آمےزش نے اس سے وہ خصوصےت چھےن لی جو درسگاہ اسلامی کی خاص پہچان تھی۔بالآخر اےک دن اےساآیاکہ درسگاہ اسلامی کا نام بھی اس کے دروازے سے کھرچ دےا گےا اور اس کاانگریزی نام ”ےونےورسل اکےڈمی“ کنداں کردےا گےا۔
ہندوستان مےں مدارس کی اہمےت وضرورت کے حوالے سے مفکر اسلام ڈاکٹر علامہ اقبال ؒنے فرماےا تھا کہ ان مدارس کو ان کی حالت پر چھوڑ دو، اگر اس مےں تغےر و تبدےلی لا کر اس کی ہےئت و صورت بدل دی گئی تو اسلام کا ہندوستان مےں بھی وہی حشر ہوگا جو مےں ےوروپ و امرےکہ اور اسپےن مےں دےکھ آےا ہوں۔ےہ بات ہمےشہ ملحوظ نظر رہنی چاہئے کہ مدارس کے قےام کا مقصد دنےا بالکل بھی نہےں ہے ،بلکہ ان اداروں کی حےثےت اس پاسبان کی ہے جو پوری رعاےا کے سو جانے کے بعد اس کی رکھوالی مےں اپنی آنکھےں جلاتا رہتا ہے۔تجربات و مشاہدات اس بات کے شاہد ہےں کہ سرکاری اداروں مےں اسلامیات پڑھنے والے طلبہ نے قابلےت تو پےدا ضرور کرلی،غرور علم مےں انہو ںنے دفتر کے دفتر سےاہ کردئےے اور دنےا کے کلےجے پر اپنے علم کا سکّہ جمانے پر ان کے قلم کو داد عےش بھی ملی، مگر مساجد آباد کرنے والے ان اداروں سے شاےد ہی کبھی پےدا ہوئے۔کالج سے اسلامےات کا درس لےنے والے اپنے قلم کے زور پر منبع علم کہلانے مےں کامےاب ہو گئے مگر اسلام کی ڈوبتی کشتی کو پار لگانے والوں کی صف مےں وہ کہےں بھی نظر نہےں آئے۔جب کبھی اسلام اور حکومت کے درمےان کسی مذہبی معاملہ پر معرکہ آرائی کی نوبت آئی، سرکاری کالج کے اسلامی تربےت ےافتہ حکومت کے موقف کی تائےد کرنے والوں کی صف مےں پےش پےش رہے۔اس کے برعکس مدارس کے ےہی بورےا نشےں اپنی بے بضاعتی اور کسمپرسی کے باوجود پےٹ پر پتھر باندھ کر سربکف اسلام کی تعلےم کو سربلند رکھنے کے لئے مصائب سے نبردآزما رہے۔
ےہ امر بھی قابل توجہ ہے کہ جہا ںجہاں بھی دےنی مدارس سرکار کے اثر و رسوخ مےں آئے وہا ںسے دےن خاموشی سے رخصت ہو گےا۔ان ادارو ںمےں نہ دےن کی کوئی رمق باقی رہی، نہ اسلام کی سربلندی کے لئے اپنی زندگی کھپانے والوں کی جماعت۔سچر کمےٹی والوں کو شاےد اس بات کا پتہ نہ ہو کہ ےہ چار فےصد بچے جو دےنی مدارس مےں قال اللہ اور قال الرسول کا درس لے رہے ہےں ےہ ہمارے معاشرے کی نگاہ مےں آسمان کے فرشتوں سے بھی زےادہ محترم اور مقدس ہےں۔ہم انہےںسرکار کی تحوےل مےں دے کر اپنے معاشرے کو دےن سے جدا کردےنے کا تصور بھی نہےں کرسکتے۔تجربات شاہد ہےں کہ جہاں جہاں بورڈ کے مدارس قائم ہےں،ان سے ملحق مدارس مےں علم اور دےن کا تصور ہمےشہ کے لئے رخصت ہو چکا ہے۔باصلاحےت اور اہل حاملےن علم نبوت کو ان اداروں مےں محض اس لئے مواقع نہےں مل سکے کہ ان کی مٹھےاں سبز نوٹوں سے خالی تھےں۔اس کے برعکس ان سرکاری اداروں مےں پےسوں کی بنےا دپر علم سے کوڑے سماج سے نکالے ہوئے ان افراد کا قبضہ ہو گےا، جنہےں دےن و اےمان ،کلمہ اور قرآن سے زےادہ متاع دنےا عزےز تھی۔اس وقت ہندوستان کی تقرےباً 8رےاستوں مےں سرکار کے زےر انتظام مدارس بورڈ کام کررہے ہےں مگر آپ خود مشاہدہ کرلےجئے ان مدارس مےں اہل اللہ اور دےن اسلام کی سربلندی کے لئے کُڑھنے اورتڑپنے والوں کی مسندےں آراستہ ہےں ےا اپنی دنےا سجانے والوں کی؟جن لوگو ںکو مدارس بورڈ کے مخالفےن پر ےہ اعتراض ہے کہ ان لوگو ںکے اختلاف کی وجہ مدارس کے چندے مےں خرد برد کا انکشاف ہوجانے کا خوف ہے، انہےں جان لےنا چاہئے کہ ےہ دےنی ادارے سرکاری مدارس کے خرد برد کے مقابلے مےں آٹے مےں نمک برابر بھی نہےں ہو سکتے۔اترپردےش سے بنگال تک کا سفر کرلےجئے۔ سےکڑوں بورڈ کے مدارس اےسے ہےں جہاں صدر مدرس سے لے کر اےک ادنیٰ ملازم تک وہی ہو سکتا ہے جو مدرسہ کی کمےٹی کے ذمہ دارو ں کا عزےز و اقارب ہو۔اس کے برعکس ان مدارس مےں جو سرکار کی مداخلت سے آزاد ہےں وہاں منصب کے لئے تو اقربا کو فوقےت ہو سکتی ہے مگر تعلےم کے لئے رشتہ دارےاں نہےں دےکھی جاتیں۔وہاں انہےں افراد کو مواقع ملتے ہےں جن کے اندر دےن کا پختہ علم اور پڑھانے کا عملی تجربہ ہو۔مگر سرکار کی تحوےل مےں جانے کے بعد پڑھانے والوں مےں صلاحےتےں نہےں دےکھی جائےں گی وہاں تو پےسو ںکی بنےاد پر جاہلوں کی کھےپ مدارس مےں داخل کردی جائےں گی۔لہذا حکومت کو مدارس کے سلسلے مےں کوئی بھی قدم اٹھانے سے پہلے صلاح و مشورہ کے لئے مدارس کے ان بورےاں نشےنوں کو دعوت دےنی چاہئے جن کی زندگی کا مقصد دےن کی سربلندی ہے نہ کہ نام نہاد مسلم ممبران پارلےمنٹ کوجنہےں ےہ بھی معلوم نہےں کہ مدارس کے قےام کا مقصد کےا ہے؟
قابل غور ہے کہ جو کانگرےس مسلمانوں کاحق چھےن لےنے مےں ےقےن رکھتی ہووہ مسلمانو ںپر اپنے مفاد کے علاوہ کےا نوازش کرسکتی ہے؟اگر کپل سبل ےا کانگرےس کے دےگر لےڈران کے دلوں مےں مسلمانوںکے لئے حقےقی ہمدردی ہے تو انہےں وہ ادارے مسلمانوںکے حوالے کردےنے چاہئےں جو کانگرےس نے بدقسمتی سے مسلمانو ںسے چھےن لےا ہے۔ہم بات کررہے ہےں علی گڑھ مسلم ےونےورسٹی اور جامعہ ملےہ کے اقلےتی کردار کی۔ہمےں سوچنا ہوگا کہ جو کانگرےس ہماری بنی بنائی درسگاہ کو ظلماً چھےن لےتی ہو وہ ہمیں دے کر خوشی کےسے محسوس کرےگی۔ لہذا مدرسہ بورڈ کے پروپےگنڈے کو سےاسی منفعت کے حصول سے زےادہ کوئی نام نہےں دےا جاسکتا۔qq
موبائل: 09312017945
جمہوری نظام حکومت مےں ووٹو ںکی اہمےت کی وجہ سے سےاسی جماعتوںکی تمام ترتوجہ وہ عوامی مسائل ےا پہلو ہوا کرتے ہےںجس سے ووٹ بےنک مےں اضافہ ہو اور پروانہ وار رائے دہندگان کا رےوڑ ان کی طرف بھاگا چلاآئے۔یہاں عوامی فلاح و بہبود سے زےادہ ذاتی مفادات مرغوب و مقصود ہوتے ہےں۔قابل غور ہے کہ سےاسی مفادات کو ذہن مےں رکھ کر عمل مےں لائے جانے والی اسکےمےں اکثر و بےشترتنازعات کا شکار ہو جاتی ہےں۔جس کا بڑا نقصان ےہ ہوتا ہے کہ ان اسکےموں کے مثبت پہلو سے بھی وہ فوائد حاصل نہےں ہو پاتے جو کسی نہ کسی طرح مقصود ہوتے ہےں۔مگر سےاسی جماعتوں کو اپنے اپنے طو رپر کہےں عوام کو ورغلانے تو کہےں اپنے قرےب کرنے کا فائدہ ضرور مل جاتا ہے۔سچر سفارشات کے بعد ےوپی اے مےں ترتےب دئےے جانے والے سےنٹرل مدرسہ بورڈ کو بھی اسی تناظر مےں دےکھا جاسکتا ہے۔کانگرےس کےلئے روز اول سے مسلمانو ںکے مفادات سے زےادہ ان کے ووٹ زےادہ توجہ کا طالب رہے ہےں۔ اس سلسلے مےں کم و بےش دوسری جماعتوںکی کارکردگی بھی مسلمانوں کےساتھ بہت زےادہ مختلف نہےں رہی ہے۔انہےں بھی مسلمانو ںکے ووٹوں کی جب تک ضرورت رہی ان کے مفاد اور فلاح و ترقی کی باتےں ان کی زبانوںپر تی رہی، مگر جےسے ہی ان جماعتوں کوسےاسی مفاد حاصل ہو گےا، مسلمان ان کے لئے متاع بے حےثےت قرار دے دئےے گئے۔
مثال کے طو رپر آرجے ڈی سپرےمو لالو پرشاد کو ہی لے لےجئے، لالوجی اپنے سےاسی مفادات کے حصول کےلئے 15برسوں تک رےاست بہار مےں مسلمانو ںکی زبوں حالی پر دکھاوے کا ناٹک کر کے رجھاتے رہے، جس سے انہےں وہ تمام مقاصدتو حاصل ہوگئے۔ جس کےلئے انہو ںنے بہروپئے کا روپ اختےار کرلےا تھا۔15برس کے آرجے ڈی کے دور اقتدار مےں مسلمانوں کی غربت پر اشک بہانے والے ےہ لےڈر اور ان کے مصاحبےن مالا مال ہوتے رہے وہ زمےن سے آسمان کی بلندی سرکرنے مےں کامےاب ہو گئے مگر رےاست کے تقرےباً 27فےصد مسلمانوں کی حالت لمحہ بھر کے لئے بھی نہےں بدلی،وہ جہاں تھے اس سے بھی نےچے دھنستے رہے۔مگر کےا کےجئے گا کہ جمہوریت مےں سےاست اسی کا نام ہے۔ےہاں
لےڈرو ںکی تمام سرگرمےاں ان کے سےاسی مقاصد کے حصول کے لئے وقف رہتی ہےں نہ کہ عوام الناس کو ترقےات سے سرفراز کرنے کے لئے۔اگرلالویادوکو مسلمانو ںکی زبو ںحالی اور مظلومےت کا حقےقی احساس ہوتا اور مسلمانو ںکےلئے ان کے ذہن و فکر مےں کہےں ہمدردی کا جذبہ ہوتا تو وہ 1987ءمےںبہار مدرسہ بورڈ کے ذرےعہ ملحق کئے گئے 2987مدارس کو منظور کر کے کم از کم دس ہزار مسلمانو ں اور مدارس کے فضلا ءکو روزگارمہےا کراسکتے تھے۔ےہ تو اےک مثال ہے۔تقرےباً تمام سےاسی جماعتو ںکے سربراہان، لےڈران اور ان کی حکومتو ںکا مسلمانوں کے ساتھ ےہی سلوک رہا ہے۔ان کے ذرےعہ وجود مےں لائے جانے والے تمام منصوبے کا ماحصل سےاسی مفادات رہے ہےں۔انہےں اس سے کبھی بھی سرورکار نہےں رہا کہ مسلمانوں ےادےگر اقلےتوں کی خوشحالی درحقےقت کن اسکےموں اور منصوبوںمےں مضمر ہےں۔ان دنوں ےوپی اے پر بھی مسلمانوں کو آسمان کی سےر کرانے کا بھوت سوار ہو چکا ہے، جسے مسلمانوں کو ووٹ بےنک سے زےادہ کوئی اہمےت نہےںدےنی چاہئے۔اس کی وجہ ےہ ہے کہ ےہ مدارس خالص دےنی ادارے ہےں۔ ان کے قےام کا مقصد دنےا کی منفعت سے زےادہ آخرت کی سرخروئی اورمسلم معاشرے کی اسلامی تربےت رہی ہے۔تارےخ شاہد ہے کہ جن مدارس نے بھی اپنے اصلی مقاصد سے انحراف کی کوشش کی وہ مدارس نہےں رہے بلکہ ان کی مثال اس مظلوم طوطے جےسی ہو گئی جس کی چونچ کاٹ دی گئی تھی اور اس کے پر کی تمام سبز تےلےاں نوچ کر پھےنک دی گئی تھیں،پھر بھی اس طوطے کا سوداگر سربازار ےہ بتاتا پھر رہا تھا کہ مےں انسانوں کی بولی سمجھنے والا طوطا بےچ رہا ہوں۔ہم اس ضمن مےں جماعت اسلامی کے ان ادارو ںکا ذکر بھی کرسکتے ہےں جنہےں بانی¿ جماعت شےخ ابوالاعلیٰ مودودی ؒنے دےن کی بقا کی بنےاد قرار دےا تھا۔ ان کے پےشروﺅں نے بعد مےں ان اداروں کی حےثےت ےوں بگاڑی کہ ان کے کاموں کے ساتھ نام بھی بدلتے چلے گئے۔ہمےں ےاد آتا ہے دربھنگہ کا درسگاہ اسلامی،جسے اسلامی تعلےم کے لئے قدر کی نگاہوں سے دےکھا جاتا تھا مگر دنےا کی آمےزش نے اس سے وہ خصوصےت چھےن لی جو درسگاہ اسلامی کی خاص پہچان تھی۔بالآخر اےک دن اےساآیاکہ درسگاہ اسلامی کا نام بھی اس کے دروازے سے کھرچ دےا گےا اور اس کاانگریزی نام ”ےونےورسل اکےڈمی“ کنداں کردےا گےا۔
ہندوستان مےں مدارس کی اہمےت وضرورت کے حوالے سے مفکر اسلام ڈاکٹر علامہ اقبال ؒنے فرماےا تھا کہ ان مدارس کو ان کی حالت پر چھوڑ دو، اگر اس مےں تغےر و تبدےلی لا کر اس کی ہےئت و صورت بدل دی گئی تو اسلام کا ہندوستان مےں بھی وہی حشر ہوگا جو مےں ےوروپ و امرےکہ اور اسپےن مےں دےکھ آےا ہوں۔ےہ بات ہمےشہ ملحوظ نظر رہنی چاہئے کہ مدارس کے قےام کا مقصد دنےا بالکل بھی نہےں ہے ،بلکہ ان اداروں کی حےثےت اس پاسبان کی ہے جو پوری رعاےا کے سو جانے کے بعد اس کی رکھوالی مےں اپنی آنکھےں جلاتا رہتا ہے۔تجربات و مشاہدات اس بات کے شاہد ہےں کہ سرکاری اداروں مےں اسلامیات پڑھنے والے طلبہ نے قابلےت تو پےدا ضرور کرلی،غرور علم مےں انہو ںنے دفتر کے دفتر سےاہ کردئےے اور دنےا کے کلےجے پر اپنے علم کا سکّہ جمانے پر ان کے قلم کو داد عےش بھی ملی، مگر مساجد آباد کرنے والے ان اداروں سے شاےد ہی کبھی پےدا ہوئے۔کالج سے اسلامےات کا درس لےنے والے اپنے قلم کے زور پر منبع علم کہلانے مےں کامےاب ہو گئے مگر اسلام کی ڈوبتی کشتی کو پار لگانے والوں کی صف مےں وہ کہےں بھی نظر نہےں آئے۔جب کبھی اسلام اور حکومت کے درمےان کسی مذہبی معاملہ پر معرکہ آرائی کی نوبت آئی، سرکاری کالج کے اسلامی تربےت ےافتہ حکومت کے موقف کی تائےد کرنے والوں کی صف مےں پےش پےش رہے۔اس کے برعکس مدارس کے ےہی بورےا نشےں اپنی بے بضاعتی اور کسمپرسی کے باوجود پےٹ پر پتھر باندھ کر سربکف اسلام کی تعلےم کو سربلند رکھنے کے لئے مصائب سے نبردآزما رہے۔
ےہ امر بھی قابل توجہ ہے کہ جہا ںجہاں بھی دےنی مدارس سرکار کے اثر و رسوخ مےں آئے وہا ںسے دےن خاموشی سے رخصت ہو گےا۔ان ادارو ںمےں نہ دےن کی کوئی رمق باقی رہی، نہ اسلام کی سربلندی کے لئے اپنی زندگی کھپانے والوں کی جماعت۔سچر کمےٹی والوں کو شاےد اس بات کا پتہ نہ ہو کہ ےہ چار فےصد بچے جو دےنی مدارس مےں قال اللہ اور قال الرسول کا درس لے رہے ہےں ےہ ہمارے معاشرے کی نگاہ مےں آسمان کے فرشتوں سے بھی زےادہ محترم اور مقدس ہےں۔ہم انہےںسرکار کی تحوےل مےں دے کر اپنے معاشرے کو دےن سے جدا کردےنے کا تصور بھی نہےں کرسکتے۔تجربات شاہد ہےں کہ جہاں جہاں بورڈ کے مدارس قائم ہےں،ان سے ملحق مدارس مےں علم اور دےن کا تصور ہمےشہ کے لئے رخصت ہو چکا ہے۔باصلاحےت اور اہل حاملےن علم نبوت کو ان اداروں مےں محض اس لئے مواقع نہےں مل سکے کہ ان کی مٹھےاں سبز نوٹوں سے خالی تھےں۔اس کے برعکس ان سرکاری اداروں مےں پےسوں کی بنےا دپر علم سے کوڑے سماج سے نکالے ہوئے ان افراد کا قبضہ ہو گےا، جنہےں دےن و اےمان ،کلمہ اور قرآن سے زےادہ متاع دنےا عزےز تھی۔اس وقت ہندوستان کی تقرےباً 8رےاستوں مےں سرکار کے زےر انتظام مدارس بورڈ کام کررہے ہےں مگر آپ خود مشاہدہ کرلےجئے ان مدارس مےں اہل اللہ اور دےن اسلام کی سربلندی کے لئے کُڑھنے اورتڑپنے والوں کی مسندےں آراستہ ہےں ےا اپنی دنےا سجانے والوں کی؟جن لوگو ںکو مدارس بورڈ کے مخالفےن پر ےہ اعتراض ہے کہ ان لوگو ںکے اختلاف کی وجہ مدارس کے چندے مےں خرد برد کا انکشاف ہوجانے کا خوف ہے، انہےں جان لےنا چاہئے کہ ےہ دےنی ادارے سرکاری مدارس کے خرد برد کے مقابلے مےں آٹے مےں نمک برابر بھی نہےں ہو سکتے۔اترپردےش سے بنگال تک کا سفر کرلےجئے۔ سےکڑوں بورڈ کے مدارس اےسے ہےں جہاں صدر مدرس سے لے کر اےک ادنیٰ ملازم تک وہی ہو سکتا ہے جو مدرسہ کی کمےٹی کے ذمہ دارو ں کا عزےز و اقارب ہو۔اس کے برعکس ان مدارس مےں جو سرکار کی مداخلت سے آزاد ہےں وہاں منصب کے لئے تو اقربا کو فوقےت ہو سکتی ہے مگر تعلےم کے لئے رشتہ دارےاں نہےں دےکھی جاتیں۔وہاں انہےں افراد کو مواقع ملتے ہےں جن کے اندر دےن کا پختہ علم اور پڑھانے کا عملی تجربہ ہو۔مگر سرکار کی تحوےل مےں جانے کے بعد پڑھانے والوں مےں صلاحےتےں نہےں دےکھی جائےں گی وہاں تو پےسو ںکی بنےاد پر جاہلوں کی کھےپ مدارس مےں داخل کردی جائےں گی۔لہذا حکومت کو مدارس کے سلسلے مےں کوئی بھی قدم اٹھانے سے پہلے صلاح و مشورہ کے لئے مدارس کے ان بورےاں نشےنوں کو دعوت دےنی چاہئے جن کی زندگی کا مقصد دےن کی سربلندی ہے نہ کہ نام نہاد مسلم ممبران پارلےمنٹ کوجنہےں ےہ بھی معلوم نہےں کہ مدارس کے قےام کا مقصد کےا ہے؟
قابل غور ہے کہ جو کانگرےس مسلمانوں کاحق چھےن لےنے مےں ےقےن رکھتی ہووہ مسلمانو ںپر اپنے مفاد کے علاوہ کےا نوازش کرسکتی ہے؟اگر کپل سبل ےا کانگرےس کے دےگر لےڈران کے دلوں مےں مسلمانوںکے لئے حقےقی ہمدردی ہے تو انہےں وہ ادارے مسلمانوںکے حوالے کردےنے چاہئےں جو کانگرےس نے بدقسمتی سے مسلمانو ںسے چھےن لےا ہے۔ہم بات کررہے ہےں علی گڑھ مسلم ےونےورسٹی اور جامعہ ملےہ کے اقلےتی کردار کی۔ہمےں سوچنا ہوگا کہ جو کانگرےس ہماری بنی بنائی درسگاہ کو ظلماً چھےن لےتی ہو وہ ہمیں دے کر خوشی کےسے محسوس کرےگی۔ لہذا مدرسہ بورڈ کے پروپےگنڈے کو سےاسی منفعت کے حصول سے زےادہ کوئی نام نہےں دےا جاسکتا۔qq
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